वाणी नं. 40:-
गरीब, नाम जलंधर कूं लिया, पारा ऋषि प्रवान। धन सतगुरु दाता धनी, दई बंदगी दान।।40।।
भावार्थ:– जलन्धर नाथ तथा ऋषि पारासर ने भी भक्ति की। उनको स्वर्ग स्थान ही मिला। परंतु मुझे पूर्ण सतगुरू मिले हैं जिन्होंने भक्ति-बंदगी दान दी यानि अपनी कृपा से स्वयं मेरे पास प्रकट होकर दीक्षा दी।
वाणी नं. 41:-
गरीब, गगन मंडल में रहत है, अविनाशी आप अलेख। जुगन जुगन सतसंग है, धरि धरि खेले भेख।।41।।
भावार्थ:– जैसा कि ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27, मण्डल नं. 9 सूक्त 82 मंत्र 1.2, मण्डल नं. 9 सूक्त 54 मंत्र 3, मण्डल नं. 9 सूक्त 96 मंत्र 16.20, मण्डल नं. 9 सूक्त 94 मंत्र 2, मण्डल नं. 9 सूक्त 95 मंत्र 1, मण्डल नं. 9 सूक्त 20 मंत्र 1 में कहा है कि परमेश्वर आकाश में सर्व भुवनों (लोकों) के ऊपर के लोक में तीसरे भाग में विराजमान है। वहाँ से चलकर पृथ्वी पर आता है। अपने रूप को सरल करके यानि अन्य वेश में हल्के तेजयुक्त शरीर में पृथ्वी पर प्रकट होता है। अच्छी आत्माओं को यथार्थ आध्यात्म ज्ञान देने के लिए आता है। अपनी वाक (वाणी) द्वारा ज्ञान बताकर भक्ति करने की प्रेरणा करता है। कवियों की तरह आचरण करता हुआ विचरण करता है। अपनी महिमा के ज्ञान को कवित्व से यानि दोहों, शब्दों, चैपाईयों के माध्यम से बोलता है। जिस कारण से प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। यही प्रमाण संत गरीबदास जी ने इस अमृतवाणी में दिया है कि परमेश्वर गगन मण्डल यानि आकाश खण्ड (सच्चखण्ड) में रहता है। वह अविनाशी है, अलेख जिसको सामान्य दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। सामान्य व्यक्ति उनकी महिमा का उल्लेख नहीं कर सकता। वह वहाँ से चलकर आता है। प्रत्येक युग में प्रकट होता है। भिन्न-भिन्न वेश बनाकर सत्संग करता है यानि तत्त्वज्ञान के प्रवचन सुनाता है। कबीर जी ने बताया है कि:-
सतयुग में सत सुकृत कह टेरा, त्रोता नाम मुनीन्द्र मेरा।
द्वापर में करूणामय कहाया, कलयुग नाम कबीर धराया।।
गरीब, सतगुरू पुरूष कबीर हैं, चारों युग प्रवान। झूठे गुरूवा मर गए, हो गए भूत मसान।।
(राग बिलावल का शब्द नं. 25 पढ़ें, भक्ति की अजब प्रेरणा है।)
कर साहिब की भक्ति, बैरागर लै रे। समरथ सांई शीश पर, तो कूं क्या भै रै।।टेक।। शील संतोष बिबेक हैं, और ज्ञान दिवाना। दया धर्म चित चैंतरै, बांचो प्रवाना।।1।। धर्म ध्वजा जहां फरहरैं, होंहि जगि जौंनारा। कथा कीरतन होत हैं, साहिब दरबारा।।2।। समता माता मित्र हैं, रख अकल यकीनं। सत्तर पड़दे खुल्हत हैं, दिल में दुरबीनं।।3।। जा कै पिता बिबेक से, और भाव से भाई। या पटतर नहीं और है, कछु बयाह न सगाई।।4।। दृढ कै डूंगर चढ गये, जहां गुफा अनादं। लागी शब्द समाधि रे, धन्य सतगुरु साधं ।।5।। सहòमुखी जहां गंग है, तालव त्रिबैनी। जहां ध्यान असनान कर, परवी सुख चैनी।।6।। कोटि कर्म कुसमल कटैं, उस परबी न्हाये। वोह साहिब राजी नहीं, कछु नाचे गाये।।7।। अगर मूल महकंत हैं, जहां गंध सुगंधा। एक पलक के ध्यान सैं, कटि हैं सब फंदा।।8।। दो पुड़ की भाठी चवै, जहां सुष्मण पोता। इडा पिंगुला एक कर, सुख सागर गोता।।9।। अबल बली बरियाम है, निरगुण निरबानी। अनंत कोटि बाजे बजैं, बाजै सहदानी।।10।। तन मन निश्चल हो गया, निज पद सें लागे। एक पलक के ध्यान सैं, दूंदर सब भागे।।11।। प्रपटन के घाट में, एक पिंगुल पंथा। छूटैं फुहारे नूर के, जहां धार अनंता।।12।। झिलमिल झिलमिल होत है, उस पुरि में भाई। घाट बाट पावै नहीं, है द्वारा राई।।13।। तहां वहां संख सुरंग हैं, मघ औघट घाटा। सतगुरु मिलैं कबीर से, तब खुलैं कपाटा।।14।। संख कंवल जहां जगमगे, पीतांबर छाया। सूरज संख सुभान हैं, अबिनाशी राया।।15।। अगर डोर सें चढि गये, धरि अलल धियाना। दास गरीब कबीर का, पाया अस्थाना।।16।।25।।
वाणी नं. 42:-
गरीब, काया माया खंड है, खंड राज और पाठ। अमर नाम निज बंदगी, सतगुरु सें भइ साट।।42।।
सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने बताया है कि काया यानि शरीर तथा माया यानि धन, राजपाट यानि राज्य सब खण्ड (नाश) हो जाता है। केवल निज नाम (वास्तविक भक्ति मंत्र) के नाम की साधना सतगुरू से लेकर की गई कमाई (भक्ति धन) अमर है।
वाणी नं. 43:-
गरीब, अमर अनाहद नाम है, निरभय अपरंपार। रहता रमता राम है, सतगुरु चरण जुहार।।43।।
सरलार्थ:– परमात्मा रमता यानि विचरण करता हुआ चलता-फिरता है। वह सतगुरू रूप में मिलता है। उसके चरणों में प्रणाम करके भक्ति की भीख प्राप्त करें। उनके द्वारा दिया गया नाम अनाहद (सीमा रहित) अमर (अविनाशी) मोक्ष देने वाला है। वह नाम प्राप्त कर जो निर्भय बनाता है। उसकी महिमा का कोई वार-पार नहीं है अर्थात् वास्तविक मंत्र की महिमा असीम है।
वाणी नं. 44:-
गरीब, अविनासी निहचल सदा, करता कूं कुरबान। जाप अजपा जपत है, गगन मंडल धरि ध्यान।।44।।
सरलार्थ:– उस अविनाशी कर्ता (सृष्टि रचनहार) पर कुर्बान हो जा जो निश्चल (स्थाई) है। उसके नाम का अजपा यानि मन-मन में श्वांस द्वारा स्मरण कर (जाप कर) और गगन मण्डल में ध्यान रख कि परमेश्वर (सतपुरूष) ऊपर सतलोक में विराजमान है। मैंने भी वहीं जाना है। वह सुखदाई स्थान है। वहाँ जन्म-मरण नहीं है। कोई राग-द्वेष नहीं है। सब प्रेम से रहते हैं। युवा रहते हैं।
वाणी नं. 45:-
गरीब, बिन रसना ह्नै बदंगी, निज चसमों दीदार। निज श्रवण बानी सुनै, निरमल तत्त्व निहार।।45।।
सरलार्थ:– सतगुरू द्वारा दीक्षा में दिए वास्तविक नामों का जाप विधि अनुसार करने से यानि बिना रसना (जीभ) के बंदगी (नम्र भाव से स्मरण) यानि अजपा जाप करने से निज चिसमों के यानि दिव्य दृष्टि से परमेश्वर का दीदार (दर्शन) होता है। निज श्रवण यानि आत्मा के कानों से अमर लोक की वाणी सुनाई देती है। उस निर्मल तत्त्व यानि पवित्र परमेश्वर को निहार यानि एकटक देख।
वाणी नं. 46:-
गरीब, में सौदागर नाम का, टांडे पड्या बहीर। लदतें लदतें लादियां, बहुरिन फेरा बीर।।46।।
सरलार्थ:– साधक कहता है कि हे परमात्मा! मैं भी भक्ति के सौदागरों में से एक हूँ। मेरा भी टांडे यानि व्यापारियों के लश्कर (दल) में कुछ बैलों या गाड़ियों का बहिर (काफिला) पड़्या है यानि शामिल है (पड़या माने वैसे गिरा होता है, परंतु यहाँ उपमा अलंकार होने से शामिल अर्थ करना उचित है।) जैसे बैल पर बोरे (थैले) में या बैलगाड़ी में कुछ सामान जो एक मण्डी से दूसरी मण्डी में व्यापारी ले जाते हैं। चावल, शक्कर, दाल, गेहूँ आदि-आदि) भरने लगते हैं तो भरते-भरते (लादते-लादते) भर लिया। (लाद लिया) अर्थात् इसी प्रकार परमात्मा की भक्ति कर-करके बैलगाड़ी की तरह भक्ति धन लाद लिया जो सतलोक वाली मण्डी में ले जाकर कीमत लेनी है।
वाणी नं. 47:-
गरीब, नाम बिना क्या होत है, जप तप संयम ध्यान। बाहरि भरमै मानवी, अब अंतर में जान।।47।।
सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने कहा है कि वास्तविक नाम बिना अन्य नामों के जाप से, गीता अध्याय 18 श्लोक 42 में कहे तप यानि अपने धर्म के पालन में कष्ट सहना ही साधक का तप है। वह तप तथा संयम यानि अपनी इन्द्रियों को विषयों से रोकना तथा ध्यान करना। इनसे कुछ भक्ति लाभ नहीं होता। जैसे आम के स्थान पर बबूल (कीकर) आम समझकर बीजने से चाहे उसकी सिंचाई भी करो, रक्षा के लिए बाड़ भी लगाओ। ध्यान यानि विचार भी रखो कि आम लगेंगे तो व्यर्थ प्रयत्न है। भक्ति के अंदर नाम बीज है। हे मानव! बाहरी (तीर्थों पर जाना, मूर्ति पूजा करना आदि) दिखावा करना व्यर्थ है। अब तो सतगुरू जी से दीक्षा लेकर अन्तर्मुख होकर सत्य साधना कर।
वाणी नं. 48:-
गरीब, उजल हिरंबर भगति है, उजल हिरंबर सेव। उजल हिरंबर नाम है, उजल हिरंबर देव।।48।।
सरलार्थ:– सतपुरूष सब देवों (प्रभुओं) से उज्ज्वल यानि शोभामान है। उस परमेश्वर की प्राप्ति की सेव (पूजा) भी निराली है। हिरंबर माने स्वर्ण जैसी भक्ति है। कहते हैं कि हमारे देश की धरती सोना उगलती है यानि अच्छी उपजाऊ है। कणक अधिक पैदा होती है जो अधिक कीमत (मूल्य) दिलाती है। इसी प्रकार उस परमेश्वर की प्राप्ति का सत्यनाम यानि वास्तविक नाम का श्वांस से स्मरण करना बहुमूल्य बताया है।
कबीर, श्वांस-उश्वांस में नाम जप, व्यर्था श्वांस ना खोय। ना बेरा इस श्वांस का, आवन हो के ना होय।।
कबीर, कहता हूँ कही जात हूँ, कहूँ बजा के ढ़ोल। श्वांस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।
मौखिक जाप एक हजार बार, मानसिक स्मरण एक बार। मानसिक जाप एक हजार बार, श्वांस से स्मरण एक बार। इस प्रकार सतगुरू श्वांस से स्मरण करने का मंत्र देता है जिससे भक्ति की कमाई अधिक होती है। इसलिए कहा है कि उस परमेश्वर जी की भक्ति हिरंबर यानि स्वर्ण जैसी बहुमूल्य है। उस परमात्मा का वास्तविक नाम भी कीमती है। स्वर्ण जैसा कीमती (बहुमूल्य) है।
वाणी नं. 49:-
गरीब, निजनाम बिना निपजै नहीं,जपतप करि हैं कोटि। लख चैरासी त्यार है, मूंड मुंडायां घोटि।।49।।
सरलार्थ:– परमात्मा की भक्ति के निज नाम (वास्तविक नाम) बिना साधना (भक्ति रूपी फल की उपज नहीं होती) नहीं उपजैगी यानि भक्ति का कोई फल नहीं मिलेगा चाहे करोड़ों गलत नामों का जाप करो, चाहे उस गलत धर्म कर्म के पालन में करोड़ों कष्ट सहन (तप) करो।
गलत साधना करने वाले साधु का दिखावा करने के लिए क्या दाढ़ी-मूँछ व सिर के बाल साफ कराकर फूला फिरता है। इस शास्त्रविरूद्ध भक्ति से तो लख चैरासी यानि चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर को प्राप्त होगा।
वाणी नं. 50:-
गरीब, नाम सिरोमनि सार है, सोहं सुरति लगाइ। ज्ञान गलीचे बैठिकरि, सुंनि सरोवर न्हाइ।।50।।
सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने बताया है कि:- सोहं नाम विशेष नाम है। यह नामों में शिरोमणि है। इसको अधिकारी गुरू से लेकर साधना सुरति-निरति यानि नाम में ध्यान लगाकर करनी चाहिए। जो तत्त्वज्ञान तेरे को मिला है, उस पर विश्वास रख। ज्ञान गलीचे पर बैठकर सुन्न सरोवर यानि तत्त्वज्ञान पर विश्वास करके भक्ति कर तथा आकाश में बने सरोवर में आत्मा को स्नान करा यानि भक्ति के अमृत सरोवर में गोते लगा। गलीचा का अर्थ है एक नर्म कपड़े का मोटा गद्दा।
वाणी नं. 51:-
गरीब, मान सरोवर न्हाइये, हंस परमहंस का मेल। बिना चुंच मोती चुगै, अगम अगोचर खेल।।51।।
सरलार्थ:– सतलोक वाले मान सरोवर में स्नान करने के पश्चात् हंस यानि निर्मल भक्त का मिलन परमहंस यानि परमेश्वर जी से होगा। जहाँ जाने के पश्चात् भक्त बिना चैंच मोती खाता है यानि नैष्कर्मय मुक्ति प्राप्त करता है। सतलोक में बिना कर्म किए सर्व सुख तथा भोजन प्राप्त होता है। (जिसको गीता अध्याय 3 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 49 में नैष्कर्मय सिद्धि कहा है।) इसलिए कहा है कि बिना चैंच मोती यानि बिना कर्म किए सतलोक में सर्व सुख प्राप्त होता है।
यह अगम अगोचर यानि सबसे आगे का गुप्त खेल यानि जो किसी की दृष्टि में भक्ति मार्ग व उसका फल नहीं है, इसका ज्ञान स्वयं परमेश्वर ही पृथ्वी पर आकर कराते हैं।
वाणी नं. 52:-
गरीब, गगन मंडल में रमि रह्या गलताना महबूब। वार पार नहिं छेव है, अबिचल मूरति खूब।।52।।
सरलार्थ:– गलताना महबूब यानि मस्तमौला आत्मा का सच्चा प्रेमी परमात्मा गगन मंडल यानि आकाश में रमा है यानि स्थाई निवास करता है। उसका कोई वार-पार यानि भेद नहीं और ना ही कोई उसका छेव यानि मूल्य है। वह अविचल यानि अविनाशी मूर्ति खूब यानि सही साकार स्वरूप है। वास्तव में ऐसा ही है।
वाणी नं. 53:-
गरीब, ऐसा सतगुरु सेइये, जो नाम दृढ़ावैं। भरमी गुरुवा मति मिलौ, जो मूल गमावै।।53।।
सरलार्थ:– ऐसे सतगुरू की सेवा करो यानि ऐसा गुरू धारण करो जो नाम की भक्ति दृढ़ करे। जो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करने वाला भ्रमित करने वाला गुरू न मिले जो मूल गंवावै यानि मानव शरीर में श्वांस रूपी पँूजी जो मूल धन है, उसको गंवा दे यानि नष्ट करा देता है। जैसे सौदागर मूल धन का ठीक से प्रयोग करके दुगना-तिगुना, चार गुणा कर लेता है और जो कुसंगत में गिरकर शराब-जुआ खेलकर मूल धन का नाश कर लेता है, वह फिर पछताता है। इसी प्रकार भ्रमित गुरू का शिष्य अपने जीवन को नष्ट करके ऊपर भगवान के द्वार पर हाथ मलकर पछताता है।
वाणी नं. 54:-
गरीब, सोहं सुरति लगाईले, गुण इन्द्रिय सें बंच। नाम लिया तब जानिये, मिटै सकल प्रपंच।।54।।
सरलार्थ:– सोहं नाम का जाप सुरति-निरति से करो और इन्द्रियों को काबू में रखो। नाम दीक्षा लेकर स्मरण करने वाले को उस समय लाभ होगा यानि उस पर नाम के जाप का प्रभाव तब दिखेगा, जब उसके अंदर के सब परपंच समाप्त हो जाएँगे। जैसे नाचना, गाना, सिनेमा देखना, नशीली वस्तुओं का सेवन करना आदि-आदि बुराईयों से घृणा हो जाएगी। सादा जीवन जीएगा तो परपंच मिट गए।
वाणी नं. 55:-
गरीब, नाम निहचल निरमला, अनंत लोक में गाज। निरगुण सिरगुण क्या कहै, प्रगटा संतों काज।।55।।
सरलार्थ:– जो सारनाम है, वह पवित्र तथा अविनाशी है। उसकी सत्ता की धाक (गाज=आवाज की शक्ति) असँख्यों लोकों में है। उस परमात्मा को कोई निर्गुण कहता है, कोई सर्गुण। वह तो भक्तों को यथार्थ भक्ति ज्ञान बताकर मोक्ष करने के लिए प्रकट हुआ था।
वाणी नं. 56, 57, 58:-
गरीब, अविनासी के नाम में, कौन नाम निजमूल। सुरति निरति सें खोजिलै, बास बडी अक फूल।।56।।
गरीब, फूल सही सिरगुण कह्या, निरगुण गंध सुगंध। मन मालीके बागमें, भँवर रह्या कहां बंध।।57।।
गरीब, भँवर विलंब्या केतकी, सहस कमलदल मांहि। जहां नाम निजनूर है, मन माया तहां नांहि।।58।।
सरलार्थ:– अविनाशी परमात्मा का मूल नाम यानि वास्तविक मंत्र जाप का नाम कौन-सा है? उत्तर बताया है कि विचार करके (सुरति-निरति से) स्वयं खोजकर कि जैसे फूल से सुगंध निकलती है तो इनमें किसको मूल यानि वास्तविक कारण कहा जाए। मूल का अर्थ है मुख्य कारण। सुगंध फूल बिना नहीं हो सकती। विचार करें कि फूल और सुगंध कौन बड़ा है? तो उत्तर होगा कि फूल बिना सुगंध कहाँ से आएगी। जो व्यक्ति परमात्मा को निर्गुण रूप में मानते हैं, उसकी प्राप्ति का प्रयत्न भी करते हैं तथा यह भी कहते हैं कि परमात्मा मिलता नहीं क्योंकि वह निराकार है। जैसे फूल तो सर्गुण है, साकार है। उससे निकल रही सुगंध निर्गुण (निराकार) है। इसी प्रकार सतपुरूष सगुण है, उसकी शक्ति निर्गुण (निराकार) है। जो परमात्मा को निर्गुण यानि गुण रहित (निराकार) कहते हैं। यह ज्ञान काल ब्रह्म रूपी मन ने भ्रम फैलाया है। हे जीव! तू परमेश्वर कबीर जी का यथार्थ आध्यात्म ज्ञान समझ। तू इस मन रूपी काल ब्रह्म माली के इक्कीस ब्रह्माण्ड रूपी बबूल के बाग में (हे भंवर यानि जीव!) कहाँ बंध गया। इसका ब्रह्म लोक भी नाशवान है। यह स्वयं भी नाशवान है। तूने तो अविनाशी परमेश्वर को प्राप्त करके अमर होना चाहिए। जहाँ पर मन माया यानि काल का जाल नहीं है।
वाणी नं. 59-60:-
गरीब, पंडित कोटि अनंत है, ज्ञानी कोटि अनंत। श्रोता कोटि अनंत है, बिरले साधु संत।।59।।
गरीब, जिन मिलतें सुख ऊपजै, मेटें कोटि उपाध। भवन चतुर दस ढूंढिये, परम सनेही साध।।60।।
सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने बताया है कि करोड़ों तो पंडित यानि ब्राह्मण हैं जो आध्यात्म ज्ञान के विद्वान होने का दावा करते हैं और करोड़ों ज्ञानी भी हैं जो परमात्मा पर समर्पित हैं, परंतु यथार्थ भक्ति विधि का ज्ञान नहीं। उनके प्रचार के प्रवचन सुनने वाले श्रद्धालु श्रोता भी करोड़ों हैं, परंतु तत्त्वदर्शी संत तो बिरला ही मिलेगा। जैसे आगे झूमकरा के अंग में संत गरीबदास जी ने कहा है कि:-
तत्वभेद कोई ना कहे रै झूमकरा। पैसे ऊपर नाच सुनो रै झूमकरा।।
कोट्यों मध्य कोई नहीं रै झूमकरा। अरबों में कोई गरक सुनो रै झूमकरा।।
गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में भी यही विवरण है कि बहुत-बहुत जन्मों के अंत के जन्म में कोई ज्ञानवान मेरी भक्ति करता है, अन्यथा अन्य देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि-आदि) की भक्ति करते रहते हैं, परंतु यह बताने वाला महात्मा तो सुदुर्लभ है यानि बड़ी मुश्किल से मिलेगा कि वासुदेव यानि जिस परमेश्वर का सर्व लोकों में वास है, वह वासुदेव कहलाता है। उसकी सत्ता सब पर है। उसी की भक्ति करो। वही पापनाशक है। वही पूर्ण मोक्षदायक है। वही वास्तव में अविनाशी है। इसी प्रकार सुमरन के अंग की वाणी नं59 में कहा है कि साधु-संत तो कोई बिरला ही मिलेगा। साधु-संत की एक यह पहचान है कि उसके सानिध्य में जाने से सुख महसूस होता है। विचार सुनकर मन की करोड़ों उपाध यानि बकवास विचार समाप्त हो जाते हैं। ऐसा संत चाहे चैदह लोकों में कहीं भी मिले, उसकी खोज करनी चाहिए और उसके सत्संग विचार सुनने चाहिए।
वाणी नं. 61:-
गरीब, राम सरीखे साध है, साध सरीखे राम। सतगुरु कूं सिजदा करुं, जिन दीन्हा निजनाम।।61।।
सरलार्थ:– बहुत से साधु कुछ सिद्धि प्राप्त करके अपने आपको राम मान लेते हैं। जैसे हिरण्यकशिपु तथा कुछ राम जो त्रिलोकी प्रभु श्री रामचन्द्र जैसे। परंतु इनका किसी का भी जन्म-मरण समाप्त नहीं होता। संत गरीबदास जी ने कहा है कि उस सतगुरू को सिजदा यानि विशेष नम्रता से झुककर प्रणाम करो जिसने निजनाम की दीक्षा दी। जिससे वह परमपद तथा शाश्वत स्थान (अमर लोक) तथा परम शांति प्राप्त होगी जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में बताई है और अविनाशी परमात्मा मिलेगा।
वाणी नं. 62:-
गरीब, भगति बंदगी जोग सब, ज्ञान ध्यान प्रतीत। सुंन शिखरगढ में रहें, सतगुरु सबद अतीत।।62।।
सरलार्थ:– जिस सतगुरू जी ने निज नाम देकर भक्ति की विधि बंदगी यानि प्रणाम की विधि तथा योग यानि साधना करने का तरीका, तत्त्वज्ञान तथा किस तरह ध्यान (सहज समाधि) प्रदान की और यह विश्वास कराया कि यही मोक्ष का साधन है। वह सतगुरू सुन्न यानि ऊपर खाली स्थान आकाश खण्ड (गगन मण्डल) सत्यलोक में शब्द अतीत रूप में रहता है यानि उस अविनाशी परमेश्वर का जो स्वयं सतगुरू भी है, किसी को ज्ञान नहीं क्योंकि वह (सुन्न शिखर) आकाश की चोटी पर यानि सबसे ऊपर के लोक में रहता है।
वाणी नं. 63:-
गरीब, ऐसा सतगुरु सेइये, पार ऊतारे हंस। भगति मुकति की दातिसै, मिलि है सोहं बंस।।63।।
सरलार्थ:– हे हंस यानि निर्मल भक्त! ऐसे सतगुरू से दीक्षा लेना जो भव सागर से पार कर दे। परंतु पूर्व जन्म-जन्मांतर की भक्ति की (दाति से) कमाई से अर्थात् भक्ति संस्कार के प्रतिफल में मुक्ति के लिए सोहं वंश यानि पूर्व जन्म में जिनको सत्यनाम में सोहं मंत्र मिला था, सारनाम नहीं मिला था, वह समूह पुनः मानव जन्म प्राप्त करता है। उनको परमेश्वर अवश्य शरण में लेता है।
वाणी नं. 64:-
गरीब, सोहं बंस बखानिये, बिन दम देही जाप। सुरति निरतिसें अगम है, ले समाधि गरगाप।।64।।
सरलार्थ:– सोहं वंश का वर्णन करता हूँ। जो सोहं शब्द सतनाम में प्राप्त कर लेता है, सारनाम की प्राप्ति उसी को होती है जब साधक संसार छोड़कर जाता है तो अंत में सोहं की सीमा यानि अक्षर पुरूष के लोक में उसकी (सोहं की) साधना को उसे देने के पश्चात् आत्मा सतलोक को चलती है, तब श्वांस नहीं रहता। परंतु आत्मा सुरति-निरति यानि ध्यान से सार शब्द का जाप करती हुई चलती है। भंवर गुफा में प्रवेश करने के पश्चात् सारनाम की कमाई वहाँ जमा हो जाती है। फिर जाप तथा अजपा दोनों मर जाते हैं।(समाप्त हो जाते हैं।) सतलोक यानि वांछित अमर स्थान प्राप्त हो जाता है। जैसे नौकरी मिलने के पश्चात् पढ़ाई छूट जाती है।
ले समाधि गरगाप का तात्पर्य यह है कि यह विचार कर कि सतपुरूष ऊपर के सतलोक में है जो काल के सर्व ब्रह्माण्डों के पार दूर है। अपने ध्यान को वहाँ पहुँचा। ले समाधि गरगाप का अर्थ है अधिक प्रेरणा से ध्यान कर। हरियाणा प्रान्त की भाषा में कहते हैं कि वह पहलवान शक्ति में गरगाप है यानि बहुत शक्तिमान है। यह भी कहते हैं कि वह व्यक्ति धन में गरगाप है यानि बहुत धनवान है। इसी प्रकार गरगाप ध्यान लगा।
वाणी नं. 65:-
गरीब, सुरति निरति मन पवनपरि, सोहं सोहं होइ। शिबमंत्र गौरिज कह्या, अमर भई है सोइ।।65।।
सरलार्थ:– साधक को चाहिए कि वह सुरति-निरति यानि ध्यानपूर्वक मन तथा पवन (श्वांस) से सोहं मंत्र जाप करे। जिस प्रकार शिव जी से नाम प्राप्त करके पार्वती जी ने सच्ची लगन से नाम जाप किया तो वह उससे होने वाला अमरत्व प्राप्त किया। ऐसे सच्चे नाम की सच्ची लगन से रटना लगा।
वाणी नं. 66:-
गरीब, रंरकार तो धुनि लगै, सोहं सुरति समाइ। हद बे हद परि वास होइ, बहुरि न आवै जाइ।।66।।
सरलार्थ:– जैसे हाथी ने मगरमच्छ के साथ युद्ध में मरते समय राम का आधा ही नाम लिया था। वह पूरी कसक के साथ लिया था। उसे ररंकार धुन कहते हैं। ऐसे नाम का जाप करें और नाम सोहं हो तो हद-बेहद यानि सोहं का मंत्र काल के संतों से लेता है तो हद में रह जाएँगे यानि काल जाल में ही रह जाएगा। यदि सतलोक के अधिकारी गुरू से लेकर उसी लगन से साधना करेगा तो बेहद यानि काल की हद (सीमा) से पार सतलोक में निवास होगा। वहाँ जाने के पश्चात् पुनः जन्म-मरण में नहीं आता।
वाणी नं. 67:-
गरीब, गुझ गायत्री नाम है, बिन रसना धुनि ध्यान। महिमा सनकादिक लही, सिव संकर बलिजान।।67।।
सरलार्थ:– जो यथार्थ भक्ति का नाम सतगुरू देते हैं। वह गुझ (गुप्त) गायत्राी (महिमा का गुणगान करने का) है यानि जैसे यजुर्वेद अध्याय 36 मंत्र 3 के आगे ओउम् (om) नाम जोड़कर गायत्राी मंत्र बताते हैं जो केवल वेद का एक श्लोक है। वेद में 18 हजार श्लोक हैं। सब में परमात्मा की महिमा का वर्णन है। इस एक यजुर्वेद के अध्याय 36 के श्लोक 3 को गायत्राी मंत्र बनाकर पढ़ने से परमेश्वर की महिमा का अधूरा गुणगान है, अंश मात्र की महिमा है जो पर्याप्त नहीं है। वेदों के श्लोकों से तो परमेश्वर का ज्ञान होता है कि परमात्मा इतना सुखदाई है। उसकी भक्ति करने से यह लाभ होता है। भक्ति न करने से यह हानि होती है। परंतु एक यजुर्वेद अध्याय 36 के श्लोक 3 में तो वह भी पूर्ण नहीं है। जैसे बिजली की महिमा लिखी है। उसकी एक-दो पंक्ति से तो वह भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता। उसमें बिजली के लाभ के ज्ञान के पश्चात् यह भी लिखा होता है कि बिजली का कनैक्शन लो, उसकी यह विधि है। बिजली की महिमा की केवल एक-दो पंक्ति पढ़ने से पूर्ण ज्ञान नहीं होता। जब तक कनैक्शन नहीं लिया जाए तो बिजली के लाभ नहीं मिलेंगे। कनैक्शन लेने के पश्चात् वह लाभ मिलेगा जो उसकी महिमा में बताया गया है। इसी प्रकार परमात्मा की महिमा को पढ़ने से ज्ञान तो हो जाता है, लेकिन लाभ तब मिलेगा जब पूर्ण गुरू से दीक्षा ले ली जाएगी। वह भक्ति का मंत्र गुझ गायत्राी यानि गुप्त लाभ प्राप्त कराने वाला है। फिर सत्य भक्ति से प्रतिदिन परमात्मा लाभ देने लगेगा। फिर नाम स्मरण करते-करते परमात्मा की महिमा अपने आप हृदय से होती रहेगी। जैसे एक व्यक्ति का इकलौता पुत्र रोगी था। सब उपचार, जंत्र-मंत्र, नकली गुरूओं-संतों से नाम ले भजन कर लिया, परंतु कोई लाभ नहीं हुआ। जब भगवान कबीर जी की शरण में बच्चे को लाए, दीक्षा ली। वह बच्चा शीघ्र स्वस्थ हो गया। फिर वह परिवार उस गुप्त नाम का जाप भी करता था और हृदय से परमात्मा के गुण भी याद करता था। हे परमात्मा! आपने मेरे बच्चे को जीवन दान दिया। आप समर्थ हैं। जीवन दाता हैं। आपकी महिमा अपरमपार है। यह महिमा हृदय में चलती है। उसे बोलकर तो कभी-कभी करते हैं जब अन्य को समझाना होता है। कहा है कि गुझ गायत्राी यथार्थ नाम है जिससे आध्यात्मिक लाभ मिलता है। तब बिन रसना (जीभ) के परमात्मा की महिमा धुनि (लगन) से ध्यान (विशेष विचार) से होती है। परमात्मा की महिमा जो नाम दीक्षा के पश्चात् होती है। उसको ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों सनकादिक (सनक, सनन्दन, सरत, संत कुमार) तथा शिव जी ने लहि यानि संकेत मात्र से समझ गए। ऐसे विवेकवानों पर मैं बलिहारी जाऊँ यानि ऐसे सब जीव हमारे तत्त्वज्ञान को शीघ्र समझ लें तो सर्व का काल के जाल से शीघ्र छुटकारा हो जाएगा।
वाणी नं. 68:-
गरीब, अजब महल बारीक है, अजब सुरति बारीक। अजब निरति बारीक है, महल धसे बिन बीक।।68।।
सरलार्थ:– परमात्मा का महल यानि सतलोक अजब (दिव्य) है। बारीक यानि झीना है। बारीक का भावार्थ है कि काल लोक से निकलने वाला द्वार बहुत छोटा है। तिल के समान है। सूई के धागा डालने वाले सुराख (भ्वसम) के समान है। सत्यभक्ति करने वाले साधक का शरीर ऐसा सूक्ष्म हो जाता है। वह उस बारीक द्वार से सरलता से निकल जाता है। साधक की सुरति तथा निरति भी सूक्ष्म हो जाती है। सुरति क्या है? निरति क्या है? जैसे हम कुछ दूरी पर कोई वस्तु देखते हैं। वह देखना सुरति है तथा वह वस्तु क्या है, यह निरीक्षण करना निरति कहलाती है। जब साधक सतलोक को चलता है तो सुरति दूर के स्थान को, द्वार को देखती है, निरति निरीक्षण करती है, आत्मा निर्णय करती है। उन द्वारों से बिन बीक (कदम रखे बिना यानि सिद्धि से अपने आप चलता है) के चलकर महल (सतलोक) में धँसता (प्रवेश करता) है।
वाणी नं. 69:-
गरीब, रामनाम के पटतरै, देवे कूं नहिं और। सो ऊदम तादिन भये, उभर गई जद गौर।।69।।
सरलार्थ:– गुरू जी जो मोक्ष करने वाला राम-नाम (सत्य भक्ति मंत्र) देते हैं, उसके पटतर (समान) अन्य तप करना, तीर्थों पर जाना, व्रत करना आदि-आदि नहीं है। वे व्यर्थ हैं। राम-नाम के जाप से परमात्मा मिलता है। गौर (गौरी) यानि पार्वती जी को उस समय नाम की महिमा का पता चला जिस दिन शिव जी ने उनको नाम की दीक्षा दी थी। फिर भक्ति लाभ मिलने लगा। उस स्तर का अमरत्व मिला।