‘‘कबीर परमेश्वर जी की काल से वार्ता’’
जब परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की और अपने लोक में विश्राम करने लगे।
उसके बाद हम सभी अपने पिता सतपुरूष के लोक में सुख से रहने लगे। वहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं है। जन्म-मृत्यु का चक्र नहीं है। कुछ समय पश्चात् हम काल ब्रह्म के जाल में फंसकर इसको चाहने लगे। पिता ने दिल से त्याग दिया। काल के साथ हम सबको सतलोक से निकाल दिया। हम सब जीव काल निरंजन के ब्रह्मण्ड में रहने लगे तथा अपना किया हुआ कर्मदण्ड भोगने लगे और बहुत दुःखी रहने लगे। सुख व शांति की खोज में भटकने लगे और हमें अपने निज घर सतलोक की याद सताने लगी तथा वहाँ जाने के लिए भक्ति प्रारंभ की। किसी ने चारों वेदों को कंठस्थ किया तो कोई उग्र तप करने लगा और हवन यज्ञ, ध्यान, समाधि आदि क्रियाएं प्रारम्भ की, लेकिन अपने निज घर सतलोक नहीं जा सके क्योंकि उपरोक्त क्रियाएं करने से अगले जन्मों में अच्छे समृद्ध जीवन को प्राप्त होकर (जैसे राजा-महाराजा, बड़ा व्यापारी, अधिकारी, देव-महादेव, स्वर्ग-महास्वर्ग आदि) वापिस लख चैरासी भोगने लगे। बहुत परेशान रहने लगे और परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करने लगे कि हे दयालु ! हमें निज घर का रास्ता दिखाओ। हम हृदय से आपकी भक्ति करते हैं। आप हमें दर्शन क्यों नहीं दे रहे हो?
यह वृतान्त कबीर साहेब ने धर्मदास जी को बताते हुए कहा कि धर्मदास इन जीवों की पुकार सुनकर मैं अपने सतलोक से अपने पुत्र जोगजीत का रूप बनाकर काल लोक में आया। तब इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में जहां काल का निज घर है वहां पर तप्तशिला पर जीवों को भूनकर सूक्ष्म शरीर से गंध निकाला जा रहा था। मेरे पहुंचने के बाद उन जीवों की जलन समाप्त को गई। उन्होंने मुझे देखकर कहा कि हे पुरुष ! आप कौन हो? आपके दर्शन मात्र से ही हमें बड़ा सुख व शांति का आभास हो रहा है। फिर मैंने बताया कि मैं पारब्रह्म परमेश्वर कबीर हूँ। आप सब जीव मेरे लोक से आकर काल ब्रह्म के लोक में फंस गए हो। यह काल रोजाना एक लाख मानव के सूक्ष्म शरीर से गंध निकाल कर खाता है और बाद में नाना-प्रकार की योनियों में दण्ड भोगने के लिए छोड़ देता है। तब वे जीवात्माएं कहने लगी कि हे दयालु परमश्ेवर! हमें इस काल की जेल से छुड़वाओ। मैंने बताया कि यह ब्रह्मण्ड काल ने तीन बार भक्ति करके मेरे से प्राप्त किए हुए हैं जो आप यहां सब वस्तुओं का प्रयोग कर रहे हो ये सभी काल की हैं और आप सब अपनी इच्छा से घूमने के लिए आए हो। इसलिए अब आपके ऊपर काल ब्रह्म का बहुत ज्यादा ऋण हो चुका है और वह ऋण मेरे सच्चे नाम के जाप के बिना नहीं उतर सकता।
जब तक आप ऋण मुक्त नहीं हो सकते तब तक आप काल ब्रह्म की जेल से बाहर नहीं जा सकते। इसके लिए आपको मुझसे नाम उपदेश लेकर भक्ति करनी होगी। तब मैं आपको छुड़वा कर ले जाऊंगा। हम यह वार्ता कर ही रहे थे कि वहां पर काल ब्रह्म प्रकट हो गया और उसने बहुत क्रोधित होकर मेरे ऊपर हमला बोला। मैंने अपनी शब्द शक्ति से उसको मुर्छित कर दिया। फिर कुछ समय बाद वह होश में आया। मेरे चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा और बोला कि आप मुझ से बड़े हो, मुझ पर कुछ दया करो और यह बताओ कि आप मेरे लोक में किसलिए आए हो ? तब मैंने काल पुरुष को बताया कि कुछ जीवात्माएं भक्ति करके अपने निज घर सतलोक में वापिस जाना चाहती हैं। उन्हें सतभक्ति मार्ग नहीं मिल रहा है। इसलिए वे भक्ति करने के बाद भी इसी लोक में रह जाती हैं। मैं उनको सतभक्ति मार्ग बताने के लिए और तेरा भेद देने के लिए आया हूं कि तूं काल है, एक लाख जीवों का आहार करता है और सवा लाख जीवों को उत्पन्न करता है तथा भगवान बन कर बैठा है। मैं इनको बताऊंगा कि तुम जिसकी भक्ति करते हो वह भगवान नहीं, काल है। इतना सुनते ही काल बोला कि यदि सब जीव वापिस चले गए तो मेरे भोजन का क्या होगा ? मैं भूखा मर जाऊंगा। आपसे मेरी प्रार्थना है कि तीन युगों में जीव कम संख्या में ले जाना और सबको मेरा भेद मत देना कि मैं काल हूँ, सबको खाता हँू। जब कलियुग आए तो चाहे जितने जीवों को ले जाना। ये वचन काल ने मुझसे प्राप्त कर लिए। कबीर साहेब ने धर्मदास को आगे बताते हुए कहा कि सतयुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग में भी मैं आया था और बहुत जीवों को सतलोक लेकर गया लेकिन इसका भेद नहीं बताया। अब मैं कलियुग में आया हूं और काल से मेरी वार्ता हुई है। काल ब्रह्म ने मुझ से कहा कि अब आप चाहे जितना जोर लगा लेना, आपकी बात कोई नहीं सुनेगा। प्रथम तो मैंने जीव को भक्ति के लायक ही नहीं छोड़ा है। उनमें बीड़ी, सिगरेट, शराब, मांस आदि दुव्र्यसन की आदत डाल कर इनकी वृति को बिगाड़ दिया है। नाना-प्रकार की पाखण्ड पूजा में जीवात्माओं को लगा दिया है। दूसरी बात यह होगी कि जब आप अपना ज्ञान देकर वापिस अपने लोक में चले जाओगे। उससे पहले मैं (काल) अपने दूत भेजकर आपके पंथ से मिलते-जुलते बारह पंथ चलाकर जीवों को भ्रमित कर दूंगा। महिमा सतलोक की बताएंगे, आपका ज्ञान कथेंगे लेकिन नाम-जाप मेरा करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप मेरा ही भोजन बनेंगे। यह बात सुनकर कबीर साहेब ने कहा कि आप अपनी कोशिश करना, मैं सतमार्ग बताकर ही वापिस जाऊंगा और जो मेरा ज्ञान सुन लेगा वह तेरे बहकावे में कभी नहीं आएगा।
सतगुरु कबीर साहेब ने कहा कि हे निरंजन ! यदि मैं चाहूं तो तेरे सारे खेल को क्षण भर में समाप्त कर सकता हूँ, परंतु ऐसा करने से मेरा वचन भंग होता है। यह सोच कर मैं अपने प्यारे हंसों को यथार्थ ज्ञान देकर शब्द का बल प्रदान करके सतलोक ले जाऊंगा और कहा कि –
कह कबीर सुनो धर्मराया, हम शंखों हंसा पद परसाया।
जिन लीन्हा हमरा प्रवाना, सो हंसा हम किए अमाना।।
(पवित्र कबीर सागर में जीवों को काल ब्रह्म द्वारा भूल-भूलइयां में डालने के लिए तथा अपनी भूख को मिटाने के लिए तरह-2 के तरीकों का वर्णन)
द्वादस पंथ करूं मैं साजा, नाम तुम्हारा ले करूं अवाजा।
द्वादस यम संसार पठहो, नाम तुम्हारे पंथ चलैहो।।
प्रथम दूत मम प्रगटे जाई, पीछे अंश तुम्हारा आई।
यही विधि जीवनको भ्रमाऊं, पुरुष नाम जीवन समझाऊं।।
द्वादस पंथ नाम जो लैहे, सो हमरे मुख आन समै है।
कहा तुम्हारा जीव नहीं माने, हमारी ओर होय बाद बखानै।।
मैं दृढ़ फंदा रची बनाई, जामें जीव रहे उरझाई।
देवल देव पाषान पूजाई, तीर्थ व्रत जप-तप मन लाई।।
यज्ञ होम अरू नेम अचारा, और अनेक फंद में डारा।
जो ज्ञानी जाओ संसारा, जीव न मानै कहा तुम्हारा।।
(सतगुरु वचन)
ज्ञानी कहे सुनो अन्याई, काटो फंद जीव ले जाई।।
जेतिक फंद तुम रचे विचारी, सत्य शबद तै सबै बिंडारी।।
जौन जीव हम शब्द दृढावै, फंद तुम्हारा सकल मुकावै।।
चैका कर प्रवाना पाई, पुरुष नाम तिहि देऊं चिन्हाई।।
ताके निकट काल नहीं आवै, संधि देखी ताकहं सिर नावै।।
उपरोक्त विवरण से सिद्ध होता है कि जो अनेक पंथ चले हुए हैं। जिनके पास कबीर साहेब द्वारा बताया हुआ सतभक्ति मार्ग नहीं है, ये सब काल प्रेरित हैं। अतः बुद्धिमान को चाहिए कि सोच-विचार कर भक्ति मार्ग अपनांए क्योंकि मनुष्य जन्म अनमोल है, यह बार-बार नहीं मिलता। कबीर साहेब कहते हैं कि:-
कबीर मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार। तरूवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर न लगता डारि।।
काल निरंजन द्वारा कबीर जी से तीन युगों में कम जीव ले जाने का वचन लेना
(विस्तृत व सम्पूर्ण वर्णन)
प्रश्न:– कबीर जी के नाम से चले 12 पंथों के वास्तविक मुखिया कौन हैं और तेरहवां पंथ कौन चलाएगा?
उत्तर:– जैसा कि कबीर सागर के संशोधनकर्ता स्वामी युगलानन्द (बिहारी) जी ने दुख व्यक्त किया है कि समय-समय पर कबीर जी के ग्रन्थों से छेड़छाड़ करके उनकी बुरी दशा कर रखी है।
उदाहरण:– परमेश्वर कबीर जी का जोगजीत के रूप में काल ब्रह्म के साथ विवाद हुआ था। वह ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ पृष्ठ 117 से 122 तक तथा ‘‘अनुराग सागर‘‘ 60 से 67 तक है।
परमेश्वर कबीर जी अपने पुत्र जोगजीत के रूप में काल के प्रथम ब्रह्माण्ड में प्रकट हुए जो इक्कीसवां ब्रह्माण्ड है जहाँ पर तप्त शिला बनी है। काल ब्रह्म ने जोगजीत के साथ झगड़ा किया। फिर विवश होकर चरण पकड़कर क्षमा याचना की तथा प्रतिज्ञा करवाकर कुछ सुविधा माँगी।
- तीनों युगों (सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग) में थोड़े जीव पार करना।
- जोर-जबरदस्ती करके जीव मेरे लोक से न ले जाना।
- आप अपना ज्ञान समझाना। जो आपके ज्ञान को माने, वह आपका और जो मेरे ज्ञान को माने, वह मेरा।
- कलयुग में पहले मेरे दूत प्रकट होने चाहिएँ, पीछे आपका दूत जाए।
- त्रेतायुग में समुद्र पर पुल बनवाना। उस समय मेरा पुत्र विष्णु रामचंद्र रूप में लंका के राजा रावण से युद्ध करेगा, समुद्र रास्ता नहीं देगा।
- द्वापर युग में शरीर त्यागकर जाऊँगा। राजा इन्द्रदमन मेरे नाम से (जगन्नाथ नाम से) समुद्र के किनारे मेरी आज्ञा से मंदिर बनवाना चाहेगा। उसको समुद्र बाधा करेगा। आप उस मंदिर की सुरक्षा करना। परमेश्वर ने सर्व माँगें स्वीकार कर ली और वचनबद्ध हो गए। तब काल ब्रह्म हँसा और कहा कि हे जोगजीत! आप जाओ संसार में। जिस समय कलयुग आएगा। उस समय मैं अपने 12 दूत (नकली सतगुरू) संसार में भेजूँगा। जब कलयुग 5505 वर्ष पूरा होगा, तब तक मेरे दूत तेरे नाम से (कबीर जी के नाम से) 12 कबीर पंथ चला दूँगा। कबीर जी ने जोगजीत रूप में काल ब्रह्म से कहा था कि कलयुग में मेरा नाम कबीर होगा और मैं कबीर नाम से पंथ चलाऊँगा। इसलिए काल ज्योति निरंजन ने कहा था कि आप कबीर नाम से एक पंथ चलाओगे तो मैं (काल) कबीर नाम से 12 पंथ चलाऊँगा। सर्व मानव को भ्रमित करके अपने जाल में फाँसकर रखूँगा। इनके अतिरिक्त और भी कई पंथ चलाऊँगा जो सतलोक, सच्चखण्ड की बातें किया करेंगे तथा सत्य साधना उनके पास नहीं होगी। जिस कारण से वे सत्यलोक की आशा में गलत नामों को जाप करके मेरे जाल में ही रह जाएँगे।
काल ब्रह्म ने पूछा था कि आप किस समय कलयुग में अपना सत्य कबीर पंथ चलाओगे? कबीर जी ने कहा था कि जिस समय कलयुग 5505 (पाँच हजार पाँच सौ पाँच) वर्ष बीत जाएगा, तब मैं अपना यथार्थ तेरहवां कबीर पंथ चलाऊँगा।
काल ने कहा कि उस समय से पहले मैं पूरी पृथ्वी के ऊपर शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करवाकर शास्त्रविरूद्ध ज्ञान बताकर झूठे नाम तथा गलत साधना के अभ्यस्त कर दूँगा। जब तेरा तेरहवां अंश आकर सत्य कबीर पंथ चलाएगा, उसकी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा, उल्टे उसके साथ झगड़ा करेंगे। कबीर जी को पता था कि जब कलयुग के 5505 वर्ष पूरे होंगे (सन् 1997 में) तब शिक्षा की क्रांति लाई जाएगी। सर्व मानव अक्षर ज्ञानयुक्त किया जाएगा। उस समय मेरा दास सर्व धार्मिक ग्रन्थों को ठीक से समझकर मानव समाज के रूबरू करेगा। सर्व प्रमाणों को आँखों देखकर शिक्षित मानव सत्य से परिचित होकर तुरंत मेरे तेरहवें पंथ में दीक्षा लेगा और पूरा विश्व मेरे द्वारा बताई भक्ति विधि तथा तत्त्वज्ञान को हृदय से स्वीकार करके भक्ति करेगा। उस समय पुनः सत्ययुग जैसा वातावरण होगा। आपसी रागद्वेष, चोरी-जारी, लूट-ठगी कोई नहीं करेगा। कोई धन संग्रह नहीं करेगा। भक्ति को अधिक महत्त्व दिया जाएगा। जैसे उस समय उस व्यक्ति को महान माना जा रहा होगा जिसके पास अधिक धन होगा, बड़ा व्यवसाय होगा, बड़ी-बड़ी कोठियाँ बना रखी होंगी, परंतु 13वें पंथ के प्रारम्भ होने के पश्चात् उन व्यक्तियों को मूर्ख माना जाएगा और जो भक्ति करेंगे, सामान्य मकान बनाकर रहेंगे, उनको महान, बड़े और सम्मानित व्यक्ति माना जाएगा।
‘‘प्रमाण के लिए पवित्र कबीर सागर से भिन्न-भिन्न अध्यायों से अमृत बानी’’
‘‘कबीर जी तथा ज्योति निरंजन की वार्ता‘‘
अनुराग सागर के पृष्ठ 62 से:-
‘‘धर्मराय (ज्योति निरंजन) वचन‘‘
धर्मराय अस विनती ठानी। मैं सेवक द्वितीया न जानी।।1
ज्ञानी बिनती एक हमारा। सो न करहू जिह से हो मोर बिगारा।।2
पुरूष दीन्ह जस मोकहं राजु। तुम भी देहहु तो होवे मम काजु।।3
अब मैं वचन तुम्हरो मानी। लीजो हंसा हम सो ज्ञानी।।4
पृष्ठ 63 से अनुराग सागर की वाणी:-
दयावन्त तुम साहेब दाता। ऐतिक कृपा करो हो ताता।।5
पुरूष शाॅप मोकहं दीन्हा। लख जीव नित ग्रासन कीन्हा।।6
पृष्ठ 64 से अनुराग सागर की वाणी:-
जो जीव सकल लोक तव आवै। कैसे क्षुधा मोर मिटावै।।7
जैसे पुरूष कृपा मोपे कीन्हा। भौसागर का राज मोहे दीन्हा।।8
तुम भी कृपा मोपर करहु। जो माँगे सो मोहे देहो बरहु।।9
सतयुग, त्रोता, द्वापर मांहीं। तीनों युग जीव थोड़े जाहीं।।10
चैथा युग जब कलयुग आवै। तब तव शरण जीव बहु जावै।।11
पृष्ठ 65 से अनुराग सागर की वाणी, ऊपर से वाणी पंक्ति नं. 3 से:-
प्रथम दूत मम प्रकटै जाई। पीछे अंश तुम्हारा आई।।12
पृष्ठ 64 से अनुराग सागर की वाणी, ऊपर से वाणी पंक्ति नं. 6:-
ऐसा वचन हरि मोहे दीजै। तब संसार गवन तव कीजै।।13
‘‘जोगजीत वचन=ज्ञानी बचन‘‘
पृष्ठ 64 से अनुराग सागर की वाणी, ऊपर से वाणी पंक्ति नं. 7:-
अरे काल तुम परपंच पसारा। तीनों युग जीवन दुख डारा।।14
बीनती तोरी लीन्ह मैं जानि। मोकहं ठगा काल अभिमानी।।15
जस बीनती तू मोसन कीन्ही। सो अब बखस तोहे दीन्ही।।16
चैथा युग जब कलयुग आवै। तब हम अपना अंश पठावैं।।17
‘‘धर्मराय (काल) वचन‘‘
पृष्ठ 64 से अनुराग सागर की वाणी, ऊपर से वाणी पंक्ति नं. 17:-
हे साहिब तुम पंथ चलाऊ। जीव उबार लोक लै जाऊ।।18
पृष्ठ 66 से अनुराग सागर की वाणी, ऊपर से वाणी पंक्ति नं. 8, 9, 16 से 21:-
सन्धि छाप (सार शब्द) मोहे दिजे ज्ञानी। जैसे देवोंगे हंस सहदानी।।19
जो जन मोकूं संधि (सार शब्द) बतावै। ताके निकट काल नहीं आवै।।20
कहै धर्मराय जाओ संसारा। आनहु जीव नाम आधारा।।21
जो हंसा तुम्हरे गुण गावै। ताहि निकट हम नहीं जावैं।।22
जो कोई लेहै शरण तुम्हारी। मम सिर पग दै होवै पारी।।23
हम तो तुम संग कीन्ह ढ़िठाई। तात जान किन्ही लड़काइ।।24
कोटिन अवगुन बालक करही। पिता एक चित नहीं धरही।।25
जो पिता बालक कूं देहै निकारी। तब को रक्षा करै हमारी।।26
सारनाम देखो जेहि साथा। ताहि हंस मैं नीवाऊँ माथा।।27
ज्ञानी (कबीर) वचन
अनुराग सागर पृष्ठ 66:-
जो तोहि देहुं संधि बताई। तो तूं जीवन को हइहो दुखदाई।।28
तुम परपंच जान हम पावा। काल चलै नहीं तुम्हरा दावा।।29
धर्मराय तोहि प्रकट भाखा। गुप्त अंक बीरा हम राखा।।30
जो कोई लेई नाम हमारा। ताहि छोड़ तुम हो जाना नियारा।।31
जो तुम मोर हंस को रोको भाई। तो तुम काल रहन नहीं पाई।।32
‘‘धर्मराय (काल निरंजन) बचन‘‘
पृष्ठ 62 तथा 63 से अनुराग सागर की वाणी:-
बेसक जाओ ज्ञानी संसारा। जीव न मानै कहा तुम्हारा।।33
कहा तुम्हारा जीव ना मानै। हमरी और होय बाद बखानै।।34
दृढ़ फंदा मैं रचा बनाई। जामें सकल जीव उरझाई।।35
वेद-शास्त्रा समर्ति गुणगाना। पुत्र मेरे तीन प्रधाना।।36
तीनहू बहु बाजी रचि राखा। हमरी महिमा ज्ञान मुख भाखा।।37
देवल देव पाषाण पुजाई। तीर्थ व्रत जप तप मन लाई।।38
पूजा विश्व देव अराधी। यह मति जीवों को राखा बाँधि।।39
जग (यज्ञ) होम और नेम आचारा। और अनेक फंद मैं डारा।।40
‘‘ज्ञानी (कबीर) वचन‘‘
हमने कहा सुनो अन्याई। काटों फंद जीव ले जांई।।41
जेते फंद तुम रचे विचारी। सत्य शब्द ते सबै विडारी।।42
जौन जीव हम शब्द दृढ़ावैं। फंद तुम्हारा सकल मुक्तावैं।।43
जबही जीव चिन्ही ज्ञान हमारा। तजही भ्रम सब तोर पसारा।।44
सत्यनाम जीवन समझावैं। हंस उभार लोक लै जावै।।45
पुरूष सुमिरन सार बीरा, नाम अविचल जनावहूँ।
शीश तुम्हारे पाँव देके, हंस लोक पठावहूँ।।46
ताके निकट काल नहीं आवै। संधि देख ताको सिर नावै।।48
(संधि = सत्यनाम+सारनाम)
‘‘धर्मराय (काल) वचन‘‘
पंथ एक तुम आप चलऊ। जीवन को सतलोक लै जाऊ।।49
द्वादश पंथ करूँ मैं साजा। नाम तुम्हारा ले करों आवाजा।।50
द्वादश यम संसार पठाऊँ। नाम कबीर ले पंथ चलाऊँ।।51
प्रथम दूत मेरे प्रगटै जाई। पीछे अंश तुम्हारा आई।।52
यहि विधि जीवन को भ्रमाऊँ। आपन नाम पुरूष का बताऊँ।।53
द्वादश पंथ नाम जो लैहि। हमरे मुख में आन समैहि।।54
‘‘ज्ञानी (कबीर) वचन‘‘ चैपाई
अध्याय ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ पृष्ठ 121:-
अरे काल परपंच पसारा। तीनों युग जीवन दुख आधारा।।55
बीनती तोरी लीन मैं मानी। मोकहं ठगे काल अभिमानी।।56
चैथा युग जब कलयुग आई। तब हम अपना अंश पठाई।।57
काल फंद छूटै नर लोई। सकल सृष्टि परवानिक (दीक्षित) होई।।58
घर-घर देखो बोध (ज्ञान) बिचारा (चर्चा)। सत्यनाम सब ठोर उचारा।।59
पाँच हजार पाँच सौ पाँचा। तब यह वचन होयगा साचा।।60
कलयुग बीत जाए जब ऐता। सब जीव परम पुरूष पद चेता।।61
भावार्थ:– (वाणी सँख्या 55 से 61 तक) परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे काल! तूने विशाल प्रपंच रच रखा है। तीनों युगों (सतयुग, त्रोता, द्वापर) में जीवों को बहुत कष्ट देगा। जैसा तू कह रहा है। तूने मेरे से प्रार्थना की थी, वह मान ली। तूने मेरे साथ धोखा किया है, परतुं चैथा युग जब कलयुग आएगा, तब मैं अपना अंश यानि कृपा पात्र आत्मा भेजूँगा। हे काल! तेरे द्वारा बनाए सर्व फंद यानि अज्ञान आधार से गलत ज्ञान व साधना को सत्य शब्द तथा सत्य ज्ञान से समाप्त करेगा। उस समय पूरा विश्व प्रवानिक यानि उस मेरे संत से दीक्षा लेकर दीक्षित होगा। उस समय तक यानि जब तक कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच नहीं बीत जाता, सत्यनाम, मूल नाम (सार शब्द) तथा मूल ज्ञान (तत्त्वज्ञान) प्रकट नहीं करना है। परंतु जब कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष पूरा हो जाएगा, तब घर-घर में मेरे अध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा हुआ करेगी और सत्यनाम, सार शब्द को सब उपदेशियों को प्रदान किया जाएगा। यह जो बात मैं कह रहा हूँ, ये मेरे वचन उस समय सत्य साबित होंगे, जब कलयुग के 5505 (पाँच हजार पाँच सौ पाँच) वर्ष पूरे हो जाएँगे। जब कलयुग इतने वर्ष बीत जाएगा। तब सर्व मानव प्राणी परम पुरूष यानि सत्य पुरूष के पद अर्थात् उस परम पद के जानकार हो जाएँगे जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्त्वदर्शी संत के प्राप्त होने के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष का विस्तार किया है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सृष्टि की रचना की है, उस परमेश्वर की भक्ति करो।
उपरोक्त वाणी का भावार्थ है कि उस समय उस परमेश्वर के पद (सत्यलोक) के विषय में सबको पूर्ण ज्ञान होगा।
स्वसमवेद बोध पृष्ठ 170:–
अथ स्वसम वेद की स्फुटवार्ता-चैपाई
एक लाख और असि हजारा। पीर पैगंबर और अवतारा।।62
सो सब आही निरंजन वंशा। तन धरी-धरी करैं निज पिता प्रशंसा।।63
दश अवतार निरंजन के रे। राम कृष्ण सब आहीं बडेरे।।64
इनसे बड़ा ज्योति निरंजन सोई। यामें फेर बदल नहीं कोई।।65
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि बाबा आदम से लेकर हजरत मुहम्मद तक कुल एक लाख अस्सी हजार (1,80,000) पैगंबर हुए हैं तथा दस अवतार जो हिन्दू मानते हैं, ये सब काल के भेजे आए हैं। इन सबने काल ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया है। जो दस अवतार हैं, इन दस अवतारों में राम तथा कृष्ण प्रमुख हैं। ये सब काल (जो इनका पिता है) की महिमा बनाकर सर्व जीवों को भ्रमित करके काल साधना दृढ़ कर गए हैं। इस सबका मुखिया ज्योति निरंजन काल (ब्रह्म) है।
कबीर सागर में स्वसमवेद बोध पृष्ठ 171 (1515):-
सत्य कबीर वचन
दोहे:– पाँच हजार अरू पाँच सौ पाँच जब कलयुग बीत जाय।
महापुरूष फरमान तब, जग तारन कूं आय।।66
हिन्दु तुर्क आदि सबै, जेते जीव जहान।
सत्य नाम की साख गही, पावैं पद निर्वान।।67
यथा सरितगण आप ही, मिलैं सिन्धु मैं धाय।
सत्य सुकृत के मध्य तिमि, सब ही पंथ समाय।।68
जब लग पूर्ण होय नहीं, ठीक का तिथि बार।
कपट-चातुरी तबहि लौं, स्वसम बेद निरधार।।69
सबही नारी-नर शुद्ध तब, जब ठीक का दिन आवंत।
कपट चातुरी छोड़ि के, शरण कबीर गहंत।।70
एक अनेक ह्नै गए, पुनः अनेक हों एक।
हंस चलै सतलोक सब, सत्यनाम की टेक।।71
घर घर बोध विचार हो, दुर्मति दूर बहाय।
कलयुग में सब एक होई, बरतें सहज सुभाय।।72
कहाँ उग्र कहाँ शुद्र हो, हरै सबकी भव पीर (पीड़)।।73
सो समान समदृष्टि है, समर्थ सत्य कबीर।।74
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि हे धर्मदास! मैंने ज्योति निरंजन यानि काल ब्रह्म से भी कहा था, अब आपको भी बता रहा हूँ।
स्वसमबेद बोध की वाणी सँख्या 66 से 74 का सरलार्थ:– जिस समय कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष बीत जाएगा, तब एक महापुरूष विश्व को पार करने के लिए आएगा। हिन्दु, मुसलमान आदि-आदि जितने भी पंथ तब तक बनेंगे और जितने जीव संसार में हैं, वे मानव शरीर प्राप्त करके उस महापुरूष से सत्यनाम लेकर सत्यनाम की शक्ति से मोक्ष प्राप्त करेंगे। वह महापुरूष जो सत्य कबीर पंथ चलाएगा, उस (तेरहवें) पंथ में सब पंथ स्वतः ऐसे तीव्र गति से समा जाएंगे जैसे भिन्न-भिन्न नदियाँ अपने आप निर्बाध दौड़कर समुद्र में गिर जाती है। उनको कोई रोक नहीं पाता। ऐसे उस तेरहवें पंथ में सब पंथ शीघ्रता से मिलकर एक पंथ बन जाएगा। परंतु जब तक ठीक का समय नहीं आएगा यानि कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष पूरे नहीं करता, तब तक मैं जो यह ज्ञान स्वसमवेद में बोल रहा हूँ, आप लिख रहे हो, निराधार लगेगा।
जिस समय वह निर्धारित समय आएगा। उस समय स्त्राी-पुरूष उच्च विचारों तथा शुद्ध आचरण के होकर कपट, व्यर्थ की चतुराई त्यागकर मेरी (कबीर जी की) शरण ग्रहण करेंगे। परमात्मा से लाभ लेने के लिए एक ‘‘मानव‘‘ धर्म से अनेक पंथ (धार्मिक समुदाय) बन गए हैं, वे सब पुनः एक हो जाएंगे। सब हंस (निर्विकार भक्त) आत्माएँ सत्य नाम की शक्ति से सतलोक चले जाएंगे। मेरे अध्यात्म ज्ञान की चर्चा घर-घर में होगी। जिस कारण से सबकी दुर्मति समाप्त हो जाएगी। कलयुग में फिर एक होकर सहज बर्ताव करेंगे यानि शांतिपूर्वक जीवन जीएंगे। कहाँ उग्र अर्थात् चाहे डाकू, लुटेरा, कसाई हो, चाहे शुद्र, अन्य बुराई करने वाला नीच होगा। परमात्मा सत्य भक्ति करने वालों की भवपीर यानि सांसारिक कष्ट हरेगा यानि दूर करेगा। सत्य साधना से सबकी भवपीर यानि सांसारिक कष्ट समाप्त हो जाएंगे और उस 13वें (तेरहवें) पंथ का प्रवर्तक सबको समान दृष्टि से देखेगा अर्थात् ऊँच-नीच में भेदभाव नहीं करेगा। वह समर्थ सत्य कबीर ही होगा। (मम् सन्त मुझे जान मेरा ही स्वरूपम्)
प्रश्न:– वह तेरहवां पंथ कौन-सा है, उसका प्रवर्तक कौन है?
उत्तर:– वह तेरहवां पंथ ‘‘यथार्थ सत कबीर‘‘ पंथ है। उसके प्रवर्तक स्वयं कबीर परमेश्वर जी हैं। वर्तमान में उसका संचालक उनका गुलाम रामपाल दास पुत्र स्वामी रामदेवानंद जी महाराज है। (अध्यात्मिक दृष्टि से गुरू जी पिता माने जाते हैं जो आत्मा का पोषण करते हैं।)
प्रमाण:– वैसे तो संत धर्मदास जी की वंश परंपरा वाले महंतो से जुड़े श्रद्धालुओं ने अज्ञानतावश तेरहवां पंथ और संचालक धर्मदास की बिन्द (परिवार) की धारा वालों को सिद्ध करने की कुचेष्टा की है। परंतु हाथी के वस्त्रा को भैंसे पर डालकर कोई कहे कि देखो यह वस्त्र भैंसे का है। बुद्धिमान तो तुरंत समझ जाते हैं कि यह भैंसा का वस्त्रा नहीं है। यह तो भैंसे से कई गुणा लंबे-चैड़े पशु का है। भले ही वे ये न बता सकें कि यह हाथी का है।
उदाहरण:– पवित्र कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ के पृष्ठ 1834-1835 पर लिखा है।
तेरह गाड़ी कागजों को लिखना
एक समय दिल्ली के बादशाह ने कहा कि कबीर जी 13 (तेरह) गाड़ी कागजों को ढ़ाई दिन यानि 60 घण्टे में लिख दे तो मैं उनको परमात्मा मान जाऊँगा। परमेश्वर कबीर जी ने अपनी डण्डी उन तेरह गाड़ियों में रखे कागजों पर घुमा दी। उसी समय सर्व कागजों में अमृतवाणी सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान लिख दिया। राजा को विश्वास हो गया, परंतु अपने धर्म के व्यक्तियों (मुसलमानों) के दबाव में उन सर्व ग्रन्थों को दिल्ली में जमीन में गडवा दिया। कबीर सागर के अध्याय कबीर चरित्र बोध ग्रन्थ में पृष्ठ 1834-1835 पर गलत लिखा है कि जब मुक्तामणि साहब का समय आवेगा और उनका झण्डा दिल्ली नगरी में गड़ेगा। तब वे समस्त पुस्तकें पृथ्वी से निकाली जाएंगी। सो मुक्तामणि अवतार (धर्मदास के) वंश की तेरहवीं पीढ़ी वाला होगा।
विवेचन:– ऊपर वाले लेख में मिलावट का प्रमाण इस प्रकार है कि वर्तमान में धर्मदास जी की वंश गद्दी दामाखेड़ा जिला-रायगढ़ प्रान्त-छत्तीसगढ़ में है। उस गद्दी पर 14वें (चैदहवें) वंश गुरू श्री प्रकाशमुनि नाम साहेब विराजमान हैं। तेरहवें वंश गुरू श्री गृन्ध मुनि नाम साहेब थे जो वर्तमान सन् 2013 से 15 वर्ष पूर्व 1998 में शरीर त्याग गए थे। यदि तेरहवीं गद्दी वाले वंश गुरू के विषय में यह लिखा होता तो वे निकलवा लेते और दिल्ली झण्डा गाड़ते। ऐसा नहीं हुआ तो वह तेरहवां पंथ धर्मदास जी की वंश परंपरा से नहीं है। फिर ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ के पृष्ठ 1870 पर कबीर सागर में 12 (बारह) पंथों के नाम लिखे हैं जो काल (ज्योति निरंजन) ने कबीर जी के नाम से नकली पंथ चलाने को कहा था। उनमें सर्व प्रथम ‘‘नारायण दास‘‘ लिखा है। बारहवां पंथ गरीब दास का लिखा है। वास्तव में प्रथम चुड़ामणि जी हैं, जान-बूझकर काट-छाँट की है।
उनको याद होगा कि परमेश्वर कबीर जी ने नारायण दास जी को तो शिष्य बनाया ही नहीं था। वे तो श्री कृष्ण जी के पुजारी थे। उसने तो अपने छोटे भाई चुड़ामणि जी का घोर विरोध किया था। जिस कारण से श्री चुड़ामणि जी कुदुर्माल चले गए थे। बाद में बाँधवगढ़ नगर नष्ट हो गया था। ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ में पृष्ठ 1870 पर बारह पंथों के प्रवर्तकों के नाम लिखे हैं। उनमें प्रथम गलत नाम लिखा है। शेष सही हैं। लिखा हैः-
1ण् नारायण दास जी का पंथ 2ण् यागौ दास (जागु दास) जी का पंथ 3ण् सूरत गोपाल
पंथ 4ण् मूल निरंजन पंथ 5ण् टकसारी पंथ 6ण् भगवान दास जी का पंथ 7ण् सतनामी पंथ 8ण्
कमालीये (कमाल जी का) पंथ 9ण् राम कबीर पंथ 10ण् प्रेम धाम (परम धाम) की वाणी पंथ
11ण् जीवा दास पंथ 12ण् गरीबदास पंथ।
फिर ‘‘कबीर बानी‘‘ अध्याय के पृष्ठ 134 पर कबीर सागर में लिखा है किः-
‘‘वंश प्रकार‘‘
- प्रथम वंश उत्तम (यह चुड़ामणि जी के विषय में कहा है।)
- दूसरे वंश अहंकारी (यह यागौ यानि जागु दास जी का है।)
- तीसरे वंश प्रचंड (यह सूरत गोपाल जी का है।)
- चैथे वंश बीरहे (यह मूल निरंजन पंथ है।)
- पाँचवें वंश निन्द्रा (यह टकसारी पंथ है।)
- छटे वंश उदास (यह भगवान दास जी का पंथ है।)
- सातवें वंश ज्ञान चतुराई (यह सतनामी पंथ है।)
- आठवें वंश द्वादश पंथ विरोध (यह कमाल जी का कमालीय पंथ है।)
- नौवें वंश पंथ पूजा (यह राम कबीर पंथ है।)
- दसवें वंश प्रकाश (यह परम धाम की वाणी पंथ है।)
- ग्यारहवें वंश प्रकट पसारा (यह जीवा पंथ है।)
- बारहवें वंश प्रकट होय उजियारा (यह संत गरीबदास जी गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, प्रान्त-हरियाणा वाला पंथ है जिन्होंने परमेश्वर कबीर जी के मिलने के पश्चात् उनकी महिमा को तथा यथार्थ ज्ञान को बोला जिससे परमेश्वर कबीर जी की महिमा का कुछ प्रकाश हुआ।)
- तेरहवें वंश मिटे सकल अंधियारा {यह यथार्थ कबीर पंथ है जो सन् 1994 से प्रारम्भ हुआ है जो मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा संचालित है।}
दामाखेड़ा वाले धर्मदास जी के वंश गद्दी वालों ने वास्तविक भेद छुपाने की कोशिश की तो है, परंतु सच्चाई को मिटा नहीं सके। नारायण दास तो कबीर जी का विरोधी था, वह उत्तम नहीं था। उत्तम तो चुड़ामणि था। वह प्रथम पंथ का मुखिया था।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ के पृष्ठ पर 136:-
द्वादश पंथ चलो सो भेद
द्वादश पंथ काल फुरमाना। भूले जीव न जाय ठिकाना।।
तातें आगम कह हम राखा। वंश हमारा चुड़ामणि शाखा।।
प्रथम जग में जागु भ्रमावै। बिना भेद वह ग्रन्थ चुरावै।।
दूसर सुरति गोपाल होई। अक्षर जो जोग दृढ़ावै सोई।।
(विवेचन:– यहाँ पर प्रथम जागु दास बताया है जबकि वाणी स्पष्ट कर रही है कि वंश (प्रथम) चुड़ामणि है। दूसरा जागु दास। यही प्रमाण ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1870 में है।
दूसरा जागु दास है। अध्याय ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ के पृष्ठ 155(1499) पर भी दूसरा जागु लिखा है। यहाँ प्रथम लिख दिया। यहाँ पर प्रथम चुड़ामणि लिखना उचित है।)
तीसरा मूल निरंजन बानी। लोक वेद की निर्णय ठानी।।
(यह चैथा लिखना चाहिए)
चैथे पंथ टकसार (टकसारी) भेद लौ आवै। नीर पवन को संधि बतावै।।
(यह पाँचवां लिखना चाहिए)
पाँचवां पंथ बीज को लेखा। लोक प्रलोक कहै हम में देखा।।
(यह भगवान दास का पंथ है जो छटा लिखना चाहिए था।)
छटा पंथ सत्यनामी प्रकाशा। घट के माहीं मार्ग निवासा।।
(यह सातवां पंथ लिखना चाहिए।)
सातवां जीव पंथ ले बोलै बानी। भयो प्रतीत मर्म नहीं जानी।।
(यह आठवां कमाल जी का पंथ है।)
आठवां राम कबीर कहावै। सतगुरू भ्रम लै जीव दृढ़ावै।।
(वास्तव में यह नौवां पंथ है।)
नौमें ज्ञान की कला दिखावै। भई प्रतीत जीव सुख पावै।।
(वास्तव में यह ग्यारहवां जीवा पंथ है। यहाँ पर नौमा गलत लिखा है।)
दसवें भेद परम धाम की बानी। साख हमारी का निर्णय ठानी।।
(यह ठीक लिखा है, परंतु ग्यारहवां नहीं लिखा। यदि प्रथम चुड़ामणि जी को मानें तो सही क्रम बनता है। वास्तव में प्रथम चुड़ामणि जी हैं। इसके पश्चात् बारहवें पंथ गरीबदास जी वाले पंथ का वर्णन प्रारम्भ होता है। यह सांकेतिक है।
संत गरीबदास जी का जन्म विसंवत् 1774 (सतरह सौ चैहत्तर) में हुआ था। यहाँ गलती से सतरह सौ पचहत्तर लिखा है। यह प्रिन्ट में गलती है।)
संवत् सतरह सौ पचहत्तर (1775) होई। ता दिन प्रेम प्रकटें जग सोई।।
आज्ञा रहै ब्रह्म बोध लावै। कोली चमार सबके घर खावै।।
साखि हमारी ले जीव समझावै। असंख्य जन्म ठौर नहीं पावै।।
बारहवें (बारवै) पंथ प्रगट होवै बानी। शब्द हमारै की निर्णय ठानी।।
अस्थिर घर का मर्म नहीं पावै। ये बार (बारह) पंथ हमी (कबीर जी) को ध्यावैं।।
बारहें पंथ हमहि (कबीर जी ही) चलि आवैं। सब पंथ मिटा एक ही पंथ चलावैं।।
प्रथम चरण कलजुग निरयाना (निर्वाण)। तब मगहर मांडो मैदाना।।
भावार्थ:– यहाँ पर बारहवां पंथ संत गरीबदास जी वाला स्पष्ट है क्योंकि संत गरीबदास जी को परमेश्वर कबीर जी मिले थे और उनका ज्ञान योग खोल दिया था। तब संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी की महिमा की वाणी बोली जो ग्रन्थ रूप में वर्तमान में प्रिन्ट करवा लिया गया है। विचार करना है। संत गरीबदास जी के पंथ तक 12 (बारह) पंथ चल चुके हैं। यह भी लिखा है कि भले ही संत गरीबदास जी ने मेरी महिमा की साखी-शब्द-चैपाई लिखी है, परंतु वे बारहवें पंथ के अनुयाई अपनी-अपनी बुद्धि से वाणी का अर्थ करेंगें, परंतु ठीक से न समझकर संत गरीबदास जी तक वाले पंथ के अनुयाई यानि बारह पंथों वाले मेरी वाणी को ठीक से नहीं समझ पाएंगे। जिस कारण से असंख्य जन्मों तक सतलोक वाला अमर धाम ठिकाना प्राप्त नहीं कर पाएँगे। ये बारह पंथ वाले कबीर जी के नाम से पंथ चलाएंगे और मेरे नाम से महिमा प्राप्त करेंगे, परंतु ये बारह के बारह पंथों वाले अनुयाई अस्थिर यानि स्थाई घर (सत्यलोक) को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। फिर कहा है कि आगे चलकर बारहवें पंथ (संत गरीबदास जी वाले पंथ में) हम यानि स्वयं कबीर जी ही चलकर आएंगे, तब सर्व पंथों को मिटाकर एक पंथ चलाऊँगा। कलयुग का वह प्रथम चरण होगा, जिस समय मैं (कबीर जी) संवत् 1575 (ई. सन् 1518) को मगहर नगर से निर्वाण प्राप्त करूँगा यानि कोई लीला करके सतलोक जाऊँगा।
परमेश्वर कबीर जी ने कलयुग को तीन चरणों में बाँटा है। प्रथम चरण तो वह जिसमें परमेश्वर लीला करके जा चुके हैं। बिचली पीढ़ी वह है जब कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष बीत जाएगा। अंतिम चरण में सब कृतघ्नी हो जाएंगे, कोई भक्ति नहीं करेगा।
मुझ दास (रामपाल दास) का निकास संत गरीबदास वाले बारहवें पंथ से हुआ है। मेरे द्वारा चलाया वह तेरहवां पंथ अब चल रहा है। परमेश्वर कबीर जी ने चलवाया है। गुरू महाराज स्वामी रामदेवानंद जी का आशीर्वाद है। यह सफल होगा और पूरा विश्व परमेश्वर कबीर जी की भक्ति करेगा।
संत गरीबदास जी को परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में मिले थे। परमात्मा तो कबीर हैं ही। वे अपना ज्ञान बताने स्वयं पृथ्वी पर तथा अन्य लोकों में प्रकट होते हैं। संत गरीबदास जी ने ‘‘असुर निकंदन रमैणी‘‘ में कहा है कि
‘‘सतगुरू दिल्ली मंडल आयसी। सूती धरती सूम जगायसी। दिल्ली के तख्त छत्र फेर भी फिराय सी। चैंसठ योगनि मंगल गायसी।
‘‘ संत गरीबदास जी के सतगुरू ‘‘परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी‘‘ थे।
परमेश्वर कबीर जी ने कबीर सागर अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 136 तथा 137 पर कहा है कि बारहवां (12वां) पंथ संत गरीबदास जी द्वारा चलाया जाएगा।
संवत् सतरह सौ पचहत्तर (1775) होई। जा दिन प्रेम प्रकटै जग सोई।।
साखि हमारी ले जीव समझावै। असंख्यों जन्म ठौर नहीं पावै।।
बारहवें पंथ प्रगट हो बानी। शब्द हमारे की निर्णय ठानी।।
अस्थिर घर का मर्म ना पावैं। ये बारा (बारह) पंथ हमही को ध्यावैं।।
बारहवें पंथ हम ही चलि आवैं। सब पंथ मिटा एक पंथ चलावैं।।
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि 12वें (बारहवें) पंथ तक के अनुयाई मेरी महिमा की साखी जो मैंने (परमेश्वर कबीर जी ने) स्वयं कही है जो कबीर सागर, कबीर साखी, कबीर बीजक, कबीर शब्दावली आदि-आदि ग्रन्थों में लिखी हैं। उनको तथा जो मेरी कृपा से गरीबदास जी द्वारा कही गई वाणी के गूढ़ रहस्यों को ठीक से न समझकर स्वयं गलत निर्णय करके अपने अनुयाईयों को समझाया करेंगें, परंतु सत्य से परिचित न होकर असँख्यों जन्म स्थाई घर अर्थात् सनातन परम धाम (सत्यलोक) को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। फिर मैं (परमेश्वर कबीर जी) उस गरीबदास वाले पंथ में आऊँगा जो कलयुग में पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष पूरे होने पर यथार्थ सत कबीर पंथ चलाया जाएगा। उस समय तत्त्वज्ञान पर घर-घर में चर्चा चलेगी। तत्त्वज्ञान को समझकर सर्व संसार के मनुष्य मेरी भक्ति करेंगे। सब अच्छे आचरण वाले बनकर शांतिपूर्वक रहा करेंगे। इससे सिद्ध है कि तेरहवां पंथ जो यथार्थ कबीर पंथ है, वह अब मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा चलाया जा रहा है। कृपा परमेश्वर कबीर जी की है। जब परमेश्वर कबीर जी ‘‘तोताद्रि‘‘ स्थान पर ब्राह्मणों के भण्डारे में भैंसे से वेद-मंत्र बुलवा सकते हैं तो वे स्वयं भी बोल सकते थे। समर्थ की समर्थता इसी में है कि वे जिससे चाहें, अपनी महिमा का परिचय दिला सकते हैं। शायद इसीलिए परमेश्वर कबीर जी ने अपनी कृपा से मुझ दास (रामपाल दास) से यह 13वां (तेरहवां) पंथ चलवाया है।