वाणी नं. 108: गरीब, नामा के बीठ्ठल भये, और कलंदर रूप। गउ जिवाई जगतगुरु, पादसाह जहां भूप।।108।।
वाणी नं. 108 का सरलार्थ:– इस वाणी में महाराष्ट्र के भक्त नामदेव जी पर परमात्मा की कृपा का वर्णन है:-
संत नामदेव जी पर प्रभु कृपा
कथा:- संत नामदेव जी का जन्म सन् 1270 (विक्रमी संवत् 1327) में छीपा जाति में गाँव-पुण्डरपुर, जिला-सतारा (महाराष्ट्र प्रान्त) में हुआ। स्थानीय गुरूओं के विरोध के कारण नामदेव जी महाराष्ट्र त्यागकर हरिद्वार चले गए। उस समय दिल्ली का सम्राट मोहम्मद बिन तुगलक था। सन् 1325 में किसी ने राजा से कहा कि एक हिन्दू संत नामदेव हिन्दू धर्म का प्रचार कर रहा है। उसके विषय में सुना है कि वह पत्थर की मूर्ति में प्राण स्थापित करके दूध पिला देता है आदि-आदि। राजा ने परीक्षा करने के लिए संत नामदेव जी को दिल्ली बुलाया। राजा के सिपाही संत जी को बाँधकर ले गए। एक गाय को तलवार से गर्दन से काटा गया और संत नामदेव से कहा कि तू जनता को भ्रमित करता फिरता है। इस गाय को जीवित कर नहीं तो तेरे को मृत्यु दंड दिया जाएगा। संत नामदेव जी ने परमेश्वर से रक्षार्थ हृदय से पुकार की। उसी समय गाय जीवित हो गई। नामदेव को गुरू जी के साक्षात दर्शन हुए जो गाय जीवित करके अंतध्र्यान हो गए। मोहम्मद बिन तुगलक ने संत जी से क्षमा याचना की और छोड़ दिया।
इस घटना से पहले गाँव पुण्डरपुर में कुछ चमत्कार हुए:-
बिट्ठल भगवान की मूर्ति को दूध पिलाना
भक्त नामदेव जी के माता-पिता जी बिट्ठल {श्री विष्णु जी जो एक ईंट (ठतपबा) पर खड़े हुए की पत्थर या पीतल की मूर्ति बनाई जाती है} के परम भक्त थे।
भगवान श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण जी का बिट्ठल नाम कैसे पड़ा?
एक छोटे-से गाँव में भक्त पुण्डलिक रहता था। वह भगवान श्री कृष्ण का परम भक्त था। पूर्व जन्म की भक्ति-शक्ति के कारण पुण्यात्माएँ बचपन से ही अनोखे कार्य करते हैं। एक दिन भक्त पुण्डलिक जी अपने पिता के चरण दबा रहा था। उनके पिता जी सोए ही थे। उसकी माता जी अपने पति पर हाथ के पंखे से हवा कर रही थी। उसी समय भगवान श्री कृष्ण जी उनके द्वार पर आ खड़े हुए और कहा कि हे पुण्डलिक! मैं तुम्हारे घर अतिथि बनकर ठहरना चाहता हूँ। भक्त पुण्डलिक ने धीरे से कहा कि ऊँची आवाज में मत बोलो, मेरे पिता जी को अभी-अभी नींद आई है। आप यहीं पर उस ईंट (ठतपबा) पर खड़े हो जाओ, आवाज मत करना। प्रतिक्षा करो। भक्त अपने पिता जी के चरणों को दबाता रहा। पैर दबाने में लीन हो गया। भगवान श्री कृष्ण उसके भोलेपन तथा सच्चे मन से किए आग्रह से प्रसन्न होकर अपने पैरों को साथ-साथ करके ईंट के ऊपर खड़े हो गए। दोनों हाथ कमर पर रख लिए। कुछ देर बाद भक्त पुण्डलिक ने ईंट पर खड़े श्री कृष्ण की ओर देखा और कहा कि आप कुछ देर ओर ऐसे ही खड़े रहें और इंतजार करें। उसके शुद्ध हृदय और भोले भाव से भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न हुए। जब उसके पिता जगे तो पिता से कहा कि देखो! भगवान खड़े हैं। पहले तो केवल अकेले को दिखाई दे रहे थे, फिर अपने माता-पिता को भी दर्शन कराए। भगवान आशीर्वाद देकर चले गए। उनकी वह ईंट पर खड़ा होने वाली मूर्ति महाराष्ट्र में बहुत पूज्य है। इसको बिट्ठल (ईंट पर खड़ा भगवान) के नाम से जाना जाने लगा। उस गाँव का नाम पुंडलिकपुर पड़ा। बाद में अपभ्रंस होकर पुण्डरपुर प्रसिद्ध हुआ।
पत्थर को दूध पिलाना
नामदेव द्वारा बिट्ठल भगवान की पत्थर मूर्ति को दूध पिलाने का वर्णनः– नामदेव जी के माता-पिता भगवान बिट्ठल की पत्थर की मूर्ति की पूजा करते थे। घर पर एक अलमारी में मूर्ति रखी थी। प्रतिदिन मूर्ति को दूध का भोग लगाया जाता था। एक कटोरे में दूध गर्म करके मीठा मिलाकर पीने योग्य ठण्डा करके कुछ देर मूर्ति के सामने रख देते थे। आगे पर्दा कर देते थे जो अलमारी पर लगा रखा था। कुछ देर पश्चात् उसे उठाकर अन्य दूध में डालकर प्रसाद बनाकर सब पीते थे।
नामदेव जी केवल 12 वर्ष के बच्चे थे। एक दिन माता-पिता को किसी कार्यवश दूर अन्य गाँव जाना पड़ा। अपने पुत्र नामदेव से कहा कि पुत्र! हम एक सप्ताह के लिए अन्य गाँव में जा रहे हैं। आप घर पर रहना। पहले बिट्ठल जी को दूध का भोग लगाना, फिर बाद में भोजन खाना। ऐसा नहीं किया तो भगवान बिट्ठल नाराज हो जाएँगे और अपने को शाॅप दे देंगे। अपना अहित हो जाएगा। यह बात माता-पिता ने नामदेव से जोर देकर और कई बार दोहराई और यात्र पर चले गए। नामदेव जी ने सुबह उठकर स्नान करके, स्वच्छ वस्त्र पहनकर दूध का कटोरा भरकर भगवान की मूर्ति के सामने रख दिया और दूध पीने की प्रार्थना की, परंतु मूर्ति ने दूध नहीं पीया। भक्त ने भी भोजन तक नहीं खाया। तीन दिन बीत गए। प्रतिदिन इसी प्रकार दूध मूर्ति के आगे रखते और विनय करते कि हे बिट्ठल भगवान! दूध पी लो। आज आपका सेवादार मर जाएगा क्योंकि और अधिक भूख सहन करना मेरे वश में नहीं है। माता-पिता नाराज होंगे। भगवान मेरी गलती क्षमा करो। मुझसे अवश्य कोई गलती हुई है। जिस कारण से आप दूध नहीं पी रहे। माता-पिता जी से तो आप प्रतिदिन भोग लगाते थे। नामदेव जी को ज्ञान नहीं था कि माता-पिता कुछ देर दूध रखकर भरा कटोरा उठाकर अन्य दूध में डालते थे। वह तो यही मानता था कि बिट्ठल जी प्रतिदिन दूध पीते थे। चैथे दिन बेहाल बालक ने दूध गर्म किया और दूध मूर्ति के सामने रखा और कमजोरी के कारण चक्कर खाकर गिर गया। फिर बैठे-बैठे अर्जी लगाने लगा तो उसी समय मूर्ति के हाथ आगे बढ़े और कटोरा उठाया। सब दूध पी लिया। नामदेव जी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। फिर स्वयं भी खाना खाया, दूध पीया। फिर तो प्रतिदिन बिट्ठल भगवान जी दूध पीने लगे।
सात-आठ दिन पश्चात् नामदेव के माता-पिता लौटे तो सर्वप्रथम पूछा कि क्या बिट्ठल जी को दूध का भोग लगाया? नामदेव ने कहा कि माता-पिता जी! भगवान ने तीन दिन तो दूध नहीं पीया। मेरे से पता नहीं क्या गलती हुई। मैंने भी खाना नहीं खाया। चैथे दिन भगवान ने मेरी गलती क्षमा की, तब सुबह दूध पीया। तब मैंने भी खाना खाया, दूध पीया। माता-पिता को लगा कि बालक झूठ बोल रहा है। इसीलिए कह रहा है कि चैथे दिन दूध पीया। मूर्ति दूध कैसे पी सकती है? माता-पिता ने कहा सच-सच बता बेटा, नहीं तो तुझे पाप लगेगा। बिट्ठल भगवान जी ने वास्तव में दूध पीया है। नामदेव जी ने कहा, माता-पिता वास्तव में सत्य कह रहा हूँ। पिताजी ने कहा कि कल सुबह हमारे सामने दूध पिलाना। अगले दिन नामदेव जी ने बिट्ठल भगवान की पत्थर की मूर्ति के सामने दूध का कटोरा रखा। उसी समय मूर्ति के हाथ आगे बढ़े, कटोरा उठाया और सारा दूध पी गए। माता-पिता तो पागल से हो गये। गली में जाकर कहने लगे कि नामदेव ने बिट्ठल भगवान की मूर्ति को सचमुच दूध पिला दिया। यह बात सारे गाँव में आग की तरह फैल गई, परंतु किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। बात पंचों के पास पहुँच गई कि नामदेव का पिता झूठ कह रहा है कि मेरे पुत्र नामदेव ने पत्थर की मूर्ति को दूध पिला दिया। पंचायत हुई। नामदेव तथा उसके पिता को पंचायत में बुलाया गया और कहा कि क्या यह सच है कि नामदेव ने बिट्ठल भगवान की मूर्ति को दूध पिलाया था। पिता ने कहा कि हाँ! हमारे सामने पिलाया था। पंचों ने कहा कि यह भगवान बिट्ठल जी की मूर्ति रखी है। यह दूध का कटोरा रखा है। हमारे सामने नामदेव दूध पिलाए तो मानेंगे अन्यथा आपको सपरिवार गाँव छोड़कर जाना होगा। नामदेव जी ने कटोरा उठाया और भगवान बिट्ठल जी की मूर्ति के सामने किया। उसी समय कटोरा बिट्ठल जी ने हाथों में पकड़ा और सब दूध पी गया। पंचायत के व्यक्ति तथा दर्शक हैरान रह गए। इस प्रकार नामदेव जी की पूर्व जन्म की भक्ति की शक्ति से परमेश्वर ने चमत्कार किए।
नामदेव जी की छान (झोंपड़ी की घास-फूस से बनी छत) भगवान ने डाली
अन्य अद्भुत चमत्कार:- नामदेव जी के पिता जी का देहान्त हो गया था। घर के सभी कार्यों का बोझ नामदेव पर आ गया। माता ने कहा कि बेटा! बारिश होने वाली है। अगले महीने से वर्षा प्रारम्भ हो जाएगी। उससे पहले-पहले अपनी झोंपड़ी की छान (घास-फूस की छत) छा ले यानि डाल ले। जंगल से घास ले आ जो विशेष घास होता है। नामदेव घास लेने गए थे। रास्ते में सत्संग हो रहा था। घास लाना भूल गया। सत्संग सुनने के लिए कुछ देर बैठा, मस्त हो गया। आनन्द आया। फिर भण्डारे में सेवा करने लगा। इस प्रकार शाम हो गई। बिना घास के लौटे तो माँ ने कहा कि बेटा घास नहीं लाया। छान बनानी थी। कहने लगा कि माता जी! सत्संग सुनने लग गया। पता ही नहीं लगा कि कब शाम हो गई। कल अवश्य लाऊँगा। अगले दिन सोचा कि कुछ देर सत्संग सुन लेता हूँ, फिर चलकर घास-फूस लाकर छान (झोंपड़ी की छत) बनाऊँगा। उस दिन भी भूल गया। अगले दिन सत्संग समाप्त होते ही जंगल में गया तो पैर पर गंडासी (लोहे की घास-कांटेदार झाड़ी काटने की कुल्हाड़ी जैसी) लगी। जख्म गहरा हो गया। घास नहीं ला सका। पैर से लंग करता हुआ खाली हाथ चला आ रहा था। परमात्मा ने नामदेव के रूप में आकर घास लाकर झोंपड़ी बना दी और नामदेव जी के आने से पहले चले गए। नामदेव जी को देखकर माता जी ने पूछा कि बेटा! पैर में क्या लग गया? नामदेव जी ने कहा कि माता जी! झोंपड़ी की छान के लिए जंगल में घास काट रहा था। पैर में गंडासी लग गई। माताजी! मैं घास उठाकर चलने में सक्षम नहीं था। इसलिए पैर ठीक होने के पश्चात् घास लाकर छान बनाऊँगा। माता ने कहा कि यह क्या कह रहे हो बेटा? अभी तो आप छान तैयार करके गए हो। तब नामदेव ने नई छान देखी तो कहा कि परमात्मा आए थे और छान छाकर (डालकर) चले गए। माता जी को सब भेद बताया तो आश्चर्य करने लगी कि वह कौन था? नामदेव जी ने कहा कि माता जी! वह परमेश्वर थे।
रंका-बंका की परीक्षा
परमेश्वर कबीर जी एक संत के रूप में पुण्डरपुर के पास एक आश्रम बनाकर सत्संग करते थे। नामदेव जी ने वहीं सत्संग सुना था। परमेश्वर कबीर जी ने ही वह छत बनाई थी। नामदेव जी ने गुरू दीक्षा ले ली।
एक अन्य परिवार ने भी दीक्षा उस संत से ले रखी थी। परिवार में तीन प्राणी थे। रंका तथा उसकी पत्नी बंका तथा बेटी अवंका। रंका बहुत निर्धन था। दोनों पति-पत्नी जंगल से लकड़ी तोड़कर लाते थे और शहर में बेचकर निर्वाह चला रहे थे। परमात्मा के विधान को गहराई से जाना था। रंका जी का पूरा परिवार कबीर जी (अन्य रूप में विद्यमान थे) का शिष्य था। भक्त नामदेव भी उसी संत जी (कबीर जी) के शिष्य थे। एक दिन नामदेव जी ने सतगुरू जी से निवेदन किया कि हे प्रभु! आपके भक्त रंका जी बहुत निर्धन हैं। इनको कुछ धन प्रदान करो ताकि निर्वाह ठीक हो सके। जंगल से लकड़ियां बेचकर कठिनता से निर्वाह कर रहे हैं। दुर्बल शरीर है। दोनों पति-पत्नी लकड़ियां वन से लाकर बेचते हैं। भक्ति का समय भी कम मिलता है। सतगुरू रूप में विराजमान परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि भक्त नामदेव! मैंने बहुत कोशिश की है धन देने की, परंतु ये लेते ही नहीं। नामदेव ने कहा कि हे गुरूदेव! आप फिर से धन दो, अवश्य लेंगे। बड़े दुःखी हैं। जिस समय दोनों रंका तथा उसकी पत्नी बंका जंगल से लकड़ियों का गठ्ठा लिए आ रहे थे तो सतगुरू जी अपने शिष्य नामदेव जी को साथ लेकर उस मार्ग में गए। मार्ग में सोने (ळवसक) के आभूषण, सोने की असरफी (10 ग्राम सोने की बनी हुई) तथा चांदी के आभूषण तथा सिक्के डालकर स्वयं दोनों गुरू-शिष्य किसी झाड़ के पीछे छिपकर खड़े हो गए और उनकी गतिविधि देखने लगे। भक्त रंका लकड़ियां सिर पर लिए आगे-आगे चल रहा था। उनसे कुछ दूरी पर उनकी पत्नी आ रही थी। रंका जी ने उस आभूषण तथा अन्य सोने को देखकर विचार किया कि मेरी पत्नी आभूषण को देखकर दिल डगमग न कर ले क्योंकि आभूषण स्त्राी को बहुत प्रिय होते हैं। यह विचार करके सर्व धन पर पैरों से मिट्टी डालने लगा। उसकी पत्नी बंका जी की दृष्टि अपने पति की क्रिया पर पड़ी तो समझते देर न लगी और बोली चलो भक्त जी! मिट्टी पर मिट्टी क्यों डाल रहे हो? दोनों पति-पत्नी उस सर्व धन को उलंघकर चले गए। तब परमेश्वर जी ने कहा कि देख लो नामदेव! मैं क्या करूं? नामदेव जी को भी अहसास हुआ कि वास्तव में दोनों परम भक्त हैं।
नामदेव जी की भक्ति-श्रद्धा से मंदिर घुमाना
गाँव पुण्डरपुर में बीठल भगवान का मंदिर था। उसमें सुबह तथा शाम को आरती होती थी। उस समय छूआछात अधिक थी। एक दिन नामदेव जी मंदिर के पास से बने रास्ते पर जा रहे थे। मंदिर में आरती चल रही थी। पंडितजन हाथों में घंटियाँ तथा खड़ताल लेकर बजा रहे थे। नामदेव जी को भी धुन चढ़ गई। उसने अपनी जूतियाँ हाथों में ली और उनको एक-दूसरी से मारने लगा और मंदिर में पहुँच गया। पंडितों के बीच से भगवान बिट्ठल जी की मूर्ति के सामने खड़ा हो गया। पंडितों ने देखा कि नामदेव ने अपवित्र जूतियाँ हाथ में ले रखी हैं। मंदिर में प्रवेश कर गया है। मंदिर अपवित्र हो गया है। भगवान बिट्ठल रूष्ट हो गए तो अनर्थ हो जाएगा। नामदेव जी को खैंचकर (घसीटकर) मंदिर के पीछे डाल दिया। भक्त नामदेव जी पृथ्वी पर गिरे-गिरे भी जूतियाँ पीट रहे थे, आरती गा रहे थे। उसी क्षण मंदिर का मुख नामदेव जी की ओर घूम गया। पंडितजन मंदिर के पीछे खड़े-खड़े घंटियाँ बजा रहे थे। करिश्मा देखकर घंटियाँ बजाना बंद करके स्तब्ध रह गए। उस मंदिर का मुख सदा उस ओर रहा। गाँव तथा दूर देश के व्यक्ति भी यह चमत्कार देखने आए थे। भक्त नामदेव जी की भक्ति की प्रसिद्धि आग की तरह सारे क्षेत्र में फैल गई।
नामदेव जी को अवंका की नसीहत
एक दिन नामदेव भक्त रंका जी की झोंपड़ी पर गया। उनकी लड़की अवंका घर पर अकेली थी। माता-पिता लकड़ी लाने जंगल में गए हुए थे। लड़की अवंका औषधि घिस रही थी। नामदेव ने पूछा कि बहन जी! यह औषधि किसके लिए बना रहे हो? भक्तमती अवंका ने कहा कि नामदेव! आप गुरूदेव को अधिक कष्ट ना दो। गुरू जी के हाथों को चोट लगी है। भाई उस दिन आपको क्या पड़ी थी मंदिर में जाने की? आपकी भक्ति की रक्षा करने के लिए, आपकी इज्जत रखने के लिए गुरू जी ने उस मंदिर को घुमाया था। जिस कारण से गुरू जी के हाथों को चोट लगी है। उनके लिए यह पट्टी तैयार कर रही हूँ। तीन दिन हो गए हैं। मैं पट्टी बाँधकर आती हूँ। नामदेव! गुरू जी को मत सता। यह कहकर अवंका जी की आँखें भर आई। नामदेव को विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि किसी ने गुरू जी को वहाँ नहीं देखा था, न नामदेव जी ने गुरू जी को वहाँ देखा। नामदेव जी भी अवंका जी के साथ गुरू जी के आश्रम में गए। देखा तो वास्तव में गुरू जी के दोनों हाथ जख्मी थे। नामदेव जी ने समझ रखा था कि उस दिन उस देवल (देवालय यानि मंदिर) को बिट्ठल (विष्णु) जी ने घुमाया था। अपनी आँखों देखकर भी नामदेव जी की शंका समाप्त नहीं हुई। उसने पूछा कि हे गुरूदेव! आपके हाथों को क्या लगा है? गुरू जी ने कहा कि नामदेव! बेटी अवंका ने बताया था। उस पर विश्वास नहीं हुआ। ले तेरी एक जूती मैं उठाकर लाया था। नामदेव जी की एक जूती वहाँ गुम हो गई थी। बहुत खोजने पर भी नहीं मिली थी। नामदेव जी तुरंत परमेश्वर के चरणों में गिर गए और आगे से कभी किसी मंदिर में न जाने की प्रतिज्ञा की और समर्पित होकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने लगे। इससे पहले परमेश्वर कबीर जी ने नामदेव को केवल ‘ॐ’ नाम का जाप करने को दे रखा था। नामदेव जी भी पहले इसी नाम का जाप किया करते थे। उसका कोई लाभ नहीं होना था। उससे पहले भी नामदेव जी ओम् (ॐ) नाम का जाप बिना गुरू बनाए किया करते थे।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।
फिर नामदेव जी को ‘सोहं’ गुप्त मंत्र दिया था जिसका आविष्कार केवल परमेश्वर कबीर जी ही करते थे। अन्य को इस मंत्र का ज्ञान नहीं था। इसकी गवाही ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 95 मंत्र 1 भी देता है। लिखा है कि ‘‘परमेश्वर पृथ्वी पर प्रकट होकर विचरण करके अपनी वाक (वाणी) द्वारा भक्ति की प्रेरणा करता है। भक्ति के गुप्त मंत्रों का आविष्कार करता है।’’
संत गरीबदास जी को भी परमेश्वर कबीर जी एक सतगुरू रूप में जिंदा बाबा के रूप में मिले थे। जो यह अमृतवाणी आज हमें प्राप्त है, यह परमेश्वर जी की ही देन है। संत गरीबदास जी का ज्ञानयोग तथा दिव्य दृष्टि परमेश्वर कबीर जी ने खोल दी थी। जिस कारण से संत गरीबदास जी को भूत तथा भविष्य की घटनाओं का यथार्थ ज्ञान था। उन्होंने कहा था कि:-
गरीब, नामा छीपा ¬ तारी, पीछे सोहं भेद बिचारी। सार शब्द पाया जब लोई, आवागमन बहुर ना होई।।
रंका-बंका का प्रभु पर अटल विश्वास
एक दिन रंका तथा बंका दोनों पति-पत्नी गुरू जी के सत्संग में गए हुए थे जो कुछ री पर किसी भक्त के घर पर चल रहा था। बेटी अवंका झोंपड़ी के बाहर एक चारपाई पर बैठी थी। अचानक झोंपड़ी में आग लग गई। सर्व सामान जलकर राख हो गया। अवंका दौड़ी-दौड़ी सत्संग में गई। गुरू जी प्रवचन कर रहे थे। अवंका ने कहा कि माँ! झोंपड़ी में आग लग गई। सब जलकर राख हो गया। सब श्रोताओं का ध्यान अवंका की बातों पर हो गया। माँ बंका जी ने पूछा कि क्या बचा है? अवंका ने बताया कि केवल एक खटिया बची है जो बाहर थी। माँ बंका ने कहा कि बेटी जा, उस खाट को भी उसी आग में डाल दे और आकर सत्संग सुन ले। कुछ जलने को रहेगा ही नहीं तो सत्संग में भंग ही नहीं पड़ेगा। बेटी सत्संग हमारा धन है। यदि यह जल गया तो अपना सर्वनाश हो जाएगा। लड़की वापिस गई और उस चारपाई को उठाया और उसी झोंपड़ी की आग में डालकर आ गई और सत्संग में बैठ गई। सत्संग के पश्चात् अपने ठिकाने पर गए। वहाँ एक वृक्ष था। उसके नीचे वह सामान जो जलने का नहीं था जैसे बर्तन, घड़ा आदि-आदि पड़े थे। उस वृक्ष के नीचे बैठकर भजन करने लगे। उनको पता नहीं चला कि कब सो गये? सुबह जागे तो उस स्थान पर नई झोंपड़ी लगी थी। सर्व सामान रखा था। आकाशवाणी हुई कि भक्तो! आप परीक्षा में सफल हुए। यह भेंट मेरी ओर से है, इसे स्वीकार करो। तीनों सदस्य उठकर पहले आश्रम में गए और झोंपड़ी जलने तथा पुनः बनने की घटना बताई तथा कहा कि हे प्रभु! हम तो नामदेव की तरह ही आपको कष्ट दे रहे हैं। हम उसको नसीहत देते थे। आज वही मूर्खता हमने कर दी। सतगुरू जी ने कहा, हे भक्त परिवार! नामदेव उस समय मर्यादा में रहकर भक्ति नहीं कर रहा था। फिर भी उसकी पूर्व जन्म की भक्ति के प्रतिफल में उसके लिए अनहोनी करनी पड़ती थी जो मुझे कष्ट होता था। आप मर्यादा में रहकर भक्ति कर रहे हो। इसलिए आपकी आस्था परमात्मा में बनाए रखने के लिए अनहोनी की है। आग भी मैंने लगाई थी, आपका दृढ़ निश्चय देखकर झोंपड़ी भी मैंने बनाई है। आप उसे स्वीकार करें। परमात्मा की महिमा भक्त समाज में बनाए रखने के लिए ये परिचय (चमत्कार देकर परमात्मा की पहचान) देना अनिवार्य है। आपकी झोंपड़ी जीर्ण-शीर्ण थी। आप भक्ति में भंग होने के भय से नई बनाने में समय व्यर्थ करना नहीं चाहते थे। मैं आपके लिए पक्का मकान भी बना सकता हूँ। स्वर्ण का भी बना सकता हूँ क्योंकि आप प्रत्येक परीक्षा में सफल रहे हो। उस दिन रास्ते में धन मैंने ही डाला था। नामदेव मेरे साथ था। आप उस कुटी में रहें और परमात्मा की भक्ति करें। रंका-बंका ने उस मर्यादा का पालन किया:-
कबीर, गुरू गोविंद दोनों खड़े, किसके लागूं पाय। बलिहारी गुरू आपणा, गोविन्द दियो बताय।।
आकाशवाणी को परमात्मा की आज्ञा माना, परंतु गुरू जी के पास आकर गुरू जी की क्या आज्ञा है? यह गुरू पर बलिहारी होना है। गोविन्द (प्रभु) की आज्ञा स्वीकार्य नहीं हुई। गुरू की आज्ञा का पालन करके यहाँ भी परीक्षा में खरे उतरे। उस गाँव के व्यक्तियों ने भक्त रंका की कुटिया जलती तथा जलकर राख हुई देखी थी। सुबह नई और बड़ी जिसमें दो कक्ष थे, बनी देखी तो पूरा गाँव देखने आया। आसपास के क्षेत्र के सत्री-पुरूष भी देखने आए। रंका-बंका की महिमा हुई तथा उनके गुरू जी की शरण में बहुत सारे गाँव तथा आसपास के व्यक्ति आए और अपना कल्याण करवाया।
बिट्ठल रूप में प्रकट होकर नामदेव जी की रोटी खाना
एक दिन नामदेव जी भेड़-बकरियाँ-गाय चरा रहा था। प्रतिदिन साथ में गाँव के अन्य पाली (चरवाहे) भी अपनी-अपनी भेड़-बकरियाँ-गाय चराते थे। वे पाली प्रतिदिन नामदेव पर व्यंग्य करते थे कि हे नामदेव! सुना है तुमने पत्थर की मूर्ति को दूध पिला दिया था। क्या सचमुच भगवान बिट्ठल ने दूध पीया था? नामदेव के बोलने से पहले अन्य कहते थे कि पत्थर कभी दूध पीता है! एक ने कहा कि पंचायत में सबके सामने दूध पिलाया था। अन्य कहने लगे कि क्या तूने देखा था? तुम इसका पक्ष कर रहे हो। नामदेव ने कहा कि भाईयो! वास्तव में बिट्ठल जी ने दूध पीया था। अपने हाथों में कटोरा पकड़ा था। हाँ! मैं झूठ नहीं कहता। सब पाली हँसते थे। कहते थे कि पत्थर कभी दूध पीते हैं! झूठ बोल रहा है। यह लगभग प्रतिदिन का झंझट नामदेव जी के साथ करते थे। एक दिन प्रतिदिन की तरह सब चरवाहे (पाली) तथा नामदेव एक वृक्ष के नीचे बैठे खाना खाने के लिए अपनी-अपनी रोटियाँ अपने-अपने सामने रखे हुए थे। किसी ने कपड़े से निकाल ली थी, किसी ने अभी रूमाल नुमा कपड़े (छालने) में बँधी सामने रखी थी। उसी समय एक ने कहा कि नामदेव! आज ये रोटियाँ जो आपके छालने में बँधी रखी हैं। अभी तक ये झूठी नहीं हुई हैं। भगवान बिट्ठल को खिला दे। हम सत्य मान लेंगे। सबने इस बात का समर्थन किया। नामदेव दुःखी होते थे। बोलते कुछ नहीं थे। ठीक से खाना भी नहीं खा पाते थे। प्रतिदिन का यही दुःख था। उसी समय एक कुत्ता आया। सबके बीच में बैठे नामदेव की रूमाल (छालने) में बँधी सब रोटियाँ उठाकर ले गया। यह देखकर सब पाली हँसने लगे कि बिट्ठल भगवान ने तो स्वीकारी नहीं, कुत्ते ने स्वीकार ली। अन्य कहने लगे कि अरे! उस दिन भी कुत्ता दूध पी गया होगा। नामदेव ने झूठ बोला होगा कि बिट्ठल भगवान ने पीया है। नामदेव जी को बिट्ठल रूप परमात्मा रोटियाँ लेकर जाते दिखाई दिए। सब्जी नामदेव के पास रखी रह गई थी। नामदेव जी सब्जी लेकर पीछे-पीछे चल पड़े। कह रहे थे कि हे भगवान! सब्जी भी ले लो, अकेली रोटी कैसे खाओगे? कुछ दूरी पर एक वृक्ष के नीचे भगवान बिट्ठल रूक गए। भगवान ने कहा कि आप मेरे साथ खाना खाओ। दोनों खाना खाने लगे। उन पालियों को आश्चर्य हुआ कि नामदेव कुत्ते के साथ खाना खा रहा है। सब पाली उठकर वह नजारा देखने गए। निकट से देखा तो वास्तव में बिट्ठल भगवान ही नामदेव के साथ खाना खा रहे थे। सब पाली भगवान के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। भगवान ने कहा कि नामदेव से क्षमा माँगो। सबने नामदेव जी से क्षमा याचना की। उसी समय बिट्ठल रूप में प्रभु अंतध्र्यान हो गए। उसके पश्चात् सब पालीगण नामदेव का सम्मान करने लगे और पूरे गाँव पुण्डरपुर में पालियों नें आँखों देखी लीला की गवाही दी।
संत गरीबदास जी ने वाणी नं. 108 में कहा कि जगत गुरू यानि परमेश्वर कबीर जी जो सर्व को सच्चा ज्ञान देने वाले हैं, उन्होंने यह सब लीलाएँ की थी। कलंदर रूप का अर्थ है कि संत रूप में गुरू बनकर पुण्डरपुर में आश्रम बनाकर रहे। उस अच्छी आत्मा नामदेव जी की महिमा बढ़ाई तथा उनका कल्याण किया।
बिठल होकर रोटी खाई, नामदेव की कला बढ़ाई। पुंण्डरपुर नामा प्रवान, देवल फेर छिवा दई छान।।
कुछ दिनों के पश्चात् परमेश्वर कबीर जी उस आश्रम को त्यागकर कहीं चले गए। पुनः वहाँ नहीं आए। नामदेव जी की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर स्थानीय संत-ब्राह्मण उनका विरोध करने लगे।
नामदेव जी विक्रमी संवत् 1380 (सन् 1323) में 53 वर्ष की आयु में पुण्डरपुर त्यागकर हरिद्वार चले गए थे। वहाँ भी नकली गुरूओं ने विरोध किया। वहीं से किसी हिन्दू गुरू ने मुसलमानों से मिलकर दिल्ली के सम्राट मोहम्मद बिन तुगलक को शिकायत करके गाय को जीवित करने की शर्त रखी थी तो सन् 1325 में दिल्ली में नामदेव जी को बुलाया था और परमेश्वर कबीर जी ने गाय जीवित की थी। उस समय सतगुरू कबीर जी ने नामदेव जी को गुरू रूप में दर्शन दिए और अंतध्र्यान हो गए थे। नामदेव जी हरिद्वार में 15 (पन्द्रह) वर्ष रहे। वहाँ से सन् 1338 (विक्रमी सं. 1395) में पंजाब के गाँव-भूतविड़ में रहे। वहाँ से कस्बा-घुमाण जिला-गुरूदासपुर में अंतिम 20 वर्ष रहे जहाँ पर वर्तमान में प्रतिवर्ष निर्वाण दिवस मनाया जाता है। (108)
यह संत नामदेव जी का संक्षिप्त जीवन चरित्र है।