गरीब, सुमिरन तब ही जानिये, जब रोम रोम धुन होइ। कुंज कमल में बैठ कर, माला फेरे सोइ।।94।।
गरीब, सुरति सुमरनी हाथ लै, निरति मिले निरबान। ररंकार रमता लखै, असलि बंदगी ध्यान।।95।।
गरीब, अष्ट कमल दल सून्य है, बाहिर भीतर सून्य। रोम रोम में सून्य है, जहां काल की धुंन।।96।।
गरीब, तुमही सोहं सुरति हौ, तुमही मन और पौन। इनमें दूसर कौन है, आवै जाय सो कौन।।97।।
गरीब, इनमें दूसर करम है, बंधी अविद्या गांठ। पांच पचीसौ लै गई, अपने अपने बांट।।98।।
गरीब, नामबिना सूना नगर, पर्या सकल में सोर। लूटन लूटी बंदगी, होगया हंसा भोर।।99।।
गरीब, अगम निगमकूं खोजिलै, बुद्धि बिबेक बिचार। उदय अस्त का राज दै, तो बिना नाम बेगार।।100।।
गरीब, ऐसा कौन अभागिया, करें भजनकूं भंग। लोहे सें कंचन भया, पारस के सतसंग।।101।।
गुरू जी से दीक्षा में प्राप्त नाम का जाप करो तो उसकी सफलता तब मानना जब रोम-रोम (शरीर के बाल-बाल भगवन प्यार में) खड़े हो जाएँ। जैसे कोई अच्छी या बुरी सूचना मिलने पर रोमांच होता है। धुन (लगन से उमंग उठे) होए। स्मरण से सुरति-निरति (ध्यान) में ऐसी कल्पना हो कि जैसे मैं आकाश में कुंजमल जो सूक्ष्म शरीर में है, उसमें बैठकर नाम जाप की माला फेर रहा हूँ यानि मेरी आध्यात्मिक (रूहानी) चढ़ाई वहाँ तक हो चुकी है। (94)
वास्तव में बंदगी (विशेष नम्रता से बार-बार झुक-झुककर जाप करने को बंदगी कहते हैं) वह है जब सुरति-निरति यानि ध्यान नाम जाप पर लगे। भावार्थ है कि नाम का जाप विशेष कसक (तड़फ) के साथ लिया जाए। जैसे हाथी ने मरते समय ररंकार भाव से परमात्मा को याद किया था। उस भाव से रमता लखै {रमता (सर्वव्यापक) मालिक को (लखै) देखै कि परमात्मा सब जगह है} सुरति की माला (सुमरणी) बनावै (ध्यान का एक भाव नाम पर तथा तुरंत दूसरा भाव निरबान यानि वांछित मोक्ष पर) यानि निरति को मोक्ष की ओर लगावै। जैसे नाम जपते-जपते कुछ क्षण निर्वाण यानि मोक्ष स्थान (सतलोक) की भी सुध लेवे कि वहाँ पर जाएँगे, मौज से रहेंगे, जन्म-मरण का कष्ट नहीं, रोग-शोक नहीं, वहाँ जाएँगे। फिर लौटकर नहीं आएँगे। इस प्रकार निरति मिलै निरबान का भावार्थ समझो। (95)
संहस्र कमल भी अष्ट कमल (आठवां कमल) है। यहाँ तक सर्व कमलों में काल का राज्य है। शरीर के अंदर तथा बाहर भी उसकी धुनि साज-बाज बजता है यानि काल का डंका बजता है। जो शरीर में धुन (आवाज-शब्द) सुनाई देती है। ये सब काल की धुन (शब्द, आवाज) हैं। सुन्न का भावार्थ है कि प्रत्येक कमल के आसपास सुन्न (खाली स्थान) है जो प्रत्येक की सीमा का प्रतीक है। परंतु यह काल का जाल है। इस काल लोक में परमेश्वर का भी निवास है, परंतु परमेश्वर केवल दीक्षितों का ही साथ देता है। (हद जीवों से दूर है, बेहदियों के तीर) इस प्रकार उस परमात्मा से जो जुड़े हैं, उनका साथ परमेश्वर देते हैं। (96)
साधक कहता है कि हमारे को तो सब स्थानों पर आप ही दिखाई देते हो। आप ही की शक्ति से सब धुनि आती हैं। सुन्न भी आप ही लगते हो क्योंकि आपकी शक्ति से सब बने हैं। इनमें आप से दूसर (दूसरी वस्तु) कौन है? जो आता-जाता है, वह कौन है? यानि जन्म-मरण हमारा किसलिए है? (97)
उत्तर दिया है कि इस जन्म-मरण का मूल कारण अविद्या यानि तत्त्वज्ञान का अभाव है। जिस कारण से जन्म-मरण के फेर यानि चक्र को नहीं समझ सके जो कर्मों के कारण हो रहा है। सत्य भक्ति के अभाव से पाँच तत्त्व तथा पच्चीस प्रकृति अपने स्वभाव से कर्म कराकर जीवन नष्ट करा देती है। फिर अपने-अपने भागों में बाँट ले जाती है। (98)
सत्यनाम बिन यह शरीर रूपी नगर सूना (खाली) है। इस शरीर में इच्छाओं तथा इच्छा पूर्ण न होने की चिंता तथा अन्य दुःख-सुख का ढ़ोल बज रहा है, शोर हो रहा है। जैसे लड़का उत्पन्न हुआ तो खुशी का शोर। उस शोर में भगवान भूल गया। फिर लड़का मर गया। फिर दुःख की रोहा-राट (हाहाकार) रूपी शोर। उस शोर में परमात्मा की भूल। इस प्रकार यह जीवन इस चूं-चूं में समाप्त हो जाता है। कभी धन इकट्ठा करने के विचारों का शोर। इस प्रकार मानव शरीर का मूल कार्य छोड़कर जीवन अंत कर दिया। लूट न लूटि बंदगी यानि राम नाम इकट्ठा नहीं किया। हे हंस, हे भोले मानव! भोर हो गया यानि मृत्यु हो गई। जैसे भोर (सुबह) नींद खुलती है, स्वपन समाप्त होता है तो स्वपन में बना राजा अपनी झौंपड़ी में खटिया पर पड़ा होता है। इसी प्रकार मानव शरीर रहते भक्ति नहीं की तो मृत्यु उपरांत पशु-पक्षी वाली योनि रूपी खटिया पर पड़ा होगा यानि पशु-पक्षी बनकर कष्ट पे कष्ट उठाएगा। (99)
गरीब, अगम निगम को खोज ले, बुद्धि विवेक विचार। उदय-अस्त का राज दे, तो बिन नाम बेगार।100।।
भावार्थ:– संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी द्वारा दिया यथार्थ आध्यात्म ज्ञान बताया है कि हे मानव! अगम (भविष्य का यानि आगे के जीवन का) निगम (दुःख रहित होने का) का विवेक वाली बुद्धि से विशेष विवेचन करके विचार कर। यदि मानव के पास सत्यनाम गुरू से प्राप्त नहीं है और उदय (जहाँ से पृथ्वी पर सवेरा होता है) अस्त (जहाँ सूरज छिपता है, शाम होती है, वहाँ तक) का राज्य यानि पूरी पृथ्वी का राज्य भी दे दिया जाए तो वह तो बेगार की तरह है।
बेगार की परिभाषा:– सन् 1970 के आसपास पैट्रोल से चलने वाले बड़े तीन पहियों वाले टैम्पो (three wheeler Tempo) चले थे। एक दिन एक टैम्पो वाला अपने मार्ग (त्वनजम) पर नहीं आया। अगले दिन उससे पूछा कि कल क्यों नहीं आए तो उसने बताया कि कल बेगार में चला गया था। उस समय थानों में जीप आदि गाड़ियाँ नहीं होती थी। यदि पुलिस ने कहीं छापा (रैड) मारना होता तो किसी टैम्पो (three wheeler or four wheeler) को शाम को थाने में पकड़कर लाते। रात्रि में या दिन में जहाँ भी जाना होता, उसको ले जाते। मालिक ही ड्राईवर होता था या मालिक का किराए का ड्राईवर होता था। तेल (पैट्रोल) भी गाड़ी वाले अपने पास से डलवाते थे। सारी रात-सारा दिन उसको चलाते रहते थे। शाम को देर रात पुलिस वाले उसे छोड़ते थे। अन्य व्यक्ति देखता तो ऐसे लगता कि टैम्पो वाले ने आज तो घनी कमाई करी होगी क्योंकि दिन-रात चला है, परंतु उस टैम्पो वाले ने बताया कि अपने पास से 200 रूपये (वर्तमान के दस हजार रूपये) तेल में और खाने में खर्च हो गए, किराया एक रूपया नहीं मिला। गाड़ी (टैम्पो) की घिसाई यानि चलने से हुई टूट-फूट, वह अलग खर्च हुआ। बेगार का अर्थ है कि आय बिल्कुल नहीं तथा परिश्रम अधिक होता है। खर्च भी अधिक होता है। इसको बेगार कहते हैं।
इसी प्रकार अपने पूर्व जन्म के तप तथा दान-धर्म से राजा बनता है। राजा बनने पर जो सुख-सुविधाएँ उसे प्राप्त होती हैं, उनमें उस राजा के पुण्य खर्च होते हैं। यदि वह राजा पूरे गुरू से भक्ति के वास्तविक नाम लेकर भक्ति नहीं करता तो उसको पुण्य की कमाई नहीं होती। पुण्य का खर्च राज के ठाठ में दिन-रात समाप्त होता रहता है। जो सत्य भक्ति नहीं करता, वह राजा बेगार कर रहा है। (100)
वाणी नं. 101:–
ऐसा कौन अभागिया, करे भजन को भंग। लोहे से कंचन भया, पारस के सत्संग।।
भावार्थ:– दीक्षा लेकर ऐसा दुर्भाग्य वाला कौन है जो अपने नाम को खंडित करके भजन (भक्ति) में भंग डालता है। लोहे से कंचन भया यानि नाम लेने से पहले मानव भी पशु-पक्षी जैसा जीवन जी रहा था। गुरू जी से नाम रूपी पारस से छूकर स्वर्ण (ळवसक) यानि देवता बना दिया।
गरीब, सतगुरू पशु मानुष करि डारै, सिद्धि देकर ब्रह्म विचारै।
कबीर, बलिहारी गुरू आपने, घड़ी-घड़ी सौ-सौ बार।
मानुष से देवता किया, करत न लागी वार।।
सरलार्थ:– वह महामूर्ख होगा जो दीक्षा लेकर पूर्ण संत से दूर होगा और नाम त्यागकर भक्ति करना छोड़ देगा। (101)
वाणी नं. 102 से 112:-
गरीब, पारस तुम्हरा नाम है, लोहा हमरी जात। जड़ सेती जड़ पलटियां, तुमकौ केतिक बात।।102।।
गरीब, बिना भगति क्या होत है, ध्रुवकूं पूछौ जाइ। सवा सेर अन्न पावते, अटल राज दिया ताहि।।103।।
गरीब, बिना भगति क्या होत है, भावैं कासी करौंत लेह। मिटे नहीं मन बासना, बहुबिधि भर्म संदेह।।104।।
गरीब, भगति बिना क्या होत है, भर्म रह्या संसार। रति कंचन पाया नहीं, रावन चलती बार।।105।।
गरीब, संगी सुदामा संत थे, दारिद्रका दरियाव। कंचन महल बकस दिये, तंदुल भेंट चढाव।।106।।
गरीब, दौ कौडी़ का जीव था, सैना जाति गुलाम। भगति हेत गह आइया, धर्या स्वरूप हजाम।। 107।।
गरीब, नामा के बीठ्ठल भये, और कलंदर रूप। गउ जिवाई जगतगुरु, पादसाह जहां भूप।।108।।
गरीब, पीपाकूं परचा हुवा, मिले भगत भगवान। सीता सुधि साबित रहै, द्वारामती निधान।।109।।
गरीब, धना भगति की धुनि लगी, बीज दिया जिन दान। सूका खेत हरा हुवा, कांकर बोई जान।।110।।
गरीब, रैदास रंगीला रंग है, दिये जनेऊ तोड़। जगजौनार चैले धरे, एक रैदास एक गौड।।111।।
गरीब, मांझी मरद कबीर है, जगत करें उपहास। केसौ बनजारा भया, भगत बढाया दास।।112।।
वाणी नं. 102 का सरलार्थ:- हे परमेश्वर! आपका नाम तो पारस है। हम जीव जाति वाले लोहा समान हैं। जब एक जड़ (पारस पत्थर) के छूने मात्र से जड़ (लोहा सोना बन गया) बदल गया (पलट गया) तो आपके लिए हमारे गुण-धर्म बदलकर देवता बनाना कोई कठिन कार्य नहीं है। (102)