।।सत साहेब।।
सुमिरन के अंग का सरलार्थ
(अथ सुमिरन का अंग)
शब्दार्थ:– अथ = प्रारम्भ, अविगत = जिस परमेश्वर की गति यानि सामथ्र्य कोई नहीं जानता। जिसको गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है तथा अध्याय 8 के ही श्लोक 8, 9, 10 में परम दिव्य पुरूष तथा श्लोक 20 से 22 में अविनाशी अव्यक्त कहा है। गीता अध्याय 18 श्लोक 61-62, 66 में गीता ज्ञान दाता ने जिस परमेश्वर की शरण में जाने के लिए कहा है, उसी को संत गरीबदास जी ने अविगत राम कहा है।
राम की परिभाषा
राम कहो, प्रभु, स्वामी, अल्लाह, भगवान, ईश, परमात्मा या साहब (साहिब) कहो। ये परमात्मा का बोध कराने वाले नाम हैं।
उदाहरण के लिए:- जैसे तहसीलदार साहब अपने कार्य क्षेत्र का स्वामी है, मालिक है, प्रभु है।
उपायुक्त साहब:– यह अपने जिले में साहब, स्वामी, प्रभु, मालिक है।
आयुक्त साहब:– यह कई जिलों का साहब, स्वामी, प्रभु, मालिक है।
प्रान्त का मंत्री भी साहब है, स्वामी, प्रभु है। मुख्यमंत्री भी साहब (राम, प्रभु, स्वामी) है। केन्द्र सरकार का मंत्री भी साहब (राम, प्रभु, स्वामी) है।
देश के प्रधानमंत्री जी भी साहब (राम, प्रभु, स्वामी) हैं।
देश के राष्ट्रपति जी भी साहब (स्वामी, राम, प्रभु) र्हिैं।
परंतु इन सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। अपने-अपने कार्यक्षेत्र के सब ही प्रभु हैं, परंतु वास्तव में समर्थ शक्ति राष्ट्रपति जी हैं। उनके पश्चात् प्रधानमंत्री जी समर्थ शक्ति हैं। पूर्ण साहब हैं।
इस सुमरण के अंग में वाणी नं. 15-16 में कहा है कि मूल कमल में राम है यानि गणेश जी हैं। यह भी स्वामी हैं। राम हैं यानि देव हैं। (स्वाद कमल में राम) ब्रह्मा-सावित्री भी प्रभु हैं। (नाभि कमल में राम) विष्णु-लक्ष्मी भी प्रभु हैं। (हृदय कमल विश्राम) हृदय कमल में शिव-पार्वती भी प्रभु (राम) हैं। (कण्ठ कमल में राम है) देवी दुर्गा भी राम है, मालिक-स्वामी है। (त्रिकुटी कमल में राम) सतगुरू रूप में परमेश्वर त्रिकुटी में विराजमान हैं। वे उस स्थान पर सतगुरू रूप में अपने कार्य के स्वामी (राम-प्रभु) हैं। (संहस कमल दल राम है) काल-निरंजन भी अपने 21 ब्रह्माण्डों का राम (स्वामी-प्रभु) है जो संहस्र कमल दल में अव्यक्त रूप में बैठा है। (सुनि बस्ती सब ठाम) सब स्थानों (लोकों) पर जिसकी सत्ता है, वह सतपुरूष भी राम (स्वामी, प्रभु) है।
वाणी नं. 17 में कहा है कि वास्तव में समर्थ राम है:-
अचल अभंगी राम है, गलताना दम लीन। सुरति निरति के अंतरे बाजै अनहद बीन।।
अचल (स्थाई) अभंगी (अविनाशी) जो कभी भंग यानि नष्ट नहीं होता, वह समर्थ राम है।
सुमरण का अर्थ है परमात्मा के सत मंत्र का जाप करना। जैसे कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि:-
सारशब्द का सुमरण करहीं, सो हंसा भवसागर तरहीं।
सुमरण का बल ऐसा भाई। कालही जीत लोक ले जाई।।
नाम सुमरले सुकर्म करले कौन जाने कल की, खबर नहीं पल की।
श्वांस-उश्वांस में नाम जपो, बिरथा श्वांस न खोय। ना बेरा इस श्वांस का, आवन हो के ना होय।।
कहता हूँ कही जात हूँ, सुनता है सब कोय। सुमरण से भला होयेगा, नातर भला ना होय।।
सुमरण मार्ग सहज का, सतगुरू दिया बताय। श्वांस-उश्वांस जो सुमरता, एक दिन मिलसी आय।।
राग आसावरी से शब्द नं. 63, 66 तथा 75:-
नर सुनि रे मूढ गंवारा। राम भजन ततसारा।।टेक।। राम भजन बिन बैल बनैगा, शूकर श्वान
शरीरं। कउवा खर की देह धरैगा, मिटै न याह तकसीरं।।1।। कीट पतंग भवंग होत हैं, गीदड़
जंबक जंूनी। बिना भजन जड़ बिरछ कीजिये, पद बिन काया सूंनी।।2।। भक्ति बिना नर खर एकै
हैं, जिनि हरि पद नहीं जान्या। पारब्रह्म की परख नहीं रे, पूजि मूये पाषानां।।3।। थावर जंगम में
जगदीशं, व्यापक पूरन ब्रह्म बिनांनी। निरालंब न्यारा नहीं दरसै, भुगतैं चार्यौं खांनी।।4।। तोल न
मोल उजन नहीं आवै, असथरि आनंद रूपं। घटमठ महतत सेती न्यारा, सोहं सति सरूपं।।5।।
बादल छांह ओस का पानी, तेरा यौह उनमाना। हाटि पटण क्रितम सब झूठा, रिंचक सुख
लिपटांना।।6।। नराकार निरभै निरबांनी, सुरति निरति निरतावै। आत्मराम अतीत पुरुष कूं,
गरीबदास यौं पावै।।7।।।63।। भजन करौ उस रब का, जो दाता है कुल सब का।।टेक।।
बिनां भजन भै मिटै न जम का, समझि बूझि रे भाई। सतगुरु नाम दान जिनि दीन्हा, याह संतौं
ठहराई।।1।। सतकबीर नाम कर्ता का, कलप करै दिल देवा। सुमरन करै सुरति सै लापै, पावै हरि
पद भेवा।।2।। आसन बंध पवन पद परचै, नाभी नाम जगावै। त्रिकुटी कमल में पदम झलकै, जा सें
ध्यान लगावै।।3।। सब सुख भुक्ता जीवत मुक्ता, दुःख दालिद्र दूरी। ज्ञान ध्यान गलतांन हरी पद,
ज्यौं कुरंग कसतूरी।।4।। गज मोती हसती कै मसतगि, उनमन रहै दिवानां। खाय न पीवै मंगल
घूमें, आठ बखत गलतानां।।5।। ऐसैं तत पद के अधिकारी, पलक अलख सें जोरैं। तन मन धन
सब अरपन करहीं, नेक न माथा मोरैं।।6।। बिनहीं रसना नाम चलत है, निरबांनी सें नेहा।
गरीबदास भोडल में दीपक, छांनि नहीं सनेहा।।7।।66।। भक्ति मुक्ति के दाता सतगुरु। भक्ति
मुक्ति के दाता।। टेक।। पिण्ड प्रांन जिन्हि दान दिये हैं, जल सें सिरजे गाता। उस दरगह कूं भूलि
गया है, कुल कुटंब सें राता।।1।। रिधि सिधि कोटि तुरंगम दीन्हें, ऐसा धनी बिधाता। उस समरथ
की रीझ छिपाई, जग से जोर्या नाता।।2।। मुसकल सें आसान किया था, कहां गई वै बाता। सत
सुकृत कूं भूलि गया है, ऊंचा किया न हाथा।।3।। सहंस इकीसौं खंड होत हैं, ज्यौं तरुवर कैं
पाता। थूंनी डिगी थाह कहाँ पावै, यौह मंदर ढह जाता।।4।। इस देही कूं देवा लोचैं, तूं नरक्यौं
उकलाता। नर देही नारायन येही, सनक सनन्दन साथा।।5।। ब्रह्म महूरति सूरति नगरी, शुन्य
सरोवर न्हाता। या परबी का पार नहीं रे, सकल कर्म कटि जाता।।6।। सुरति निरति मन पवन बंद
करि, मेरदण्ड चढि जाता। सहंस कमल दल फूलि रहै है, अमी महारस खाता।।7।। जहां अलख
निरंजन जोगी बैठ्या, जा सें रह्मा न भाता। गरीबदास पारंग प्रान है, संख कमल खिलि
जाता।।8।।75।।
राग बसंत से शब्द नं. 8:-
कोई है रे परले पार का, जो भेद कहै झनकार का।।टेक।। वारिही गोरख वारिही दत, बारिही ध्रू
प्रहलाद अरथ। वारिही सुखदे वारिही ब्यास, वारिही पारासुर प्रकाश।।1।। वारिही दुरबासा दरबेश,
वारिही नारद शारद शेष। वारिही भरथर गोपीचंद, वारिही सनक सनंदन बंध।।2।। वारिही ब्रह्मा
वारिही इन्द, वारिही सहंस कला गोविंद। वारिही शिबशंकर जो सिंभ, वारिही धर्मराय आरंभ।।3।।
वारिही धर्मराय धरधीर, परमधाम पौंहचे कबीर। ऋग यजु साम अथरवन बेद, परमधाम नहीं लह्या
भेद।।4।। अलल पंख अगाध भेव, जैसैं कुंजी सुरति सेव। वार पार थेहा न थाह, गरीबदास निरगुन
निगाह।।5।।8।।
राग होरी से शब्द नं. 8:-
अलल का ध्यान धरौ रे, चीन्हौं पुरुष बिदेही।।टेक।। उलटि पवन रेचक करि राखौ, काया कुंभ
भरौ रे। अडिग अमांन अडोल अबोलं, टार्यौ नांहि टरौ रे।।1।। बिन सतगुरु पद दरशत नाहीं, भावै
तिहूं लोक फिरौ रे। गुन इन्द्री का ज्ञान परेरो, जीवत क्यौं न मरौ रे।।2।। पलकौं दा भौंरा पुरुष
बिनांनी, खोटा करत खरौ रे। कामधेनु दूझे कलवारनि, नीझर अजर जरौ रे।।3।। कलविष
कुसमल बंधन टूटैं, सब दुःख ब्याधि हरौ रे। गरीबदास निरभै पद पाया, जम सें नांहि डरौ
रे।।4।।8।।