दुर्भिक्ष (अकाल) का प्रकरण
पारख के अंग की वाणी नं. 207-227:-
गरीब, बीसे में बिसरे नहीं, लागी जोर कसीस। खंड बिहंडा हो गये, देखौं कौंम छतीस।।207।।
गरीब, सहजादे मांगत फिरे, दिल्ली के उमराव। एक रोटी पाई नहीं, खाते नांन पुलाव।।208।।
गरीब, गंगा जमना पारकूं, चली दुनी सब डोल। रोटी साटै बिकि गये, लड़के बालक मोल।।209।।
गरीब, इसतैं आगै क्या कहूं, बीती बौहोत बिताड़। बासमती भोजन करैं, जिन पाया नहीं पवाड़।।210।।
गरीब, खर पवाड़ नहीं खात हैं, मनुष्यौं खाया तोड़। सांगर टीट अर भाखड़ी, लीन्हे वक्ष झरोड़।।211।।
गरीब, कड़ा कुंहिंदरा खागये, झड़ा झोझरू झाड़। इसतैं आगै क्या कहूं, रही न बोदी बाड़।।212।।
गरीब, फजल किया यौंह दुख सुन्या, बरषे दीनदयाल। आये इंद्र गर्ज करि, सूभर सरबर ताल।।213।।
गरीब, सातौं धात अरु सात अन्न, बरषाही कै मांही। मेहर मौज मौला करी, बादल पछांहें जांहि।।214।।
गरीब, बरषें इंद्र घनघोर करि, उतर्या हुकम हिजूर। खलक मुलक सब अवादान, ना नहीं होत कसूर।।215।।
गरीब, ये बीसेकी बात हैं, लग्या ईकीसा ऐंन। साढ महीना सुभ घडी, सातौं आठौं चैंन।।216।।
गरीब, साढ बदी बैठे गदी, इंद्र मुहला लीन। लोकपाल लहरी कला, परसन देवा तीन।।217।।
गरीब, हुकम अरस तैं उतर्या, बरषे हरिजन संत। रांडीकै हांडी चढी, बुढिया जामें दंत।।218।।
गरीब, तीन चार और पांच मन, हुवा अंन उजाल। भीग्या गल्या सौ दशमना, यौह खावो कंगाल।।219।।
गरीब, लांडी बूची लाड करि, संतौंकै प्रताप। सांगर टीट न पावते, इब खावै मूंगरु भात।।220।।
गरीब, लांडी बूची लटकती, रूंखौं ऊपर रूह। केस वहांही खुसि रहे, इब ओढत है सूह।।221।।
गरीब, आने का दश सेर अन्न, मिहनतीयाकूं देह। पिछले दिन नहीं याद हैं, तोबा करि कै लेहि।।222।।
गरीब, एक आनेका सेर अन्न, लेते सबै मजूर। देखि दशगुणा बधि गया, समझि गदहरे सूर।।223।।
गरीब, जुलहौं ऊपर जुलम था, मरि गये डूंम डहाल। कातनकूं पाया नहीं, पर्या ज बीसाकाल।।224।।
गरीब, सासू साली माय क्या, बाप पूत बिछोह। सकल कबीला तजि गए, ऐसा व्याप्या द्रोह।।225।।
गरीब, ऐसी बीती जगतमें, जानैं नहीं जिहांन। कत्थरु चूंना लाय करि, अब चाबन लग गये पान।।226।।
गरीब, पंडौं भारत में बचे, यौं राखे जनदास। काल कुचालौं में रहे, नहीं खाये खड़ घास।।227।।
सरलार्थ:– इन वाणियों में दुर्भिक्ष का वर्णन है। विक्रमी संवत् सतरह सौ बीस में अकाल पड़ा था। बारिश नहीं हुई। उस समय नहरें नहीं थी। सिंचाई का एकमात्र साधन वर्षा थी जो हुई नहीं। जिस कारण से अकाल गिरा। जनता भूखी-प्यासी मरने लगी। संत गरीबदास जी ने बताया है कि उस दुर्भिक्ष के कारण छत्तीस जाति के व्यक्ति बर्बाद (नष्ट) हो गए। जो जाति विशेष में जन्में थे, अपने को सर्वोच्च जाति का मानकर घमंड करते थे, वे जाति बताना भूल गए। भूख से बेहाल थे। सर्व प्राणी त्राहि-त्राहि कर रहे थे।
जो दिल्ली में रहने वाले (शहजादे) राज-घराने के व्यक्ति भूख के कारण दर-दर भटककर माँग-माँगकर रोटी खा रहे थे। जो दिल्ली (उमराव) राजवंश नान-पुलाव खाते थे, उस समय रोटी को तरस रहे थे।
गंगा दरिया तथा यमुना दरिया की दूसरी ओर लोग भोजन के लिए चले गए। रोटियों के लिए अपने बच्चे भी बेच दिए। और क्या बताऊँ? बहुत त्रास भोगी। जो बासमती चावल पकाकर मजे से खाते थे, उनको पवाड़ घास भी खाने को नहीं मिला क्योंकि व्यक्तियों ने वह भी खा लिया। पवाड़ घास को गधे भी नहीं खाते। आदमियों ने तोड़-तोड़कर खाया। इसके अतिरिक्त जांड़ी के पेड़ के फल सांगर (सिंगरे), कैर झाड़ से टींट (टींड) और कांटेदार भांखड़ी कूटकर खाई। वृक्ष के पत्ते (झरोड़) खींच-खींच तोड़कर खा गए। अन्य घास जैसे कुंदिरा (कुंदरा) झोझरू झाड़ को खा गए। इससे आगे और क्या बताऊँ? उस दुर्भिक्ष में काँटेदार झाड़ियों की बाड़ जो खेत की रक्षा के लिए लगाई हुई थी। जो बोदी (कमजोर पुरानी गली हुई थी) बाड़ भी कूट-कूटकर खानी पड़ी। ऐसी दुर्गति आदमियों की हुई थी।
हाहाकार मचा। परमात्मा ने पुकार (प्रार्थना) सुनी। इन्द्र को आदेश दिया बारिश करने का। बारिश हुई, बादल गर्ज-गर्जकर बरसने लगे। तालाब-खेत पानी से (सूभर भर गए) पूर्ण रूप से भर गए। अच्छी फसल हुई। दुर्भिक्ष का संकट टल गया। दुर्भिक्ष में सासू-साली, माता-पिता, पुत्र सब परिवार भूखे मरते भोजन की तलाश में पागलों की तरह इधर-उधर भाग गए। एक-दूसरे से बिछुड़ गए। जगत मंे ऐसी भयंकर स्थिति हुई थी। अब दुनिया उन दुर्दिनों को भूल गई। बकवाद करने लगे। कत्था तथा चूना लगाकर पान चबाने लगे यानि फंड करने लगे हैं। परमात्मा को याद नहीं करते।
उस दुर्भिक्ष में परमात्मा ने अपने भक्तों की ऐसे रक्षा की थी जैसे महाभारत के युद्ध में पाँचों पाण्डवों की रक्षा की थी। भक्तों को उस अकाल में भी भोजन का अभाव नहीं रहा था।
वाणी नं. 228-317 में श्री रामचन्द्र पुत्र राजा दशरथ की महिमा का वर्णन है तथा राम व रावण के युद्ध का वर्णन है। कागभुसंड ने बालक रामचन्द्र की परीक्षा ली थी। उस समय पूर्णब्रह्म परमात्मा ने बालक रामचन्द्र का रूप बनाकर उसकी महिमा बनाई थी। फिर जीवन भर उसकी पूर्व जन्मों की भक्ति के कारण रक्षा की थी।
नारद के अभिमान को भंग किया था। उसका भी वर्णन है। इसका वर्णन पहले कर दिया है।
रावण के अभिमान के कारण उसका कुल नाश हुआ। सत्य साधना न करके तमगुण शंकर की भक्ति करके (रिद्धि) धन-दौलत तथा (सिद्धि) चमत्कारी शक्ति प्राप्त करके जीवन नष्ट कर दिया।
वाणी नं. 239:-
गरीब, बैरागर की खानिकूं, जो कोई लेवै चाहि। बिना धनीकी बंदगी, नगर लगौ तिस भाहि।।239।।
सरलार्थ:– यदि कोई (बरागर) हीरे की खान की इच्छा रखता है। भक्ति पूर्ण परमात्मा की नहीं करता है। उस नगर को (भाहि) आग लगे। (239)
जो माँस खाते हैं। शराब पीते हैं। वे तो मनुष्य दिखाई देते हैं। वे तो पशु हैं। पर्वत पर रहने वाले भीलों जैसे दुष्ट हैं।
वाणी नं. 244-245 में बताया है कि रावण एक समय में सौ (100) झोटों (भैंसों = नर भैंस) का माँस खाता था। उसके घर पर नौजवान स्त्री मंदोद्री थी। फिर भी सीता की इच्छा रखता था जो उसके विनाश का कारण बना।
रावण का भाई कुंभकरण, पुत्र मेघनाद आदि-आदि अनेकों झोटों का माँस खाते थे।
रावण ने तेतीस करोड़ देवताओं को अपनी कैद में बाँधकर डाल रखा था।
वाणी नं. 246-256 तक रावण राजा की सेना का वर्णन है। वाणी नं. 25 में रावण के अंगरक्षकों की सँख्या बताई है कि सौ करोड़ (एक अरब) सेना तो रावण की गद्दी तथा घर के चारों ओर रखवाली करती थी।
पारख के अंग की वाणी नं. 258-259:-
गरीब, जोजन चार अकाश में, जहां रावण की सेज। तहां राणी नौ जोबनी, हरदम रहैं उमेज।।258।।
गरीब, एक सवामन कंद्रप, रज बीरज ढलकंत। नौ जोबनि से जब, रावण भोग करंत।।259।।
सरलार्थ:– लंका के राजा रावण के महल की सबसे ऊपर की मंजिल चार योजन (एक योजन बारह किलोमीटर का होता है) ऊँची थी। उसमें रावण नौजवान स्त्री के साथ संभोग करता था। संभोग (sex) करते समय दोनों (स्त्री-पुरूष) के वीर्यपात होने की मात्रा सवा मन (एक मन = चालीस किलोग्राम) होती थी यानि पचास किलोग्राम (आधा क्विंटल) होती थी।
वाणी नं. 260-317 तक राम तथा रावण के बीच हुए युद्ध का वर्णन है। हनुमान जी जैसे महाबलियों ने क्या-क्या उपकार व उपद्रव करके युद्ध जीता। लक्ष्मण की जीवन रक्षा सरजीवन जड़ी (औषधि का पौधा) लाकर की। यह रामायण का अंश है। यह अमृत वाणी संत गरीबदास जी के श्री मुख से बोली गई है। इसलिए इसके पढ़ने से आत्मा का पाप धुलता है। ज्ञान विशेष नहीं है।
पारख के अंग की वाणी नं. 318-329:-
गरीब, एक लाख असी असलि, और सकल जिनांति। महंमद का कलमा सरू, तबक चैदहूं दांति।।318।।
गरीब,कलम सकल बनराय की, जै कोई लिखवा होय। अलह बैत बानी अलख, अंत न पावै कोय।।319।।
गरीब, पौहमीकी पटी करै, ऊपर लिखै हरफ। सकल समुद्र की मसी करै, लख्या न जाय अलफ।।320।।
गरीब, अली अलह में भेद क्या, एकै नूर जहूर। महंमदकी तो मदति परि, हो रहे चकनाचूर।।321।।
गरीब, हस्ती घोड़ा मरद क्या, बली बजर क्यूं न होय। अरस कुरस बिचि ना बचै, अली तेग तत लोय।।322।।
गरीब, सतरि कदम कटैं कटक, जै अली फिरावै तेग। खड़ी करै असमानकूं, तौ सप्त सुरग पर बेग।।323।।
गरीब, अली अलहका शेर है, सीना स्वाफ शरीर। कष्ण अली एकै कली, न्यारी कला कबीर।। ृ 324।।
गरीब, अलह वक्ष अलीपान है, झरिझरि परै अनंत। क ृ ष्ण कली दर कली हैं, अगम कबीरा पंथ।।325।।
गरीब, अली अलीलौं हो गये, महंमद पदम पचाव। कबीर एक का एक है, दूजा नहीं मिलाव।।326।।
गरीब, जबराइल जुबांनपरि, महकाईल मुकुट। असराफील कबलि दरै, अजाजील औघट।।327।।
गरीब, च्यारि मुवक्कल रब्ब दे, हैं घट घट अस्थान। जा परि रबदा तख्त है, जहाँ आप अलह रहमान।।328।।
गरीब, नबी नाक महंमद मुख, मन मक्का महबूब। चिसम इसम दरगाह दिल, देखि खूब खुदि खूब।।329।।
सरलार्थ:- वाणियों में मुसलमान धर्म का आंशिक वर्णन है।
अली नाम का मुसलमान पूर्व जन्म की भक्ति के कारण सिद्धि शक्ति युक्त था। उसने हजरत मुहम्मद जी की विशेष सहायता की थी। अलि की शक्ति का वर्णन किया है कि अलि (अलह) परमात्मा का शेर (सिंह) था। जब वह (तेग) तलवार से वार करता था तो (सत्तर कदम कटें कटक) सत्तर कदम तक दुश्मन की सेना कट जाती थी। तेग (तलवार) को आसमान की ओर खड़ी करता था तो सात आसमान तक जाती थी।
अली भी श्री कृष्ण की श्रेणी का शक्तिशाली देवता था। ऐसे-ऐसे अलि तो असँख्यों हो चुके हैं। कृष्ण तीन करोड़ हो चुके हैं। कबीर परमेश्वर इन सबसे भिन्न है। वह समर्थ है। सत्य भक्ति सत्य पुरूष कबीर की किए बिना यह संसार में बनी महिमा व्यर्थ है। अली जैसे अलीलों हो चुके हैं। मुहम्मद जैसे पचास पदम हो चुके हैं। कबीर परमेश्वर एक का एक है।
पारख के अंग की वाणी नं. 330-351:-
गरीब, चिसम इसमसैं जोरि करि, खैंचैं दम दुरबीन। कूरंभ नाद उदगार गति, परसै देवा तीन।।330।।
गरीब, तिहूं देवा दिल में बसें, ब्रह्मा विष्णु महेश। प्रथम इनकी बंदना, सुन सतगुरु उपदेश।।331।।
गरीब, सुन सतगुरु उपदेशकूं, कहि समझाऊं तोहि। त्रिकुटी कमल में पैठि कै, उलटी पवन समोय।।332।।
गरीब, उलटी पवन समोयकरि, नाभ कमल में आन। नाभ कमलमें पैठि कै, जहां वहां करौ बयांन।।333।।
गरीब, वायु धनंजय बसि करि, जीतै पान अपान। किरकलक्षुधा मिटाय करि, सहंस कमलमुखध्यान।।334।।
गरीब, सहंस कमल दल जगमगै, झिलमिल रंग अपार। जहां शक्ति माया कला, धरमराय दरबार।।335।।
गरीब, नौदर तो प्रगट हैं, दसवां सुषमण जान। एकादशं अरू द्वादशं का, बिरले ही को ग्यान।।336।।
गरीब, कैसैं पावौं बिधि कहौ, दीजै मोहि बताय। कल कूंची मोसौं कहौ, कौन पंथ को राह।।337।।
गरीब, तिल जेहै उनमान हैं, बटक बीज बिस्तार। त्रिवेणीके घाट चढि, देखौ मुक्ति द्वार।।338।।
गरीब, दो दलका जहां कमल है, जहां वहां औघट घाट। तिल प्रवान खिरकी लगी, सहजे खुलैं कपाट।।339।।
गरीब, दो दलका जहां कमल है, अगम द्वार बैराट। मक्रतार डोरी गहौ, चलि सतगुरुकी बाट।।340।।
गरीब, स्थूल देह का भेद कहा, अब सूक्ष्म कहूँ बिस्तार। या में भी दर द्वादश है, कोई ना पाया पार।।341।।
सरलार्थ:– इन वाणियों में भक्ति मार्ग बताया है। कमलों का वर्णन है। संत गरीबदास जी ने पाठ करने यानि ग्रन्थ को पढ़ते समय पाठी के लिए रह-रहकर प्रत्येक विषय को दोहराया है ताकि याद बनी रहे। (330)
अर्थात् श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शंकर जी प्रत्येक मानव (स्त्राी-पुरूष) के शरीर के बने कमल दलों में निवास करते हैं। इसलिए प्रथम नाम में इनकी साधना करने को दी जाती है जो इनकी स्तुति (बंदना) है। फिर आगे का भक्ति मार्ग सतगुरू जी बताते हैं। वह भी सुनो। (331)
वाणी नं. 332-351 में कमलों का वर्णन है जो पहले कई बार बता दिया है। आगे ब्रह्म
बेदी तथा ब्रह्म कला अंगों में विस्तार से किया गया है, वहाँ पढ़ें।
वाणी नं. 349 का सरलार्थ:– इस वाणी में स्पष्ट किया है कि कुछ साधक व संत सुरति कमल को अंतिम मंजिल मानते हैं। यह तो काल का (बंधान) बंधन यानि जाल है। इससे आगे निरति कमल है जो मोक्ष का मूल है। मुख्य कारण है। परंतु सतलोक वाला मोक्ष तो निरति कमल से भी आगे है। उसको स्थूल शरीर त्यागकर ऊपर जाकर ही देख पाओगे। सत्य साधना करते रहो। (349)
पारख के अंग की वाणी नं. 352-369:-
गरीब, कंगरै कंगरै कलश हैं, कलश कलश लखि सूर। सूर सूर लखि चंद हैं, अवादांन भरपूर।।352।।
गरीब, कंगरै कंगरै केवड़ा, लख लख फूल फलंत। लख लख मोती मुक्ति फल, बूझैं बिरले संत।।353।।
गरीब, नहीं कंगूरे हेमके, नहीं ये सूरज चंद। पारस कंनी पहार हैं, अबिगत परमानंद।।354।।
गरीब, जगर मगर जोती करैं, तहां राय बेलि चंबेल। कमल केतकी खिलि रहे, भंवर गुंजना खेल।।355।।
गरीब, अबिगत नगर निधान पुर, बंगले लाल किवार। संख मुनि सिजदे करैं, शिब ब्रह्मा सिकदार।।356।।
गरीब, बिन मुख सारंग राग सुनि, बिनहीं तंती तार। बिन सुर अलगोजे बजैं, नगर नाच धूमार।।357।।
गरीब, संख असंखौं जोजनं, चैपड़ि के बैजार। कसक नहीं कसनी नहीं, गली गली सिकदार।।358।।
गरीब, तरक नहीं तोरा नहीं, नहीं कसीस कबाब। अमृत प्याले मध पीवै, भाठी चवै शराब।।359।।
गरीब, मतवाले मस्तानपुर, गली गली गुलजार। संख शराबी फिरत हैं, चलौ तास बैजार।।360।।
गरीब, संख संख पदमनी नचैं, गावैं शब्द सुभांन। चंद्र बदन सूरजमुखी, नहीं वहां मान गुमान।।361।।
गरीब, संख हिंडोले नूर नघ, झूलैं संत हिजूर। तखत धनी के पास करि, ऐसा मुलक जहूर।।362।।
गरीब, नदी नाव नाले बगैं, छुटैं फुहारे संुनि। भरे हौद सरबर सदा, नहीं पाप नहीं पुंनि।।363।।
गरीब, नहीं कोई भिक्षुक दान दे, नहीं हार व्यौहार। नहीं कोई जामैं मरै, ऐसा देश हमार।।364।।
गरीब, बाजैं घंटा ताल घन, मंजीरे डफ झांझ। मुरली मधुर सुहावनी, निश बासर अरु सांझ।।365।।
गरीब, दरवन दमामें बाजहीं, सहनाई अरु भेरि। संख तूर तुतकार हैं, हरदम सुनिये टेर।।366।।
गरीब, बीन बिहंगम झमकहीं, तनक तंबूरे तीर। राग खंड नहीं होत हैं, बंध्या रहत समीर।।367।।
गरीब ताल ख्याल सुर एक गति, राग छतीसौं बैंन। सुनै तो सनमुख शीश दे, बिना राग सब फैंन।।368।।
गरीब, संख किरनि जहां झिलकहीं, संख पदम प्रकाश। संख कला कलधूत हैं, जहां हमारा बास।।369।।
सरलार्थ:– इन वाणियों में सत्यलोक का वर्णन है। कहा है कि सत्यलोक में सब प्रकार का नृत्य होता है। सब प्रकार के राग होते हैं। सतलोक का संगीत मनभावना है। वहाँ पर अनेकों सुंदर स्त्रियाँ नृत्य करती हैं। वहाँ कोई दुराचार नहीं करता।
सतलोक में कोई निर्धन नहीं है। न कोई (भिक्षू) भीख माँगने वाला है, न कोई दान देने वाला। वहाँ न कोई संसार की तरह व्यवहार करने वाला है। वहाँ पर परमात्मा के भण्डार से सबको खाने को मिलता है। वहाँ कोई जन्मता-मरता नहीं। हमारा सतलोक ऐसा स्वच्छ देश है। (364)
वाणी नं. 370-375 में बताया है कि जैसे श्री रामचन्द्र जी अपनी भक्ति की शक्ति से अयोध्या नगरी के सब व्यक्तियों को स्वर्ग ले गए जो सँख्या में दस लाख थे।
राजा जनक जी नरक में पड़े बारह करोड़ जीवों को स्वर्ग ले गए।
इनमें स्पष्ट किया है कि काल के लोक में दुःख-सुख, कहर-मेहर सब कर्मों के अनुसार चलता है। जन्म-मृत्यु भी सदा रहती है। स्वर्ग-नरक का चक्र भी सदा रहता है। परंतु कबीर परमेश्वर की भक्ति से जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। राजा जनक वाला जीव स्वर्ग समय भोगकर पुण्य समाप्त करके श्री नानक रूप में जन्मा। परमात्मा कबीर जी ने उसका जन्म-मरण समाप्त किया। श्री दादू दास जी का जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त किया।
श्रीराम जी अयोध्या को स्वर्ग ले गए। स्वयं श्री कृष्ण जी रूप पुर्नजन्म में आए। राजा जनक बारह करोड़ को स्वर्ग ले गए। स्वयं श्री नानक जी के रूप में जन्म लिया। इसलिए परमात्मा कबीर जी की भक्ति से परमशान्ति यानि जन्म-मरण से सदा के लिए मुक्ति मिलती है तथा परमधाम यानि सत्यलोक मिलता है जो सुख सागर है।