सुमिरन का अंग (39) | अजामेल के उद्धार की कथा

वाणी नं. 39 की एक पंक्ति का सरलार्थ हुआ है।

गरीब, राम नाम सदने पीया, बकरे के उपदेश। अजामेल से उधरे, भक्ति बंदगी पेश।।

अजामेल के उद्धार की कथा

काशी शहर में एक अजामेल नामक ब्राह्मण शराब पीता था। वैश्या के पास जाता था। वैश्या का नाम मैनका था, बहुत सुंदर थी। परिवार तथा समाज के समझाने पर भी अजामेल नहीं माना तो उन दोनों को नगर से निकाल दिया। वे उसी शहर से एक मील (1.7 km) दूर वन में कुटिया बनाकर रहने लगे। दोनों ने विवाह कर लिया। अजामेल स्वयं शराब तैयार करता था। जंगल से जानवर मारकर लाए और मौज-मस्ती करता था।

वशेष:– अजामेल पूर्व जन्म में विष्णु जी का परम भक्त था। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता था। साधक समाज में पूरी इज्जत थी। बचपन से ही घर त्यागकर साधुओं में रहता था। वैश्या भी पूर्व जन्म में विष्णु जी की परम भक्त थी। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करती थी। पर पुरूष की ओर कभी दोष दृष्टि से नहीं देखती थी। इस लक्षण से साधक समाज में विशेष सम्मान था।

साधकों में ध्यान समाधि लगाने का विशेष प्रचलन है जो केवल काल प्रेरणा है। हठ योग है जो गीता तथा वेदों में मना किया है। एक दिन श्याम सुंदर (अजामेल का पूर्व जन्म का नाम) लेटकर समाधि लगाए हुए था। शरीर पर केवल एक कोपीन (लंगोट जो एक छः इंच चैड़ा तथा दो फुट लंबा कपड़े का टुकड़ा होता है जो केवल गुप्तांग को ढ़कता है। तागड़ी में लपेटा जाता है। तागड़ी=बैल्ट की तरह एक मोटा धागा बाँधा जाता है, उसे तागड़ी कहते हैं।) पहने हुए था। सर्दी का मौसम था। दिन के समय धूप थी। उस समय श्याम सुंदर वैष्णव ने समाधि लगाई थी। रात्रि तक समाधि नहीं खुली। उस समय एक तीर्थ पर मेला लगा था। राम बाई (मैनका का पूर्व जन्म का नाम) ने देखा, यह साधु इतनी सर्दी में निःवस्त्र सोया है, नींद में ठण्ड न लग जाए। यह मर न जाए। यह विचार करके उसके ऊपर लेट गई और अपने कम्बल से अपने ऊपर से उस साधु को भी ढ़क लिया। अन्य व्यक्तियों को लगा कि कोई अकेला सो रहा है। भोर भऐ (सूर्य उदय होते-होते) श्याम सुंदर की समाधि खुली। उसने उठने की कोशिश की, तब रामबाई उठ खड़ी हुई। उस समय एक कम्बल से स्त्राी-पुरूष निकले देखकर अन्य साधक भी उस ओर ध्यान से देखने लगे। श्याम सुंदर ने साधक समाज में अपने मान-सम्मान पर ठेस जानकर अपने को पाक-साफ सिद्ध करने के लिए राम बाई से कहा कि हे रंडी (वैश्या)! तूने मेरा धर्म नष्ट किया है। मैं तो अचेत था, तूने उसका लाभ उठा लिया। तू वैश्या बनेगी। अन्य साधु भी निकट आकर उनकी बातें सुनने लगे।

रामबाई ने कहा कि हे भाई जी! शाॅप देने से पहले सच्चाई तो जान लेते। आप निःवस्त्र सर्दी में ठिठुर रहे थे। आप अचेत थे। आपके जीवन की रक्षा के लिए मैंने आपको ताप (गर्मी) देने के लिए मैं आपके ऊपर लेटी थी। कम्बल बहुत पतला है, चद्दर से भी पतला है। इसलिए मुझे इस पर विश्वास नहीं हुआ। एक बहन ने भाई की रक्षा के लिए यह बदनामी मोल ली है। आपने इसके फल में मुझे बद्दुआ (शाॅप) दी है। सुन ले! तू अगले जन्म में भडु़वा बनेगा। वैश्याओं के पास जाया करेगा। दोनों ने एक-दूसरे को शाॅप देकर अपनी भक्ति का नाश कर लिया। जब श्याम संुदर को सच्चाई पता चली और अपना अंग देखा, सुरक्षित था तो रामबाई से बहुत हमदर्दी हो गई। अपनी गलती की क्षमा याचना की। विशेष प्रेम करने लगा। अधिक मोह हो गया। रामबाई भी श्यामसुंदर से विशेष प्यार करने लगी। वह प्यार एक मित्रावत था, परंतु मोह भी एक जंजीर (बंधन) है। मृत्यु उपरांत दोनों का जन्म काशी नगर में हुआ। श्याम संुदर का नाम अजामेल था। ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ।
रामबाई का जन्म भी ब्राह्मण कुल में हुआ। उसका नाम मैनका था। शाॅप संस्कारवश चरित्राहीन हो गई। वैश्या बन गई। शाॅप संस्कारवश अजामेल शराब का आदी हो गया।

वैश्या मैनका के पास जाने लगा। दोनों को नगर से निकाल दिया गया। दोनों लगभग 40 – 45 वर्ष की आयु के हो गए थे। संतान कोई नहीं थी। परमेश्वर कबीर जी कहते हैं, गरीबदास जी ने बताया है:-

गोता मारूं स्वर्ग में, जा पैठूं पाताल। गरीबदास ढूंढ़त फिरूं, हीरे मानिक लाल।।
कबीर, भक्ति बीज विनशै नहीं, आय पड़ो सो झोल। जे कंचन बिष्टा पड़े, घटै न ताका मोल।।

भावार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने संत गरीबदास जी को बताया कि मैं अपनी अच्छी आत्माओं को खोजता फिरता हूँ। स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल लोक में कहीं भी मिले, मैं वहीं पहुँच जाता हूँ। उनको पुनः भक्ति की प्रेरणा करता हूँ। मनुष्य जन्म के भूले उद्देश्य की याद दिलाकर भक्ति करने को कहता हूँ। वे अच्छी आत्माएँ पूर्व के किसी जन्म में मेरी शरण में आई होती हैं, परंतु पुनः जन्म में कोई संत न मिलने के कारण वे भक्ति न करके या तो धन संग्रह करने में व्यस्त हो जाती हैं या बुराईयों में फँसकर शराब, माँस खाने-पीने में जीवन नष्ट कर देती हैं या फिर अपराधी बनकर जनता के लिए दुःखदाई बनकर बेमौत मारी जाती हैं। उनको उस दलदल से निकालने के लिए मैं कोई न कोई कारण बनाता हूँ। वे आत्माएँ तत्त्वज्ञान के अभाव से बुराईयों रूपी कीचड़ में गिर तो जाती हैं, परंतु जैसे कंचन (स्वर्ण यानि ळवसक) टट्टी में गिर जाए तो उसका मूल्य कम नहीं होता। टट्टी (बिष्टा) से निकालकर साफ कर ले। उसी मोल बिकता है। इसी प्रकार जो जीव मानव शरीर में एक बार मेरी (कबीर परमेश्वर जी की) शरण में किसी जन्म में आ जाता है। प्रथम, द्वितीय या तीनों मंत्रों में से कोई भी प्राप्त कर लेता है। किसी कारण से नाम खंडित हो जाता है, मृत्यु हो जाती है तो उसको मैं नहीं छोडूंगा। कलयुग में सब जीव पार होते हैं। यदि कलयुग में भी कोई उपदेशी रह जाता है तो सतयुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग में उन्हीं की भक्ति से मैं बिना नाम लिए, बिना धर्म-कर्म किए आपत्ति आने पर अनोखी लीला करके रक्षा करता हूँ। उसको फिर भक्ति पर लगाता हूँ। उनमें परमात्मा के प्रति आस्था बनाए रखता हूँ।

कलयुग में सत्ययुग

विशेष:– वर्तमान में (सन् 1997 से) कलयुग की बिचली पीढ़ी चल रही है यानि कलयुग का दूसरा (मध्य वाला) चरण चल रहा है। इस समय कलयुग 5505 वर्ष बीत चुका है। कुछ वर्षों में परमेश्वर कबीर जी के ज्ञान का डंका सर्व संसार में बजेगा यानि कबीर जी के ज्ञान का बोलबाला होगा, खरबों जीव सतलोक जाएंगे। यह भक्ति युग एक हजार वर्ष तक तो निर्बाध चलेगा, उसके पश्चात् दो लाख वर्ष तक भक्ति में 50 प्रतिशत आस्था व्यक्तियों में रहेगी, भक्ति मंत्र यही रहेंगे। फिर एक लाख तीस हजार (130000) वर्ष तक तीस प्रतिशत व्यक्तियों में भक्ति की लगन रहेगी। यहाँ तक यानि (5505 + 1000 + 200000 + 130000 = 336505 वर्ष) तीन लाख छत्तीस हजार पाँच सौ पाँच वर्ष तक कलयुग का दूसरा चरण चलेगा। इसके पश्चात् कलयुग का अंतिम चरण चलेगा। पाँच सौ (500) वर्षों में भक्ति चाहने वाले व्यक्ति मात्र 5% रह जाएंगे। तीसरे चरण का समय पचानवे हजार चार सौ पचानवे (95495) वर्ष रह जाएगा। फिर भक्ति चाहने वाले तो होगें, परंतु यथार्थ 
भक्तिविधि समाप्त हो जाएगी। जो व्यक्ति हजार वर्ष वाले समय में तीनों मंत्र लेकर पार नहीं हो पाएंगे। वे ही 50% तथा 30%, 5%, उस समय की जनसँख्या में भक्ति चाहने वाले रहेंगे। वे पार नहीं हो पाते, परंतु उनकी भक्ति (तीनों मंत्रों) की कमाई अत्यधिक हो जाती है। वे सँख्या में अरबों होते हैं। वे ही सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग में ऋषि-महर्षि, प्रसिद्ध सिद्ध तथा देवताओं की पदवी प्राप्त करते हैं। उनका भक्ति कर्मों के अनुसार सत्ययुग में जन्म होता है। वे भक्ति ब्रह्म तक की करते हैं, परंतु सिद्धियाँ गजब की होती हैं। वे पूर्व जन्म की भक्ति की शक्ति से होती हैं। कलयुग में वे ही ब्राह्मण-ऋषि उन्हीं वेदों को पढ़ते हैं। ब्रह्म की भक्ति ओउम् (om नाम जाप करके करते हैं, परंतु कुछ भी चमत्कार नहीं होते। कारण है कि वे तीनों युगों में अपनी पूर्व जन्म की भक्ति शक्ति को शाॅप-आशीर्वाद देकर सिद्धियों का प्रदर्शन करके समाप्त करके सामान्य प्राणी रह जाते हैं, परंतु उनमें परमात्मा की भक्ति की चाह विद्यमान रहती है। कलयुग में काल सतर्क हो जाता है। वेदविरूद्ध ज्ञान का प्रचार करवाता है। अन्य देवताओं की भक्ति में आस्था दृढ़ करा देता है। जैसे 1997 से 2505 वर्ष पूर्व (यानि ईशा मसीह से 508 वर्ष पूर्व) आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। वे कुल तीस वर्ष जीवित रहे। उन्होंने 20 वर्ष की आयु में अपना मत दृढ़ कर दिया कि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी, माता दुर्गा तथा गणेश आदि-आदि की भक्ति करो। विशेषकर तम् गुण भगवान शिव की भक्ति को अधिक दृढ़ किया क्योंकि वे {आदि शंकराचार्य जी (शिवलोक से आए थे)} शिव जी के गण थे। इसलिए शंकर जी के मार्ग के आचार्य यानि गुरू (शंकराचार्य) कहलाए। वर्तमान तक राम, कृष्ण, विष्णु, शिव तथा अन्य देवी-देवताओं की भक्ति का रंग चढ़ा है। संसार में अरबों मानव भक्ति चाहने वाले हैं। वे किसी न किसी धर्म या पंथ से गुरू से जुड़े हैं। परंतु भक्ति शास्त्राविरूद्ध कर रहे हैं। परमेश्वर वि.संवत् 1455 यानि सन् 1398 में प्रकट हुए। पाँच वर्ष की आयु में स्वामी रामानंद को ज्ञान समझाया तथा विक्रमी संवत् 1575 (सन् 1518) तक 120 वर्ष संसार में रहे जिनमें से गुरू पद पर एक सौ पन्द्रह (115) वर्ष रहकर 64 लाख (चैंसठ लाख) भक्तों में भक्ति की प्रेरणा को फिर जागृत किया। उनमें पुनः भक्ति बीज बोया। फिर सबकी परीक्षा ली। वे असफल रहे, परंतु गुरू द्रोही नहीं हुए। उनका अब जन्म हो रहा है। सर्वप्रथम वे चैंसठ लाख मेरे (संत रामपाल दास) से जुड़ेंगे। उसके पश्चात् वे जन्मेंगे जिन्होंने एक हजार वर्ष के पश्चात् 2 लाख तथा 1 लाख 30 हजार वर्ष तक भक्ति में लगे रहे, परंतु पार नहीं हुए। जो चैंसठ लाख हैं, ये वे प्राणी हैं जो एक हजार वर्ष वाले समय में रह गए थे, परंतु धर्मराज के दरबार में अधिक विलाप किया कि हमने तो सतलोक जाना है। परमात्मा कबीर जी गुरू रूप में प्रकट होकर उनको धर्मराज से छुड़वाकर मीनी सतलोक में ले गए थे। उनका जन्म अपने आने के (कलयुग में वि.संवत् 1455 के) समय के आसपास दिया था जो अभी तक मानव जीवन प्राप्त करते आ रहे हैं। कैसे होगा कलयुग में सत्ययुग?

वर्तमान में सन् 1997 से 3000 ईशवी तक पुनः सत्ययुग जैसा वातावरण, आपसी प्रेम का माहौल बनेगा। फिर से फलदार वृक्ष तथा छायादार वृक्ष लगाए जाएंगे। फैक्ट्रियां धुँआ रहित होंगी। फिर बंद हो जाएँगी। लोग हाथ से बने कपड़े पहनेंगे। मिट्टी या स्टील के बर्तन प्रयोग करेंगे जो छोटे कारखानों में मानव चालित यंत्रों से तैयार होंगे जो मानव संचालित अहरण की तरह चलेंगे। पशुधन बढ़ेगा। सब मानव मिलकर पूरी पृथ्वी को उपजाऊ बनाने में एकजुट होकर कार्य करेंगे। कोई धनी व्यक्ति अहंकारी नहीं होगा। वह अधिक धन दान में देगा। जो अधिक धन संग्रह करेगा, उसे मूर्ख कहा जाएगा। उसको ज्ञान समझाकर सामान्य जीवन जीने की प्रेरणा दी जाएगी जिसको वह स्वीकार करेगा। सामान्य जीवन जीने वाले और भक्ति, दान धर्म करने वालों की प्रशंसा हुआ करेगी। पश्चिमी देशों (अमेरिका, इंग्लैंड आदि-आदि) वाली सभ्यता समाप्त हो जाएगी। स्त्राी-पुरूष पूरे वस्त्रा पहना करेंगे। सुखमय जीवन जीएंगे। एक-दूसरे की सहायता अपने परिवार की तरह करेंगे। कलयुग में सतयुग एक हजार वर्ष तक चलेगा। इसका 50% प्रभाव 2 लाख वर्ष तक तथा 30% प्रभाव एक लाख तीस हजार वर्ष तक रहेगा।

अंत के 95495 (पचानवे हजार चार सौ पचानवे) वर्षों में 95% व्यक्ति कृतघ्नी, मर्यादाहीन, दुष्ट हो जाएँगे। कच्चा माँस खाने लगेंगे। आयु बहुत कम यानि 20 वर्ष रह जाएगी। मानव की लंबाई 2 से 3 फुट तक रह जाएगी। 5 वर्ष की लड़की को बच्चा पैदा होगा। 80% व्यक्ति 15 वर्ष की आयु में मर जाया करेंगे। फिर एकदम पृथ्वी पर बारिश से पानी-पानी हो जाएगा। जो अच्छे व्यक्ति 5% बचेंगे, शेष कुछ तो कल्कि (निःकलंक) अवतार मार देगा, कुछ बाढ़ में मर जाएँगे। बचे हुए व्यक्ति ऊँचे स्थानों पर निवास करेंगे। पृथ्वी पर सौ-सौ फुट तक पानी हो जाएगा। धीरे-धीरे पानी सूखेगा। पृथ्वी पर पेड़ (वन) उगेंगे। फिर जमीन उपजाऊ होगी। कलयुग के अंत में धरती का 3 फुट नीचे तक उपजाऊ अंश समाप्त हो जाएगा। पानी के कारण वह विष पृथ्वी से बाहर पानी के ऊपर आएगा। पृथ्वी फिर से उपजाऊ होगी और पुनः सत्ययुग की शुरूआत होगी।

अजामेल की शेष कथा

एक दिन नारद जी काशी में आए तथा किसी से पूछा कि मुझे अच्छे भक्त का घर बताओ। मैंने रात्रि में रूकना है। मेरा भजन बने, उसको सेवा का लाभ मिले। उस व्यक्ति ने मजाक सूझा और कहा कि आप सामने कच्चे रास्ते जंगल की ओर जाओ। वहाँ एक बहुत अच्छा भक्त रहता है। भक्त तो एकान्त में ही रहते हैं ना। आप कृपया जाओ। लगभग एक मील (आधा कोस) दूर उसकी कुटी है। गर्मी का मौसम था। सूर्य अस्त होने में 1) घंटा शेष था। नारद जी को द्वार पर देखकर मैनका अति प्रसन्न हुई क्योंकि प्रथम बार कोई मनुष्य उनके घर आया था, वह भी ऋषि। पूर्व जन्म के भक्ति-संस्कार अंदर जमा थे, उन पर जैसे बारिश का जल गिर गया हो, ऐसे एकदम अंकुरित हो गए। मैनका ने ऋषि जी का अत्यधिक सत्कार किया। कहा कि न जाने कौन-से जन्म के शुभ कर्म आगे आए हैं जो हम पापियों के घर भगवान स्वरूप ऋषि जी आए हैं। ऋषि जी के बैठने के लिए एक वृक्ष के नीचे चटाई बिछा दी। उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर बैठने को कहा। नारद जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि वास्तव में ये पक्के भक्त हैं। बहुत अच्छा समय बीतेगा। कुछ देर में अजामेल आया और जो तीतर-खरगोश मारकर लाया था, वह लाठी में टाँगकर आँगन में प्रवेश हुआ। अपनी पत्नी से कहा कि ले रसोई तैयार कर। सामने ऋषि जी को बैठे देखकर दण्डवत् प्रणाम किया और अपने भाग्य को सराहने लगा। कहा कि ऋषि जी! मैं स्नान करके आता हूँ, तब आपके चरण चम्पी करूँगा। यह कहकर अजामेल निकट के तालाब पर चला गया। नारद जी ने मैनका से पूछा कि देवी! यह कौन है? उत्तर मिला कि यह मेरा पति अजामेल है। नारद जी को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह क्या चक्रव्यूह है? विचार तो भक्तों से भी ऊपर, परंतु कर्म कैसे? नारद जी ने कहा कि देवी! सच-सच बता, माजरा क्या है? शहर में मैंने पूछा था कि किसी अच्छे भक्त का घर बताओ तो आपका एकांत स्थान वाला घर बताया था। आपके व्यवहार से मुझे पूर्ण संतोष हुआ कि सच में भक्तों के घर आ गया हूँ। यह माँसाहारी आपका पति है तो आप भी माँसाहारी हैं। मेरे साथ मजाक हुआ है। ऋषि नारद उठकर चलने लगा। मैनका ने चरण पकड़ लिये। तब तक अजामेल भी आ गया। अजामेल भी समझ गया कि ऋषि जी गलती से आये हैं। अब जा रहे हैं। पूर्व के भक्ति संस्कार के कारण ऋषि जी के दोनों ने चरण पकड़ लिए और कहा कि हमारे घर से ऋषि भूखा जाएगा तो हमारा नरक में वास होगा। ऋषि जी! आपको हमें मारकर हमारे शव के ऊपर पैर रखकर जाना होगा। नारद जी ने कहा कि आप तो अपराधी हैं। तुम्हारा दर्शन भी अशुभ है। अजामेल ने कहा कि हे स्वामी जी! आप तो पतितों का उद्धार करने वाले हो। हम पतितों का उद्धार करें। हमें कुछ ज्ञान सुनाओ। हम आपको कुछ खाए बिना नहीं जाने देंगे। नारद जी ने सोचा कि कहीं ये मलेच्छ यहीं काम-तमाम न कर दें यानि मार न दें, ये तो बेरहम होते हैं, बड़ी संकट में जान आई। कुछ विचार करके नारद जी ने कहा कि यदि कुछ खिलाना चाहते हो तो प्रतिज्ञा लो कि कभी जीव हिंसा नहीं करेंगे। माँस-शराब का सेवन नहीं करेंगे। दोनों ने एक सुर में हाँ कर दी। सौगंद है गुरूदेव! कभी जीव हिंसा नहीं करेंगे, कभी शराब-माँस का सेवन नहीं करेंगे। नारद जी ने कहा कि पहले यह माँस दूर डालकर आओ और शाकाहारी भोजन पकाओ। तुरंत अजामेल ने वह माँस दूर जंगल में डाला। मैनका ने कुटी की सफाई की। फिर पानी छिड़का। चूल्हा लीपा। अजामेल बोला कि मैं शहर से आटा लाता हूँ। मैनका तुम सब्जी बनाओ। नारद जी की जान में जान आई। भोजन खाया। गर्मी का मौसम था। एक वृक्ष के नीचे नारद जी की चटाई बिछा दी। स्वयं दोनों बारी-बारी सारी रात पंखे से हवा चलाते रहे। नारद जी बैठकर भजन करने लगे। फिर कुछ समय पश्चात् आँखें खोली तो देखा कि दोनों अडिग सेवा कर रहे हैं। नारद जी ने कहा कि आप दोनों भक्ति करो। राम का नाम जाप करो। दोनों ने कहा कि ऋषि जी! भक्ति नहीं कर सकते। रूचि ही नहीं बनती। और सेवा बताओ।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-

कबीर, पिछले पाप से, हरि चर्चा ना सुहावै। कै ऊँघै कै उठ चलै, कै औरे बात चलावै।।
तुलसी, पिछले पाप से, हरि चर्चा ना भावै। जैसे ज्वर के वेग से, भूख विदा हो जावै।।

भावार्थ:– जैसे ज्वर यानि बुखार के कारण रोगी को भूख नहीं लगती। वैसे ही पापों के प्रभाव से व्यक्ति को परमात्मा की चर्चा में रूचि नहीं होती। या तो सत्संग में ऊँघने लगेगा या कोई अन्य चर्चा करने लगेगा। उसको श्रोता बोलने से मना करेगा तो उठकर चला जाएगा।

यही दशा अजामेल तथा मैनका की थी। नारद जी ने कहा कि हे अजामेल! एक आज्ञा का पालन अवश्य करना। आपकी पत्नी को लड़का उत्पन्न होगा। उसका नाम ‘नारायण’ रखना। ऋषि जी चले गए। अजामेल को पुत्रा प्राप्त हुआ। उसका नाम नारायण रखा। इकलौते पुत्रा में अत्यधिक मोह हो गया। जरा भी इधर-उधर हो जाए तो अजामेल अरे नारायण आजा बेटा करने लग जाता। ऋषि जी का उद्देश्य था कि यह कर्महीन दंपति इसी बहाने परमात्मा को याद कर लेगा तो कल्याण हो जाएगा। नारद जी ने कहा था कि अंत समय में यदि यम के दूत जीव को लेने आ जाएँ तो नारायण कहने से छोड़कर चले जाते हैं। भगवान के दूत आकर ले जाते हैं। एक दिन अचानक अजामेल की मृत्यु हो गई। यम के दूत आ गए। उनको देखकर कहा कि कहाँ गया नारायण बेटा, आजा। 

{पौराणिक लोग कहते हैं कि ऐसा कहते ही भगवान विष्णु के दूत आए और यमदूतों से कहा कि इसकी आत्मा को हम लेकर जाएँगे। इसने नारायण को पुकारा है। यमदूतों ने कहा कि धर्मराज का हमारे को आदेश है पेश करने का। इसी बात पर दोनों का युद्ध हुआ। भगवान के दूत अजामेल को ले गए।}

वास्तव में यमदूत धर्मराज के पास लेकर गए। धर्मराज ने अजामेल का खाता खोला तो उसकी चार वर्ष की आयु शेष थी। फिर देखा कि इसी काशी शहर में दूसरा अजामेल है। उसके पिता का अन्य नाम है। उसको लाना था। उसे लाओ। इसको तुरंत छोड़कर आओ। अजामेल की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी रो-रोकर विलाप कर रही थी। विचार कर रही थी कि अब इस जंगल में कैसे रह पाऊँगी। बच्चे का पालन कैसे करूंगी? यह क्या बनी भगवान? वह रोती-रोती लकड़ियाँ इकट्ठी कर रही थी। कुटी के पास में शव को खींचकर ले गई। इतने में अजामेल उठकर बैठ गया। कुछ देर तो शरीर ने कार्य ही नहीं किया। कुछ समय के बाद अपनी पत्नी से कहा कि यह क्या कर रही हो? पत्नी की खुशी का ठिकाना नहीं था। कहा कि आपकी मृत्यु हो गई थी। अजामेल ने बताया कि यम के दूत मुझे धर्मराज के पास लेकर गए। मेरा खाता (।बबवनदज) देखा तो मेरी चार वर्ष आयु शेष थी। मुझे छोड़ दिया और काशी शहर से एक अन्य अजामेल को लेकर जाएँगे, उसकी मृत्यु होगी। अगले दिन अजामेल शहर गया तो अजामेल के शव को शमशान घाट ले जा रहे थे, तुरंत वापिस आया। अपनी पत्नी से बताया कि वह अजामेल मर गया है, उसका अंतिम संस्कार करने जा रहे हैं। अब अजामेल को भय हुआ कि भक्ति नहीं की तो ऊपर बुरी तरह पिटाई हो रही थी, नरक में हाहाकार मचा था। नारद जी आए तो अजामेल ने कहा कि गुरू जी! मेरे साथ ऐसा हुआ। मेरी आयु चार वर्ष की बताई थी। एक वर्ष कम हो चुका है। बच्चा छोटा है, मेरी आयु बढ़ा दो। नारद जी ने कहा कि नारायण-नारायण जपने से किसी की आयु नहीं बढ़ती। जो समय धर्मराज ने लिखा है, उससे एक श्वांस भी घट-बढ़ नहीं सकता।

कथा सुनाई कि:-

आयु वृद्धि होती है या नहीं

एक ऋषि था। उसको किसी ने हस्तरेखा देखकर बताया कि आपकी तीन दिन आयु शेष है। वह ऋषि चिंतित हुआ और बोला कि कोई उपाय बताओ जिससे मेरी आयु चार वर्ष बढ़ जाए, मैं भक्ति करना चाहता हूँ। ऋषि को उस ज्योतिष शास्त्राी ने बताया कि आप तो अच्छे उद्देश्य के लिए आयु वृद्धि चाह रहे हो, चलो प्रजापति ब्रह्मा जी के पास चलते हैं। वे जीवों के उत्पत्तिकर्ता हैं। ब्रह्मा जी के पास गए और उद्देश्य बताया तो ब्रह्मा जी ने कहा कि मैं तो उत्पत्ति तो कर सकता हूँ। आयु की वृद्धि का अधिकार मेरे पास नहीं है। फिर सोचा कि विष्णु जी के पास चलते हैं। ऋषि जी का उद्देश्य अच्छा है। तीनों विमान में बैठकर विष्णु जी के पास गए। उद्देश्य बताया तो विष्णु जी ने कहा कि यह काम तो शंकर जी का है। वह संहार करते हैं, उन्हीं से प्रार्थना की जाए। ऋषि जी का जीवन वृद्धि का उद्देश्य भक्ति के लिए अच्छा है।

विष्णु जी, ब्रह्मा जी तथा वे दोनों सब शंकर जी के पास गए। उनको उद्देश्य बताया तो शंकर जी ने कहा कि ऋषि जी का उद्देश्य तो बहुत अच्छा है, परंतु मेरे को तो जो आदेश धर्मराज से आता है, उन्हीं की मृत्यु का आदेश यमदूतों-भूतों को करता हूँ। चलो! धर्मराज के पास चलते हैं। उस दिन उस ऋषि जी की मृत्यु का दिन था। तीनों (ब्रह्मा-विष्णु-शिव) देवता तथा ऋषि और ज्योतिष शास्त्राी मिलकर धर्मराज के कार्यालय में गए तथा ऋषि की आयु वृद्धि के लिए कहा तथा उद्देश्य बताया कि यह केवल भक्ति के लिए आयु वृद्धि चाहता है। धर्मराज ने उस ऋषि का खाता (account) खोला तो उसमें उसी दिन उसी समय मृत्यु लिखी थी। उस ऋषि की तुरंत मृत्यु हो गई। तीनों देवता धर्मराज से नाराज हो गए। कहा कि आपने हमारी इज्जत नहीं रखी। आपने यह अच्छा नहीं किया। धर्मराज ने वह लेख दिखाया जो उस ऋषि की मृत्यु के विषय में था। उसमें लिखा था कि ऋषि जी की मृत्यु धर्मराज के कार्यालय में ब्रह्मा-विष्णु-शिव तथा ज्योतिष शास्त्राी की उपस्थिति में दिन के इतने बीत जाने पर हो। आप जी ने तो मेरा कार्य सुगम कर दिया। यह लेख मैं नहीं लिखता। यह तो विधाता की ओर से अपने आप लिखे जाते हैं। यदि आप आयु बढ़वाना चाहते हैं तो अपनी आयु में से दान कर दो तो मैं इसकी आयु बढ़ा सकता हूँ। यह बात सुनकर सब चले गए। यह कथा सुनाकर नारद जी ने कहा कि इस बचे हुए समय में खूब नारायण-नारायण करले। नारद जी चले गए। अजामेल की चिंता ओर बढ़ गई कि भक्ति का लाभ क्या हुआ? दो वर्ष जीवन शेष था। परमेश्वर कबीर जी एक ऋषि वेश में अजामेल के घर प्रकट हुए। अजामेल ने श्रद्धा से ऋषि का सम्मान किया। अपनी समस्या बताई। ऋषि रूप में सतपुरूष जी ने कहा कि आप मेरे से दीक्षा लो। आपकी आयु बढ़ा दूँगा। लेकिन अजामेल ने नारद जी से कथा सुनी थी कि जो आयु लिखी है, वह बढ़-घट नहीं सकती। विचार किया कि दीक्षा लेकर देख लेते हैं। दोनों ने दीक्षा ली। नारायण नाम का जाप त्याग दिया। नए गुरू जी द्वारा दिया नाम जाप किया। मृत्यु वाले वर्ष का अंतिम महीना आया तो खाना कम हो गया, परंतु मंत्रा का जाप निरंतर किया। अंतिम दिन भोजन भी नहीं खाया, मंत्रा जाप दृढ़ता से करता रहा। वर्ष पूरा हो गया। एक महीना ऊपर हो गया, परंतु भय फिर भी बरकरार था। ऋषि वेश में परमेश्वर आए। दोनों पति-पत्नी देखते ही दौड़े-दौड़े आए। चरणों में गिर गए। गुरूदेव आपकी कृपा से जीवन मिला है। आप तो स्वयं परमेश्वर हैं।

परमेश्वर जी ने कहा कि:-

मासा घटे ना तिल बढ़े, विधना लिखे जो लेख। साच्चा सतगुरू मेट कर, ऊपर मारे मेख।।

अब आपकी आयु के लेख मिटाकर कील गाड़ दी है। जब मैं चाहूँगा, तब तेरी मृत्यु होगी। दोनों मिलकर भक्ति करो। अपने पुत्रा को भी उपदेश दिलाओ। पुत्रा को उपदेश दिलाया। भक्ति करके मोक्ष के अधिकारी हुए।

वाणी नं. 39 का सारांश यह है कि सदना ने बकरे के मुख से सुने उपदेश (प्रवचन) से गुरू बनाकर राम नाम का अमृत पीया, भक्ति की और अजामेल का मोक्ष भी तब हुआ, जब वह पूर्ण परमात्मा के प्रति समर्पित हुआ। (39)

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