Muktibodh - Sant Rampal Ji

कबीर सागर | ज्ञान प्रकाश – 9 | पारख का अंग

दीक्षा बिना आरती-चैंका भी दी जाती है, वह भी समान लाभदायक है

प्रमाण:– पवित्र कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ पृष्ठ 56 पर।

अन्य प्रमाण:- 1 संत दादू जी को जंगल में पान के पत्ते पर जल डालकर पिलाया। इस प्रकार प्रथम नाम दीक्षा बिना चैका-आरती के दी थी।

2 संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा वाले) को जंगल में कंवारी गाय के दूध को पिलाकर बिना चैका-आरती के दीक्षा दी थी।

3 संत नानक देव जी को अपने करमण्डल से जल पिलाकर बिना आरती-चैका के दीक्षा दी थी।

4 संत घीसा दास जी (खेखड़ा वाले) को भी बिना चैका-आरती के दीक्षा दी थी।

जैसा कि परमेश्वर कबीर जी ने अनुराग सागर के पृष्ठ 140 पर स्पष्ट किया है कि हे धर्मदास! आपके वंश वाली छठी गद्दी के महंत तो काल के चलाए 12 पंथों में से जो टकसारी पंथ वाला (पाँचवां) है। वह भ्रमित करके अपने वाला नकली नाम तथा नकली आरती चैंका विधान बनाएगा और वह छठी पीढ़ी वाला तेरा वंशज भ्रमित होकर टकसारी पंथ वाला पान यानि नाम लेकर वही आरती चैंका किया करेगा। (जो वर्तमान में धर्मदास जी की वंश गद्दी वाले कर रहे हैं) इस प्रकार तेरे शेष वंश गद्दी वाले सत्य भक्ति न कर सकते और न अनुयाईयों को करा पाएंगे। इसलिए मेरा (परमेश्वर कबीर जी का) नाद (वचन परंपरा वाला अंश) का अंश आएगा जो शिष्य परंपरा से होगा। उससे मेरा यथार्थ कबीर पंथ उजागर (प्रकाशित=प्रसिद्ध) होगा। प्रमाण:- अनुराग सागर पृष्ठ 141

वाणी इस प्रकार है:- पृष्ठ 140:-

नाद बिन्द जो पंथ चलावै। चूरामणि (चूड़ामणि) हंसन मुक्तावै।।

भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को संतोष दिलाने के लिए उसके छोटे पुत्र चूड़ामणि (मुक्तामणि) जी को गुरू गद्दी का अधिकारी बनाया था। स्वयं उनको केवल प्रथम मंत्र से 5 नाम (मूल कमल से कण्ठ कमल तक) ही दिए थे। ये ही आगे अपने शिष्यों को देने का निर्देश दिया था। सार शब्द नहीं दिया था क्योंकि वह तो इस समय तक छुपाकर (गुप्त) रखना था जब तक 5505 (पाँच हजार पाँच सौ पाँच) वर्ष कलयुग के न बीत जाएं।

(प्रमाण:-अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 137 तथा अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 1937 पर)

यहाँ पर कहा है कि मेरा नाद (वचन का पुत्र यानि शिष्य) और तेरा बिन्द यानि शरीर का पुत्र चूड़ामणि जो पंथ चलाएगा और जीवों को मुक्त करेगा। {सेठ धर्मदास जी को सांत्वना देने के लिए परमेश्वर कह रहे हैं कि तेरा बिन्द वाला जो जीवों को मोक्ष प्रदान करेगा। वास्तविकता यह है कि जब तक सारशब्द प्राप्त नहीं होगा, तब तक काल हटा न जाने यानि सार शब्द बिन मुक्ति नहीं होती। वह सार शब्द तो चूड़ामणि के पास था ही नहीं।}

धर्मदास तव अंश अज्ञाना। चीन्ह नहीं वो अंश सहिदाना।।
जस कुछ आगे होईह भाई। सो चरित्र तोहि कहों बुझाई।।
छटे पीढ़ी बिन्द तव होई। भूलै वंश बिन्द तव सोई।।
टकसारी का ले है पाना। अस तव बिन्द होय अज्ञाना।।
चाल हमारा बंश तव झाड़ै (छोड़ै)। टकसारी का मत सब मांडै।।
चैंका (आरती) वैसे करे बनाई। बहुत जीव चैरासी जाई।।
होवे दुर्मति वंश तुम्हारा। वचन (नाद)। बंश को रोके बटपारा (ठग)।।
आपा हंम (अहंकार) अधिक होय ताही। नाद पुत्र से झगरा कराही।।

भावार्थः– परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि हे धर्मदास! तेरा वंश अज्ञानी सिद्ध होगा। वह काल के अंश (दूत) को समझ नहीं पाएगा। जो कुछ तेरी गद्दी वालों की परंपरा में आगे होगा, वह बताता हूँ। जो काल द्वारा बारह (12) पंथ चलाए जाएंगे, उनमें एक टकसारी पंथ (पाँचवां) होगा। तेरा छठी पीढ़ी वाला उसके द्वारा भ्रमित किया जाएगा जो तेरा बिन्द वाला गद्दीनशीन होगा। वह उस टकसारी पंथ वाली दीक्षा स्वयं भी लेगा तथा उसी पद्यति को जो टकसारी वाली चैंका आरती और नकली पाँच नाम जो कबीर सागर में सुमिरन बोध पृष्ठ 22 पर लिखा है, प्रदान किया करेगा। वह कोई जाप मंत्र नहीं है। वह तो सारशब्द की यानि आदिनाम की महिमा बताई है जो इस प्रकार है:-

आदिनाम, अजर नाम, अमीनाम, पाताले सप्त सिंधु नाम।
आकाशे आदली निज नाम, ऐही नाम हंस को काम।।
खोले कूंची खोले कपाट। पाँजी (पाँच नाम वाला उपदेशी) चढ़े मूल के घाट।।
भ्रम भूत को बाँधो गोला, कहें कबीर प्रवान। पाँच नाम ले हंसा, सत्यलोक समान।।

स्मरण दीक्षा मंत्र

सत्य सुकृत की रहनी रहै, अजर अमर गहै सत्य नाम।
कह कबीर मूल दीक्षा, सत्य शब्द (सार शब्द) परवान।।

इस वाणी में कबीर जी ने बताया है कि जो पाताल यानि नीचे के चक्रों के तथा परमेश्वर के कुल 7 नाम हैं। सिंधु का अर्थ सागर जैसे गहरे गूढ़ मंत्र हैं जो आदिनाम (सार शब्द) है, वह अजर है, अमर है, अमृत जैसा लाभदायक है जो आकाश यानि ऊपर को सत्यलोक की ओर चलने का निज नाम है। पांजी (पाँच नाम की दीक्षा वाले शिष्य) मूल यानि सार शब्द की ओर बढ़ता है। उसको अध्यात्मिक लाभ मिलता है। इसीलिए परमेश्वर ने उस समय केवल पाँच नाम प्रारम्भ किए थे। सात नाम तो वर्तमान में कलयुग के पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष पूरे करने के बाद देने थे। उस समय बताना अनिवार्य था, नहीं तो आज प्रमाण न मिलने से भ्रम रह जाता। पाँच नाम लेने वाला ही तो सत्यलोक जाने का अधिकारी होगा। फिर स्मरण का विशेष मंत्र जो पाँच (5) और सात (7) से अन्य मंत्र है।

स्मरण दीक्षा

भावार्थ है कि नेक नीति से रहो। अजर-अमर जो सार शब्द है, वह तथा दो अक्षर वाला सत्यनाम प्राप्त करो। यह मूल दीक्षा है। केवल पाँच तथा सात नाम से मोक्ष नहीं है। टकसारी पंथ वाले ने इसी चूड़ामणि वाले पंथ से दीक्षा लेकर यानि नाद वाला बनकर मूर्ख बनाया था कि कबीर साहब ने कहा है कि तेरे बिन्द वाले मेरे नाद वाले से दीक्षा लेकर ही पार होंगे। इससे भ्रमित होकर धर्मदास के छठी पीढ़ी वाले ने वास्तविक पाँच मंत्र (कमलों को खोलने वाले) छोड़कर नकली नाम जो सुमिरन बोध के पृष्ठ 22 पर लिखे हैं जो ऊपर लिखे हैं (आदिनाम, अजरनाम, अमीनाम …), प्रारम्भ कर दिए जो वर्तमान में दामाखेड़ा गद्दी वाले महंत जी दीक्षा में देते हैं। वह गलत हैं। उसने टकसारी पंथ बनाया तथा उसने चुड़ामणि वाले पंथ से भिन्न होकर अपनी चतुराई से अन्य साधना प्रारम्भ की थी जो ऊपर बताई है। उसने मूल गद्दी वाले धर्मदास की छठी पीढ़ी वाले को भ्रमित किया कि हमने तो एक सत्यपुरूष की भक्ति करनी है। ये मूल कमल से लेकर कण्ठ कमल तक वाले देवी-देवताओं के नाम जाप नहीं करने, नहीं तो काल के जाल में ही रह जाएंगे। फिर कबीर सागर से उपरोक्त पूरे शब्द (कविता) को दीक्षा मंत्र बनाकर देने लगा। मनमानी आरती चैंका बना लिया। इस तर्क से प्रभावित होकर धर्मदास जी की छठी गद्दी वाले महंत जी ने टकसारी वाली दीक्षा स्वयं भी ले ली और शिष्यों को भी देने लगा जो वर्तमान में दामाखेड़ा गद्दी से प्रदान की जा रही है जो व्यर्थ है।

‘‘अनुराग सागर‘‘ अध्याय के पृष्ठ 140 की वाणियों का भावार्थ चल रहा है।

हे धर्मदास! तेरी छठी पीढ़ी वाला टकसारी पंथ वाली दीक्षा तथा आरती चैंका नकली स्वयं भी लेगा और आगे वही चलेगा। इस प्रकार तेरा बिन्द (वंश पुत्र प्रणाली) अज्ञानी हो जाएगा। हमारी सर्व साधना झाड़ै यानि छोड़ देगा। अपने आपको अधिक महान मानेगा, अहंकारी होगा जो मेरा नाद (शिष्य परंपरा में तेरहवां अंश आएगा, उस) के साथ झगड़ा करेगा। तेरा पूरा वंश वाले दुर्मति को प्राप्त होकर वे बटपार (ठग=धोखेबाज) मेरे तेरहवें वचन वंश (नाद शिष्य) वाले मार्ग में बाधा उत्पन्न करेंगे।

अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ के पृष्ठ 140 से वाणी सँख्या 16:-

धर्मदास तुम चेतहु भाई। बचन वंश कहं देहु बुझाई।।1

कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! तुम कुछ सावधानी बरतो। अपने वंश के व्यक्तियों को समझा दो कि सतर्क रहें।

हे धर्मदास! जब काल ऐसा झपटा यानि झटका मारेगा तो मैं (कबीर जी) सहायता करूँगा। अन्य विधि से अपना सत्य कबीर भक्ति विधि प्रारम्भ करूँगा।

नाद हंस (शिष्य परंपरा का आत्मा) तबहि प्रकटावैं। भ्रमत जग भक्ति दृढ़ावैं।।2
नाद पुत्र सो अंश हमारा। तिनतै होय पंथ उजियारा।।3
बचन वंश नाद संग चेतै। मेटैं काल घात सब जेते।।4

{बचन वंश का अर्थ धर्मदास जी के वंशजों से है क्योंकि श्री चूड़ामणि जी को कबीर परमेश्वर जी ने दीक्षा दी थी। इसलिए बचन वंश कहे गए हैं। बाद में अपनी संतान को उत्तराधिकार बनाने लगे। वे बिन्द के कहे गए हैं। नाद से स्पष्ट है कि शिष्य परंपरा वाले।}

अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 141 से:-

शब्द की चास नाद कहँ होई। बिन्द तुम्हारा जाय बिगोई।।5
बिन्द से होय न नाम उजागर। परिख देख धर्मनि नागर।।6
चारहूँ युग देख हूँ समवादा। पंथ उजागर कीन्हो नादा।।7
धर्मनि नाद पुत्र तुम मोरा। ततें दीन्हा मुक्ति का डोरा।।8

भावार्थ:– वाणी नं. 8 में परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट भी कर दिया है कि नाद किसे कहा है? हे धर्मनि! तुम मेरे नाद पुत्र अर्थात् शिष्य हो और जो आपके शरीर से उत्पन्न हो, वे आपके बिन्द परंपरा है।

वाणी नं. 2 में वर्णन है कि जब-जब काल मेरे सत्यभक्ति मार्ग को भ्रष्ट करेगा। तब मैं अपना नाद अंश यानि शिष्य रूपी पुत्र प्रकट करूँगा जो यथार्थ भक्ति विधि तथा यथार्थ अध्यात्मिक ज्ञान से भ्रमित समाज को सत्य भक्ति समझाएगा, सत्य मार्ग को दृढ़ करेगा। जो मेरा नाद (वचन वाला शिष्य) अंश आएगा, उससे मेरा यथार्थ कबीर पंथ प्रसिद्ध होगा, (उजागर यानि प्रकाश में आवैगा।) बिन्द वंश (जो धर्मदास तेरे वंशज) हैं, उनका कल्याण भी नाद (मेरे शिष्य परंपरा वाले) से होगा।

वाणी नं. 5 में कहा है कि शब्द यानि सत्य मंत्र नाम की चास यानि शक्ति नाद (शिष्य परंपरा वाले) के पास होगी। यदि मेरे नाद वाले से दीक्षा नहीं लेंगे तो तुम्हारा बिन्द यानि वंश परंपरा महंत गद्दी वाला बर्बाद हो जाएंगे।

वाणी नं. 6 में वर्णन है कि बिन्द से कभी भी नाद यानि शिष्य प्रसिद्ध नहीं हुआ। भावार्थ है कि महंत गद्दी वाले तो अपनी गद्दी की सुरक्षा में ही उलझे रहते हैं। अपने स्वार्थवश मनमुखी मर्यादा बनाकर बाँधे रखते हैं।

वाणी नं. 7 में कहा है कि चारों युगों का इतिहास उठाकर देख ले। संवाद यानि चर्चा करके विचार कर। प्रत्येक युग में नाद से ही पंथ का प्रचार व प्रसिद्धि हुई है।

प्रमाण:-

  1. सत्ययुग में कबीर जी सत सुकृत नाम से प्रकट हुए थे। उस समय सहते जी को शिष्य बनाया था। उससे प्रसिद्धि हुई है।
  2. त्रोता में बंके जी को शिष्य बनाया था, उससे प्रसिद्धि हुई थी।
  3. द्वापर में चतुर्भुज जी को शिष्य बनाया था, उससे सत्यज्ञान प्रचार हुआ था।
  4. कलयुग में धर्मदास जी को शिष्य बनाया था जिनके कारण ही वर्तमान तक कबीर पंथ की प्रसिद्धि तथा विस्तार हुआ है।

अनुराग सागर पृष्ठ 140 पर वाणी है:-

जब-जब काल झपटा लाई। तबै-तबै हम होये सहाई।।

भावार्थ है कि काल ने धर्मदास की छठी पीढ़ी वाले पर झपट्टा मारा तो परमेश्वर जी ने अपनी प्यारी आत्मा संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, प्रान्त-हरियाणा) को विक्रमी संवत् 1784 (सन् 1727) में गाँव के जंगल में मिले थे। धर्मदास जी की तरह सतलोक लेकर गए थे, वापिस छोड़ा था। उन्होंने भी परमेश्वर कबीर जी की महिमा का अनमोल प्रचार किया। महिमा का ग्रन्थ बनाया, परंतु उस पंथ में भी काल झपटा मार चुका है। सब राम-कृष्ण के पुजारी हैं, पाठ संत गरीबदास जी की वाणी का करते हैं। एक मेरे पूज्य गुरूदेव स्वामी रामदेवानंद जी ही कबीर जी के यथार्थ ज्ञान से परिचित थे। उसके पश्चात् मुझ दास (रामपाल दास) पर दया करके यथार्थ ज्ञान दिया है। यथार्थ भक्ति विधि सत्य भक्ति मंत्र तथा यथार्थ सम्पूर्ण अध्यात्मिक ज्ञान मेरे को प्रदान किया। अब विश्व सत्य भक्ति करेगा। सत्ययुग जैसा वातावरण होगा। यदि धर्मदास जी के बिन्द वाले महंत तथा उनके शिष्य जो महंतों का वचन अंश यानि शिष्य हैं, वे मेरे पास (रामपाल दास) से दीक्षा लेकर गुरू मर्यादा में रहकर भक्ति करेंगे तो वे भी पार हो जाएंगे। कबीर परमेश्वर जी ने अनुराग सागर पृष्ठ 141 पर कहा है:-

कहाँ निर्गुण कहाँ सरगुण भाई। नाद बिना नहीं चलै पंथाई।।9
यह विधि तेरे ब्यालिस तारैं। जब-जब गिरै फेर संभारैं।।10
नाद का वचन जो बिन्द न मानै। देखत जीव काल धर तानै।।11
कहाँ नाद कहाँ बिन्द रे भाई। नाम भक्ति बिनु लोक न जाई।।12

भावार्थ:– वाणी नं. 9.10:- हे धर्मदास! यदि तेरे बिन्द वाले मेरे नाद वाले से दीक्षा ले लेंगे तो उनका भी कल्याण हो जाएगा। इस विधि से तेरी बयालीस पीढ़ी को पार करूँगा।

वाणी नं. 11:- नाद की बात को यदि तेरा बिन्द नहीं मानेगा तो देखते-देखते उसको काल सतावैगा।

वाणी नं. 12:- इसमें तो स्पष्ट कर दिया है कि क्या बिन्द और क्या नाद है, यदि सच्चा नाम लेकर भक्ति नहीं करेंगे तो कोई भी पार नहीं हो पाएगा।

प्रसंग दीक्षा की विधि का चल रहा है। (आप जी को याद दिला दूँ कि कबीर सागर के संशोधनकर्ता स्वामी युगलानंद जी ने भी स्पष्ट कर रखा है कि समय-समय पर काल के भेजे दूतों ने कबीर पंथ के ग्रन्थों की दुर्दशा कर रखी है।)

अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश बोध‘‘ पृष्ठ 56:-

जिस समय परमेश्वर कबीर जी अंतध्र्यान होकर पाँचवीं बार धर्मदास जी को सात दिन पश्चात् मिले तो पूछा कि प्रभु! इस दौरान कहाँ रहे?

दोहाःधर्मदास कह नाई सिर, सुन प्रभु अगम अपार। सात दिवस कहाँ रहे, कौन दिश पग डार।।

उत्तरःसोरठाः-जौन दिश हम गौन कियो, धर्मनि सुनु चित लाय।
तहाँ पुनि शब्द प्रकाशेऊ, कालिंजर पहुँचे जाय।।

प्रश्न:– धर्मदास जी ने पूछा कि हे प्रभु! वहाँ पर आरती करके नारियल तोड़कर कितने जीवों को शब्द देकर काल से मुक्त करवाया?

उत्तर:– परमेश्वर कबीर जी ने आरती आदि करके पान परवाना नहीं दिया। केवल वचनबद्ध करके यानि नाम दीक्षा देकर, साखी, रमैणी तथा शब्द यानि नाम दिया था। उनको वचन का ठिकाना अर्थात् नाम के जाप से जो स्थान प्राप्त होता है, वह सत्यलोक उनको बता आया हूँ। वहाँ बहुत जीवों ने नाम लिया।

धर्मनि सुनहु ताहि सहिदाना। वाको नहीं दीना पान प्रवाना।।
आरती चैंका तहां न कीन्हा। नहीं तहां नारियर मोरो प्रवीना।।
वचन बंध जीवन कहं कियेऊ। साखी शब्द रमैणी दियेऊ।।
कहि आयेऊ तहं बचन ठिकाना। धर्मदास न देयऊ पान प्रवाना।।

अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ पृष्ठ 57 पर वाणी:-

जम्बूदीप (भारत) कलि के कड़िहारा। धर्मनि बहु जीव होवै पारा।।
धर्मनि वहाँ जीव पहुँचे आयी। देय दान उन मोर स्तुति लाई।।
शब्द मानि पुनि मस्तक नाया। पुरूष दर्श की बात जनाया।।

भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि जो आरती चैंका काल द्वारा भ्रमित दामाखेड़ा वाले धर्मदास जी को बिन्द वाले महंत या अन्य उनके वचन वाले शिष्य करते हैं, वह हमारी परंपरा नहीं है। कबीर सागर में चैंका आरती का विधान स्वार्थी महंतों ने जोड़ रखा है।

प्रमाण:

  1. आदरणीय संत गरीबदास जी को परमेश्वर कबीर जी गाँव-छुड़ानी के जंगल में मिले थे। वहीं पर कंवारी बछिया का दूध पीया था तथा उसी दूध से अमृत पान करवाकर वृक्ष के नीचे दीक्षा दी थी।
  2. इसी प्रकार संत दादू दास जी को जंगल में मिले थे। उनको अपने करमण्डल (लोटे) से जल पान के पत्ते पर रखकर पिलाया था तथा दीक्षा दी थी, दोनों को पार किया।
  3. संत घीसादास जी को गाँव-खेखड़ा जिला-बागपत उत्तर प्रदेश में मिले थे। उनको भी अपने लोटे से जल पिलाकर जंगल में दीक्षा दी थी। उनका भी कल्याण किया। कोई आरती-चैंका करके नारियल नहीं फोड़ा।
  4. संत नानक देव साहेब को कबीर परमेश्वर बेई नदी पर सुल्तानपुर में मिले। अपने करमण्डल से जल पिलाकर प्रथम मंत्र देकर सत्यलोक (सच्चखण्ड) लेकर गए। कोई आरती-चैंका नहीं किया।

सिद्ध हुआ कि दीक्षा देने के लिए आरती-चैंका करना व्यर्थ है।

परमेश्वर कबीर जी ने ‘‘अनुराग सागर‘‘ के पृष्ठ 140 पर स्पष्ट कर ही दिया है कि यह आरती चैंका जो धर्मदास के बिन्द यानि मंहत परम्परा वाले या उनकी शाखाओं वाले कर रहे हैं। यह काल द्वारा चलाए गये बारह पंथों में पाँचवां (5वां) पंथ टकसारी है, उस वाला चल रहा है जो व्यर्थ है। यथार्थ भक्ति विधि तथा दीक्षा कबीर जी ने अन्य महापुरूषों को भी दी है, कोई आरती चैका नहीं किया। जैसा भी समय या उसी अनुसार दीक्षा देकर जीव का उद्धार किया।

यही सामान्य विधि से दीक्षा यह दास (रामपाल दास) दे रहा है, उपदेशी को तुरन्त लाभ मिलता है और मोक्ष भी अवश्य होगा।

प्रश्न:- कौन से मन्त्र हैं जिनसे मोक्ष सम्भव है?

उत्तर:– जैसे रोग से छुटकारा पाने के लिए औषधि विशेष होती है। टी.बी. (क्षयरोग) की एक ही दवाई है। उसका विधिवत् सेवन करने से रोग समाप्त हो जाता है। मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। यदि टी.बी. के रोगी को अन्य औषधि सेवन कराई जाएँ तो रोगी स्वस्थ नहीं हो सकता। टी.बी. के रोगी को वही औषधि सेवन करानी पड़ेगी जो उसके लिए वैज्ञानिकों ने बनाई है।

कबीर परमेश्वर जी ने हम प्राणियों को बताया है कि आप सबको जन्म-मरण का दीर्घ रोग लगा है। उसकी औषधि बताने तथा इस रोग की जानकारी देने मैं (कबीर परमेश्वर) अपने निज स्थान सत्यलोक से चलकर आया हूँ।

शब्द

जग सारा रोगिया रे जिन सतगुरू भेद ना जान्या जग सारा रोगियारे।।टेक।।
जन्म मरण का रोग लगा है, तृष्णा बढ़ रही खाँसी। आवा गमन की डोर गले में, पड़ी काल की फांसी।।1
देखा देखी गुरू शिष्य बन गए, किया ना तत्त्व विचारा। गुरू शिष्य दोनों के सिर पर, काल ठोकै पंजारा।।2
साच्चा सतगुरू कोए ना पूजै, झूठै जग पतियासी। अन्धे की बांह गही अन्धे ने, मार्ग कौन बतासी।।3
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर रोगी, आवा गवन न जावै। ज्योति स्वरूपी मरे निरंजन, बिन सतगुरू कौन बचावै।।4
सार शब्द सरजीवन बूटी, घिस-घिस अंग लाए। कह कबीर तुम सतकर मानौं, जन्म-मरण मिट जाए।।5

श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9, गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने बताया है जो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा था। कहा कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। तू और मैं पहले भी जन्में थे, आगे भी जन्मते रहेंगे। मेरी उत्पत्ति को न तो ऋषिजन जानते हैं, न देवता जानते हैं क्योंकि ये सब मेरे से उत्पन्न हुए हैं। यह तो पवित्र ग्रन्थ गीता ने स्पष्ट कर दिया कि ज्योति निरंजन काल (क्षर पुरूष) नाशवान है, जन्म-मरण का रोगी है।

श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी के भी जन्म-मृत्यु होते हैं:-

प्रमाण:– श्री देवी पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी) के तीसरे स्कन्द में पृष्ठ 123 पर लिखा है:-

श्री विष्णु जी ने अपनी माता दुर्गा जी से कहा कि ’’मैं, ब्रह्मा तथा शंकर तो नाशवान हैं, हमारा तो अविर्भाव (जन्म) तथा तीरोभाव (मृत्यु) होता है।

स्पष्ट हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर भी जन्म-मरण के रोगी हैं। आवा (जन्म) गवन (संसार से जाना यानि मृत्यु) समाप्त नहीं है। ज्योति स्वरूप निरंजन यानि काल ब्रह्म गीता ज्ञान दाता भी मरेगा, बिन सतगुरू कौन बचावै अर्थात् पूर्ण गुरू ही जन्म-मरण के रोग से छुटकारा दिला सकता है। जिसके पास जन्म-मरण रोग को समाप्त करने की संजीवनी औषधि सार शब्द है। उसका जाप करने से मोक्ष प्राप्त होता है। वह औषधि यानि साधना कौन-सी है जिससे जन्म-मृत्यु का रोग समाप्त होता है, यह जाँच करनी है।

औषधि की पहचान दो प्रकार से होती है।

  1. डाक्टर स्वयं बताए कि औषधि का यह नाम है, उस में ये-ये औषधि गुण यानि salt (साॅल्ट) हैं।
  2. दूसरा वह रोगी बताए जिसका टी.बी. का रोग किस औषधि से ठीक हुआ था।

प्रथम प्रकार की जाँच:– परमेश्वर कबीर जी का विधान है कि वे स्वयं सतगुरू रूप में प्रकट होकर यथार्थ भक्ति साधना के नाम मन्त्र स्वयं बताते और वही मन्त्र आदरणीय धर्मदास जी, आदरणीय संत गरीबदास जी (छुड़ानी वाले) आदरणीय संत नानक देव जी, आदरणीय संत घीसा दास साहेब जी को दिए। उन्होंने अपनी अमृत वाणी में लिखा है कि इन-इन मन्त्रों से मोक्ष हुआ।

1) संत धर्मदास जी को नाम दीक्षा में जो नाम दीक्षा मन्त्र दिए थे। वे कबीर सागर के ’’ज्ञान प्रकाश बोध’’ पृष्ठ 62 पर लिखे हैं:-

सत्यनाम सतगुरू तत् भाखा, सार शब्द ग्रंथ कथि गुप्त ही राखा।।
सत्य शब्द गुरू गम पहिचाना। विन जिभ्या करू अमृत पाना।।
ओहं (ऊँ)-सोहं जानों बीरू। धर्मदास से कहो कबीरू।।
धरीहों गोय कहियो जिन काही। नाद सुशील लखैहो ताही।।
सुमिरण दया सेवा चित धरई। सत्यनाम गहि हंसा तीरही।।
पृष्ठ 62 = सत्यनाम सुमिरण करै सतगुरू पद निज ध्यान।
परमात्म पूजा जीव दया लहै सो मुक्ति धाम।।

2) संत गरीबदास जी (गाँव=छुड़ानी वाले) को भी यही सत्यनाम दिया था। (सतनाम=सत्यनाम तो गोली यानि कैप्सूल का नाम है, उसमें साॅल्ट (salt) ओम्-सोहं है।) संत गरीबदास जी को भी सतगुरू कबीर परमेश्वर जी मिले थे। अपनी वाणी में लिखा है:-

गरीब, अलल पंख अनुराग है, सुन मण्डल रह थीर। दास गरीब उधारिया, सतगुरू मिले कबीर।।

जो नाम मन्त्र की साधना (औषधि) संत गरीबदास को मिली। वह अपनी अमृतवाणी में लिखी है:-

राम नाम जप कर थिर (स्थिर) होई, ओम्-सोहं मन्त्र दोई।

3) संत नानक जी को भी परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में मिले थे। उनको भी जो नाम मन्त्र की साधना (औषधि-उपचार) बताई। वह अपनी अमृत वाणी में लिखी है तथा पवित्र पुस्तक ’’भाई बाले वाली जन्म-साखी गुरू नानक देव की‘‘ में अध्याय ‘‘समन्दर की साखी‘‘ में मन्त्रों के प्रत्यक्ष नाम लिए हैं जो सतनाम में दो अक्षर हैं। संत नानक देव जी ने अपनी अमृत वाणी में कहा है कि:-

जे तूँ पढ़िया पंडित बिन दोय अखर बिन दोय नावाँ। पर्णवत् नानक एक लंघाए जेकर सच्च समावाँ।।

भाई बाले वाली जन्म साखी में ’’समन्दर की साखी’’ अध्याय में प्रकरण इस प्रकार है:-

एक समय भाई बाला तथा मर्दाना को साथ लेकर संत नानक देव जी श्रीलंका के लिए चले तो समन्दर के किनारे प्रकट हो गए। बाला तथा मर्दाना से कहा कि तुम दोनों ’’वाहे गुरू-वाहे गुरू’’ नाम जाप करते हुए मेरे पीछे-पीछे आओ। समन्दर के जल के ऊपर पृथ्वी की तरह आगे-आगे श्री नानक देव जी ओम्-सोहं का दो अक्षर के सतनाम का जाप करते हुए चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे वाहे गुरू-वाहे गुरू मन्त्र का जाप करते हुए दोनों शिष्य समुद्र के जल पर ऐसे चल रहे थे जैसे पृथ्वी के ऊपर चलते हैं। कुछ दूर जाने के पश्चात् मर्दाना जी के मन में आया कि गुरू जी तो ओम्-सोहं का मन्त्र जाप कर रहें हैं, मैं भी यही जाप करता हूँ। मर्दाना भी ओम्-सोहं का जाप करने लगा जिस कारण से वह समुद्र में गोते खाने लगा। संत नानक जी ने कहा मर्दाना तू वही जाप कर जो तेरे को कहा। गुरू की करनी की ओर नहीं देखना चाहिए, गुरू जी की आज्ञा का पालन करना चाहिए। मर्दाना फिर वाहे गुरू-वाहे गुरू का जाप करने लगा तो उसी प्रकार फिर जल के ऊपर थल की तरह चलने लगा।

शंका समाधान:– परमेश्वर कबीर जी ने उन सर्व महापुरूषों को जिन-जिनको शिष्य बनाया था, मना किया था कि सत्यनाम तथा सारशब्द का जाप आप स्वयं कर सकते हो, अन्य किसी को नहीं बताना। इसको तब तक छुपाना जब तक कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच (5505) वर्ष न बीत जाए। इसलिए किसी भी सिक्ख को यह दो अक्षर का मन्त्र सतनाम नहीं दिया। वर्तमान में (सन् 1997 से) यह मन्त्र देने का परमेश्वर कबीर जी का पुनः आदेश मुझ दास (रामपाल दास) को 1997 में दिया है।

श्री नानक जी केवल पाँच नाम (मूल कमल से कण्ठ कमल तक वाले मन्त्र) देते थे। साथ में वाहे गुरू-वाहे गुरू का जाप भी देते थे। उन पाँच नामों का प्रमाण पुस्तक ’’तीइये ताप की कथा’’ में गुरू अमर दास जी ने ये पाँचों नाम मन्त्र लिखे हैं जिनके जाप से रोग भी नष्ट हो जाता है। (वे मन्त्र हैं हरियं, श्रीं, कलिं, ओं, सों) यह मैं (रामपाल दास) प्रथम चरण की दीक्षा में देता हूँ। दूसरे चरण में सतनाम तथा तीसरे चरण में ’’सारशब्द’’ देता हूँ। {इसी प्रकार परमेश्वर कबीर जी ने राजा बीर सिहं बघेल (काशी नरेश) को तीन बार में दीक्षा पूर्ण की थी। प्रमाण:- कबीर सागर के अध्याय ’’बीर सिहं बोध‘‘ में।}

सोई गुरू पूरा कहार्व जो दो अखर का भेद बतावै।

ऊपर दो अक्षर के सतनाम (सत्यनाम) के विषय में लिख दिया है, परंतु सारशब्द के विषय में नहीं बताऊँगा। काल के दूत सार शब्द जानकर स्वयंभू गुरू बन कर भोले जीवों को काल के जाल में रख लेंगे क्योंकि यह मन्त्र तथा उपरोक्त प्रथम दीक्षा मन्त्र तथा दूसरी दीक्षा मन्त्र सत्यनाम वाले तथा सार शब्द मुझ दास (रामपाल दास) के अतिरिक्त कलयुग में कोई दीक्षा में ये मन्त्र देने का अधिकारी नहीं है। अधिकारी के बिना ये मन्त्र लाभ नहीं देते।

उदाहरण:- जैसे विदेश जाने का पासपोर्ट बनवाया जाता है, यदि बनाने वाला अधिकारी नहीं है तो वह पासपोर्ट किसी काम नहीं आता, उल्टा दोषी भी होता है। पासपोर्ट की जाँच हवाई अड्डे (airport) पर होती है।

इसी प्रकार अधिकारी संत से लिए दीक्षा मन्त्रों तथा अधिकारी गुरू की जाँच त्रिकुटी पर होती है। तब तक साधक का सब कुछ लुट चुका होगा।

संत घीसा दास साहेब जी ने कहा है:-

सतनाम:- ’’ओम् सोहं जपले भाई, रामनाम की यही कमाई’’

उपरोक्त जाँच से पता चलता है कि जन्म-मरण के रोग को समाप्त करने की साधना (उपचार) कौन से मन्त्र जाप से होती है जिससे जन्म-मरण समाप्त हो।

पवित्र कबीर सागर के ’’कबीर वाणी’’ अध्याय पृष्ठ 137 तथा ’’जीव धर्म बोध’’ पृष्ठ 1937 पर कबीर परमेश्वर जी ने संत श्री धर्मदास जी को तीनों समय की दीक्षा देकर कहा था:-

धर्मदास मेरी लाख दुहाई, सारशब्द कहीं बाहर न जाई।
सारशब्द बाहर जो पड़ही, बिचली पीढ़ी हंस न तिरही।।

यह पृष्ठ 1937 ’’जीव धर्म बोध’’ में लिखा हैः-

धर्मदास मेरी लाख दोहाई, मूल (सार) शब्द बाहर न जाई।
पवित्र ज्ञान तुम जग में भाखो, मूल ज्ञान गोई (गुप्त) तुम राखो।।
मूल ज्ञान तब तक छुपाई, जब तक द्वादश पंथ न मिट जाई।।

यह ’’कबीर वाणी’’ पृष्ठ 137 पर लिखा है।

इस प्रकार साधना करने से पूर्ण मोक्ष होगा जो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है कि हे अर्जुन! सर्व भाव से तू उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा।

गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की भक्ति करने और सनातन पद को प्राप्त करने को कहा है कि:-

तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद (सनातन परमधाम) की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते। उस परमेश्वर की भक्ति करो जिसने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है। (गीता अध्याय 15 श्लोक 4)

भावार्थ:– पूर्ण मोक्ष उसी को कहते हैं जिसको प्राप्त करके साधक पुनः संसार में जन्म धारण नहीं करता। परमशान्ति वही है, कभी जन्म-मरण के चक्र में न गिरे, सदा सुख सागर स्थान सत्यलोक में रहे, वह पूर्ण परम गति कही जाती है।

ऊपर स्पष्ट हुआ कि जन्म-मरण का रोग किन मन्त्रों की साधना से समाप्त होता है। पवित्र कबीर सागर में ’’ज्ञान सागर’’ प्रथम अध्याय है। इसके 106 पृष्ठ हैं। वास्तव में सर्व अध्याय भिन्न पुस्तक रूप में हैं। कबीर सागर में 40 पुस्तकों को इकट्ठा जिल्द किया है। प्रिन्ट कराने से पहले यह एक ही कबीर सागर था जो श्री धर्मदास जी द्वारा हाथ से लिखा था। उसके पश्चात् समय अनुसार अन्य कबीर जी के अनुयाईयों ने कई काॅपी हाथ से लिखी थी। जिस कारण से प्रत्येक ने भिन्न-भिन्न अध्यायों को पुस्तक रूप बना लिया जो उठाने-पढ़ने में सुविधाजनक थे। उसके पश्चात् इन सबको प्रिन्ट करते समय एक पवित्र कबीर सागर बना दिया गया और अपनी बुद्धि अनुसार हाथ से लिखते समय यानि काॅपी करते समय वाणी काट दी, कुछ मिला दी। जिस कारण से परमेश्वर कबीर जी ने वही यथार्थ ज्ञान अपनी प्यारी आत्मा संत गरीबदास (गाँव-छुड़ानी वाले) को प्रदान किया है। उनको अपने सत्यलोक में लेकर गए जैसे श्री धर्मदास जी को, श्री नानक जी को लेकर गए थे। संत गरीबदास जी ने आँखों देखा परमेश्वर का परिचय अपनी अमृतवाणी में लिखा है जो कबीर सागर से भी अधिक वाणी हैं और सत्य तथा बिना परिवर्तन के हैं।

परमेश्वर कबीर जी तो अन्तर्यामी हैं। उनको पता था कि यदि इस ग्रन्थ में छेड़छाड़ कर दी गई तो हमारा ज्ञान, हमारी महिमा प्रमाणित नहीं हो पाएगी। संत गरीबदास के पंथ में एक दयाल दास नाम के साधु थे। उन्होंने गरीबदास पंथ का बहुत प्रचार किया। वह भ्रमण करके प्रचार करता था। उसके साथ लगभग 500 (पाँच सौ) साधुओं की मण्डली (समूह) रहती थी। संत गरीबदास जी के हस्तलिखित ग्रन्थ को साथ रखते थे। उस समय तक संत गरीबदास जी के ग्रन्थ की कई काॅपी की जा चुकी थी। जब मण्डली एक शहर से दूसरे शहर में जाती थी तो संत गरीबदास जी के ग्रन्थ को एक संत सिर पर रखकर चलता था। उस ग्रन्थ की एक काॅपी किसी गिरी पंथ के साधु के हाथ लगी। उसने उसको पढ़ा तो पाया कि कबीर जुलाहे को सृष्टि का सृजनहार लिखा है:-

तीनों देवता काल है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश। भूले चुके समझियो, सब काहु आदेश।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेशा, माया (देवी दुर्गा) और धर्मराया (ज्योति निरंजन) कहिए।
इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया, वाणी हमरी लहिए।।
चलसी (नष्ट हो जाऐंगे) ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चलसी नारद सारद शेषा।
इक्कीस ब्रह्माण्ड चलेंगे भाई, तब तुम रहोगे किसकी शरणाई।।

गिरी पंथ वाले भगवान शंकर जी के उपासक होते हैं। उन्हीं को समर्थ प्रभु मानते हैं। जिस कारण से उस गिरी ने स्वामी दयाल दास जी से बहुत विवाद किया तथा उनका बहुत विरोध किया। एक दिन दयाल दास जी के मन में आया कि इस प्रकार की वाणियों को निकाल देता हूँ। उसने यह करने की ठान ली। सर्व तैयारी कर ली थी। उसी समय दयाल दास जी को अधरंग मार गया, शरीर का दायां भाग कार्य करना छोड़ गया। संत गरीबदास जी दिखाई दिए। कहा कि महात्मा जी आपने हमारे ज्ञान को ठीक से नहीं समझा। हमने यह भी लिखा है ’’ब्रह्मा, विष्णु, शम्भु शेषा, तीनों देव दयाल हमेशा’’। हमने स्थान व स्थिति अनुसार प्रत्येक देवता की स्थिति बताई है। जहाँ उनको काल इसलिए कहा कि वे काल के सर्व राज्य को चला रहे हैं। काल के खाने के लिए जीवों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार कर रहे हैं। इसलिए इनको काल कहा है। वास्तव में ये काल नहीं हैं, बहुत विनम्र आत्मा के हैं। परन्तु इनका कार्य ऐसा है, वैसे ये देव रूप में बहुत दयालु हैं। किसी को नाजायज परेशान नहीं करते। अपने उपासकों की अपने सामथ्र्य अनुसार पूरी सहायता करते हैं, परंतु जन्म-मरण से न स्वयं मुक्त हैं, न इनके उपासक जन्म-मरण से मुक्त हो सके हैं। मेरी वाणी परमेश्वर कबीर जी की बख्शीश है। उनकी धरोहर है, इसमें किसी ने एक भी अक्षर काटा या जोड़ा तो उसको क्षमा का स्थान नहीं हैं। इतना कहकर अन्तध्र्यान हो गए। उसके पश्चात् पूरे गरीबदास जी के पंथ में यह बात फैल गई। किसी ने उस वाणी में फेर-बदल नहीं किया। उसके पश्चात् वह ग्रन्थ विशेष जिज्ञासु तथा उपदेशी श्रद्धालु को देने लगे। गाँव छुड़ानी में स्वामी दयाल दास जी के नाम से एक आश्रम है जो गरीबदासीय साधु भक्त राम जी ने बनवा रखा है। पहले दयाल दास जी ने वहाँ एक मकान बनाया था। वे संत गरीबदास जी की जन्म स्थली लीला स्थली तथा परमेश्वर कबीर जी के प्रकट होने से पवित्र धाम छुड़ानी में प्रत्येक वर्ष सतसंग में आते थे। वहाँ सतसंग उस दिन किया जाता है जिस तिथि को संत गरीबदास जी को परमेश्वर कबीर जी मिले थे। फाल्गुन मास की सुदी द्वादशी को संत गरीबदास जी की वाणी का तीसरे दिन भोग लगता है। तीन दिन तक पाठ चलता है। फाल्गुन विक्रमी संवत् 1784 (सन् 1727) को फाल्गुन (फागन) मास की सुदी द्वादशी (चान्दनी दुवास) को परमेश्वर कबीर जी संत गरीबदास जी को मिले थे। उस समय संत गरीबदास जी की आयु 10 वर्ष थी। इस प्रकार संत गरीबदास जी की वाणी पूर्ण रूप से सुरक्षित है। उसी के आधार से यह दास (रामपाल दास) सर्व ज्ञान प्रचार कर रहा है। सर्व वेद, गीता, पुराण, कुरान, बाईबल जैसे पवित्र ग्रन्थों के गूढ़ रहस्यों को परमेश्वर कबीर जी की कृपा से समझा है। पवित्र वाणी संत गरीबदास जी की तथा उसी से कबीर सागर की मिलावट जानी तथा कांट-छांट को समझा तथा पवित्र कबीर सागर की अमृतवाणी जो स्वयं परमेश्वर कबीर जी ने अपने मुख कमल से बोली थी तथा धर्मदास जी ने अपनी आँखों से परमात्मा तथा परमात्मा के सत्यलोक को देखकर अपनी साक्षी देकर वाणी की सत्यता दृढ़ की है। इसी प्रकार संत गरीबदास जी ने भी परमेश्वर कबीर जी की स्थिति आँखों देखी बताई है।

गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।
गरीब, हम सुलतानी नानक तारे, दादू को उपदेश दिया।
जाति जुलाहा भेद न पाया, काशी मांहे कबीर हुआ।।
गरीब, गुरू ज्ञान अडोल अबल है, सतगुरू शब्द सेरी पिछानी।
दास गरीब कबीर सतगुरू मिले, आनस्थान रोप्या छुडानी।।
गरीब, अजब नगर में (सत्यलोक में) ले गए हमको सतगुरू आन।
झिलके बिम्ब अगाध गति, सुते चादर तान।।

इसी प्रकार संत नानक जी को परमेश्वर कबीर जी अपने साथ लेकर सच्चखण्ड यानि सत्यलोक लेकर गए थे। तीन दिन ऊपर के सर्व लोक दिखाकर अपनी महिमा सामथ्र्य से परिचित करवाकर तीसरे दिन वापिस छोड़ा था। उन्होंने भी परमेश्वर कबीर जी की आँखों देखी महिमा की गवाही दी है।

फाई सुरत मलुकि वेश ऐ ठगवाड़ा ठगी देश
खरा सियाणा बहुते भार धाणक रूप रहा करतार (गुरू ग्रन्थ पृष्ठ 24)

यक अर्ज गुफतम पेश तो दर कून करतार,
हक्का कबीर करीम तू बे एब परवरदिगार।। (गुरू ग्रन्थ पृष्ठ 721)

नीच जाति परदेशी मेरा छिन आव तिल जावै।
जाकी संगत नानक रहेंदा क्यूकर मोंडा पावै।। (गुरू ग्रन्थ पृष्ठ 731)

संत गरीबदास जी की वाणी में सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान है जो परमेश्वर कबीर जी ने कबीर सागर में कहा था जो कुछ-कुछ बदला गया। इसलिए कबीर सागर में की गई मिलावट या कांट-छांट स्पष्ट दिखाई दे जाती है। संत गरीबदास जी तथा परमेश्वर कबीर जी की वाणी पवित्र वेदों, गीता, पुराणों से मेल करती है। इसलिए यह विश्वास होना भी स्वभाविक है कि कबीर सागर तथा संत गरीबदास जी की वाणी वाला ज्ञान तत्त्वज्ञान है। अब पवित्र कबीर सागर से सार रूपी मोती निकालता हूँ।