पारख के अंग की वाणी नं. 185-192:-
गरीब, बनजारे के बैल ज्यौं, फिरैं देश परदेश। जिन कै संग न साथ हूं, जगत दिखावैं भेष।।185।।
गरीब, आजिज मेरे आशरै, मैं आजिज के पास। गैल गैल लाग्या फिरौं, जब लगि धरणि आकास।।186।।
गरीब, नारद से साधू सती, अति ज्ञाता प्रबीन। एक पलक में बह गये, मन में बांकि मलीन।।187।।
गरीब, दुर्बासा अम्बरीष कै, गये ज्ञान गुण डार। चरण कंवल शिक्षा लई, तुम ईश्वर प्राण उधार।।188।।
गरीब, बखशो प्राण दया करो, पीठ लगाओ हाथ। उर मेरे में ठंडि होय, शीतल कीजै गात।।189।।
गरीब, अम्बरीष महके तहां, बिहंसे बदन खुलास। तुम रिषि मेरे प्राण हो, मैं हूं तुमरा दास।।190।।
गरीब, चक्र सुदर्शन शीश धरि, दिजो भगति की आन। मैं चेरा चरणां रहूं, बखशो मेरे प्राण।।191।।
गरीब, चक्र सुदर्शन पकरि करि, अम्बरीष बैठाय। दुर्बासा पर मेहर करि, चलो भक्ति कै भाय।।192।।
सरलार्थ:– परमात्मा ने कहा है कि मेरा सिद्धांत है कि जो हरयाई गाय की तरह इधर-उधर दुनिया को ठगते फिरते हैं। मैं उनके साथ नहीं हूँ। वे जगत में साधु वेश बनाकर प्रभावित करके काल जाल में डालते हैं।
जो मेरा (अजीज) प्रिय भक्त है, मैं उसके सदा साथ रहता हूँ। (गेल-गेल) पीछे-पीछे लगा रहता हूँ। जब तक धरती तथा आकाश है।
नारद जी साधना करने वन में गए थे। बारह वर्ष साधना करके लौटे तो अपने पिता ब्रह्मा से कहा कि मैंने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया है। ब्रह्मा जी ने कहा कि अच्छी बात है। परंतु अपनी उपलब्धि को बताना नहीं चाहिए। आप श्री विष्णु जी से तो ये बात बिल्कुल ना कहना। नारद जी तो उमंग से भरा था। श्री विष्णु जी के पास गए। उनको अपनी साधना की सफलता बताई कि मैंने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया है। यह कहकर कुछ देर बाद चल पड़े। श्री विष्णु जी ने एक मायावी शहर बसाया। उसमें राजा की लड़की का विवाह का स्वयंवर रचा। मनमोहक माहौल था। नारद ने सुने विवाह के गीत। नारद विवाह कराने के लिए अत्यधिक प्रेरित हुआ। रूप के लिए भगवान विष्णु से उसका रूप माँगा। भगवान ने बंदर का मुख नारद को लगा दिया। लड़की ने श्री विष्णु जी को वरमाला डाल दी जो स्वयंवर में आया था। नारद को पता चला कि मेरे साथ विष्णु ने धोखा किया है तो श्राप दे दिया कि आप भी मेरे की तरह एक जीवन स्त्री के लिए तड़फ-तड़फ कर मरोगे। श्री रामचन्द्र के रूप में विष्णु जी का जन्म अयोध्या के राजा दशरथ के घर हुआ। फिर वनवास हुआ। सीता पत्नी श्रीराम भी साथ में वन में गई। सीता का अपहरण हुआ। श्री राम ने सारा जीवन पत्नी के वियोग में बिताया।
पारख के अंग की वाणी नं. 193-194:-
गरीब, गण गंधर्व और मुनीजन, तेतीसौं तत्त्व सार। अपने जन कै कारणै, उतरे बारमबार।।193।।
गरीब, अनंत कोटि औतार है, नौ चितवै बुधि नाश। खालिक खेलै खलक में, छै ऋतु बारहमास।।194।।
सरलार्थ:– जितने भी देव, गण, मुनिजन, तेतीस करोड़ देवता हैं। ये परमात्मा की भक्ति करके इस पद को पाए हुए हैं। यदि इनके साथ भी कोई शरारत करके हानि पहुँचाता है तो उसकी रक्षा के लिए भी परमात्मा कबीर जी ही सहायता करने ऊपर से आते हैं। अवतरित होते हैं। (अवतार धारण करते हैं।) वे परमात्मा अपने जन (भक्त जन) के कारण बार-बार अवतार लेते हैं। जैसे प्रहलाद भक्त की रक्षा के लिए नरसिंह रूप धारण करके अचानक आए और अपना कार्य करके चले गए। तत्त्वज्ञानहीन प्रचारक जिनकी बुद्धि का नाश हो चुका है, वे केवल नौ अवतार मानते हैं। (खालिक) मालिक तो (खलक) संसार में (छःऋतु-बारह मास) सदा (खेलै) लीला करता रहता है। जैसे श्री नानक जी ने भी कहा है कि ‘‘अंधुला नीच जाति प्रदेशी मेरा छिन आवै तिल जावै। जाकी संगत नानक रहंदा क्योंकर मोंहडा पावै।।’’ अर्थात् जुलाहा जाति में प्रकट मेरा प्रदेशी परमात्मा कबीर एक पल में पृथ्वी पर दिखाई देता है। दूसरे क्षण में ऊपर सचखण्ड में होता है। उस समर्थ परमात्मा कबीर जी की शरण में मैं (नानक जी) रहता हूँ। उसकी थाह उसका (मोहंड़ा) अंत कैसे पाया जा
सकता है?
भावार्थ है कि परमात्मा के तो अनंत अवतार हो चुके हैं। वह तो एक पल में पृथ्वी पर, दूसरे पल (क्षण) में सतलोक में आता-जाता रहता है यानि कभी भी प्रकट हो जाता है।
पारख के अंग की वाणी नं. 195-199:-
गरीब, पीछै पीछै हरि फिरैं, आगै संत सुजान। संत करैं सोई साच है, च्यारि जुग प्रवान।।195।।
गरीब, सांई सरीखे साधू हैं, इन समतुल नहीं और। संत करैं सो होत है, साहिब अपनी ठौर।।196।।
गरीब, संतौं कारण सब रच्या, सकल जमी असमान। चंद सूर पानी पवन, यज्ञ तीर्थ और दान।।197।।
गरीब, ज्यौं बच्छा गऊ की नजर में, यौं सांई अरु संत। हरिजन के पीछै फिरैं, भक्ति बच्छल भगवंत।।198।।
गरीब, धारी मेरे संत की, मुझ सें मिटै न अंश। बुरी भली बांचै नहीं, सोई हमरा बंश।।199।।
सरलार्थ:– अपने सच्चे भक्त के साथ-साथ पीछे-पीछे परमात्मा रहता है। संत जो करते हैं, सच्चा कार्य करते हैं यानि सही करते हैं। कभी किसी का अहित नहीं करते। चारों युगों में प्रमाण रहा है कि संत सही क्रिया करते हैं। भलाई के शुभ कर्म करते हैं। (195)
सच्चे साधक परमात्मा के समान आदरणीय हैं। इनके समान अन्य की तुलना नहीं की जा सकती। परमात्मा अपने सच्चे भक्त को अपनी शक्ति प्रदान कर देते हैं। परमात्मा कबीर जी कहते हैं कि मेरी बजाय इन संतों से माँगो। संत परमात्मा से प्राप्त शक्ति से अपने अनुयाईयों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। उनकी रक्षा करते हैं। परमात्मा कबीर जी उनके बीच में कोई दखल नहीं देते। (196)
इसलिए कहा है कि:-
संत करें सो होत है, साहिब अपनी ठौर।
परमात्मा ने भक्तों के लिए पृथ्वी तथा इसके सहयोगी सूर्य, आकाश, हवा, व जल अन्य ग्रह बनाए हैं ताकि वे भक्ति करके अपना कल्याण करवा सकें। तीर्थ स्थान भी भक्तों का साधना स्थल है। दान की परंपरा भी भक्ति में अति सहयोगी है। परंतु दान संत (गुरू) को दिया जाए। कुपात्र को दिया दान तो रण-रेह (अन उपजाऊ) भूमि में बीज डालकर खराब करने के समान है। (197)
परमात्मा कबीर जी ने कहा है कि:-
कबीर, गुरू बिना माला फेरते, गुरू बिना देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल है, भावें देखो वेद पुराण।।
अर्थात् साधक को चाहिए कि पहले पूर्ण गुरू से दीक्षा ले। फिर उनको दान करे। उनके बताए मंत्रों का जाप (स्मरण) करे। गुरूजी से दीक्षा लिए बिना भक्ति के मंत्रों के जाप की माला फेरना तथा दान करना व्यर्थ है। गुरू बनाना अति आवश्यक है।
प्रमाण:-
कबीर राम-कृष्ण से कौन बड़ा, उन्हों भी गुरू कीन्ह। तीन लोक के वे धनी, गुरू आगे आधीन।।
अर्थात् पृथ्वी के मानव (स्त्री-पुरूष) श्री राम तथा श्री कृष्ण से बड़ा देवता किसी को नहीं मानते। उन दोनों ने भी गुरू जी से दीक्षा ली। तीन लोक के (धनी) मालिक होते हुए भी उन्होंने गुरू बनाए। श्री कृष्ण जी ने ऋषि दुर्वासा जी को अध्यात्म गुरू बनाया। (ऋषि संदीपनी उनके शिक्षक गुरू थे।) श्री रामचन्द्र जी ने ऋषि वशिष्ठ जी को गुरू बनाया। वे दोनों त्रिलोक नाथ होते हुए भी अपने-अपने गुरूजी के आगे आधीन भाव से पेश होते थे। परमात्मा अपने भक्त पर निरंतर दृष्टि रखते हैं कि कहीं कोई देव, भूत, पित्तर, प्रेत, गण, गंधर्व, राक्षस, यक्ष, यमदूत मेरे भक्त को हानि न कर दे। जैसे गाय अपने बच्चे (बछड़ी-बछड़े) पर निरंतर दृष्टि रखती है। चारा चरते समय भी एक आँख बच्चे पर ही लगी रहती है। यदि कोई अन्य पशु उसके बच्चे के निकट आता है तो वह यदि खुली होती है तो दौड़कर उस गैर पशु को टक्कर मारने दौड़ती है। यदि रस्से से बँधी होती है तो भी अपनी प्रतिक्रिया दिखाती है। जहाँ तक उसका रस्सा जाने देता है, वहाँ तक उस अन्य पशु को टक्कर मारने दौड़ती है। परमात्मा भक्त वच्छल हैं। भक्तों के रक्षक व प्रिय हैं। वे (हरिजनों) भक्तों के पीछे-पीछे फिरते रहते हैं। (198)
मेरे संत (सतगुरू पद पर संत) की (धारी) धारणा यानि जो वह अपने सेवक (अनुयाई) को आशीर्वाद देकर लाभ देना चाहता है, उसकी वह (धारी) धारणा मेरे से टाली नहीं जा सकती यानि मैं उसमें दखल नहीं दे सकता। परंतु मेरे भक्त यानि संत को मर्यादा का ध्यान रखना अनिवार्य है। संत भली-बुरी यानि राग-द्वेष के आधार पर लाभ-हानि नहीं करते। यदि संत किसी को द्वेष के कारण श्राप देते हैं या सिद्धि से हानि करते हैं तो उसके जिम्मेदार वे स्वयं होंगे। जैसे ऋषि दुर्वासा भी परमात्मा के भक्त थे। उस समय संत को ऋषि कहा जाता था। ऋषि दुर्वासा ने द्वेषवश राजा अंबरीष भक्त के ऊपर सिद्धि से सुदर्शन चक्र छोड़ा। राजा अंबरीष निर्दोष थे। सुदर्शन चक्र ने भक्त अंबरीष के चरण छूए तथा उल्टा फिरकर दुर्वासा को मारने के लिए चला। दुर्वासा भय मानकर सिद्धि से उड़कर भागा। इन्द्र के लोक में गया। शिव जी व ब्रह्मा जी के लोकों में गया, परंतु किसी ने शरण नहीं दी। भक्त अंबरीष विष्णु जी का उपासक था। जिस कारण शर्म के मारे दुर्वासा ऋषि श्री विष्णु जी के पास जाना नहीं चाहते थे। उस समय श्री विष्णु जी से शेष शय्या (शेष नाग के ऊपर लगे बिस्तर) पर अपनी पत्नी लक्ष्मी जी के साथ विश्राम कर रहे थे। परमात्मा कबीर जी ने श्री विष्णु का रूप धारण किया और अठासी हजार ऋषियों तथा तेतीस करोड़ देवताओं की सभा बुलाई। स्वर्ग में यह कार्य सिद्धि शक्ति से मानसिक प्रेरणा से होता है। जैसे वर्तमान में मोबाईल फोन से सैकिण्डों में सूचित किया जाता है। विडियो काॅन्फ्रैंस से भी सब वार्ता की जाती है। देवताओं की टैक्नीक पृथ्वी लोक से लाख गुणा अधिक कारगर है। सबके सामने परमात्मा ने ऋषि दुर्वासा को धमकाया कि भक्ति की मर्यादा में रहो। अंबरीष भक्त से क्षमा माँगो। वे ही आपकी जान बचा सकते हैं। दुर्वासा मरता क्या न करता। भक्त अंबरीष के दरबार में गए। चरण पकड़कर जीवन की रक्षा माँगी। तब जान बची। संत गरीबदास जी ने बताया है कि कबीर परमात्मा के भक्त परमात्मा का (बंस) कबीर कुल हैं। परमात्मा कबीर जी ने कहा है कि मेरा वंश (कबीर कुल) कभी किसी को स्वार्थ व ईष्र्यावश कष्ट नहीं देता। (199)
पारख के अंग की वाणी नं. 200-202:-
गरीब, संख जीव परलौ करै, संखौं उतपति ख्याल। ऐसे सुमरथ संत हैं, एक खिसैं नहीं बाल।।200।।
गरीब, गरजै इन्द्र अनन्त दल, बौह बिधि बरसा होय। संख जीव परलौ करैं, संखौं उतपत्ति जोय।।201।।
गरीब, इच्छा करि मारै नहीं, बिन इच्छा मरि जाय। निःकामी निज संत हैं, जहां नहीं पाप लगाय।।202।।
सरलार्थ:– इन्द्र की पदवी दो विधि से मिलती है। एक तो तप करने से, दूसरी धर्म यज्ञ करने से। ये तप तथा धर्मयज्ञ संत स्वभाव के जीव करते हैं। जैसे इन्द्र संत हैं। वह पृथ्वी के ऊपर वर्षा करते हैं। उसमें शंखों जीव बह जाते हैं। मर जाते हैं। शंखों की उत्पत्ति होती है। इसमें इन्द्र का दोष नहीं है। परंतु विधान अनुसार बिना संत उपदेशी को पाप तथा पुण्य दोनों मिलते हैं। जिस कारण से इन्द्र मृत्यु के उपरांत गधा बनता है। पुण्य स्वर्ग का राजा बनकर नष्ट कर देता है। जो सतगुरू कबीर जी के उपासक हैं, उनके लिए वाणी 202 में कहा है कि इच्छा कर मारै नहीं, बिना मर इच्छा जाय। वे (निःकामी) निष्काम कर्म करने वाले संत होते हैं। उनको पाप नहीं लगता। (200-202)
पारख के अंग की वाणी नं. 203-206:-
गरीब, हद्दी तो छूटैं नहीं, कीड़ी बदला दीन। मुहंमद की बेगम गुसे, काट लिए अंस तीन।।203।।
गरीब, बरषैं तरकैं डोबि दे, त्यारैं तीनूं लोक। ऐसे हरिजन संत हैं, सौदा रोकमरोक।।204।।
गरीब, बहतरि खूहनि क्षय करी, चूणक ऋषीश्वर देख। कपिल सिंघारे सघड़के, लागे पाप अनेक।।205।।
गरीब, द्वादस कोटि निनानवैं, गोरख जनक बिदेह। यौं त्यारै यौं डोबिदे, यामें नहीं संदेह।।206।।
सरलार्थ:– इस वाणी में हजरत मुहम्मद जी के विषय में वर्णन है जो ‘‘माया के ग्रंथ’’ की वाणी नं. 3 के सरलार्थ में लिखा है जो इस प्रकार है:-
हजरत मुहम्मद जी के विषय में वर्णन
हजरत मुहम्मद (मुसलमान धर्म का प्रवर्तक) एक स्त्री के साथ अवैध संबंध बनाकर पाप के भागी बन गए थे। उनकी पत्नी बड़े घराने से थी जो बहुत पैसे वाली धनवान थी। उसकी उस क्षेत्र में बहुत चलती थी। धन के प्रभाव से लोग उसकी आज्ञा का पालन करते थे। नौकर भी रखती थी। जब हजरत मुहम्मद दूर क्षेत्र में प्रचार करने जाने लगा तो उसकी पत्नी खदीजा ने कहा था कि किसी अन्य स्त्री के चक्कर न पड़ना। यदि ये गलती की तो तेरे को सजा दी जाएगी। मुहम्मद ने शर्त स्वीकार कर ली। दूर स्थान पर मुसलमान धर्म का प्रचार करते समय आदि माया की प्रेरित सुंदर स्त्री जो विधवा थी, मुहम्मद के सम्पर्क में आई, मुसलमान बन गई। दोनों का अवैध संबंध भी हो गया। खदीजा को उसके नौकरों ने बताया तो खदीजा ने मुहम्मद को बुलाकर सजा दिलाई। मुहम्मद का लिंग, आगे से मूँछें तथा सिर की चोटी कटवाने का आदेश नौकरों को दिया। नौकरों ने मूँछें तथा चोटी काट दी, परंतु लिंग नहीं काटा। लिंग की कुछ खाल (चमड़ी) जो आगे के भाग पर होती है, वह काट दी और खदीजा को बता दिया कि आपके आदेशानुसार सजा दे दी है। मूँछें व चोटी तो स्पष्ट कटी दिखाई दे रही थी। सभा में लिंग की खाल दिखाई गई और मुहम्मद फिर से प्रचार के लिए चला गया। मुहम्मद की पत्नी खदीजा अब निश्चिंत थी कि कहीं जाए, लिंग कट चुका है। जब दूर देश में अपने मुसलमान अनुयाईयों में गया तो यह हुलिया देखकर कारण जानना चाहा तो मुहम्मद ने बताया कि हमने अपने धर्म की अलग पहचान बनानी है। जो सच्चा मुसलमान होगा, वह तो अल्लाह के लिए ये तीन वस्तु तो क्या सिर कटा लेगा। जो नकली होगा, वह ऐसा नहीं कर सकेगा। अब आपने देखना है कि अल्लाह का आदेश मानना है या नहीं। श्रद्धालु कुर्बान होते हैं। सब आदमियों ने आगे से मूँछें, सिर की चोटी कटवा ली तथा लिंग की आगे से खाल भी कटवा दी जिससे सुन्नत कहते हैं। फिर तो यह धर्मचिन्ह ही बन गया। छोटी आयु के लड़कों की सुन्नत की परंपरा पड़ गई। (203)
जो (हदी) काल की हद तक की साधना करते हैं। उनको तो सब पाप-पुण्य भोगने पड़ते हैं। कीड़ी भी मार देते हैं तो उनका भी बदला देना पड़ता है। जैसे बारिश से असँख्यों जीव डोब दिए, नष्ट कर दिए। बारिश से असँख्यों उत्पन्न हो गए। असँख्यों को भोजन मिला। यों तारे यानि कल्याण कर देते हैं। ऐसे (हरिजन) परमात्मा भक्तजन संत हैं। सौदा (रोकम रोक) नगदा-नगदी है अर्थात् जैसा कर्म करते हैं, वैसा फल हाथों-हाथ मिलता है। (204)
ऋषि चुणक ने मानधाता चक्रवर्ती राजा की बहत्तर क्षौणी सेना को सिद्धि शक्ति से निर्मित चार पुतलियों (परमाणु बम जैसी घातक शक्ति) से (क्षय) नष्ट कर दिया था तथा कपिल मुनि ने राजा सघड़ के साठ हजार पुत्रों को सिद्धि के अग्नि बाणों से मार डाला। उनको अनेकों पाप लगे। (205)
राजा जनक विदेही (द्वादश) बारह करोड़ जीवात्माओं को नरक से छुड़वाकर स्वर्ग ले गए। राजा जनक के पुण्य क्षीण (कम) हुए। पुनर्जन्म श्री नानक जी के रूप में हुआ। गोरखनाथ ने निनानवे (99) करोड़ राजाओं को ज्ञान सुनाकर राज छुड़वाकर भक्ति पर लगाया था। परंतु मुक्ति दोनों की नहीं हुई, न गोरखनाथ की, न राजाओं की। परमात्मा कबीर जी की शरण में श्री नानक जी आए। तब मोक्ष हुआ तथा गोरखनाथ को भी सतगुरू कबीर जी मिले। उनको सतनाम दिया। वह भी मुक्त नहीं हुए हैं क्योंकि उनसे सिद्धि से हुई प्रसिद्धि का आनंद छूटा नहीं। सारनाम मिला नहीं। गोरखनाथ का फिर जन्म होगा। ब्रह्मचारी रहेगा। सतयुग एक लाख वर्ष तक दिल्ली का राज करेगा। फिर सन्यास लेगा। परंतु भक्ति कलयुग के इस समय में ही होगी यदि पूर्ण सतगुरू मिल गया तो। अन्यथा फिर किसी अन्य जन्म में परमात्मा कबीर जी की विशेष कृपा से ही मोक्ष मिलेगा। ऐसे तारने के उद्देश्य से भक्ति पर लगा देते हैं। समाधान पूर्ण न मिलने से सब काल जाल में ही रह जाते हैं या डोब देते हैं यानि नष्ट कर देते हैं। (206)