Muktibodh - Sant Rampal Ji

पारख का अंग (1181 – 1214)

‘‘दान-धर्म करने से लाभ’’

पारख के अंग की वाणी नं. 1181-1248:-

गरीब, पिछला टांका रहि गया, उतर्या हुकम हजूम। तिबरलंग कहौ कौंन है, आये मौलवी रूम।।1181।।
गरीब, गाडा अटक्या कीच में, ऊपर बैठे तिम। बेलनहारा राम हैं, धोरी आप धरंम।।1182।।
गरीब, धरम धसकत है नहीं, धसकैं तीनूं लोक। खैरायतमें खैर हैं, कीजै आत्म पोष।।1183।।
गरीब, धर्म बिना ऐसा नरा, जैसी बंझा नार। बिन दीन्या पावै नहीं, सुन्हा भया गंवार।।1184।।
गरीब, साधु संत सेये नहीं, करी न अन्नकी सांट। कुतका बैठया कमरि में, हो गया बारह बाट।।1185।।
गरीब, धर्म बिना धापै नहीं, योह प्रानी प्रपंच। आश बिरांनी क्यूं करै, दीन्हा होय तो संच।।1186।।
गरीब, धर्म किया बलिरायकौं, ठानी इकोतरि जगि। तहां बावन अवतार धरि, लिए समूचे ठगि।।1187।।
गरीब, कंपे स्वर्ग समूल सब, ऐसी यज्ञ आरंभ। आसन सुरपति के डिगे, पान अपानं संभ।।1188।।
गरीब, हवन किए हरि हेत सैं, जप तप संयम साध। बलि कै बावन आईया, देख्या अगम अगाध।।1189।।
गरीब, एक यज्ञ है धर्म की, दूजी यज्ञ है ध्यान। तीजी यज्ञ है हवन की, चैथी यज्ञ प्रणाम।।1190।।
गरीब, च्यारि बेद का मूल सुनि, स्वसंबेद संगीत। बलिकौं ये चारौं करी, बावन उतरे प्रीति।।1191।।
गरीब, अमर किए आसन दिये, सिंहासन सुरपति। ऐसी जगि जगदीश की, ताहि मानियौं सत्य।।1192।।
गरीब, दान किए देही मिलै, नर स्वरूप निरबांन। बूक बाकला देतहीं, चकवै भये निशान।।1193।।
गरीब, नाम सरीखा दान है, दान सरीखा नाम। सुनहीकौं भोजन दिया, तीनि छिके बलिजांव।।1194।।
गरीब, बुढिया और बाजींदजी, सुनहीकै आनंद। रोटी चारौं मुक्ति हैं, कटैं गले के फंद।।1195।।
गरीब, राजा की बांदी होती, रोटी देत हमेश। चक्र भये हैं दहूं दिशा, जीते जंग नरेश।।1196।।
गरीब, इंद्र भये हैं धर्म सैं, यज्ञ हैं आदि जुगादि। शंख पचायन जदि बजे, पंचगिरासी साध।।1197।।
गरीब, सुपच शंक सब करत हैं, नीच जाति बिश चूक। पौहमी बिगसी स्वर्ग सब, खिले जा पर्बत रूंख।।1198।।
गरीब, कंनि कंनि बाजा सब सुन्या, पंच टेर क्यौं दीन। द्रौपदी कै दुर्भाव हैं, तास भये मुसकीन।।1199।।
गरीब, करि द्रौपदी दिलमंजना, सुपच चरण पी धोय। बाजे शंख सर्व कला, रहे अवाजं गोय।।1200।।
गरीब, द्रौपदी चरणामत लिये, सुपच शंक नहीं कीन। बाज्या शंख असंख धुनि, गण गंधर्व ल्यौलीन।। ृ 1201।।
गरीब, सुनी शंखकी टेर जिन, हृदय भाव बिश्बास। जोनी संकट ना परै, होसी गर्भ न त्रास।।1202।।
गरीब, दान अभैपद अजर है, नहीं दूई दूर्भाव। जगि करी बलिरायकूं, बावन लिये बुलाय।।1203।।
गरीब, दिया दान दधीचिकौं, पांसू धनक धियान। तेतीसौं कुरनसि करैं, हो गये पद प्रवान।।1204।।
गरीब, दान वित्त समान हैं, टोपी कोपीन टूक। यासैं लघु क्या और है, साग पत्र गई भूख।।1205।।
गरीब, पीतांबरकूं पारि करि, द्रौपदी दिन्ही लीर। अंधेकू कोपीन कसि, धनी कबीर बधाये चीर।।1206।।
गरीब, देना जगमें खूब है, दान ज्ञान प्रवेश। ब्रह्माकूं तौ जगि करि, बतलाई है शेष।।1207।।
गरीब, दान ज्ञान ब्रह्मा दिया, सकल सष्टिकै मांहि। सूंम डूंम मांगत फिरैं, जिन कुछि दीन्ह्या नांहि।।1208।।
गरीब, दान ज्ञान प्रणाम करि, होम जो हरि कै हेत। यज्ञ पंचमी तुझ कहूं, ध्यान कमल सुर सेत।।1209।।
गरीब, धर्म कर्म जगि कीजिये, कूवें बाय तलाव। इच्छा अस्तल स्वर्ग सुर, सब पथ्वी का राव।।1210।।
गरीब, भूख्यां भोजन देत हैं, कर्म यज्ञ जौंनार। सो गज फीलौं चढत हैं, पालकी कंध कहार।।1211।।
गरीब, कूवें बाय तलावड़ी, बाग बगीचे फूल। इंद्रलोक गन कीजियें, परी हिंदोलौं झूल।।1212।।
गरीब, जती सती इंद्री दमन, बिन इच्छा बाटंत। कामधेनु कल्प वक्ष पद, तास बार दूझंत।।1213।।
गरीब, स्वर्ग नंदिनी दर बंधै, बिन इच्छा जौंनार। गण गंधर्व और मुनिजन, तीनी लोक अधिकार।।1214।।
गरीब, पतिब्रता नारी घरौं, आंन पुरुष नहीं नेह। अपने पति की बंदगी, दुर्लभ दर्शन येह।।1215।।
गरीब, माता मुक्ति सुनीतिसी, मैनासी पुरकार। फकर फरीद फिकर लग्या, कूप कलप दीदार।।1216।।
गरीब, ऐसी जननी मात सत्य, पुत्र देत उपदेश। और नार व्यभिचारिणी, यौं भाखत हैं शेष।।1217।।
गरीब, समुद्र तौ नघ देत है, इन्द्र देत है स्वांति। नारी पुत्र देत हैं, ध्रुव कैसी लगमांति।।1218।।
गरीब, सात धात पथ्वी दई, सात अन्न प्रबीन। व ृ क्षा नदियौं फल दिये, यौ नर मूढ कुलीन।।1219।।
गरीब, जिन पुत्र नहीं जगि करी, पिण्ड प्रदान पुरान। नाहक जग में अवतरे, जिनसैं नीका श्वान।।1220।।
गरीब, बिना धर्म क्या पाईये, चैदह भुवन बिचार। चमरा चूक्या चाकरी, स्वर्गहूं में बेगार।।1221।।
गरीब, स्वर्ग स्वर्ग सब जीव कहैं, स्वर्ग मांहि बड दुःख। जहां चैरासी कुंड हैं, थंभ बलैं ज्यूं लुक।।1222।।
गरीब, कुंड पर्या निकसैं नहीं, स्वर्ग न चितवन कीन। धर्मराय के धाम में, मार अधिक बेदीन।।1223।।
गरीब, करि साहिब की बंदगी, सुमरण कलप कबीर। जमकै मस्तक पांव दे, जाय मिलै धर्मधीर।।1224।।
गरीब, धर्मधीर जहां पुरुष हैं, ताकी कलप कबीर। सकल प्रान में रमि रह्या, सब पीरन शिर पीर।।1225।।
गरीब, धर्म धजा फरकंत हैं, तीनौं लोक तलाक। पापी चुनि चुनि मारिये, मुंख में दे दे राख।।1226।।
गरीब, पापीकै परदा नहीं, शिब पर कलप करंत। माता कूं घरणी कहै, भस्मागिर भसमंत।।1227।।
गरीब, भसम हुये अप कलपसैं, शिबकूं कछु न कीन। इस दुनियां संसार में, कर्म भये ल्यौलीन।।1228।।
गरीब, जिन्हौं दान दत्तब किया, तिन पाई सब रिद्ध। बिना दानि व्याघर भये, तास पजाबै गद्ध।।1229।।
गरीब, कर दिन्ह्ये कुरबांनजां नयन नाक मुखद्वार। पीछैं कुछ राख्या नहीं, नर मानुष अवतार।।1230।।
गरीब, दान दया दरबेश दिल, बैराट फटक जो दिल। दानी ज्ञानी निपजहीं, सूंम सदा ज्यूं सिल।।1231।।
गरीब, सूंम सुसरसैं शाख क्या, हनिये छाती तोर। असी गंज बांटे नहीं, कीन्ह्ये गारत गोर।।1232।।
गरीब, हरिचंद ऐसी यज्ञ करी, राजपाट स्यूं देह। संगही तारालोचनी, काशी नगर बिकेह।।1233।।
गरीब, मरघट का मंगता किया, मुर्द पीर चिंडाल। डायन तारालोचनी, राजा पुत्र काल।।1234।।
गरीब, उस डायन कूं तोरि है, हरिचंद हाथ खड्ग। स्वर्ग मत्यु पाताल में, ऐसी और न जगि।।1235।।
गरीब, मोरध्वज मेला किया, जगि आये जगदीश। ताम्रध्वज आरा धर्या, अरपन कीन्ह्या शीश।।1236।।
गरीब, अंबरीष आनंद में, यज्ञ रूप सब अंग। दुर्बासाकूं दव नहीं, चक्र सुदर्शन संग।।1237।।
गरीब, राजा अधिक पुरुरवा, होमि दई जिन देह। तीन लोक साका भया, अमर अभय पद नेह।।1238।।
गरीब, मरुत यज्ञ अधकी करी, पथ्वी सर्वस्व दान। अनंत कोटि राजा गये, पद चीन्हत प्रवान।।1239।।
गरीब, नगर पुरी भदरावती, जोबनाथ का राज। श्यामकर्ण जिस कै बंध्या, खूंहनि अनगिन साज।।1240।।
गरीब, गये भीम जहां भारथी, श्याम कर्ण कौं लैंन। भारथ करि घोरा लिया, तास यज्ञ तहां दैंन।।1241।।
गरीब, गोरख जोगी ज्ञान यज्ञ करी, तत्तवेत्ता तरबीत। सतगुरु सें भेटा भया, हो गये शब्दातीत।।1242।।
गरीब, सेऊ समन जग करी, शीश भेद करि दीन। सतगुरु मिले कबीर से, शीश चढे फिरि सीन।।1243।।
गरीब, कबीर यज्ञ जैसी करी, ऐसी करै न कोय। नौलख बोडी बिस्तरी, केशव केशव होय।।1244।।
गरीब, यज्ञ करी रैदास कूं, धरै सात सै रूप। कनक जनेऊ काढियां, पातशाह जहां भूप।।1245।।
गरीब, तुलाधार कूं जग करी, नामदेव प्रवान। पलरे में सब चढि गये, ऊठ्या नहीं अमान।।1246।।
गरीब, पीपा तौ पद में मिल्या, कीन्ही यज्ञ अनेक। बुझ्या चंदोवा बेगही, अबिगत सत्य अलेख।।1247।।
गरीब, तिबरलंग तौ जग करी, एक रोटी रस रीति। बिन दीन्ही नहीं पाईये, दान ज्ञान सें प्रीति।।1248।।

सरलार्थ:– इन वाणियों में दान-पुण्य करने का ज्ञान है। बताया है कि जो दान नहीं करते, उनका भविष्य नरक बन जाता है। दान-धर्म के अनुष्ठान यानि धर्म यज्ञ व अन्य यज्ञ करने से भक्ति ऐसे सफल होती है जैसे खेत में किसान बीज बो कर बाद में समय-समय पर सिंचाई करता है जिससे बीज उगता है। पौधा बनकर अन्न देता है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग में नाम तो बीज है। यज्ञ (धर्म यज्ञ, ध्यान यज्ञ, हवन यज्ञ, प्रणाम यज्ञ, ज्ञान यज्ञ) सिंचाई का कार्य करती हैं। यदि दीक्षा लेकर यज्ञ नहीं की तो भक्ति सफल नहीं होती। पारख के अंग की वाणी नं. 1209 में पाँच यज्ञ बताई हैं:-

गरीब, दान ज्ञान प्रणाम करि, होम जो हरि कै हेत। यज्ञ पंचमी तुझ कहूं, ध्यान कमल सुर सेत।।1209।।

अर्थात् (1) दान (धर्म) यज्ञ, (2) ज्ञान यज्ञ, (3) प्रणाम यज्ञ, (4) होम (हवन) यज्ञ, (5) ध्यान यज्ञ। ये पाँचों यज्ञ साधक को गुरू जी के आदेशानुसार करनी चाहिएँ।

जैसे पूर्व की वाणियों में तैमूरलंग को परमात्मा मिले। इसका कारण है कि किसी जन्म में यह आत्मा, परमात्मा कबीर जी की शरण में आकर साधना किया करती थी। सुख होने पर काल तुरंत परमात्मा को भुलाता है। तैमूरलंग ने फिर अनेकों पशु-पक्षियों के जन्म भोगे। जब मानव जन्म हुआ। धर्म के अभाव में निर्धन घर में जन्मा। यह पिछला टांका रह गया था। (1181)

जीवन रूपी गाड़ी पाप कर्मों की कीच (कीचड़) में धंस जाती है तो धर्म उस गाड़ी को पाप रूपी कीचड़ से निकालने वाला (धोरी) दमदार बैल है। (1182)

पारख के अंग की वाणी नं. 1183-1186:-

गरीब, धरम धसकत है नहीं, धसकैं तीनूं लोक। खैरायतमें खैर हैं, कीजै आत्म पोष।।1183।।
गरीब, धर्म बिना ऐसा नरा, जैसी बंझा नार। बिन दीन्या पावै नहीं, सुन्हा भया गंवार।।1184।।
गरीब, साधु संत सेये नहीं, करी न अन्नकी सांट। कुतका बैठया कमरि में, हो गया बारह बाट।।1185।।
गरीब, धर्म बिना धापै नहीं, योह प्रानी प्रपंच। आश बिरांनी क्यूं करै, दीन्हा होय तो संच।।1186।।

सरलार्थ:– धर्म कभी नष्ट नहीं होता। तीनों लोक नष्ट हो जाते हैं। (खैरायत) दान-धर्म करने से (खैर) बचाव है। इसलिए धर्म-भण्डारा (लंगर) करके धर्म करना चाहिए। (1183)

जो धर्म नहीं करते, उनको भक्ति का कोई लाभ नहीं मिलता। उदाहरण दिया है कि जैसे बांझ स्त्री का विवाह भी हो जाता है, परंतु संतान नहीं होती। इसी प्रकार धर्म बिना भक्ति सफल नहीं होती, उल्टा (सुन्हा) कुत्ते का जीवन प्राप्त करता है। सतगुरू से दीक्षा ली नहीं, अन्न की सांट नहीं की यानि अन्न दान (भोजन नहीं कराया) नहीं किया तो कुत्ता बनकर घर-घर जाता है। कहीं-कहीं उसकी कमर पर (कुतका) मुगदर लगाया जाता है। हाय-हाय करता फिरता है। (1184-1185)

धर्म किए बिना आत्मा की संतुष्टि नहीं होती। अन्य सब प्रपंच है। यदि पूर्व जन्म में या इस जन्म में दान किया है तो धन मिलेगा, अन्यथा कुछ नहीं मिलेगा। (1186)

वाणी नं. 1187-1192 का सरलार्थ:-

बली राजा ने सौ यज्ञ की थी। परमात्मा बावना रूप धारण करके आया था। यह धर्म का प्रभाव था कि परमात्मा को आना पड़ा। राजा बली भक्त प्रहलाद का पोता था। पिता का नाम बैलोचन था। राजा बली ने चार यज्ञ की थी। बावन रूप परमात्मा को आना पड़ा।

वाणी नं. 1190-1191:-

गरीब, एक यज्ञ है धर्म की, दूजी यज्ञ है ध्यान।
तीजी यज्ञ है हवन की, चैथी यज्ञ प्रणाम।।1190।।
गरीब, च्यारि बेद का मूल सुनि, स्वसंबेद संगीत।
बलिकौं ये चारौं करी, बावन उतरे प्रीति।।1191।।

सरलार्थ:– जो चार यज्ञ राजा बली ने की, वे हैं

  1. धर्म यज्ञ
  2. ध्यान यज्ञ
  3. हवन यज्ञ
  4. प्रणाम यज्ञ।

बलि को कुछ समय के लिए पाताल लोक में छोड़ दिया है। वह वर्तमान इन्द्र के शासन काल को पूरा होने के बाद इन्द्र की गद्दी पर बैठकर स्वर्ग का राज करेगा। इतना अमर किया है बली को। (1192)

दान करने से मानव शरीर भी मिलता है। उसको मिलता है जो गुरू बनाकर धर्म करता है, यज्ञ करता है। एक बार दुर्भिक्ष गिरा था। एक धर्मात्मा ने प्रतिदिन एक (बूक) आंजला चनों की बाकली बनाकर प्रत्येक व्यक्ति को बाँटा था। वह सेठ उसके धर्म के कारण कई बार चक्रवर्ती राजा बना था। (1193)

वाणी नं. 1194-1195:-

गरीब, नाम सरीखा दान है, दान सरीखा नाम।
सुनहीकौं भोजन दिया, तीनि छिके बलिजांव।।1194।।
गरीब, बुढिया और बाजींदजी, सुनहीकै आनंद।
रोटी चारौं मुक्ति हैं, कटैं गले के फंद।।1195।।

सरलार्थ:– एक समय बाजीद राजा राज्य-घर त्यागकर जंगल में साधना कर रहे थे। एक कुतिया ने 8 बच्चों को जन्म दिया। उसको बहुत भूख लगी थी। एक बुढ़िया अपनी 4 रोटी कपड़े में बाँधकर खेत में काम के लिए जा रही थी। बाजीद ने कहा, माई! इस कुतिया को एक रोटी डाल दो, यह भूख से मरने वाली है, साथ में 8 बच्चे और मरेंगे। बुढ़िया चतुर थी, उसने कहा मेरे खून-पसीने की कमाई है, यह कैसे दे दूँ? संत ने कहा कैसे रोटी डालोगी? बुढ़िया ने कहा आप अपनी भक्ति का चैथा भाग मुझे दे दो, मैं रोटी डाल दूँगी। संत ने अपनी साधना का ( भाग संकल्प कर बुढ़िया को दे दिया। वृद्धा ने एक रोटी कुतिया को डाल दी। फिर भी कुत्ती भूखी थी। करते-करते चारों रोटी कुतिया को डाल दी और संत बाजीद जी ने अपनी सर्व भक्ति कमाई वृद्धा को संकल्प कर दी। जिससे कुतिया (सुनही) तथा उसके बच्चों का जीवन बचा। रोटी देने से माई को भक्ति की कमाई प्राप्त हुई और बाजीद जी भक्ति पुण्यहीन हो गया, परंतु कुतिया और उसके बच्चों को जीवन दान देने के कारण स्वर्ग प्राप्ति हुई।

वाणी नं. 1196:-

गरीब, राजाकी बांदी होती, रोटी देत हमेश।
चक्र भये हैं दहूं दिशा, जीते जंग नरेश।।1196।।

सरलार्थ:- एक राजा की (बांदी) नौकरानी धार्मिक थी। वह प्रतिदिन गरीबों को रोटी बाँटती थी। उसके कारण उस राजा ने कई राजाओं पर विजय प्राप्त की। उसका राज्य विशाल हो गया। जब उसने किसी ज्योतिषी से पता किया तो पता चला कि तेरी नौकरानी के द्वारा तेरे खजाने से किए रोटी दान से तुझे यह सफलता मिली है।

वाणी नं. 1192-1202 का सरलार्थ पूर्व में वाणी नं. 41-47 के सरलार्थ में कर दिया है।

वाणी नं. 1203 का सरलार्थ पहले इसी अंग में कर दिया है।

एक समय देवताओं और राक्षसों का युद्ध हुआ। एक राक्षस किसी भी शस्त्र से नहीं मर रहा था। एक ऋषि ने बताया कि इसकी मृत्यु ऋषि दधिचि की हड्डी के तीर से होगी। ऋषि दधिचि ने अपने पैर की हड्डी दान कर दी। तब वह राक्षस मरा। यह परमार्थ केवल महात्मा ही कर सकता है। (1204)

अपनी वित्तीय स्थिति के अनुसार सच्चे मन से दान किया जाए, वह वास्तव दान फलता है। (टोपी) सिर पर पहनने वाला सर्दी से बचाने वाला टोपा दान ही किया जाए। यदि अधिक दान करने का सामथ्र्य नहीं है तो यही फल देगा। (कोपी) कोपीन जो साधु लंगोट (कटिवस्त्र) पहनते हैं जो छः इंच चैड़ा तीन फुट लंबा कपड़े का टुकड़ा होता है। यदि अधिक दान करने का सामथ्र्य नहीं है तो सच्ची श्रद्धा से इतना भी दान लाभ देगा। एक बार दान करना शुरू करें। परमात्मा बरकत (लाभ) देने लगेगा। फिर दान की मात्रा बढ़ाते जाएँ। बताया है कि जब पाण्डवों को श्राप देने ऋषि दुर्वासा अठासी हजार ऋषियों की सेना लेकर गया। तब पाण्डव जंगल में तेरह वर्ष का वनवास काट रहे थे। उस समय परमात्मा श्री कृष्ण रूप में पाण्डवों के पास गए। एक साग का पत्ता ही दान किया गया था। उसी से अठासी हजार ऋषि तृप्त हो गए थे। इससे लघु दान और क्या हो सकता है? जितना घर पर बचा था, सब दान कर दिया। ऐसा दान जो सच्चे और समर्पण भाव से किया जाता है, पूरा लाभ देता है। (1205)

पारख के अंग की वाणी नं. 1206:-

गरीब, पीतांबर कूं पारि करि, द्रौपदी दिन्ही लीर।
अंधेकू कोपीन कसि, धनी कबीर बधाये चीर।।1206।।

आदि पुराण के अंग की वाणी नं. 503-508:-

द्रौपदी न्हान चली है गंगा, सहंस सुहेली कै सत्संगा।
द्रौपदी गंग किया अस्नाना, धूपदीप दे कीना ध्याना।।503।।
अंधरे की कोपीन बहाई, ढूंढत बेर लगी रे भाई।
औघट घाट द्रौपदी मेला, देख्या अंधरे का सब खेला।।504।।
चीर फारि कोपीन बहाई, द्रौपदी अधंरे आगै ल्याई।
एक तो बही गंग की धारा, दूजैं और करी जहां त्यारा।।505।।
पांच सात कोपीन बहाई, द्रौपदी मुख सें बोलत नाहीं।
लकड़ी कै जब दिया लपेटा, अंधरे सेती हो गई भेटा।।506।।
चीर फारि पीतंबर डार्या, द्रौपदी चाली नगर मंझारा।
दुःशासन योधा महमंता, दश सहंस रापति बलवंता।।507।।
गरीब, नगन अंधरे कूं दिये, द्रौपदी चीर उतार।
कोटि सहंस हो गये, दुःशासन की बार।।508।।

पारख के अंग की वाणी नं. 1206 तथा आदि पुराण की वाणी नं. 503-508 का सरलार्थ:– राजा द्रोपद की बेटी कृष्णा उर्फ द्रोपदी अपने पिता के घर पर कंवारी थी। उस नगर के साथ एक नदी बहती थी। राजा द्रोपद ने उस नहर के ऊपर अपनी रानियों तथा बेटी के स्नान के लिए एक पक्का घाट बनवा रखा था। उस घाट के आसपास कोई नर नहीं जा सकता था यानि उस घाट के आसपास नर का जाना वर्जित था। द्रोपदी प्रतिदिन नगर की सैंकड़ों सहेलियों को साथ लेकर स्नान करने जाती थी।

एक सुबह एक अंधा साधु गलती से उस ओर स्नान करने चला गया। उसे पता नहीं था कि यहाँ आसपास कोई जनाना घाट भी है। उस घाट के नीचे की ओर जिस ओर जल बहकर जा रहा था (कवूद ेजतमंउ), घाट से लगभग दो सौ फुट की दूरी पर स्नान करने लगा। उसके पास केवल एक कोपीन थी। (कोपीन एक कटिवस्त्र होता है जो छः इंच चैड़ा तथा दो-तीन फुट लंबा कपड़े का टुकड़ा है जिसे लंगोट भी कहते हैं।) दरिया में स्नान करते समय कोपीन पानी में बह गई। उसी समय द्रोपदी अपनी हजारों सहेलियों के साथ दरिया में स्नान करने के लिए वहाँ घाट पर पहुँच गई। बालिकाओं की आवाज सुनकर अंधे साधु को समझते देर नहीं लगी कि मैं किसी जनाना घाट के पास पहुँचा हूँ। उस समय साधु नग्न हो गया था। शर्म के मारे दरिया के अंदर छाती तक गहरे जल में चला गया तथा पानी पर हाथ मारने लगा कि हो सकता है कोई फटा-पुराना कपड़ा जल में बहता हुआ आ जाए। द्रोपदी भक्ति के संस्कारों युक्त थी। साधु को देखकर खुशी हुई कि साधु स्नान कर रहा है। हम भी स्नान कर लेते हैं। फिर साधु से परमात्मा की चर्चा सुनूँगी। आशीर्वाद लँूगी। आधा घंटा स्नान करके द्रोपदी घाट से बाहर आई और साधु को देखा कि कहीं चला न गया हो। साधु स्नान ही नहीं कर रहा था। कुछ खोज रहा था। द्रोपदी ने विचार किया। ध्यान लगाकर देखा तो पता चला कि साधु नंगा है। बाहर पटरी पर भी कोई कपड़ा नहीं है। द्रोपदी समझ गई कि साधु की कोपीन पानी में बह गई है। उसे यह भी ध्यान था कि यदि साधु के निकट जाकर बोलूंगी तो लड़की की आवाज सुनकर जल में और आगे भी जा सकता है। दरिया का तेज बहाव है, साधु मर जाएगा। लड़की ने अपनी स्वच्छ नई साड़ी जो प्रतिदिन बदलकर पहनती थी। राजा की लड़की थी। प्रतिदिन नई साड़ी पहनती थी। पुरानी दासियों (नौकरानियों) को देती थी। अपनी साड़ी से एक नौ इंच चैड़ा टुकड़ा साड़ी की चैड़ाई जितना लम्बा फाड़ा। जल में कोपीन के लिए छोड़ दिया। अंधा होने के कारण साधु देख नहीं पा रहा था। जिस कारण से कपड़े का टुकड़ा साथ से निकल जाता। लगभग सात टुकड़ी द्रोपदी देवी ने निःस्वार्थ फाड़कर साधु के लिए बहा दिए। परंतु बात नहीं बनी। फिर लड़की ने एक लंबी लकड़ी खोजी। उसके एक सिरे पर कोपीन के लिए कपड़ा फाड़कर लपेटा। अंधे साधु के हाथों से छू दिया। बाबा कपड़ा बहता आने की आशा में बार-बार हाथ पानी पर चला रहा था। साधु के हाथों पर कपड़ा लगा। तुरंत मजबूती से पकड़ लिया। अंधे के हाथ आँखों का कार्य करते हैं। संत को समझते देर नहीं लगी कि यह किसी बेटी की साड़ी का कपड़ा है। मेरी समस्या को समझकर पानी में डाला गया है। वह आसपास ही होगी। महात्मा ने कोपीन पर्दे पर बाँधी तथा भरे कण्ठ से भावुक होकर बोला कि बेटी! महा उपकार मेरे पर किया है। आज आपने मेरी इज्जत रखी है। मैं नंगा बाहर जाता, शर्म लगती या दरिया में ही मर जाता। हे देवी! परमात्मा तेरी इज्जत रखे। तेरे को अनंत गुना चीर परमात्मा देवे।

(साधु बोले सहज स्वभाव, साधु का बोला मिथ्या न जावै।
देते को हरि देत हैं, जहाँ तहाँ से आन। अनदेवा माँगत फिरे, साहेब सुने ना कान।।
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पारख के अंग की वाणी नं. 1206:-

गरीब, पीतांबर कूं पारि करि, द्रौपदी दिन्ही लीर।
अंधेकू कोपीन कसि, धनी कबीर बधाये चीर।।1206।।

सरलार्थ:– द्रोपदी ने अपनी साड़ी के कपड़े में से कपड़े का टुकड़ा (लीर) अंधे महात्मा को दान किया था। अंधे महात्मा ने कोपीन कसकर बांधी। धन्य हुआ। धनी कबीर सबके मालिक कबीर जी ने द्रोपदी का चीर बढ़ाया। द्रोपदी कोपीन दान करके आशीर्वाद लेकर अपने नगर में चली गई।

आदि पुराण के अंग की वाणी नं. 509-521:-

दुर्योधन राजा जहां बोले, द्रौपदी नग्न करौ पट ओले।
द्रौपदी तुंही तुंही करि टेरी, राखौ लाज मुरारी मेरी।।509।।
बिदुर कहै ये बंधू थारा, एकै कुल एकै परिवारा।
बिदुर के मुख लग्या थपेरा, तूं तौ पंडौं का है चेरा।।510।।
तूं तौ है दासी का जाया, भीष्म द्रोण कर्ण मुसकाया।
दुःशासन भरि हैं गल बांही, द्रौपदी ध्यान धर्या पद मांही।।511।।
गरीब, द्रौपदी टेरी ध्यान धरि, सुनौ पुरुष रघुबीर।
दुःशासन थाके जबै, अनंत कोटि भये चीर।।512।।
प्रियतम पूरण ब्रह्म बिनानी, मेरी लाज रखो प्रवानी।
गज ग्राह के तारन हारे, बिल्ली के सुत अग्नि उबारे।।513।।
प्रहलाद भक्त किये प्रवाना, नृसिंह रूप धर्या बिधि नाना।
पापी अधम को तारन हारे, मैं बांदी हूं पंच भर्तारे।।514।।
द्रौपदी टेर सुनी प्रवाना, द्रौपदी ह ै कैलास समाना।
जैसैं अडिग अडोलं खंभा, ध्यान धर्या है पिंड हुरंभा।।515।।
रूक्मणि कर पकर्या मुसकाई, अनंत कहा मो कूं समझाई।
दुःशासन कूं द्रौपदी पकरी, मेरी भक्ति सकलमें सिखरी।।516।।
जो मेरी भक्ति पंछोंडी होई, हमरा नाम न लेवै कोई।
तन देही सें पासा डारी, पौंहचे सूक्ष्म रूप मुरारी।।517।।
द्रुपद सुता के चीर बढाये, संख असंखौं पार न पाये।
खैंचत खैंचत खैंचि कसीसा, शिरपर बैठे हैं जगदीशा।।518।।
संखों चीर पितंबर झीनें, द्रौपदी कारण साहिब कीनें।
संखों चीर पीतंबर डारे, दुःशासन से योधा हारे।।519।।
गरीब, पंडौं सेती द्रोह करि, गये इकोतर बीर।
भीष्म द्रोण कर्ण कै, शीश चढी तकसीर।।520।।
भीष्म द्रोण कर्ण कुल द्रोहा, पंडौं सेती पकर्या लोहा।
दुर्योधन की संग्या कीन्हीं, बासुदेव की कल्प न चीन्ही।।521।।

आदि पुराण की वाणी नं. 509-521 का सरलार्थ:– धृतराष्ट्र तथा पांडू दो भाई थे। धृतराष्ट्र बड़ा था तथा अंधा था। जिस कारण से छोटे भाई पांडू को राज्य दिया गया। पांडू इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) का राजा बना। धृतराष्ट्र के एक सौ एक पुत्र जन्में। पांडू के पाँच। पांडू राजा पीलिये का रोगी था। उसकी मृत्यु हो गई। उसके बड़े बेटे युद्धिष्ठिर को राजा नियुक्त किया गया।

धृतराष्ट्र के बड़े पुत्र का नाम दुर्योधन था। उससे छोटे का नाम दुःशासन। यहाँ पर यह बताना अनिवार्य है कि द्रोपदी का विवाह अर्जुन पाण्डव के साथ हुआ था। पांडव पाँच भाई थे। 1ण् युद्धिष्ठिर 2ण् अर्जुन 3ण् भीम, ये कुंती रानी से जन्मे थे। पाण्डव राजा की दो रानियाँ थी।

माद्री पांडव राजा के साथ सती हो गई थी। तब तक अर्जुन का विवाह द्रोपदी से नहीं हुआ था। जब स्वयंवर में मछली की आँख में तीर मारकर अर्जुन ने द्रोपदी के विवाह की शर्त पूरी कर दी थी तो राजा द्रोपद ने अपनी बेटी द्रोपदी का विवाह अर्जुन से कर दिया। उस स्वयंवर में पाँचों पाण्डव गए थे। जब द्रोपदी को लेकर पाँचों पाण्डव घर आए तो कुंती माता महल के अंदर थी। दरवाजा बंद था। युद्धिष्ठिर ने आवाज लगाई, माता जी! दरवाजा खोलो। आपके पाँचों पुत्र आए हैं। एक अनमोल वस्तु लाए हैं। माता कुंती ने अंदर से ही कह दिया कि उस वस्तु को पाँचों बाँट लो। जब कुंती ने बाहर आकर देखा तो एक बहू लाए हैं। माता ने कहा कि बेटा! माता के वचन का पालन करना होगा। यह तुम पाँचों की पत्नी रहेगी।

राजा युद्धिष्ठिर ने एक अति सुंदर महल पूर्ण रूप से शीशे (glass) का बनवाया। एक दिन द्रोपदी सिर पर घड़ा लेकर प्रतिदिन की तरह तालाब से पीने का पानी लेकर घर पर आई थी। उसी समय दुर्योधन भी पाण्डवों के शीशमहल को देखने के लिए आया तो उसकी टक्कर शीशे की दीवार से हो गई क्योंकि पता नहीं लगता था कि आगे खाली स्थान है या दीवार है। टक्कर लगने से दुर्योधन धड़ाम से गिरा। द्रोपदी जोर-जोर से हँसी तथा व्यंग्य किया कि अंधे की संतान अंधी ही होती है। इस बात का दुर्योधन ने बहुत दुःख माना तथा प्रतिशोध लेने का अवसर तलाशने लगा।

दुर्योधन की आयु भी युद्धिष्ठिर की आयु के समान थी। धृतराष्ट्र के पुत्रों को कौरव कहते थे। पांडू के पुत्रों को पाण्डव कहते थे। कौरवों ने विचार किया कि दिल्ली की गद्दी पर हमारा अधिकार है क्योंकि हमारे पिता जी चाचा पांडू से आयु में बड़े थे। राजनीति का नियम है कि राजा का जो बड़ा पुत्र होगा, वह राजगद्दी पर बैठेगा। वह राजा होगा। दुर्योधन के मामा का नाम शकुनि था जो एक पैर से लंग करके (लंगड़ाकर) चलता था। उसने अपने भानजों को उकसाया कि राज पर आपका अधिकार है। जैसे-तैसे राज्य प्राप्त करो। आपको सदा पाण्डवों का गुलाम बनकर रहना होगा। मैं यह नहीं देख सकता। एक योजना बताई कि युद्धिष्ठिर राजा को जूआ खेलने के लिए खुश करो। मैं (शकुनि) युद्धिष्ठिर को हेरा-फेरी करके हरा दूँगा। यह मेरी जिम्मेदारी है। युद्धिष्ठिर जूआ खेलने को राजी हो गया। बार-बार हारता चला गया। राज्य भी हार गया। अंत में शकुनि ने कहा कि द्रोपदी को दाँव पर लगा दे, हो सकता है सब लौट आए। युद्धिष्ठिर ने द्रोपदी (अपनी पत्नी) को भी दाँव पर लगा दिया। उसमें भी युद्धिष्ठिर हार गया। शर्त थी कि जो सब हार जाएगा, वह पूरा परिवार बारह वर्ष वन में निवास करेगा। किसी बस्ती में नहीं रहेगा। एक वर्ष अज्ञातवास में रहना होगा। यदि तेरहवें वर्ष अज्ञातवास में पता लग गया तो फिर से बारह वर्ष वनवास तथा एक वर्ष अज्ञातवास की सजा होगी। यदि तेरहवें वर्ष वाला अज्ञातवास में पता नहीं लगा तो दुर्योधन का राज्य युद्धिष्ठिर को लौटाना होगा।

जब युद्धिष्ठिर द्रोपदी को भी खो बैठा तो दुर्योधन का दाँव लग गया। अब द्रोपदी दुर्योधन के कब्जे में थी। उसने अपने से छोटे भाई दुःशासन से कहा कि उस अर्जुन की रांडी द्रोपदी को सिर के बाल पकड़कर घसीटकर सभा में ला। नंगी करके मेरी जांघ पर बैठा दे। हम तो अंधे की संतान हैं। हम अंधे हैं, हमें कुछ दिखाई नहीं देता।

द्रोपदी को यह बात दौड़कर जाकर नौकरानी ने बताई कि दुर्योधन ने राजा युद्धिष्ठिर को जूआ खिलाकर सब राज्य तथा आपको भी जीत लिया है। आपको भरी सभा में नंगा किया जाएगा। दुर्योधन ने अपने भाई दुःशासन से कहा है कि द्रोपदी को सिर के बालों से (केश) पकड़कर घसीटकर लाओ। द्रोपदी ने पूछा कि सभा में कौरवों के अतिरिक्त और कौन-कौन हैं? नौकरानी ने बताया कि दादा भीष्म, गुरू द्रोणाचार्य, काका कर्ण, काका विदुर, पाँचों भाई (पाण्डव) तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति सभा में हैं। द्रोपदी ने कहा कि सभा में दादा भीष्म, काका कर्ण, काका (चाचा) विदुर, गुरू द्रोणाचार्य व मेरे पति विद्यमान हैं तो दुर्योधन की क्या मजाल मुझे छूने तक की? इतने में दुःशासन आया और बोला कि चल तुझे दिखाएँगे हम अंधे हैं या आँखों वाले। तू हमारी नौकरानी है। द्रोपदी ने बहुत विरोध किया, परंतु दुःशासन बलवान था। उसमें दस हजार हाथियों के समान शक्ति थी। द्रोपदी के केश पकड़े। घसीटकर सभा में ले गया।

दुर्योधन ने कहा कि दुःशासन नंगी कर द्रोपदी को। मेरी जांघ पर बैठा दे। द्रोपदी ने अपने पाँचों पतियों की ओर देखा। उन्होंने नीची गर्दन कर ली। फिर भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य की ओर देखा। उस समय दुःशासन ने द्रोपदी का हाथ पकड़ लिया था क्योंकि द्रोपदी साड़ी को मजबूती के साथ दोनों हाथों से पकड़े हुए थी। किसी ने भी दुःशासन व दुर्योधन से नहीं कहा कि आप गलत कर रहे हो। पंचायत में अबला के साथ अभद्र व्यवहार न करो। यदि भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कर्ण में से एक भी खड़ा होकर कह देता कि बस बहुत हो चुकी है। छोड़ दो अबला को, वरना ठीक नहीं रहेगा। किसी की हिम्मत नहीं थी कि द्रोपदी को हाथ लगा देता। परंतु इनमें से किसी ने कुछ भी नहीं कहा। नंगी होने का इंतजार करने लगे। कलमुँहों ने नजर भी नीची नहीं की। द्रोपदी के ऊपर टिका रखी थी। उस सभा में केवल इंसान विदुर था जो भक्त आत्मा पंचायती था। विदुर जी खड़े हुए और
बोले:-

विदुर कहै ये बंधू थारा, एकै कुल एकै परिवारा।।
विदुर के मुख पर लगा थपेड़ा, तूं तो है पांडवों का चेरा।।
तूं तो है बांदी का जाया, भीष्म, द्रौण, कर्ण मुस्काया।।

अर्थात् विदुर जी ने कहा कि हे दुर्योधन! आप अपनी बेइज्जती आप ही कर रहे हो। पांडव आपके चचेरे भाई हैं। आपकी और इनकी इज्जत एक है। एक कुल है, एक परिवार है। ऐसा गलत कर्म ना करो। दुर्योधन ने कहा कि हे दुःशासन! विदुर को थप्पड़ मार। यह सदा से पांडवों का पक्ष लेता है। दुःशासन ने अपने चाचा विदुर के मुख पर थप्पड़ मारा और बोला कि तू तो पांडवों का (चेरा) शिष्य है। उनका गुलाम है। तू तो बांदी (नौकरानी) से जन्मा है। इसलिए तेरे क्षत्राी वाले विचार नहीं हैं। दुःशासन से ये बात सुनकर दादा भीष्म, गुरू द्रोणाचार्य तथा कर्ण मुस्कुराये। विदुर जी सभा छोड़कर चला गया। वह अत्याचार तथा नंगापन नहीं देख पाया।

{एक सच्चे पंचायती का कत्र्तव्य बनता है कि वह सभा में सत्य का पक्ष ले। यदि कोई नहीं मानता है तो सभा छोड़कर चला जाए। विदुर जी ने कत्र्तव्य पूरा किया।} जब द्रोपदी ने देखा कि मैं जिनको अपना संरक्षक मानती थी। जिन बड़े बुजुर्गों पर विश्वास करती थी कि ये कभी अबला को नंगा नहीं होने दंेगे। यह मेरी भूल थी। अपना तो परमात्मा है। द्रोपदी श्री कृष्ण को गुरू बनाए हुए थी। आपत्ति में गुरूजी को याद किया जाता है। गुरू में आध्यात्मिक इंटरनैट लग जाता है। उसके माध्यम से भक्त की पुकार परमात्मा के पास जाती है। परमात्मा उस काॅल (ब्ंसस) को धर्मराज के पास डाइवर्ट कर देता है। धर्मराज उस जीवात्मा का पुण्य देखता है। उस पुण्य को परमात्मा के पास तुरंत ई-मेल कर देता है। परमात्मा देखता है कि इसके कौन-से धर्म-कर्म या भक्ति के कारण साधक का संकट निवारण किया जा सकता है? उस आत्मा (द्रोपदी) के खाते में अंधे महात्मा को दिए लीर (छोटा-सा कपड़े का टुकड़ा) के प्रतिफल में सहायता करनी बनती है। उसी समय कबीर परमेश्वर जी सूक्ष्म रूप में द्रोपदी के सिर पर कमल के फूल पर विराजमान हो गए।

उस समय श्री कृष्ण जी तो द्वारिका में अपनी पत्नी रूकमणी के साथ चैपड़ खेल रहे थे। श्री कृष्ण जी चैपड़ पासे डालकर अचानक बोले ‘‘अनंत’’ और ऊपर को हाथ उठा लिया। यह परमात्मा कबीर जी ने रिमोट से बुलवाया था। गुरू के माध्यम से परमात्मा की शक्ति संकट वाले साधक के पास जाती है। पासे डालकर बोलना तो चाहिए था कच्चे बारह या पक्के अठारह, परंतु बोलने लगे अनंत-अनंत। तब रूकमणी ने श्री कृष्ण जी का (कर) हाथ पकड़ा जो आशीर्वाद के लिए उठा हुआ था। पूछा कि यह अनंत किसलिए कहा? मुझे समझाओ। श्री कृष्ण की दिव्य दृष्टि परमात्मा ने खोल दी। कहा कि दुःशासन ने द्रोपदी को पकड़ रखा है। उसका चीर उतारना चाहता है। हमारी भक्ति तीन लोक में सबसे ऊँची (सकल में शिखरी) है। हमारे भक्त की हार हो गई तो हमारा नाम ना लेवे कोई।

{यह सब कुछ परमात्मा कबीर जी कृष्ण जी से बुलवा रहे थे ताकि परमात्मा में आस्था मानव की बनी रहे। काल चाहता है कि मानव गलत साधना करे। उससे उसको कोई लाभ न हो। नास्तिक हो जाए। अंधा बाबा की भूमिका भी स्वयं परमात्मा कबीर जी ने की थी। जिस कारण से उस साड़ी के कपड़े के टुकड़े का इतना अधिक फल मिला। यदि कबीर परमात्मा द्रोपदी की सहायता न करता तो द्रोपदी नंगी हो जाती। परमात्मा कबीर जी ने परमात्मा में आस्था बनाए रखने के लिए यह अनहोनी करनी थी। द्रोपदी के चीर को बढ़ाकर विश्व विख्यात चमत्कार कर दिया जो आज तक परमात्मा का गुणगान हो रहा है। कृष्ण जी के तो अनेकों भक्त हैं। किसी अन्य के लिए ऐसा चमत्कार नहीं हुआ। मेरे (संत रामपाल दास की) लोहे के तारों की जाली जो खिड़कियों पर मच्छरों के बचाव के लिए लगाई जाती है, वह कबीर परमात्मा ने लगभग एक फुट बढ़ाई। मेरे शिष्यों को कबीर परमात्मा की भक्ति से अनेकों अनहोनी हो रही हैं। उस समय जब द्रोपदी रानी का चीरहरण हो रहा था। कृष्ण जी तो द्वारिका में रूकमणी के साथ चैपड़ खेल रहे थे। रूकमणी ने सबको बताया कि कृष्ण ऐसे-ऐसे बोले। वे तो चैपड़ भी खेलते रहे, द्रोपदी का चीर भी बढ़ा दिया। संत गरीबदास जी की दिव्य दृष्टि खुली हुई थी। वे जो देख रहे थे, वह बता रहे थे। वास्तव में सब परमात्मा कबीर जी कर रहे थे। यह संत गरीबदास जी ने बार-बार स्पष्ट किया है कि:-

गरीब, भक्ति-मुक्ति के दाता सतगुरू, भटकत प्राणी फिरंदा।
उस साहेब के हुकम बिना, नहीं तरूवर पात हिलंदा।।
राम कृष्ण सतगुरू सहजादे, भक्ति हेत यूं हुए प्यादे।।

अर्थात् संत गरीबदास जी ने स्पष्ट किया है कि सतगुरू कबीर जी भक्ति-मुक्ति के दाता हैं। और कोई देव न भक्ति दे सकता, न ही मुक्ति। उस कबीर (साहेब) परमात्मा के आदेश बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। राम-कृष्ण भी परमात्मा की भक्ति करके कुछ शक्ति प्राप्त करके प्रसिद्धि पाए हुए थे। उनके आदेश से पृथ्वी पर भक्ति को कायम रखने के लिए आए थे। वे परमात्मा कबीर जी के शहजादे यानि राजकुमार थे क्योंकि इस विष्णु वाली आत्मा ने किसी मानव जन्म में परमात्मा कबीर जी की शरण में रहकर अच्छी साधना की थी। दुर्भाग्य से पार नहीं हो पाए। काल ब्रह्म के जाल में फँसे रह गए। इस आत्मा की सत्य भक्ति अधिक थी। इसको अपनी पत्नी दुर्गा देवी द्वारा जन्म देकर विष्णु पद दे रखा है। इसकी पूर्व जन्म की भक्ति की कमाई पूर्ण रूप से नष्ट करवाकर पृथ्वी के ऊपर जन्म देगा। एक मानव जन्म भी हो सकता है। फिर चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जन्म भोगेगा। प्रसंग द्रोपदी के चीरहरण का चल रहा है।}

श्री कृष्ण तो द्वारिका में चैपड़ खेल रहा था। परमात्मा कबीर (मुरारि) पापों के शत्राु द्रोपदी के सिर पर सूक्ष्म रूप में विराजमान हुए। दुःशासन चीर खैंच-खैंचकर थक गया। चीर का अंत नहीं हुआ। दुःशासन दस हजार हाथियों जितनी शक्ति वाला, द्रोपदी उसके सामने कमल के फूल जैसी नाजुक थी। फिर भी परमात्मा की भक्ति की शक्ति यानि साधु रूप कबीर परमात्मा को दिए दान के कारण चीर का अंत नहीं हुआ। द्रोपदी श्री कृष्ण की शिष्य थी। जिस कारण से उसने अपने गुरू की महिमा गाई कि मेरे गुरूजी के कारण मेरी इज्जत सुरक्षित रही है। वाणी में भी प्रमाण है कि द्रोपदी कृष्ण से अर्ज नहीं कर रही थी। वह तो परमात्मा से प्रार्थना कर रही थी। कह रही थी कि हे प्रिय पूर्णब्रह्म जी! मेरी लाज रखना। आपने सत्ययुग में गज-ग्राह (मगरमच्छ) को पार किया। अग्नि से बिल्ली के बच्चों की रक्षा की। नरसिंह रूप धारण करके भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी। हे पूर्ण परमात्मा! मेरी भी इज्जत रखो। द्रोपदी की लाज परमात्मा कबीर जी ने रखी। सभा में जिम्मेदार होने के कारण भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कर्ण ने अपना कत्र्तव्य नहीं निभाया। जिस कारण से इन तीनों को महाभारत के युद्ध में दंड मिला। बुरी मौत मरे। भक्तमती टटीरी के अण्डों की रक्षा की थी। दान का फल द्रोपदी को मिला। परंतु सतनाम-सारनाम की दीक्षा बिना पूर्ण मोक्ष नहीं मिलता। पाँचों पाण्डवों की भी पूर्व जन्म के शुभ कर्मों के कारण महाभारत में रक्षा परमात्मा कबीर जी ने की, परंतु भक्ति नहीं हुई। पाँचों पाण्डव स्वर्ग गए। फिर नरक में गिरे। युद्धिष्ठिर ने झूठ बोला था कि अश्वथामा मर गया। उसका दंड भी उसे नरक में कुछ समय रहकर भोगना पड़ा।

पारख के अंग का सरलार्थ किया जा रहा है:-

पारख के अंग की वाणी नं. 1207-1214:-

गरीब, देना जग में खूब है, दान ज्ञान प्रवेश। ब्रह्माकूं तौ जगि करि, बतलाई है शेष।।1207।।
गरीब, दान ज्ञान ब्रह्मा दिया, सकल सष्टिकै मांहि। सूंम डूंम मांगत फिरैं, जिन कुछि दीन्ह्या नांहि।।1208।।
गरीब, दान ज्ञान प्रणाम करि, होम जो हरि कै हेत। यज्ञ पंचमी तुझ कहूं, ध्यान कमल सुर सेत।।1209।।
गरीब, धर्म कर्म जगि कीजिये, कूवें बाय तलाव। इच्छा अस्तल स्वर्ग सुर, सब पथ्वी का राव।।1210।।
गरीब, भूख्यां भोजन देत हैं, कर्म यज्ञ जौंनार। सो गज फीलौं चढत हैं, पालक कंध कहार।।1211।।
गरीब, कूवें बाय तलावडी, बाग बगीचे फूल। इंद्रलोक गन कीजियें, परी हिंदोलौं झूल।।1212।।
गरीब, जती सती इंद्री दमन, बिन इच्छा बाटंत। कामधेनु कल्प वक्ष पद, तास बार दूझंत।।1213।।
गरीब, स्वर्ग नंदिनी दर बंधै, बिन इच्छा जौंनार। गण गंधर्व और मुनिजन, तीनी लोक अधिकार।।1214।।

सरलार्थ:– इन वाणियों में कहा है कि संसार में सबसे उत्तम दान यथार्थ अध्यात्म ज्ञान देना है क्योंकि तत्त्वज्ञान से पूर्ण परमात्मा की भक्ति का ज्ञान होता है। पूर्ण मोक्ष मिलता है। जीव सदा सुखी हो जाता है। अन्य दान भी आवश्यक है जिनसे अस्थाई सुख मिलता है। वाणी नं. 1209 पारख के अंग में पाँच यज्ञ करना अनिवार्य बताया है। जो दान नहीं करते, वे अगले जन्म में जब कभी मानव (स्त्री-पुरूष) का जन्म मिलता है, अति निर्धन होते हैं।

दान-धर्म का फल बताया है कि तालाब, कुँए तथा बावड़ी (बगीची) बनवाने से एक अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य मिलता है। उससे यदि स्वर्ग जाने की इच्छा करें तो स्वर्ग में कुछ समय (सुर) देव पद मिलता है। फिर अपनी करनी भोगकर पृथ्वी पर पशु-पक्षियों के जन्म प्राप्त करता है। यदि पृथ्वी पर राज्य की इच्छा करता है तो उपरोक्त पुण्य के कारण सारी पृथ्वी का राजा बनता है। फिर नरक में जाता है।

जो भूखे व्यक्तियों को भोजन खिलाता है। सारी आयु घर आए अतिथि को भोजन देते हैं या धर्म-भण्डारे करके भोजन करवाते हैं। वह अगले जन्म में जब कभी मानव जन्म मिलेगा, तब धनी सेठ बनेगा। (गज) हाथी व पालकी की सवारी करेगा। परंतु मोक्ष नहीं होगा।

कँुए, बाग, तालाब बनवाने से इन्द्र लोक में गण की पदवी प्राप्त करता है। परंतु मोक्ष नहीं होता है। यह वाणी नं. 1209 के सरलार्थ में इसी अंग में पहले लिख दिया है।

अन्य दान:– ध्रुव भक्त की माता जी सुनीती ने पुत्र को जन्म दिया। यह भी दान है। फिर पुत्र को ज्ञान दिया कि परमात्मा राज भी देता है। स्वर्ग भी देता है। भक्त प्रहलाद ने माता के उपदेश अनुसार परमात्मा से राज प्राप्ति के लिए साधना की। नारद जी से दीक्षा ली, सफल हुआ।

पतिव्रता पत्नी का मिलना दुर्लभ है। जो अन्य पुरूष से प्रेम न करे। उस घर में संकट कम आते हैं। भक्त शेख फरीद को परमात्मा के कँुए में दर्शन हुए।