- पारख का अंग (1134 – 1180)
- कबीर परमात्मा ने एक रोटी के बदले सात पीढ़ी का राज तैमूरलंग को दिया
पारख के अंग की वाणी नं. 1134-1146:-
गरीब, सील मांहि सर्व लोक हैं, ज्ञान ध्यान बैराग। जोग यज्ञ तप होम नेम, गंगा गया प्रयाग।।1134।।
गरीब, कहाँ सुरग पाताल सब, और कहां मत्यु लोक। फिर पीछै कौं क्या रहा, जब आया संतोष।।1135।।
गरीब, बिवेक बिहंगम अचल है, आया हृदय मांहि। भक्ति मुक्ति और ज्ञान गति, फिर पीछै कछु नांहि।।1136।।
गरीब, दया सर्वका मूल हैं, क्षमा छिक्या जो होय। त्रिलोकी कौं त्यार दे, नाम परमेश्वर गोय।।1137।।
गरीब, दश हजार रापति बल, कामदेव महमन्त। ता शिर अंकुश शीलका, तोरत गज के दंत।।1138।।
गरीब, क्रोध बली चंडाल है, बल रापति द्वादश सहंस। एक पलक में डोबिदे, अनंत कोटि जीव हंस।।1139।।
गरीब, ता शिर अंकुश क्षमाका, मारै तुस तुस बीन। त्रिलोकी सें काढि दे, जै कोय साधु प्रबीन।।1140।।
गरीब, लोभ सदा लहर्या रहै, त्रिलोकी में अंछ। बलरापति बीस सहंस हैं, पलक पलक प्रपंच।।1141।।
गरीब, ता अंकुश संतोष है, त्रिलोकी सें काढि। काटै कोटि कटक दल, संतोष तेग बड़ बाड।।1142।।
गरीब, मोह मुवासी मस्त है, बलरापति तीस सहंस। त्रिलोकी परिवार है, जहां उपजै तहां वंश।।1143।।
गरीब, ता शिर अंकुश बिवेक है, पूरण करैं मुराद। त्रिलोकी की बासना, ले बिवेक सब साधि।।1144।।
गरीब, सरजू सिरजनहार है, जल न्हाये क्या होय। भक्ति भली परमेश्वर की, नाम बीज दिल बोय।।1145।।
गरीब, ये बैरागर छिप रहैं, हृदय कमल कै मांहि। नघ पत्थर एक ठौर हैं, बीनैं जिस बलि जांहि।।1146।।
सरलार्थ:– इन वाणियों में विशेष ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान पहले कई अंगों में वर्णन है। इनमें बताया है कि (शील) संयम, संतोष, विवेक, दया, क्षमा आदि ये गुण इंसान में होने चाहिएँ।
काम (स्त्री भोग = sex), क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार से भक्त को बचना चाहिए। इनसे बचना जीव के वश में नहीं है। साधना से बचाव होता है। साधना भी सतपुरूष कबीर जी की करने से लाभ होता है।
- काम (sex) में दस हजार हाथियों जितना बल है, समाधान शील है।
- क्रोध में बारह हजार हाथियों जितना बल है, समाधान क्षमा करना है।
- लोभ में बीस हजार हाथियों का बल है, समाधान संतोष करना है।
- मोह में तीस हजार हाथियों जितना बल है, समाधान विवेक है।
- अहंकार सर्वनाश करने वाला है। इसमें छत्तीस हजार हाथियों का बल है। समाधान आधीनी भाव करना है।
पारख के अंग की वाणी नं. 1147-1169:-
गरीब, मन को मुरजीवा करैं, गोता दिल दरियाव। माणिक भरे समुद्र में, बाहिर लेकै आव।।1147।।
गरीब, बैरागर के गंज हैं, ऊंचै शून्य सुमेर। तापर आसन मार कर, सुन मुरली की टेर।।1148।।
गरीब, बाजै मुरली कौहक पद, बिना कण्ठ मुख द्वार। आठ बखत सुनता रहै, सुनि अनहद झनकार।।1149।।
गरीब, उस मुरली की लहरि सैं, कहर जरैं ज्यौं घास। आठ बखत पद में रहै, कोई जन हरि के दास।।1150।।
गरीब, मुरली मधुर अधर बजै, राग छतीसौं बैंन। इत उत मुरली एक हैं, चरनां बिसरी धैंन।।1151।।
गरीब, मुरली उरली बिधि नहीं, बाजत है परलोक। सरब जीव अचराचरं, सुनि करि पाया पोष।।1152।।
गरीब, मुरली मदन मुरारि मुख, बाजी नन्द द्वार। सकल जीव ल्यौलीन गति, सुनिया गोपी ग्वाल।।1153।।
गरीब, बाजत मुरली मुख बिना, सुनियत बिनही कान। स्वर्ग सलहली गर्ज धुन,फिर भी अबिगत पद निर्वाण।।1154।।
गरीब, मुरली बजै कबीर की, परखो मुरली बिबेक। ताल ख्याल नहीं भंग होय, बाजैं बजैं अनेक।।1155।।
गरीब, अनंत कोटि बाजै बजैं, ता मधि मुरली टेर। रनसींगे सहनाईयां, झालरि झांझरि भेर।।1156।।
गरीब, बजैं नफीरी शुन्य में, घट मठ नहीं आकाश। सो जन भिन्न भिन्न सुनत हैं, जो लीन करैं दमश्वास।।1157।।
गरीब, मुरली गगन गर्ज धुनि, जहां चन्द्र नहीं सूर। नाद अगाध घुरैं जहां, बाजत अनहद तूर।।1158।।
गरीब, तूर दूर नहीं निकट हैं, तन मन करि ले नेश। मुरली के मोहे पडे, ब्रह्मा बिष्णु महेश।।1159।।
गरीब, बिष्णु सुनी शंकर सुनी, ब्रह्मा सुनी एक रिंच। पारब्रह्म कूं मोहिया, और भू आत्म पंच।।1160।।
गरीब, मुरली सरली सुरति सर, जिन सरबर तूं न्हाय। अनंत कोटि तीरथ बगै, परबी द्यौं समझाय।।1161।।
गरीब, मुरली बजै अगाधि गति, शिब विरंच बिष्णु सुन लीन्ह। उस मुरली की टेर सुन, नारद डारी बीन।।1162।।
गरीब, नारद शारद सब थके, सनक सनन्दन संत। अनंत कोटि जुग कलप क्या, बाजत हैं बे अंत।।1163।।
गरीब, सुन्दर मुर्ति मोहनी, पीतांबर पहिरानं। मुरली जाके मुख बजै, दर दिवाल गलतानं।।1164।।
गरीब, कालंदरी के तीर, बाजी मुरली मुख कबीर। सुनी ब्रह्मा बिष्णु महेश कुं, और दरिया का नीर।।1165।।
गरीब, सूक्ष्म मूर्ति स्वर्ग में, छत्रसेत शिर शीश। बाहर भीतर खेलता, है कबीर अबिगत जगदीश।।1166।।
गरीब, भिरंग नाद अगाध गति, राग रूप होय जात। नूरी रूप हो गया, पिण्ड प्राण सब गात।।1167।।
गरीब, उस मुरली की टेर सुनि, फेरि धरत नहीं जूंनि। आसन गगन औजूद बिन, बिचरत शून्य बेशुंनि।।1168।।
गरीब, बिन शाखा फूलै फलै, बिना मूल महकंत। बिना घटा लखि दामनी, बिन बादल गरजंत।।1169।।
सरलार्थ:– जैसे समुद्र में मोती हैं। (मूरजीवा) गोताखोर होकर समुद्र से मोती लाता है। ऐसे मानव के दिल रूपी दरिया में परमात्मा की शक्ति का खजाना है। सत्य साधना करने से वह भक्त की आत्मा में प्रवेश कर जाती है। जैसे कोई बैंक में नौकरी करता है। बैंक रूपयों से भरा है, परंतु वह नौकरी करता रहेगा तो बैंक से उसकी तनख्वाह उसे मिल जाएगी, उसके खाते में आ जाएगी। (1147)
(बैरागर) हीरों के (गंज) खजाने हैं, ऊँचे-ऊँचे ढ़ेर लगे हैं। तापर आसन लायकर यानि भक्ति करने से भक्त को अध्यात्मिक शक्ति मिलती है। परमात्मा के पास तो शक्ति के पहाड़ हैं। सुमेरू पर्वत सबसे विशाल माना जाता है। उससे परमात्मा की शक्ति की उपमा की है कि सत्य साधना करने से भक्त की भक्ति की कमाई (धन) अत्यधिक हो जाएगा। उसके कारण शरीर में धुन (संगीत) सुनाई देने लगेगा। वैसे तो परमात्मा के सतलोक में असँख्यों धुन (संगीत की ध्वनि) हो रही हैं। जब भक्ति कमाई (शक्ति) अधिक हो जाती है, तब मूरली की (टेर) ध्वनि सुनाई देने लगती है। इसलिए उपमात्मक तरीके से समझाया है कि सुमेरू पर्वत जितनी विशाल भक्ति की शक्ति हो जाए, तब उसे सुमेरू जैसी भक्ति के बाद मुरली सुनाई देगी। तब आपका सत्यलोक जाने का मार्ग खुल गया है। जीवात्मा उसे सुनती-सुनती उस ओर चलती है। सतलोक पहुँच जाती है। वह निरंतर बजती रहती है। उस मुरली की आवाज सुनने से (कहर) भयंकर दंड देने वाले पाप ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे सूखा घास जलकर भस्म बन जाता है।
श्री कृष्ण जी नंद बाबा के द्वार पर पृथ्वी पर मुरली बजाते थे तो अनेकों गोपियाँ (गौ पालन करने वालों की पत्नियाँ) तथा ग्वाले सुनकर मस्त हो जाते। गोपियाँ रात्रि में अपने पतियों को सोये हुए छोड़कर चुपचाप मुरली सुनने चाँदनी रात्रि में जंगल में श्री कृष्ण के पास चली जाती थी।
परंतु जो मुरली सतपुरूष कबीर जी के सत्यलोक में बज रही है, उसकी मधुरता तथा आकर्षण श्री कृष्ण वाली मुरली से असँख्य गुणा अधिक है। स्वर्ग में बादल की गर्ज जैसी आवाज आती है। (अविगत पद निर्वाण) पूर्ण मोक्ष की पद्यति भिन्न है। कबीर परमात्मा की मुरली की ध्वनि को परखो जो सत्यलोक में बज रही है। काल ने धोखा देने के लिए ब्रह्मलोक में भी मुरली की ध्वनि चला रखी है जो सतपुरूष कबीर जी की सत्यलोक वाली मुरली की ध्वनि की तुलना में बहुत खराब है। सत्यलोक में असँख्यों बाजे बज रहे हैं। संगीत चल रहा है। उनके बीच में ही मुरली की ध्वनि भी चल रही है।
जो मुरली काल ब्रह्म ने ब्रह्मलोक में नकली बजा रखी है, परमात्मा कबीर जी ने अपने लोक वाली मुरली ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को एक-एक बार सुनाई थी। वे उस मुरली की (टेर) ध्वनि पर मोहित हो गए हैं। परंतु उनकी साधना सतलोक वाली नहीं है। इसलिए वे उसे नहीं सुन पा रहे हैं।
परमात्मा कबीर जी अच्छी भक्त आत्माओं को मिलते हैं। इस क्रम में ऋषि नारद को भी मिले थे। उसे भी सतलोक वाली मुरली एक बार सुनाई थी। कुछ समय तक नारद जी सुनते रहे। उस मुरली की सुरीली ध्वनि को सुनकर नारद मुनि ने अपनी मुरली फैंक दी कि यह तो उस मुरली की तुलना में कुछ मायने नहीं रखती। (1148-1164)
जिस समय परमात्मा कबीर जी काशी नगर (भारत) में जुलाहे की भूमिका करके तत्त्वज्ञान प्रचार किया करते थे। उस समय धनी धर्मदास जी को मिले थे। सेठ धर्मदास जी श्री कृष्ण के परम भक्त थे। बाद में तत्त्वज्ञान सुनकर तथा सत्यलोक में परमात्मा कबीर जी को आँखों देखकर मान गए थे कि समर्थ परमात्मा कबीर जी हैं। एक दिन चलती बात पर धर्मदास जी ने कहा कि हे सतगुरू देव! श्री कृष्ण की मुरली की ध्वनि में इतना आकर्षण था, बताते हैं कि गौएँ, गोपियाँ तथा ग्वाले आकर्षित होकर उसकी ओर स्वतः चले आते थे। ऐसी क्या शक्ति थी उनमें? परमात्मा बोले कि हे धर्मदास! इसका उत्तर जुबानी नहीं दिया जा सकता। कार्यरूप देकर (च्तंबजपबंससल) उत्तर दिया जाएगा। चलो उस स्थान पर जहाँ श्री कृष्ण मुरली बजाया करते थे। परमात्मा कबीर जी अपने प्रिय भक्त धर्मदास जी को साथ लेकर कालंदरी (यमुना) के उस तट पर गए जहाँ श्री कृष्ण मुरली बजाया करते। कबीर परमात्मा ने आकाश की ओर संकेत किया। एक मुरली उनके हाथ में आ गई। परमात्मा ने मुरली बजानी प्रारम्भ की। आसपास के क्षेत्र के सभी स्त्री-पुरूष, पशु-पक्षी, स्वर्ग लोक के देवता, स्वर्ग गए हुए ऋषि-मुनि, तीनों ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी अपने-अपने लोक त्यागकर मुरली की (टेर) ध्वनि सुनने आए थे।
यमुना नदी का जल भी परमात्मा की मुरली की टेर सुनने के लिए रूक गया। एक पहर यानि तीन घण्टे तक मुरली बजाई। सब यथास्थिति में खड़े रहे। टस से मस भी नहीं हुए। जब मुरली रूकी तो सब कबीर जी की जय-जयकार करने लगे। स्थानीय लोगों ने जानना चाहा कि यह कौन देव है जिसने इतनी मधुर मुरली बजाई है। इनकी शक्ति का कोई वार-पार नहीं है। उन्हें बताया गया कि ये पूर्ण परमात्मा हैं। काशी में जुलाहे का कार्य कर रहे हैं। सब अपने-अपने स्थान को लौट गए।
संत मलूक दास जी को परमात्मा कबीर जी मिले थे। सत्यलोक दिखाया। अपने से परिचित करवाया था। उन्होंने कहा था:-
एक समय गुरू मुरली बजाई, कालंदरी के तीर। सुरनर मुनिजन थकत भए थे, रूक गया जमना नीर।
जपो रे मन साहेब नाम कबीर।। (1165)
परमात्मा कबीर जी सूक्ष्म रूप में स्वर्ग में गुप्त निगरानी रखते हैं। सत्यलोक में सिंहासन पर बैठे हैं। सिर के ऊपर सफेद (white) छत्र लगा रखा है। नराकार है। उस मुरली की टेर सुनकर यदि साधक शरीर त्याग देता है तो वह बहुत समय तक पुनर्जन्म नहीं लेता। उसमें आकाश में उड़ने की सिद्धि आ जाती है। वह ऊपर सुन्न में तथा अन्य शून्य स्थानों में भ्रमता रहता है। उसे कोई (आसन) ठिकाना नहीं होता। उसका स्थूल शरीर भी नहीं होता। सूक्ष्म शरीर में अपनी भक्ति को खा-खर्चकर पुनः पृथ्वी पर मानव जन्म भी प्राप्त कर सकता है। चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में भी जन्म ले सकता है। (1166-1168)
सतलोक में परमात्मा की शक्ति से फूल बिना शाखा के दिखाई देते हैं। यह कुछ क्षेत्र है। बिना घटा बादल के (दामिनि) बिजली देखो। बिना बादल के बादल की गर्जना सुनो। ऐसा दिव्य है सतलोक। (1169)
‘‘तैमूरलंग को सात पीढ़ी का राज्य कबीर जी ने दिया’’
‘‘कबीर परमात्मा ने एक रोटी के बदले सात पीढ़ी का राज तैमूरलंग को दिया’’
पारख के अंग की वाणी नं. 1170-1180:-
गरीब, दिल्ली अकबराबाद फिरि, लाहौराकूं जात। रोटी रोटी करत हैं, किन्हें न बूझी बात।।1170।।
गरीब, तिबरलंग तालिब मिले, एक रोटी की चाह। जिंदा रूप कबीर धरहीं, तिबरलंग सुनि राह।।1171।।
गरीब, रोटी पोई प्रीतसैं, जलका ठूठा हाथि। जिंदेकी पूजा करी, मात पुत्र दो साथ।।1172।।
गरीब, संकल काढी चीढकी, सन्मुख लाई सात। लात धमूक्के लाय करि, जिंदा भया अजाति।।1173।।
गरीब, रोटी मोटी हो गई, साग पत्र बिस्तार। सहंस अठासी छिकि गये, पंडौं जगि जौंनार।।1174।।
गरीब, दुर्बासा पूठे परै, कौरव दीन शराप। पंडौं पद ल्यौलीन हैं, कौरव तीनौं ताप।।1175।।
गरीब, अठारा खूंहनि खपि गइ, दुर्योधन बलवंत। पंडौं संग समीप हैं, आदि अंत के संत।।1176।।
गरीब, तिबरलंग हुम्यौं रहैं, मन में कछु न चाह। मौज मेहर मौला करी, दीन्या तख्त बठाय।।1177।।
गरीब, हिंद जिंद सबही दीई, सेतबंध लग सीर। गढगजनी ताबै करी, जिंदा इसम कबीर।।1178।।
गरीब, सात सहीसल नीसलीं, पीछै डिगमग ख्याल। औंरंगजेबअरु तिबरलग, इन परि नजरिनिहाल।।1179।।
गरीब, अगले सतगुरु शेर थे, पिछले जंबुक गीद। यामें भिन्न न भांति है, देखि दीद बरदीद।।1180।।
पारख के अंग की वाणी नं. 1170-1180 का सरलार्थ:– परमेश्वर कबीर जी एक जिंदा बाबा का वेश बनाकर पृथ्वी के ऊपर धार्मिकता देखना चाहते थे। वैसे तो परमात्मा कबीर जी अंतर्यामी हैं, फिर भी संसार भाव बरतते हैं। जिंदा बाबा के वेश में कई शहरों-गाँवों में गए, एक रोटी माँगते रहे। अन्न का अभाव रहता था। बारिश पर खेती निर्भर थी। जिस कारण से अधिकतर व्यक्तियों का निर्वाह कठिनता से चलता था। जब परमात्मा चलते-चलते उस नगर में आए जिसमें तैमूरलंग मुसलमान लुहार अपनी माता के साथ रहता था। तैमूर के पिता की मृत्यु हो चुकी थी। तैमूर अठारह वर्ष की आयु का था। निर्धनता कमाल की थी। कभी भोजन खाने को मिलता, कई बार एक समय का भोजन ही नसीब होता था। तैमूरलंग की माता जी बहुत धार्मिक स्त्री थी। कोई भी यात्री साधु या सामान्य व्यक्ति द्वार पर आता था तो उसे खाने के लिए अवश्य आग्रह करती थी। स्वयं भूखी रह जाती थी, रास्ते चलते व्यक्ति को अवश्य भोजन करवाती थी। जिस दिन परमात्मा जिंदा रूप में परीक्षा के उद्देश्य से आए, उस दिन केवल एक रोटी का आटा बचा था। तैमूरलंग को भोजन खिला दिया था। स्वयं भी खा लिया था। शाम के लिए केवल एक रोटी का आटा शेष था।
तैमूरलंग अमीर व्यक्तियों की भेड़-बकरियों को चराने के लिए जंगल में प्रतिदिन ले जाया करता। वह किराये का पाली था। धनी लोग उसे अन्न देते थे। निर्धनता के कारण तैमूरलंग एक लौहार के अहरण पर शाम को बकरी-भेड़ गाँव लाने के बाद घण की चोट लगाने की ध्याड़ी करता था। उससे भी अन्न मिलता था।
जिस दिन परमात्मा तैमूरलंग को जंगल में मिले। उस दिन भी तैमूरलंग प्रतिदिन की तरह भेड़-बकरियाँ चराने जंगल में गाँव के साथ ही गया हुआ था। जब परमात्मा तैमूरलंग को मिले तथा रोटी माँगी तो तैमूरलंग खाना खा चुका था। तैमूरलंग ने कहा कि महाराज! आप बैठो। मेरी भेड़-बकरियों का ध्यान रखना कि कहीं कोई गुम न हो जाए। मैं निर्धन हूँ। भाड़े पर बकरियों तथा भेड़ों को चराता हूँ। मैं घर से रोटी लाता हूँ। यहाँ पास में ही हमारा घर है। परमात्मा ने कहा ठीक है, संभाल रखूँगा। तैमूरलंग घर गया। माता को बताया कि एक बाबा कई दिन से भूखा है। रोटी माँग रहा है। माता ने तुरंत आटा तैयार किया। एक रोटी बनाई क्योंकि आटा ही एक रोटी का बचा था। एक रोटी कपड़े में लपेटकर जल का लोटा साथ लेकर बाबा जी के पास दोनों माँ-बेटा आए। रोटी देकर जल का लोटा साथ रख लिया। माता तथा बेटे ने बाबा जी की स्तूति की तथा माता ने कहा, महाराज! हम बहुत निर्धन हैं। दया करो, कुछ रोटी का साधन बन जाए। बाबा ने रोटी खाई। तब तक माई ने आँखों में आँसू भरकर कई बार निवेदन किया कि मेहर करियो दाता। बाबा जिंदा ने रोटी खाकर जल पीया। बकरी बाँधने की सांकल (बेल) लेकर उसको तैमूरलंग की कमर में सात बार मारा। चीढ़ की सण की बेल थी। चीढ़ को कामण भी कहते हैं। कामण की छाल का रस्सा बहुत मजबूत होता है। फिर लात मारी तथा मुक्के मारे। माता को लगा कि मैंने बाबा को बार-बार बोल दिया जिससे चिढ़कर लड़का पीट दिया। माई ने पूछा कि बाबा जी! बच्चे ने क्या गलती कर दी। माफ करो, बच्चा है। परमात्मा बोले कि माई! इस एक रोटी का फल तेरे पुत्र को सात पीढ़ी का राज्य का वरदान दिया है जो सात बार बेल (संाकल) मारी है। जो लात तथा मुक्के मारे हैं, यह इसका राज्य टुकड़ों में बँट जाएगा। माई को लगा कि बाबा पागल है। रोटी शाम की नहीं, कह रहा है तेरा बेटा राज करेगा। माई विचार कर ही रही थी कि बाबा जिंदा अंतध्र्यान हो गया।
कुछ दिन के पश्चात् गाँव की एक जवान लड़की को राजा के सिपाही उठाने की कोशिश कर रहे थे। वे राजा के लिए विलास करने के लिए ले जाना चाहते थे। तैमूरलंग दौड़ा-दौड़ा गया। सिपाहियों को लाठी से पीटने लगा। कहने लगा कि हमारी बहन हमारी इज्जत है। दुष्ट लोगो! चले जाओ। परंतु वे चार-पाँच थे। घोड़े साथ थे। उन्होंने तैमूरलंग को बहुत पीटा। मृत समझकर छोड़ दिया और लड़की को उठा ले गए। तैमूरलंग होश में आया। गाँव में चर्चा चली की तैमूरलंग ने बहादुरी का काम गाँव की इज्जत के लिए किया। अपनी जान के साथ खेलकर गाँव की इज्जत बचानी चाही। गाँव के प्रत्येक व्यक्ति की हमदर्दी का पात्र बन गया।
एक रात्रि को स्वपन में बाबा जिंदा तैमूरलंग को दिखाई दिया और बोला कि जिस लुहार के अहरण पर शाम को नौकरी करता है, उसके नीचे खजाना है। तू उस स्थान को मोल ले ले। मैं उस लुहार के मन में बेचने की प्रेरणा कर दूँगा। दो महीने की उधार कह देना। तैमूरलंग ने अपना सपना अपनी माता जी को बताया। जो-जो बात परमात्मा से हुई थी, माता जी को बताई। माता जी ने कहा, बेटा! बाबा जी मुझे भी आज रात्रि में स्वपन में दिखाई दिए थे। कुछ कह रहे थे, मुझे स्पष्ट नहीं सुनाई दिया। माता ने कहा कि बाबा जी की बात सच्ची है तो बेटा धन्य हो जाएँगे। तू जा, अहरण वाले से बात कर।
अहरण वाले के मन में कई दिन से प्रबल प्रेरणा हो रही थी कि यह स्थान कम पड़ गया है। मेरी दूसरी जगह जमीन बड़ी है। इसे कोई उधार भी ले ले तो दे दूँगा। मैं अपने बड़े प्लाट में अहरण लगा लूँगा।
तैमूरलंग अहरण वाले मालिक के पास गया और वर्तमान अहरण वाली जगह को उधार लेने की प्रार्थना की। अहरण वाला बोला कि बात पक्की करना। जो समय रूपये देने का रखा जाएगा, उस समय रूपये देने होंगे। तैमूरलंग ने कहा कि दो-तीन महीने में रूपये दे दूँगा। अहरण वाला तो एक वर्ष तक उधार पर देने को तैयार था। बात पक्की हो गई। तीसरे दिन अहरण वाली जगह खाली कर दी गई। तैमूरलंग ने अपनी माता जी के सहयोग से उस जगह की मिट्टी के डलों की चारदिवारी बनाई। वहाँ पर झोंपड़ी डाल ली। रात्रि में खुदाई की तो खजाना मिला। अहरण वाला पुराना अहरण भी उसे दे गया। उसके कुछ रूपये ले लिए। स्वयं नया अहरण ले आया। परमात्मा स्वपन में फिर तैमूरलंग को दिखाई दिए तथा कहा कि बेटा! खजाने से थोड़ा-थोड़ा धन निकालना। उससे एक-दो घोड़ा लेना। उन्हें मंहगे-सस्ते, लाभ-हानि में जैसे भी बिके, बेच देना। फिर कई घोड़े लाना, उन्हें बेच आना। जनता समझेगी कि तैमूरलंग का व्यापार अच्छा चल गया। तैमूरलंग ने वैसे ही किया। छः महीने में अलग से जमीन मोल ले ली। पहले भेड़-बकरियाँ खरीदी, बेची। फिर सैंकड़ों घोड़े वहाँ बाँध लिए। उन्हें बेचने ले जाता, और ले आता। गाँव के नौजवान लड़के नौकर रख लिए। बड़ा मकान बना लिया। तैमूरलंग को वह घटना रह-रहकर कचोट रही थी कि यदि मैं राजा बन गया तो सर्वप्रथम उस अपराधी बेशर्म राजा को मारूँगा जिसने मेरे गाँव की इज्जत लूटी थी। जवान लड़की को उसके सैनिक बलपूर्वक उठाकर ले गए थे। अब तैमूरलंग के साथ धन था। जंगल में वर्कशाॅप बनाई। लुहार कारीगर था, स्वयं तलवार बनाने लगा। गाँव के नौजवान व्यक्तियों को अपना उद्देश्य बताया कि उस राजा को सबक सिखाना है जिसने अपने गाँव की बेटी की इज्जत लूटी है। मैं सेना तैयार करूँगा। जो सेना में भर्ती होना चाहे, उसे एक रूपया तनख्वाह दूँगा। उस समय एक रूपया चाँदी का बहुत होता था। जवान लड़के सैंकड़ों तैयार हो गए। वे अपने रिश्तेदारों को ले आए। इस प्रकार बड़ी सेना तैयार की। लुहार कारीगर तनख्वाह पर रखे। तलवार-ढ़ाल तैयार करके उस राजा पर धावा बोल दिया। उसे अपने आधीन कर लिया। उसका राज्य छीन लिया। उसको मारा नहीं, अलग गाँव में भेज दिया। उसके निर्वाह के लिए महीना देने लगा। धीरे-धीरे तैमूरलंग ने इराक, ईरान, तुर्किस्तान पर कब्जा कर लिया। फिर भारत पर भी अपना शासन जमा लिया। दिल्ली के राजा ने उसकी पराधीनता (गुलामी) स्वीकार नहीं की, उसे मार भगाया। उसके स्थान पर बरेली के नवाब को दिल्ली का वायसराय बना दिया जो तैमूरलंग का गुलाम रहा। उसे प्रति छः महीने फसल कटने पर कर देकर आता था। तैमूरलंग की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली के वायसराय ने कर देना बंद कर दिया। स्वयं स्वतंत्र शासक बन गया। तैमूरलंग का पुत्र दिल्ली का राज्य लेना चाहता था तो उसे नहीं दिया। बाबर तैमूरलंग का तीसरा पोता था। उसने बार-बार युद्ध करके अप्रैल सन् 1526 में भारत का राज्य प्राप्त कर लिया। बाबर का पुत्र हमायूं था। हमायूं का अकबर, अकबर का जहांगीर, जहांगीर का शाहजहां, शाहजहां का पुत्र औरंगजेब हुआ। सात पीढ़ियों ने भारत पर राज्य किया। इतिहास गवाह है। फिर औरंगजेब के बाद राज्य टुकड़ों में बँट गया। अन्नदेव की आरती में भी संत गरीबदास जी ने कहा है कि:-
रोटी तैमूरलंग कूं दिन्ही, तातें सात पादशाही लिन्हीं।।
तैमूरलंग को परमात्मा उसी जिंदा वाले वेश में फिर मिले जब वह अस्सी (80) वर्ष का हो गया था। शिकार करने गया था, राजा था। तब उसको समझाया कि भक्ति कर राजा, नहीं तो (दोजख) नरक में गिरेगा। भूल गया वो दिन जब एक रोटी ही घर पर थी। उस समय तैमूरलंग बाबा के चरणों में गिर गया। दीक्षा ली। राज्य पुत्र को दे दिया। दस वर्ष और जीवित रहा। वह आत्मा जन्म-मरण में है। परंतु भक्ति का बीज पड़ गया है। यदि उस निर्धनता में भक्ति करने को कहता तो नहीं मानना था। परमात्मा कबीर जी ही जानते हैं कि काल की जकड़ से कैसे जीव को निकाला जा सकता है।
वाणी नं. 1180 का सरलार्थ:– धर्म (मजहब) कोई भी है, जो उसके प्रवर्तक होते हैं, वे साफ-सुथरे (स्वच्छ) व्यवहार के होते हैं। धर्म-कर्म करने वाले, परमात्मा से डरने वाले होते हैं। बाद में केवल दिखावा रह जाता है। इसका ध्यान देकर देखा जा सकता है। यही होता है। इस बात में कोई अंतर नहीं है। सतगुरू फिर से धर्म को सुधारता है। सत्य साधना पर लगाता है।