हाहा-हूहू नाम के दो तपस्वी थे। उनको अपनी भक्ति का गर्व था। एक-दूसरे से अधिक सिद्धि-शक्ति वाला कहते थे। अपनी-अपनी शक्ति के विषय में जानने के लिए ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी से पूछा कि हमारे में से अधिक सिद्धि-शक्ति वाला कौन है? ब्रह्मा जी ने कहा कि आप श्री विष्णु जी के पास जाओ, वे बता सकते हैं। ब्रह्मा जी को डर था कि एक को कम शक्ति वाला बताया तो दूसरा नाराज होकर श्राप न दे दे।
हाहा-हूहू ने श्री विष्णु जी के पास जाकर यही जानना चाहा तो उत्तर मिला कि आप शिव जी के पास जाएँ। वे तपस्वी हैं, ठीक-ठीक बता सकते हैं। शिव जी ने उन दोनों को पृथ्वी पर मतंग ऋषि के पास जाकर अपना समाधान कराने की राय दी। मतंग ऋषि वर्षों से तपस्या कर रहे थे। अवधूत बनकर रहते थे। अवधूत उसे कहते हैं जिसने शरीर के ऊपर एक कटि वस्त्रा (लंगोट) के अतिरिक्त कुछ न पहन रखा हो। मतंग ऋषि शरीर से बहुत मोटे यानि डिल-डोल थे। जब हाहा-हूहू मतंग ऋषि के आश्रम के निकट गए तो उनके मोटे शरीर को देखकर हाहा ने विचार किया कि ऋषि तो हाथी जैसा है। हूहू ने विचार किया कि ऋषि तो मगरमच्छ जैसा है। मतंग ऋषि के निकट जाकर प्रणाम करके अपना उद्देश्य बताया कि कृपा आप बताएँ कि हम दोनों में से किसकी आध्यात्मिक शक्ति अधिक है? ऋषि ने कहा कि आपके मन में जो विचार आया है, आप उसी-उसी की योनि धारण करें और अपना फैसला स्वयं कर लें। उसी समय उन दोनों का शरीर छूट गया यानि मृत्यु हो गई। हाहा को हाथी का जन्म मिला तथा हूहू को मगरमच्छ का जन्म मिला। जब दोनों जवान हो गए तो एक दिन हाथी दरिया पर पानी पीने गया तो उसका पैर मगरमच्छ ने पकड़ लिया। सारा दिन खैंचातान बनी रही। कभी हाथी मगरमच्छ को पानी से कुछ बाहर ले आए, कभी मगरमच्छ हाथी को पानी में खैंच ले जाए। शाम को मगरमच्छ पैर छोड़ देता। अगले दिन हाथी उसी स्थान पर जाकर अपना पैर मगरमच्छ को पकड़ाकर शक्ति परीक्षण करता। पुराणों में लिखा है कि यह गज-ग्राह का युद्ध दस हजार वर्ष तक चलता रहा।
आसपास के वन में हाथी का आहार समाप्त हो गया। साथी हाथी दूर से आहार लाकर खिलाते थे। कुछ दिन बाद वे हाथी भी साथ छोड़ गए। हाथी बलहीन हो गया। एक दिन मगरमच्छ ने हाथी को जल में गहरा खींच लिया। हाथी की सूंड का केवल नाक पानी से बाहर बचा था। हाथी को अपनी मौत दिखाई दी तो मृत्यु भय से परमात्मा को पुकारा, केवल इतना समय बचा था कि हाथी की आत्मा ने र… यानि आधा राम ही कहा, केवल र… ही बोल पाई। उसी क्षण परमात्मा ने सुदर्शन चक्र मगरमच्छ के सिर में मारा। मगरमच्छ का मुख खुल गया। हाथी बाहर पटरी पर खड़ा हो गया। परमात्मा प्रकट हुए। हाथी से कहा कि तुम स्वर्ग चलो, तुमने मुझे सच्चे मन से याद किया है, मेरा नाम बड़ी तड़फ से लिया है। मगरमच्छ ने कहा कि हे प्रभु! जिस तड़फ से इसने आपका नाम जपा है, मैंने उसको उसी तड़फ से सुना है, परंतु हार-जीत का मामला था। इसलिए मैं छोड़ नहीं पा रहा था। आप तो अंतर्यामी हैं। मन की बात भी जानते हो। मेरा भी कल्याण करो। प्रभु ने दोनों को स्वर्ग भेजा। फिर से जन्म हुआ। फिर अपनी साधना शुरू की।
जानने योग्य यानि निष्कर्ष | सुमिरन का अंग (28-30)
1) यदि परमात्मा का उस कसक (तड़फ) के साथ नाम जपा जाए तो विशेष तथा शीघ्र लाभ होता है। जैसे हाथी ने मौत के भय से नाम उच्चारा था। केवल ‘र’ ही बोल पाया था। फिर डूब जाना था। इसको संतों ने ररंकार धुन (लगन) कहा है। कई संतजन दीक्षा मंत्रों में ररंकार नाम जाप करने को देते हैं। वह उचित नहीं है।
2) जैसे कहीं संत सत्संग करता है तो उसे विशेष तड़फ के साथ परमात्मा की महिमा सुनानी चाहिए। उसका श्रोताओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। श्रोताओं को भी उसी तड़फ (ररंकार वाली लगन) से सत्संग सुनना चाहिए। उससे वक्ता तथा श्रोता दोनों को ज्ञान यज्ञ का समान लाभ मिलता है।
3) घोर तप करने वाले मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि तप करना शास्त्रा विरूद्ध है। गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6 में कहा है कि जो साधक शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाने घोर तप को तपते हैं, वे राक्षस स्वभाव के हैं। उपरोक्त कथा से भी तपस्वियों का चरित्र स्पष्ट है कि हाहा-हूहू के मन में क्या बकवास आई? अपनी आध्यात्म शक्ति की जाँच कराने चले। मतंग ऋषि के डिल-डोल (अत्यंत मोटे) शरीर को देखकर दोष निकालने लगे। भगवान की रचना का मजाक करना परमात्मा का मजाक है। मतंग तपस्वी ने भी विवेक से काम न लेकर स्वभाव ही बरता। दोनों को शाॅप दे दिया। जिस कारण से वे पशु तथा जलचर योनि को प्राप्त हुए। दस हजार वर्ष तक संघर्ष करते रहे, कितने कष्ट उठाए। यदि मतंग ऋषि उनको समझाते कि साधको शक्ति तो परमात्मा में है, शेष हम तो उसके मजदूर हैं। जितनी मजदूरी (साधना) करते हैं, उतनी ध्याड़ी यानि भक्ति शक्ति (सिद्धि) दे देते हैं। साधकों को अपनी शक्ति का अभिमान नहीं करना चाहिए। अपनी साधना आजीवन करनी चाहिए। इस प्रकार समझाने से वे भक्त अवश्य अपना मूर्ख उद्देश्य त्यागकर कष्ट से बच जाते। परंतु यह बुद्धि न गुरू में, न चेलों में, फिर तो यही ड्रामा चलेगा।
4) तपस्या से क्या लाभ होता है, आओ जानें:-
गरीब, तप से राज, राज मध्य मानम्। जन्म तीसरे शुकर श्वानम्।।
भावार्थ:– तप से राज्य की प्राप्ति होती है यानि राजा बनता है। राजा में अहंकार अधिक होता है। अहंकार के कारण अनेकों पाप कर डालता है। फिर अगले जन्म में शुकर (सूअर) तथा श्वान (कुत्ता) बनता है। पहला मनुष्य जीवन शास्त्रा विरूद्ध साधना (तप) करके नष्ट किया। दूसरा जीवन राज करके खो दिया। शास्त्रों में प्रमाण है:-
‘‘तपेश्वरी सो राजेश्वरी, राजेश्वरी सो नरकेश्वरी’’
भावार्थ:– जितना अधिक समय तक तप करेगा, वह (‘तपेश्वर’ यानि तपस्वियों में श्रेष्ठ माना जाता है) उतना ही अधिक समय तक राज्य करेगा। (राजेश्वरी का अर्थ है राजाओं में श्रेष्ठ है यानि लम्बे समय तक तथा विशाल साम्राज्य पर राज्य करेगा) जो जितने अधिक समय तक तथा विशाल क्षेत्र पर राज्य करेगा, वह उतने अधिक पाप का भागी होगा। जिससे नरक का समय भी अधिक होगा। उसको नरकेश्वरी कहा है कि वह नरक को अन्य से अधिक समय तक भोगेगा। फिर कभी मानव जन्म मिलेगा, कोई परम संत (तत्त्वदर्शी संत) मिले या न मिले। यदि तत्त्वदर्शी संत नहीं मिला तो फिर वही प्रक्रिया। तप करो, राज
करके नरक में गिरो।
गरीब, यह हरहट का कुंआ लोई। यो गल बंध्या है सब कोई।।
कीड़ी-कुंजर (चींटी-हाथी) और अवतारा। हरहट डोर बंधे कई बारा।।
भावार्थ:– पुराने समय में सिंचाई के लिए एक कुंआ खोदा जाता था। उससे पानी निकालने के लिए एक पहिये जैसा बड़ा चक्र लोहे का बनाया जाता था जो लकड़ी के सहारे कुएँ के ऊपर मध्य में रखा जाता था। उसके ऊपर लंबी चैन की तरह बाल्टियाँ लगाई जाती थी। कुंए से कुछ दूरी पर कोल्हू जैसा यंत्र लगाकर बैलों के द्वारा चलाया जाता था। बाल्टियाँ जो चैन (पटे) पर लगी होती थी, वे बैल द्वारा घुमाने से खाली नीचे कुंए में चली जाती थी, पानी से भरकर ऊपर आती थी। ऊपर एक नाले में खाली होकर फिर नीचे कुंए में भरने के लिए जाती थी। यह क्रम सारा दिन और महीनों चलता रहता था। इसका उदाहरण देकर संत गरीबदास जी ने समझाया है कि जब तक तत्त्वदर्शी संत (सतगुरू=सच्चा गुरू) नहीं मिलता, तब तक जीव स्वर्ग-नरक, पृथ्वी पर ऐसे चक्र काटता रहता है जैसे रहट की बाल्टियाँ नीचे कुंए से जल भरकर लाती हैं। ऊपर नाले में खाली होकर पुनः कुंए में चली जाती हैं। उसी प्रकार जीव पृथ्वी पर पाप-पुण्य से भरकर ऊपर स्वर्ग-नरक में अपने कर्म सुख-दुःख भोगकर खाली होकर पृथ्वी पर जन्मता-मरता रहता है। इस जन्म-मरण के हरहट (रहट) वाले चक्र में चींटी (कीड़ी), कुंजर (हाथी) और अवतारगण यानि श्री राम, श्री कृष्ण, श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा तथा श्री शिव जी आदि-आदि भी चक्कर काट रहे हैं। इसी के गल बंधे हैं यानि कर्मों के रस्से से बँधकर इस चक्र में गिरे हैं।
जो सिद्ध करना था वह यह है कि:-
पाली (चरवाहा) तो मनुष्य था। उसको परमात्मा मिलना और सुख देना पूर्व जन्म के संस्कार से ही था तथा सच्ची लगन का परिणाम भी, परंतु मोक्ष नहीं। इस गज-ग्राह कथा में दोनों ही पशु थे। फिर भी भगवान ने अनहोनी कर दी। परंतु पूर्व जन्म का संस्कार ही प्राप्त हुआ। संत गरीबदास जी ने समझाना चाहा है कि जो गुरू बनकर जनता को भ्रमित करते हैं, वे पूर्व जन्म के पुण्यकर्मी प्राणी हैं और वर्तमान में जीवन व्यर्थ कर रहे हैं। उनसे तो सामान्य व्यक्ति जो पूर्व जन्म का पुण्यकर्मी है और वर्तमान में विशेष पाप नहीं कर रहा है तो यदि उस पर कोई आपत्ति आती है तो परमात्मा उसके बचे हुए पुण्यों के आधार से चमत्कार कर देता है, परंतु नकली गुरू पद पर विराजमान व्यक्ति अपने पुण्यों तथा भक्ति शक्ति को दुआ (आशीर्वाद) तथा बद्दुआ (शाॅप) देकर नष्ट कर देता है। इस कारण से:-
पंडित गए नरक में, भक्ति से खाली हाथ। भाग्य से मिले जीव को परम संत का साथ।
बिन सतगुरू पावै नहीं खालक खोज विचार। चैरासी जग जात है, चिन्हत नाहीं सार।।
भावार्थ:– नकली गुरू (ब्राह्मण) नरक में जाते हैं। भक्ति कर्म शास्त्रा के विरूद्ध होने से भक्ति की शक्ति प्राप्त न करके खाली हाथ चले गए। पूर्व जन्म में शुभ कर्मों के संयोग बिना परम संत यानि तत्त्वदर्शी संत नहीं मिलता और सतगुरू के बिना खालिक (परमात्मा) का विचार यानि यथार्थ ज्ञान नहीं मिलता। जिस कारण से संसार के व्यक्ति चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों को प्राप्त करते हैं क्योंकि वे सार नाम, मूल ज्ञान (तत्त्वज्ञान) को नहीं पहचानते।
वाणी नं. 26 का भावार्थ है कि परमात्मा में पूर्ण विश्वास करके क्रिया करने से लाभ होता है, औपचारिक्ता से नहीं।
इसी प्रकार द्रोपदी पूर्व जन्म में परमात्मा की परम भक्त थी। फिर वर्तमान जन्म में एक अंधे साधु को साड़ी फाड़कर लंगोट (कोपीन) के लिए कपड़ा दिया था। (अंधे साधु के वेश में स्वयं कबीर परमेश्वर ही लीला कर रहे थे।) जिस कारण से जिस समय दुःशासन ने द्रोपदी को सभा में नंगा करने की कोशिश की तो द्रोपदी ने देखा कि न तो मेरे पाँचों पति (पाँचों पाण्डव) जो भीम जैसे महाबली थे, सहायता कर रहे हैं। न भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा दानी कर्ण ही सहायता कर रहे हैं। सब के सब किसी न किसी बँधन के कारण विवश हैं। तब निर्बन्ध परमात्मा को अपनी रक्षार्थ हृदय से हाथी की तरह तड़फकर पुकार की। उसी समय परमेश्वर जी ने द्रोपदी का चीर अनन्त कर दिया। दुःशासन जैसे योद्धा जिसमें दस हजार हाथियों की शक्ति थी, थककर चूर हो गया। चीर का ढ़ेर लग गया, परंतु द्रोपदी निःवस्त्रा नहीं हुई। परमात्मा ने द्रोपदी की लाज रखी। पाण्डवों के गुरू श्री कृष्ण जी थे। जिस कारण से उनका नाम चीर बढ़ाने की लीला में जुड़ा है। इसलिए वाणी में कहा है कि निज नाम की महिमा सुनो जो किसी जन्म में प्राप्त हुआ था, जब परमेश्वर सतगुरू रूप में उस द्रोपदी वाली आत्मा को मिले थे। उनको वास्तविक मंत्र जाप करने को दिया था। उसकी भक्ति की शक्ति शेष थी। उस कारण द्रोपदी की इज्जत रही थी।
कबीर कमाई आपनी, कबहु ना निष्फल जाय। सात समुद्र आडे पड़ो, मिले अगाऊ आय।।
भावार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि अपनी भक्ति की मजदूरी (कमाई) कभी व्यर्थ नहीं जाती, चाहे कितनी बाधाएँ आ जायें। वह अवश्य मिलती है। इसी के आधार से द्रोपदी का चीर बढ़ा, महिमा हुई। इसलिए कहा है कि निज नाम (यथार्थ भक्ति मंत्र) की महिमा सुन और उस पर अमल करो।
एक वैश्या (गणिका) थी। उसको जीवन में पहली बार सत्संग सुनने का अवसर मिला। उस दिन अपने कर्म से ग्लानि हो गई और सतगुरू से दीक्षा लेकर सच्ची लगन से भक्ति करके विमान में बैठकर स्वर्ग लोक में गई। सच्चा नाम जिस भी देव का है, वह खेवट (मलहा) का कार्य करता है। जैसे नौका चलाने वाला मलहा व्यक्तियों को दरिया से पार कर देता है। ऐसे वास्तविक नाम भवसागर से भक्तों को पार कर देता है। (28-29)
वाणी नं. 30:-
गरीब, बारद ढारी कबीर जी, भगत हेत कै काज। सेऊ कूं तो सिर दिया, बेचि बंदगी नाज।।30।।
सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी का उदाहरण देकर हम भक्तों को समझाया है कि जैसे कबीर भक्त के साथ काशी के पंडितों तथा मुल्ला-काजियों ने ईष्र्या के कारण झूठी चिट्ठियाँ डाली थी कि कबीर जी भोजन-भण्डारा करेंगे। प्रत्येक भोज के पश्चात् एक मोहर तथा एक दोहर दक्षिणा देंगे। इस कारण 18 लाख (अठारह लाख) साधु-संत-भक्त निश्चित दिन पहुँच गए थे। कबीर जी जुलाहे का कार्य करते थे। जो मेहनताना (income) मिलता था, उससे अपने परिवार के खर्च का रखकर शेष को भोजन-भण्डारा करके धर्म में लगा देते थे। जिस कारण से घर में दो व्यक्ति आ जाएँ तो उनका भी आटा नहीं रहता था। उस दिन अठारह लाख मेहमान उपस्थित थे तो परमेश्वर कबीर जी अन्य रूप केशव बणजारे का धारण करके नौ लाख बैलों की पीठ पर बोडी यानि गधों के बोरे जैसा थैला धरकर उनमें पका-पकाया भोजन भरकर सतलोक से लेकर आए और तीन दिन का भोजन-भण्डारा पत्रों में लिखा था तो तीन दिन ही 18 लाख व्यक्तियों को भोजन कराया तथा प्रत्येक खाने के पश्चात् एक स्वर्ण की मोहर तथा एक दोहर दी गई। जो हरिद्वार से गरीबदास वाले पंथियों ने सद्ग्रन्थ छपाया है, उसमें वाणी इस प्रकार है:-
गरीब, बारद ढुरि कबीर कै, भक्ति हेत के काज।
यथार्थ वाणी ऊपर लिखी है, फिर भी हमने भावार्थ समझना है।
जब कबीर जी काशी में लहरतारा तालाब में कमल के फूल पर शिशु रूप में प्रकट होकर लीला करने आए हुए थे। उसी समय एक रामानन्द जी पंडित थे जो प्रसिद्ध आचार्य माने जाते थे। उनको कबीर परमेश्वर जी ने अपने सत्यलोक के दर्शन कराए, अपना परिचय कराया। फिर वापिस शरीर में लाकर छोड़ा। उसके पश्चात् स्वामी रामानन्द जी ने कहा:-
दोहू ठौर है एक तू, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणें, आए हो मग जोय।।
बोलत रामानन्द जी, सुन कबीर करतार। गरीबदास सब रूप में, तुम ही बोलनहार।।
तुम साहब तुम संत हो, तुम सतगुरू तुम हंस। गरीबदास तव रूप बिन, और न दूजा अंश।।
भावार्थ:– स्वामी रामानन्द जी ने कहा है कि हे कबीर जी! आप ऊपर सतलोक में भी हैं, आप यहाँ हमारे पास भी विद्यमान हैं। आप दोनों स्थानों पर लीला कर रहे हैं। वास्तव में आप ही साहब यानि परमात्मा हैं। वास्तव में आप ही पूर्ण संत के गुणों से युक्त हैं और वास्तव में सतगुरू भी आप ही हैं तथा एक वास्तविक हंस यानि जैसा भक्त होना चाहिए, वे लक्षण भी आप में ही हैं।
कबीर जी एक उदाहरण पेश कर रहे थे कि जैसे मैं मेहनत करके धन कमाता हूँ, भक्ति भी करता हूँ तथा निर्धन होकर भी भोजन-भण्डारा (लंगर) करवाता रहता हूँ। यदि अन्य भक्त भी मेरी तरह पूर्ण विश्वास के साथ ऐसा करेगा तो परमात्मा उस भक्त की ऐसे सहायता करता है जैसे मेरी की है। अठारह लाख साधुओं-भक्तों को तीन दिन भण्डारा-भोजन करा दिया। वास्तव में सब लीला स्वयं कबीर जी ही ने की थी भक्तों का मनोबल बढ़ाने के लिए। वास्तविक कथा आगे पढ़ें।