Muktibodh 376-380

पारख का अंग (376-380)

परमात्मा कबीर जी का कलयुग में प्रकट होने का प्रकरण

पारख के अंग की वाणी नं. 376-380:-

गरीब, चैरासी बंधन कटे, कीनी कलप कबीर। भवर चतुरदश लोक सब, टूटे जम जंजीर।।376।।
गरीब, अनंत कोटि ब्रह्मांड में, बंदी छोड कहाय। सो तौ एक कबीर हैं, जननी जन्या न माय।।377।।
गरीब, शब्द स्वरूप साहिब धनी, शब्द सिंध सब मांहि। बाहर भीतर रमि रह्या, जहाँ तहां सब ठांहि।।378।।
गरीब, जल थल पथ्वी गगन में, बाहर भीतर एक। पूरणब्रह्म कबीर हैं, अबिगत पुरूष अलेख।।379।।
गरीब, सेवक होय करि ऊतरे, इस पथ्वी के मांहि। जीव उधारन जगतगुरू, बार बार बलि जांहि।।380।।

सरलार्थ:– वाणियों में परमात्मा कबीर जी के कलयुग में प्राकाट्य का प्यारा वर्णन है जो इस प्रकार हैः-

वाणी नं. 376-380 में परमात्मा कबीर जी की महिमा का वर्णन है। कहा है कि कबीर परमेश्वर बंदी छोड़ हैं। अनंत करोड़ ब्रह्माण्डों में बन्दी छोड़ के नाम से प्रसिद्ध हैं। बन्दी छोड़ का अर्थ है कैदी को कारागार से छुड़ाने वाला। हम सब जीव काल ज्योति निरंजन की कारागार में बंदी (कैदी) हैं। इस बंदीगृह से केवल कबीर परमात्मा की छुड़ा सकते हैं। इसलिए सब ब्रह्माण्डों में परमात्मा कबीर जी एकमात्र बन्दी छोड़ हैं। केवल कबीर परमेश्वर जी ही एकमात्र हैं जिनका जन्म माता के गर्भ से नहीं हुआ। (376)

जो परमात्मा कबीर जी की शरण में आ जाते हैं, कबीर परमेश्वर जी की कृपा से चैरासी लाख योनियों में जाने वाले बंधन कट जाते हैं। (कर्मों के कारण बंधन होता है। वे पाप कर्म परमात्मा कबीर जी की कृपा से नष्ट हो जाते हैं। सतनाम के जाप से पाप नाश होते हैं।) (377)

परमात्मा कबीर जी (शब्द स्वरूपी) अविनाशी रूप हैं। उनकी (शब्द सिंधु) वचन शक्ति समुद्र की तरह अथाह है। जीव एक तुम्बे की तरह है जो समुद्र में पड़ा है। उसके अंदर भी जल बाहर भी जल होता है। ऐसे परमात्मा कबीर जी की शक्ति के अंदर सब ब्रह्माण्डों के जीव हैं। परमात्मा इस प्रकार सर्वव्यापक कहा जाता है। कबीर जी पूर्णब्रह्म हैं। (अविगत पुरूष अलेख) दिव्य अवर्णननीय परमेश्वर है। (378-379)

परमात्मा कबीर जी वेदों में बताए उनकी महिमा के अनुरूप लीला करते हैं। ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 82 मंत्र 1.2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 54 मंत्र 3, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मंत्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16.20 आदि-आदि अनेकों मंत्रों में कहा है कि परमात्मा (कविर्देव) कबीर परमेश्वर है जो आकाश में सबसे ऊपर वाले स्थान पर बैठा है। वहाँ से गति करके आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है। उनको उपदेश देता है। तत्त्वज्ञान का प्रचार अपनी (कविर्गिर्भिः) कबीर वाणी द्वारा (काव्येन) कवित्व से यानि कवियों की तरह साखी, शब्द, चैपाईयों द्वारा बोल-बोलकर करता है। जिस कारण से (कविनाम पदवी) कवियों में से प्रसिद्ध कवि की उपाधि प्राप्त करता है। जैसे परमात्मा कबीर जी को ‘‘कवि’’ भी कहा जाता है। परमात्मा कबीर जी पृथ्वी पर कवियों की तरह आचरण करता हुआ विचरण करता है। परमात्मा कबीर जी अपनी वाणी बोलकर भक्ति करने की प्रेरणा करता है। भक्ति के गुप्त नाम का आविष्कार करता है। (380)

वेदों में कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर का प्रमाण

(पवित्र वेदों में प्रवेश से पहले)

प्रभु जानकारी के लिए पवित्र चारों वेद प्रमाणित शास्त्रा हैं। पवित्र वेदों की रचना उस समय हुई थी जब कोई अन्य धर्म नहीं था। इसलिए पवित्र वेदवाणी किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है, केवल आत्म कल्याण के लिए है। इनको जानने के लिए निम्न व्याख्या बहुत ध्यान तथा विवेक के साथ पढ़नी तथा विचारनी होगी।

प्रभु की विस्तृत तथा सत्य महिमा वेद बताते हैं। (अन्य शास्त्र ‘‘श्री गीता जी व चारों वेदों तथा पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त महान संतों तथा स्वयं कबीर साहेब(कविर्देव) जी की अपनी पूर्ण परमात्मा की अमृत वाणी के अतिरिक्त‘‘ अन्य किसी ऋषि साधक की अपनी उपलब्धि है। जैसे छः शास्त्रा ग्यारह उपनिषद् तथा सत्यार्थ प्रकाश आदि। यदि ये वेदों की कसौटी में खरे नहीं उतरते हैं तो यह सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है।)

पवित्र वेद तथा गीता जी स्वयं काल प्रभु (ब्रह्म) दत्त हैं। जिन में भक्ति विधि तथा उपलब्धि दोनों सही तौर पर वर्णित है। इनके अतिरिक्त जो पूजा विधि तथा अनुभव हैं वह अधूरा समझें। यदि इन्हीं के अनुसार कोई साधक अनुभव बताए तो सत्य जानें। क्योंकि कोई भी प्राणी प्रभु से अधिक नहीं जान सकता।

वेदों के ज्ञान से पूर्वोक्त महात्माओं का विवरण सही मिलता है। इससे सिद्ध हुआ कि वे सर्व महात्मा पूर्ण थे। पूर्ण परमात्मा का साक्षात्कार हुआ है तथा बताया है वह परमात्मा कबीर साहेब(कविर् देव) है।

वही ज्ञान चारों पवित्र वेद तथा पवित्र गीता जी भी बताते हैं।

कलियुगी ऋषियों ने वेदों का टीका (भाषा भाष्य) ऐसे कर दिया जैसे कहीं दूध की महिमा कही गई हो और जिसने कभी जीवन में दूध देखा ही न हो और वह अनुवाद कर रहा हो, वह ऐसे करता है:-

पोष्टिकाहार असि। पेय पदार्थ असि। श्वेदसि। अमृत उपमा सर्वा मनुषानाम पेय्याम् सः दूग्धः असिः।

(पौष्टिकाहार असि)=कोई शरीर पुष्ट कर ने वाला आहार है (पेय पदार्थ) पीने का तरल पदार्थ (असि) है। (श्वेत्) सफेद (असि) है। (अमृत उपमा) अमृत सदृश है (सर्व) सब (मनुषानाम्) मनुष्यों के (पेय्याम्) पीने योग्य (सः) वह (दूग्धः) पौष्टिक तरल (असि) है। भावार्थ किया:- कोई सफेद पीने का तरल पदार्थ है जो अमृत समान है, बहुत पौष्टिक है, सब मनुष्यों के पीने योग्य है, वह स्वयं तरल है। फिर कोई पूछे कि वह तरल पदार्थ कहाँ है? उत्तर मिले वह तो निराकार है। प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ पर दूग्धः को तरल पदार्थ लिख दिया जाए तो उस वस्तु ‘‘दूध‘‘ को कैसे पाया व जाना जाए जिसकी उपमा ऊपर की है? यहाँ पर (दूग्धः) को दूध लिखना था जिससे पता चले कि वह पौष्टिक आहार दूध है। फिर व्यक्ति दूध नाम से उसे प्राप्त कर सकता है।

विचार:– यदि कोई कहे दुग्धः को दूध कैसे लिख दिया? यह तो वाद-विवाद का प्रत्यक्ष प्रमाण ही हो सकता है। जैसे दुग्ध का दूध अर्थ गलत नहीं है। भाषा भिन्न होने से हिन्दी में दूध तथा क्षेत्रिये भाषा में दूधू लिखना भी संस्कृत भाषा में लिखे दुग्ध का ही बोध है। जैसे पलवल शहर के आसपास के ग्रामीण परवर कहते हैं। यदि कोई कहे कि परवर को पलवल कैसे सिद्ध कर दिया, मैं नहीं मानता। यह तो व्यर्थ का वाद विवाद है। ठीक इसी प्रकार कोई कहे कि कविर्देव को कबीर परमेश्वर कैसे सिद्ध कर दिया यह तो व्यर्थ का वाद-विवाद ही है। जैसे ‘‘यजुर्वेद‘‘ है यह एक धार्मिक पवित्र पुस्तक है जिसमें प्रभु की यज्ञिय स्तूतियों की ऋचाएँ लिखी हैं तथा प्रभु कैसा है? कैसे पाया जाता है? सब विस्तृत वर्णन है।

अब पवित्र यजुर्वेद की महिमा कहें कि प्रभु की यज्ञीय स्तूतियों की ऋचाओं का भण्डार है। बहुत अच्छी विधि वर्णित है। एक अनमोल जानकारी है और यह लिखें नहीं कि वह ‘‘यजुर्वेद‘‘ है अपितु यजुर्वेद का अर्थ लिख दें कि यज्ञीय स्तूतियों का ज्ञान है। तो उस वस्तु (पवित्र पुस्तक) को कैसे पाया जा सके? उसके लिए लिखना होगा कि वह पवित्र पुस्तक ‘‘यजुर्वेद‘‘ है जिसमें यज्ञीय ऋचाएँ हैं।

अब यजुर्वेद की सन्धिच्छेद करके लिखें। यजुर्$वेद, भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। यजुः$वेद भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। जिसमें यज्ञीय स्तूति की ऋचाएँ हैं। उस धार्मिक पुस्तक को यजुर्वेद कहते हैं। ठीक इसी प्रकार चारों पवित्र वेदों में लिखा है कि वह कविर्देव(कबीर परमेश्वर) है। जो सर्व शक्तिमान, जगत्पिता, सर्व सृष्टि रचनहार, कुल मालिक तथा पाप विनाशक व काल की कारागार से छुटवाने वाला अर्थात् बंदी छोड़ है।

इसको कविर् + देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर का बोध है। कविः+देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर अर्थात् कविर् प्रभु का ही बोध है।

इसलिए कविर्देव उसी कबीर साहेब का ही बोध करवाता है:- सर्व शक्तिमान, अजर-अमर, सर्व ब्रह्माण्डों का रचनहार कुल मालिक है क्योंकि पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त सन्तों ने अपनी-अपनी मातृभाषा में ‘कविर्‘ को ‘कबीर‘ बोला है तथा ‘वेद‘ को ‘बेद‘ बोला है। इसलिए ‘व‘ और ‘ब‘ के अंतर हो जाने पर भी पवित्र शास्त्र वेद का ही बोध है।

विचार:– जैसे कोई अंग्रेजी भाषा में लिखें कि God (Kavir) Kaveer is almighty इसका हिन्दी अनुवाद करके लिखें कविर या कवीर परमेश्वर सर्व शक्तिमान है। अब अंग्रेजी भाषा में तो हलन्त ( ्) की व्यवस्था ही नहीं है। फिर मात्र भाषा में इसी को कबीर कहने तथा लिखने लगे।

यही परमात्मा कविर्देव(कबीर परमेश्वर) तीन युगों में नामान्तर करके आते हैं जिनमें इनके नाम रहते हैं – सतयुग में सत सुकृत, त्रोतायुग में मुनिन्द्र, द्वापरयुग में करुणामय तथा कलयुग में कबीर देव (कविर्देव)। वास्तविक नाम उस पूर्ण ब्रह्म का कविर् देव ही है। जो सृष्टि रचना से पहले भी अनामी लोक में विद्यमान थे। इन्हीं के उपमात्मक नाम सतपुरुष, अकाल मूर्त, पूर्ण ब्रह्म, अलख पुरुष, अगम पुरुष, परम अक्षर ब्रह्म आदि हैं। उसी परमात्मा को चारों पवित्र वेदों में ‘‘कविरमितौजा‘‘, ‘‘कविरघांरि‘‘, ‘‘कविरग्नि‘‘ तथा ‘‘कविर्देव‘‘, कहा है तथा सर्वशक्तिमान, सर्व सृष्टि रचनहार बताया है। पवित्र कुरान शरीफ में सुरत फुर्कानी नं. 25 आयत नं. 19,21,52,58,59 में भी प्रमाण है।

कई एक का विरोध है कि जो शब्द कविर्देव‘ है इसको सन्धिच्छेद करने से कविः+देवः बन जाता है यह कबिर् परमेश्वर या कबीर साहेब कैसे सिद्ध किया? व को ब तथा छोटी इ ()ि ) की मात्रा को बड़ी ई (ी) की मात्रा करना बेसमझी है।

विचार:– एक ग्रामीण लड़के की सरकारी नौकरी लगी। जिसका नाम कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर सरकारी कागजों में तथा करमबिर पुत्र श्री धरमबिर पुत्र परताप गाँव के चैकीदार की डायरी में जन्म के समय का लिखा था। सरकार की तरफ से नौकरी लगने के बाद जाँच पड़ताल कराई जाती है। एक सरकारी कर्मचारी जाँच के लिए आया। उसने पूछा कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर का मकान कौन-सा है, उसकी अमुक विभाग में नौकरी लगी है। गाँव में कर्मवीर को कर्मा तथा उसके पिता जी को धर्मा तथा दादा जी को प्रता आदि उर्फ नामों से जानते थे। व्यक्तियों ने कहा इस नाम का लड़का इस गाँव में नहीं है। काफी पूछताछ के बाद एक लड़का जो कर्मवीर का सहपाठी था, उसने बताया यह कर्मा की नौकरी के बारे में है। तब उस बच्चे ने बताया यही कर्मबीर उर्फ कर्मा तथा धर्मबीर उर्फ धर्मा ही है। फिर उस कर्मचारी को शंका उत्पन्न हुई कि कर्मबीर नहीं कर्मवीर है। उसने कहा चैकीदार की डायरी लाओ, उसमें भी लिखा था – ‘‘करमबिर पुत्र धरमबिर पुत्र परताप‘‘ पूरा ‘‘र‘‘ ‘‘व‘‘ के स्थान पर ‘‘ब‘‘ तथा छोटी ‘‘‘ि‘ की मात्रा लगी थी। तो भी वही बच्चा कर्मवीर ही सिद्ध हुआ, क्योंकि गाँव के नम्बरदारों तथा प्रधानों ने भी गवाही दी कि बेशक मात्रा छोटी बड़ी या ‘‘र‘‘ आधा या पूरा है, लड़का सही इसी गाँव का है। सरकारी कर्मचारी ने कहा नम्बरदार अपने हाथ से लिख दे। नम्बरदार ने लिख दिया मैं करमविर पूतर धरमविर को जानता हूँ जो इस गाम का बासी है और हस्त्ताक्षर कर दिए। बेशक नम्बरदार ने विर में छोटी ई ()ि) की मात्रा का तथा करम में बड़े ‘‘र‘‘ का प्रयोग किया है, परन्तु हस्त्ताक्षर करने वाला गाँव का गणमान्य व्यक्ति है। किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि नाम की स्पेलिंग गलत नहीं होती।

ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का नाम सरकारी दस्त्तावेज(वेदों) में कविर्देव है, परन्तु गाँव(पृथ्वी) पर अपनी-2 मातृ भाषा में कबीर, कबिर, कबीरा, कबीरन् आदि नामों से जाना जाता है। इसी को नम्बरदारों(आँखों देखा विवरण अपनी पवित्र वाणी में ठोक कर गवाही देते हुए आदरणीय पूर्वोक्त सन्तों) ने कविर्देव को हक्का कबीर, सत् कबीर, कबीरा, कबीरन्, खबीरा, खबीरन् आदि लिख कर हस्त्ताक्षर कर रखे हैं।

वर्तमान (सन् 2006)से लगभग 600 वर्ष पूर्व जब परमात्मा कबीर जी (कविर्देव जी) स्वयं प्रकट हुए थे उस समय सर्व सद्ग्रन्थों का वास्तविक ज्ञान लोकोक्तियों (दोहों, चोपाईयों, शब्दों अर्थात् कविताओं) के माध्यम से साधारण भाषा में जन साधारण को बताया था। उस तत्त्व ज्ञान को उस समय के संस्कृत भाषा व हिन्दी भाषा के ज्ञाताओं ने यह कह कर ठुकरा दिया कि कबीर जी तो अशिक्षित है। इस के द्वारा कहा गया ज्ञान व उस में उपयोग की गई भाषा व्याकरण दृष्टिकोण से ठीक नहीं है। जैसे कबीर जी ने कहा है:- कबीर बेद मेरा भेद है, मैं ना बेदों माहीं। जौण बेद से मैं मिलु ये बेद जानते नाहीं।।

भावार्थ:– परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने कहा है कि जो चार वेद है ये मेरे विषय में ही ज्ञान बता रहे हैं परन्तु इन चारों वेदों में वर्णित विधि द्वारा मैं (पूर्ण ब्रह्म) प्राप्त नहीं हो सकता। जिस वेद (स्वसम अर्थात् सूक्ष्म वेद) में मेरी प्राप्ति का ज्ञान है। उस को चारों वेदों के ज्ञाता नहीं जानते। इस वचन को सुनकर। उस समय के आचार्यजन कहते थे कि कबीर जी को भाषा का ज्ञान नहीं है। देखो वेद का बेद कहा है। नहीं का नाहीं कहा है। ऐसे व्यक्ति को शास्त्रों का क्या ज्ञान हो सकता है? इसलिए कबीर जी मिथ्या भाषण करते हैं। इस की बातों पर विश्वास नहीं करना। स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास ग्यारह पृष्ठ 306 पर कबीर जी के विषय में यही कहा है। वर्तमान में मुझ दास (संत रामपाल दास) के विषय में विज्ञापनों में लिखे लेख पर आर्य समाज के आचार्यों ने यही आपत्ति व्यक्त की थी कि रामपाल को हिन्दी भाषा भी सही नहीं लिखनी आती व को ब लिखता है छोटी-बड़ी मात्राओं को गलत लिखता है। कोमा व हलन्त भी नहीं लगाता। इसका ज्ञान कैसे सही
माना जाए।

विचार:– किसी लड़के का विवाह एक सुन्दर सुशील युवती से हो गया। उसने साधारण वस्त्र पहने थे। मेकअप (हार, सिंगार) नहीं कर रखा था। उस के विषय में कोई कहे कि ‘‘यह भी कोई विवाह है। वधु ने मेकअप (हार, सिंगार-आभूषण आदि नहीं पहने) नहीं किया है। विचार करें विवाह का अर्थ है पुरूष को पत्नी प्राप्ति। यदि मेकअप (श्रृंगार) नहीं कर रखा तो वांच्छित वस्तु प्राप्त है। यदि श्रृंगार कर रखा है लड़की ने तो भी बुरा नहीं किया, परन्तु एक श्रृंगार के अभाव से विवाह को ही नकार देना कौन सी बुद्धिमता है। ठीक इसी प्रकार परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ तथा संत रामपाल दास जी महाराज द्वारा दिया तत्त्व ज्ञान है। वास्तविक ज्ञान प्राप्त है। यदि भाषा में श्रृंगार का अभाव अर्थात् मात्राओं व हलन्तों की कमी है तो विद्वान पुरूष कृपया ठीक करके पढ़ें।

इस तरह इस उलझी हुई ज्ञानगुत्थी को सुलझाया जाएगा। इसमें भाषा तथा व्याकरण की भूमिका क्या है?

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपने द्वारा रचे उपनिषद् ‘‘सत्यार्थ प्रकाश‘‘ के सातवें समुलास में (पृष्ठ नं. 217, 212 अजमेर से प्रकाशित तथा पृष्ठ संख्या 173 दीनानगर दयानन्द मठ पंजाब से प्रकाशित) लिखा है, उसका भावार्थ है कि ब्रह्म ने वेद वाणी चार ऋषियों में जीवस्थ रूप से बोले। जैसे लग रहा था कि ऋषि वेद बोल रहे थे, परन्तु ब्रह्म बोल रहा था तथा ऋषियों का मुख प्रयोग कर रहा था। (‘‘जीवस्थ रूप‘‘ का भावार्थ है जैसे ऋषियों के अन्दर कोई और जीव स्थापित होकर बोल रहा हो) बाद में उन ऋषियों को कुछ मालूम नहीं कि क्या बोला, क्या लिखा?

(जैसे कोई प्रेतात्मा किसी के शरीर में प्रवेश करके बोलती है। उस समय लग रहा होता है कि शरीर वाला जीव ही बोल रहा है, परन्तु प्रेत के निकल जाने के बाद उस शरीर वाले जीव को कुछ मालूम नहीं होता, मैंने क्या बोला था)।

इसी प्रकार बाद में ऋषियों ने वेद भाषा को जानने के लिए व्याकरण निघटु आदि की रचना की। जो स्वामी दयानन्द जी के शब्दों में सत्यार्थ प्रकाश तीसरे समुल्लास (पृष्ठ नं80, अजमेर से प्रकाशित तथा पृष्ठ संख्या 64 दीनानगर पंजाब से प्रकाशित) में पवित्र चारों वेद ईश्वर कृत होने से निभ्रात हैं, वेदों का प्रमाण वेद ही हैं। चारों ब्राह्मण, व्याकरण, निघटु आदि ऋषियों कृत होने से त्रुटि युक्त हो सकते हैं। उपरोक्त विचार स्वामी दयानन्द जी के हैं।

विचार करें वेद पढ़ने वाले ऋषियों के अपने विचारों से रचे उपनिषद् एक दूसरे के विपरीत व्याख्या कर रहे हैं। इसलिए वेद ज्ञान को तत्त्वज्ञान से ही समझा जा सकता है। तत्त्वज्ञान (स्वसम वेद) पूर्ण ब्रह्म कविर्देव ने स्वयं आकर बताया है तथा चारों वेदों का ज्ञान ब्रह्म द्वारा बताया गया है और वेदों को बोलने वाला ब्रह्म स्वयं पवित्र यजुर्वेद अध्याय नं 40 मन्त्र नं. 10 में कह रहा है कि उस पूर्ण ब्रह्म को कोई तो (सम्भवात्) जन्म लेकर प्रकट होने वाला अर्थात् आकार में(आहुः) कहता है तथा कोई (असम्भवात्) जन्म न लेने वाला अर्थात् व निराकार(आहुः) कहते हैं। परन्तु इसका वास्तविक ज्ञान तो(धीराणाम्) पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्त्वदर्शी संतजन (विचचक्षिरे) पूर्ण निर्णायक भिन्न भिन्न बताते हैं (शुश्रुम्) उसको ध्यानपूर्वक सुनो। इससे स्वसिद्ध है कि वेद बोलने वाला ब्रह्म भी स्वयं कह रहा है कि उस पूर्ण ब्रह्म के बारे में मैं भी पूर्ण ज्ञान नहीं रखता। उसको तो कोई तत्त्वदर्शी संत ही बता सकता है। इसी प्रकार इसी अध्याय के मन्त्रा नं. 13 में कहा है कि कोई तो (विद्याया) अक्षर ज्ञानी एक भाषा के जानने वाले को ही विद्वान कहते हैं, दूसरे (अविद्याया) निरक्षर को अज्ञानी कहते हैं, यह जानकारी भी (धीराणाम्) तत्त्वदर्शी संतजन ही (विचचक्षिरे) विस्तृत व्याख्या ब्यान करते हैं (तत्) उस तत्त्वज्ञान को उन्हीं से (शुश्रुम्) ध्यानपूर्वक सुनो अर्थात् वही तत्त्वदर्शी संत ही बताएगा कि विद्वान अर्थात् ज्ञानी कौन है तथा अज्ञानी अर्थात् अविद्वान कौन है?

विशेष:– उपरोक्त प्रमाणों को विवेचन करके सद्भावना पूर्वक पुनर्विचार करें तथा व को ब तथा छोटी बड़ी मात्राओं की शुद्धि-अशुद्धि से ही ज्ञानी व अज्ञानी की पहचान नहीं होती, वह तो तत्त्वज्ञान से ही होती है।

(कविर् देव) = कबीर परमेश्वर के विषय में ‘व‘ को ‘ब‘ कैसे सिद्ध किया है? छोटी इ ( ि) की मात्रा बड़ी ई ( ी) की मात्रा कैसे सिद्ध हो सकती है? इस वाद-विवाद में न पड़कर तत्त्वज्ञान को समझना है।

जैसे यजुर्वेद है, यह एक पवित्र पुस्तक है। इसके विषय में कहीं संस्कृत भाषा में विवरण किया हो जहां यजुः या यजुम् आदि शब्द लिखें हो तो भी पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध समझा जाता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का वास्तविक नाम कविर्देव है। इसी को भिन्न-भिन्न भाषा में कबीर साहेब, कबीर परमेश्वर कहने लगे। कई श्रद्धालु शंका व्यक्त करते हैं कि कविर् को कबीर कैसे सिद्ध कर दिया। व्याकरण दृष्टिकोण से कविः का अर्थ सर्वज्ञ होता है। दास की प्रार्थना है कि प्रत्येक शब्द का कोई न कोई अर्थ तो बनता ही है। रही बात व्याकरण की। भाषा प्रथम बनी क्योंकि वेद वाणी प्रभु द्वारा कही है, तथा व्याकरण बाद में ऋषियों द्वारा बनाई है। यह त्रुटियुक्त हो सकती है। वेद के अनुवाद (भाषा-भाष्य) में व्याकरण व्यतय है अर्थात् असंगत तथा विरोध भाव है। क्योंकि वेद वाणी मंत्रों द्वारा पदों में है। जैसे पलवल शहर के आस-पास के व्यक्ति पलवल को परवर बोलते हैं। यदि कोई कहे कि पलवल को कैसे परवर सिद्ध कर दिया। यही कविर् को कबीर कैसे सिद्ध कर दिया कहना मात्र है। जैसे क्षेत्रीय भाषा में पलवल शहर को परवर कहते हैं। इसी प्रकार कविर् को कबीर बोलते हैं, प्रभु वही है। महर्षि दयानन्द जी ने ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ समुल्लास 4 पृष्ठ 100 पर (दयानन्द मठ दीनानगर पंजाब से प्रकाशित पर) ‘‘देवृकामा’’का अर्थ देवर की कामना करने किया है देवृ को पूरा ‘‘ र ’’ लिख कर देवर किया है। कविर् को कविर फिर भाषा भिन्न कबीर लिखने व बोलने में कोई आपत्ति या व्याकरण की त्रुटि नहीं है। पूर्ण परमात्मा कविर्देव है, यह प्रमाण यजुर्वेद अध्याय 29 मंत्र 25 तथा सामवेद संख्या 1400 में भी है जो निम्न है:-

यजुर्वेद के अध्याय नं. 29 के श्लोक नं. 25 (संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य):-

समिद्धोऽअद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः।
आ च वह मित्रामहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः।।25।।

समिद्धः – अद्य – मनुषः – दुरोणे – देवः – देवान् – यज् – असि – जातवेदः – आ – च – वह –
मित्रामहः – चिकित्वान् – त्वम् – दूतः – कविर् – असि – प्रचेताः

अनुवाद:– (अद्य) आज अर्थात् वर्तमान में (दुरोणे) शरीर रूप महल में दुराचार पूर्वक (मनुषः) झूठी पूजा में लीन मननशील व्यक्तियों को (समिद्धः) लगाई हुई आग अर्थात् शास्त्र विधि रहित वर्तमान पूजा जो हानिकारक होती है, उसके स्थान पर (देवान्) देवताओं के (देवः) देवता (जातवेदः) पूर्ण परमात्मा सतपुरूष की वास्तविक (यज्) पूजा (असि) है। (आ) दयालु (मित्रामहः) जीव का वास्तविक साथी पूर्ण परमात्मा ही अपने (चिकित्वान्) स्वस्थ ज्ञान अर्थात यथार्थ भक्ति को (दूतः) संदेशवाहक रूप में (वह) लेकर आने वाला (च) तथा (प्रचेताः) बोध कराने वाला (त्वम्) आप (कविरसि) कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर हैं।

भावार्थ – जिस समय पूर्ण परमात्मा प्रकट होता है उस समय सर्व ऋषि व सन्त जन शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् पूजा द्वारा सर्व भक्त समाज को मार्ग दर्शन कर रहे होते हैं। तब अपने तत्त्वज्ञान अर्थात् स्वस्थ ज्ञान का संदेशवाहक बन कर स्वयं ही कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु ही आता है।

संख्या नं. 1400 सामवेद उतार्चिक अध्याय नं. 12 खण्ड नं. 3 श्लोक नं. 5 (संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य):-

भद्रा वस्त्रा समन्या3वसानो महान् कविर्निवचनानि शंसन्।
आ वच्यस्व चम्वोः पूयमानो विचक्षणो जागृविर्देववीतौ।।5।।

भद्रा – वस्त्रा – समन्या – वसानः – महान् – कविर् – निवचनानि – शंसन् – आवच्यस्व – चम्वोः –
पूयमानः – विचक्षणः – जागृविः – देव – वीतौ

अनुवाद:– (सम् अन्या) अपने शरीर जैसा अन्य (भद्रा वस्त्रा) सुन्दर चोला यानि शरीर (वसानः) धारण करके (महान् कविर्) समर्थ कविर्देव यानि कबीर परमेश्वर (निवचनानि शंसन्) अपने मुख कमल से वाणी बोलकर यथार्थ अध्यात्म ज्ञान बताता है, यथार्थ वर्णन करता है। जिस कारण से (देव) परमेश्वर की (वितौ) भक्ति के लाभ को (जागृविः) जागृत यानि प्रकाशित करता है। (विचक्षणः) कथित विद्वान सत्य साधना के स्थान पर (आ वच्यस्व) अपने वचनों से (पूयमानः) आन-उपासना रूपी मवाद (चम्वोः) आचमन करा रखा होता है यानि गलत ज्ञान बता रखा होता है।

भावार्थ:– जैसे यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र एक में कहा है कि ‘अग्नेः तनुः असि = परमेश्वर सशरीर है। विष्णवे त्वा सोमस्य तनुः असि = उस अमर प्रभु का पालन पोषण करने के लिए अन्य शरीर है जो अतिथि रूप में कुछ दिन संसार में आता है। तत्त्व ज्ञान से अज्ञान निंद्रा में सोए प्रभु प्रेमियों को जगाता है। वही प्रमाण इस मंत्र में है कि कुछ समय के लिए पूर्ण परमात्मा कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु अपना रूप बदलकर सामान्य व्यक्ति जैसा रूप बनाकर पृथ्वी मण्डल पर प्रकट होता है तथा कविर्निवचनानि शंसन् अर्थात् कविर्वाणी बोलता है। जिसके माध्यम से तत्त्वज्ञान को जगाता है तथा उस समय महर्षि कहलाने वाले चतुर प्राणी मिथ्याज्ञान के आधार पर शास्त्रा विधि अनुसार सत्य साधना रूपी अमृत के स्थान पर शास्त्रा विधि रहित पूजा रूपी मवाद को श्रद्धा के साथ आचमन अर्थात् पूजा करा रहे होते हैं। उस समय पूर्ण परमात्मा स्वयं प्रकट होकर तत्त्वज्ञान द्वारा शास्त्रा विधि अनुसार साधना का ज्ञान प्रदान करता है।

पवित्र ऋग्वेद के निम्न मंत्रों में भी पहचान बताई है कि जब वह पूर्ण परमात्मा कुछ समय संसार में लीला करने आता है तो शिशु रूप धारण करता है। उस पूर्ण परमात्मा की परवरिश (अध्न्य धेनवः) कंवारी गायों द्वारा होती है। फिर लीलावत् बड़ा होता है तो अपने पाने व सतलोक जाने अर्थात् पूर्ण मोक्ष मार्ग का तत्त्वज्ञान (कविर्गिभिः) कबीर बाणी द्वारा कविताओं द्वारा बोलता है, जिस कारण से प्रसिद्ध कवि कहलाता है, परन्तु वह स्वयं कविर्देव पूर्ण परमात्मा ही होता है जो तीसरे मुक्ति धाम सतलोक में रहता है।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मंत्र 9 तथा सूक्त 96 मंत्र 17 से 20:-

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मंत्र 9

अभी इमं अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।।9।।
अभी इमम्-अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम् सोमम् इन्द्राय पातवे।

अनुवाद: -(उत) विशेष कर (इमम्) इस (शिशुम्) बालक रूप में प्रकट (सोमम्) पूर्ण परमात्मा अमर प्रभु की (इन्द्राय) सुख सुविधाओं द्वारा अर्थात् खाने-पीने द्वारा जो शरीर वृद्धि को प्राप्त होता है उसे (पातवे) वृद्धि के लिए (अभी) पूर्ण तरह (अध्न्या धेनवः) जो गौवें, सांड द्वारा कभी भी परेशान न की गई हों अर्थात् कंवारी गायों द्वारा (श्रीणन्ति) परवरिश की जाती है। भावार्थ – पूर्ण परमात्मा अमर पुरुष जब लीला करता हुआ बालक रूप धारण करके स्वयं प्रकट होता है उस समय कंवारी गाय अपने आप दूध देती है जिससे उस पूर्ण प्रभु की परवरिश होती है।

देखें फोटोकाॅपी ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मंत्र 9 की जिसका अनुवाद आर्य समाजियों ने किया है:-

विवेचन:– यह फोटो कापी ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मन्त्रा 9 की है इसमें स्पष्ट है कि (सोम) अमर परमात्मा जब शिशु रूप में प्रकट होता है तो उसकी परवरिश की लीला कुंवारी गायों (अभि अध्न्या धेनुवः) द्वारा होती है। यही प्रमाण कबीर सागर के अध्याय ’’ज्ञान सागर’’ में है कि जिस परमेश्वर कबीर जी को नीरू-नीमा अपने घर ले गए। तब शिशु रूपधारी परमात्मा ने न अन्न खाया, न दूध पीया। फिर स्वामी रामानन्द जी के बताने पर एक कुंवारी गाय अर्थात् एक बछिया नीरू लाया, उसने तत्काल दूध दिया। उस कुंवारी गाय के दूध से परमेश्वर की परवरिश की लीला हुई थी। कबीर सागर लगभग 600 (छः सौ) वर्ष पहले का लिखा हुआ है।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मन्त्र 9 के अनुवाद में कुछ गलती की है। जैसे (अभिअध्न्या) का अर्थ अहिंसनीय कर दिया जो गलत है। हरियाणा प्रान्त के जिला रोहतक में गाँव धनाना में लेखक का जन्म हुआ जो वर्तमान में जिला सोनीपत में है। इस क्षेत्र में जिस गाय ने गर्भ धारण न किया हो तो कहते हैं कि यह धनाई नहीं है, यह बिना धनाई है। यह अपभ्रंस शब्द है। एक गाय के लिए ‘‘अध्नि‘‘ शब्द है। बहुवचन के लिए ‘‘अध्न्या‘‘ शब्द है। ‘‘अध्न्या‘‘ का अर्थ है बिना धनाई गौवें तथा अभिध्न्या का अर्थ है पूर्ण रूप से बिना धनायी अर्थात् कुंवारी गायें अर्थात् बछियाँ।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17

शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निमरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्राम् अत्येति रेभन्।।17।।

अनुवाद – पूर्ण परमात्मा (हर्य शिशुम्) मनुष्य के बच्चे के रूप में (जज्ञानम्) जान बूझ कर प्रकट होता है तथा अपने तत्त्वज्ञान को (तम्) उस समय (मृजन्ति) निर्मलता के साथ (शुम्भन्ति) शुभ वाणी उच्चारण करता है। (वह्नि) प्रभु प्राप्ति की लगी विरह अग्नि वाले (मरुतः) वायु की तरह शीतल भक्त (गणेन) समूह के लिए (काव्येना) कविताओं द्वारा कवित्व से (पवित्राम् अत्येति) अत्यधिक निर्मलता के साथ (कविर गीर्भि) कविर वाणी अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (रेभन्) ऊंचे स्वर से सम्बोधन करके बोलता है, (कविर् सन्त् सोमः) वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष ही संत अर्थात् ऋषि रूप में स्वयं कविर्देव ही होता है। परन्तु उस परमात्मा को न पहचान कर कवि कहने लग जाते हैं।

भावार्थ – वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि विलक्षण मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होकर पूर्ण परमात्मा कविर्देव अपने वास्तविक ज्ञानको अपनी कविर्गिभिः अर्थात् कबीर बाणी द्वारा निर्मल ज्ञान अपने हंसात्माओं अर्थात् पुण्यात्मा अनुयाइयों को कवि रूप में कविताओं, लोकोक्तियों के द्वारा सम्बोधन करके अर्थात् उच्चारण करके वर्णन करता है। वह स्वयं सतपुरुष कबीर ही होता है।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 18

ऋषिमना य ऋषिकृत् स्वर्षाः सहस्त्राणीथः पदवीः कवीनाम्।
तृतीयम् धाम महिषः सिषा सन्त् सोमः विराजमानु राजति स्टुप्।।18।।

अनुवाद – वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि (य) जो पूर्ण परमात्मा विलक्षण बच्चे के रूप में आकर (कवीनाम्) प्रसिद्ध कवियों की (पदवीः) उपाधी प्राप्त करके अर्थात् एक संत या ऋषि की भूमिका करता है उस (ऋषिकृत्) संत रूप में प्रकट हुए प्रभु द्वारा रची (सहस्त्राणीथः) हजारों वाणी (ऋषिमना) संत स्वभाव वाले व्यक्तियों अर्थात् भक्तों के लिए (स्वर्षाः) स्वर्ग तुल्य आनन्द दायक होती हैं। (सन्त् सोमः) ऋषि/संत रूप से प्रकट वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष ही होता है, वह पूर्ण प्रभु (तृतीया) तीसरे (धाम) मुक्ति लोक अर्थात् सतलोक की (महिषः) सुदृढ़ पृथ्वी को (सिषा) स्थापित करके (अनु) पश्चात् मानव सदृश संत रूप में (स्टुप्) गुबंद अर्थात् गुम्बज में ऊँचे टिले रूपी सिंहासन पर (विराजमनु राजति) उज्जवल स्थूल आकार में अर्थात् मानव सदृश शरीर में विराजमान है।

भावार्थ – मंत्र 17 में कहा है कि कविर्देव शिशु रूप धारण कर लेता है। लीला करता हुआ बड़ा होता है। कविताओं द्वारा तत्त्वज्ञान वर्णन करने के कारण कवि की पदवी प्राप्त करता है अर्थात् उसे कवि कहने लग जाते हैं, वास्तव में वह पूर्ण परमात्मा कविर् (कबीर प्रभु) ही है। उसके द्वारा रची अमृतवाणी कबीर वाणी (कविर्गीर्भिः अर्थात् कविर्वाणी) कही जाती है, जो भक्तों के लिए स्वर्ग तुल्य सुखदाई होती है। वही परमात्मा तीसरे मुक्ति धाम अर्थात् सतलोक की स्थापना करके एक गुबंद अर्थात् गुम्बज में सिंहासन पर तेजोमय मानव सदृश शरीर में आकार में विराजमान है।

इस मंत्र में तीसरा धाम सतलोक को कहा है। जैसे एक ब्रह्म का लोक जो इक्कीस ब्रह्माण्ड का क्षेत्र है, दूसरा परब्रह्म का लोक जो सात शंख ब्रह्माण्ड का क्षेत्र है, तीसरा परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म का ऋतधाम अर्थात् सतलोक है।

(फोटोकाॅपी ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 96 मन्त्र 19)

विवेचन:– ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 19 का भी आर्य समाज के विद्वानों ने अनुवाद किया है। इसमें भी बहुत सारी गलतियाँ है। पुस्तक विस्तार के कारण केवल अपने मतलब की जानकारी प्राप्त करते हैं।

इस मन्त्र में चैथे धाम का वर्णन है जो आप जी सृष्टि रचना में पढ़ेंगे, उससे पूर्ण जानकारी होगी पढे़ं इसी पुस्तक के पृष्ठ 518 पर।

परमात्मा ने ऊपर के चार लोक अजर-अमर रचे हैं।

  1. अनामी लोक जो सबसे ऊपर है।
  2. अगम लोक
  3. अलख लोक
  4. सत्यलोक।

हम पृथ्वी लोक पर हैं, यहाँ से ऊपर के लोकों की गिनती करेंगे तो 1. सत्यलोक 2. अलख लोक 3. अगम लोक तथा 4. अनामी लोक गिना जाता है। उस चैथे धाम में बैठकर परमात्मा ने सर्व ब्रह्माण्डों व लोकों की रचना की। शेष रचना सत्यलोक में बैठकर की थी।

आर्य समाज के अनुवादकों ने तुरिया परमात्मा अर्थात् चैथे परमात्मा का वर्णन किया है। यह चैथा धाम है। उसमें मूल पाठ मन्त्रा 19 का भावार्थ है कि तत्त्वदर्शी सन्त चैथे धाम तथा चैथे परमात्मा का (विवक्ति) भिन्न-भिन्न वर्णन करता है। पाठक जन कृपया पढे़ं सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 518 पर जिससे आप जी को ज्ञान होगा कि लेखक (संत रामपाल दास) ही वह तत्त्वदर्शी संत है जो तत्त्वज्ञान से परिचित है।

(फोटोकाॅपी ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 96 मन्त्र 20)

विवेचन:– ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 20 का यथार्थ ज्ञान जानते हैंः-

इस मन्त्र का अनुवाद महर्षि दयानन्द के चेलों द्वारा किया गया है, इनका दृष्टिकोण यह रहा है कि परमात्मा निराकार है क्योंकि महर्षि दयानन्द जी ने यह बात दृढ़ की है कि परमात्मा निराकार है। इसलिए अनुवादक ने सीधे मन्त्रा का अनुवाद घुमा-फिराकर किया है। जैसे मूल पाठ में लिखा है:-

मर्य न शभ्रुः तन्वा मृजानः अत्यः न सृत्वा सनये धनानाम्।
वृर्षेव यूथा परि कोशम अर्षन् कनिक्रदत् चम्वोः आविवेश।।

अनुवाद:– (न) जैसे (मर्यः) मनुष्य सुन्दर वस्त्र धारण करता है, ऐसे परमात्मा (शुभ्रः तन्व) सुन्दर शरीर (मृजानः) धारण करके (अत्यः) अत्यन्त गति से चलता हुआ (सनये धनानाम्) भक्ति धन के धनियों अर्थात् पुण्यात्माओं को (सनये) प्राप्ति के लिए आता है। (यूथा वृषेव) जैसे एक समुदाय को उसका सेनापति प्राप्त होता है, ऐसे वह परमात्मा संत व ऋषि रूप में प्रकट होता है तो उसके बहुत सँख्या में अनुयाई बन जाते हैं और परमात्मा उनका गुरू रूप में मुखिया होता है। वह परमात्मा (परि कोशम्) प्रथम ब्रह्माण्ड में (अर्षन्) प्राप्त होकर अर्थात् आकर (कनिक्रदत्) ऊँचे स्वर में सत्यज्ञान उच्चारण करता हुआ (चम्वोः) पृथ्वी खण्ड में (अविवेश) प्रविष्ट होता है।

भावार्थ:– जैसे आगे वेद मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा ऊपर के लोक में रहता है, वहाँ से गति करके पृथ्वी पर आता है, अपने रूप को अर्थात् शरीर के तेज को सरल करके आता है। इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 20 में उसी की पुष्टि की है। कहा है कि परमात्मा ऐसे अन्य शरीर धारण करके पृथ्वी पर आता है जैसे मनुष्य वस्त्र धारण करता है और (धनानाम्) दृढ़ भक्तों (अच्छी पुण्यात्माओं) को प्राप्त होता है, उनको वाणी उच्चारण करके तत्त्वज्ञान सुनाता है।

(फोटोकाॅपी ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2)

ववेचन:– ऊपर ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्रा 1.2 की फोटोकापी हैं, यह अनुवाद महर्षि दयानन्द जी के दिशा-निर्देश से उन्हीं के चेलों ने किया है और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली से प्रकाशित है।

इनमें स्पष्ट है कि:- मन्त्र 1 में कहा है ’’सर्व की उत्पत्ति करने वाला परमात्मा तेजोमय शरीर युक्त है, पापों को नाश करने वाला और सुखों की वर्षा करने वाला अर्थात् सुखों की झड़ी लगाने वाला है, वह ऊपर सत्यलोक में सिंहासन पर बैठा है जो देखने में राजा के समान है।

यही प्रमाण सूक्ष्मवेद में है कि:-

अर्श कुर्श पर सफेद गुमट है, जहाँ परमेश्वर का डेरा।
श्वेत छत्र सिर मुकुट विराजे, देखत न उस चेहरे नूं।।

यही प्रमाण बाईबल ग्रन्थ तथा र्कुआन् शरीफ में है कि परमात्मा ने छः दिन में सृष्टि रची और सातवें दिन ऊपर आकाश में तख्त अर्थात् सिंहासन पर जा विराजा। (बाईबल के उत्पत्ति ग्रन्थ 2/26-30 तथा र्कुआन् शरीफ की सुर्त ’’फुर्कानि 25 आयत 52 से 59 में है।) वह परमात्मा अपने अमर धाम से चलकर पृथ्वी पर शब्द वाणी से ज्ञान सुनाता है।

वह वर्णीय अर्थात् आदरणीय श्रेष्ठ व्यक्तियों को प्राप्त होता है, उनको मिलता है। {जैसे

  1. सन्त धर्मदास जी बांधवगढ(मध्य प्रदेश वाले को मिले)
  2. सन्त मलूक दास जी को मिले,
  3. सन्त दादू दास जी को आमेर (राजस्थान) में मिले
  4. सन्त नानक देव जी को मिले
  5. सन्त गरीब दास जी गाँव छुड़ानी जिला झज्जर हरियाणा वाले को मिले
  6. सन्त घीसा दास जी गाँव खेखड़ा जिला बागपत (उत्तर प्रदेश) वाले को मिले
  7. सन्त जम्भेश्वर जी (बिश्नोई धर्म के प्रवर्तक) को गाँव समराथल राजस्थान

वाले को मिले।}

वह परमात्मा अच्छी आत्माओं को मिलते हैं। जो परमात्मा के दृढ़ भक्त होते हैं, उन पर परमात्मा का विशेष आकर्षण होता है। उदाहरण भी बताया है कि जैसे विद्युत अर्थात् आकाशीय बिजली स्नेह वाले स्थानों को आधार बनाकर गिरती है। जैसे कांशी धातु पर बिजली गिरती है, पहले कांशी धातु के कटोरे, गिलास-थाली, बेले आदि-आदि होते थे। वर्षा के समय तुरन्त उठाकर घर के अन्दर रखा करते थे। वृद्ध कहते थे कि कांशी के बर्तन पर बिजली अमूमन गिरती है, इसी प्रकार परमात्मा अपने प्रिय भक्तों पर आकर्षित होकर मिलते हैं।

मन्त्र नं. 2 में तो यह भी स्पष्ट किया है कि परमात्मा उन अच्छी आत्माओं को उपदेश करने की इच्छा से स्वयं महापुरूषों को मिलते हैं। उपदेश का भावार्थ है कि परमात्मा तत्त्वज्ञान बताकर उनको दीक्षा भी देते हैं। उनके सतगुरू भी स्वयं परमात्मा होते हैं। यह भी स्पष्ट किया है कि परमात्मा अत्यन्त गतिशील पदार्थ अर्थात् बिजली के समान तीव्रगामी होकर हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में आप पहुँचते हैं। संत धर्मदास को परमात्मा ने यही कहा था कि मैं वहाँ पर अवश्य जाता हूँ जहाँ धार्मिक अनुष्ठान होते हैं क्योंकि मेरी अनुस्थिति में काल कुछ भी उपद्रव कर देता है। जिससे साधकों की आस्था परमात्मा से छूट जाती है। मेरे रहते वह ऐसी गड़बड़ नहीं कर सकता। इसीलिए गीता अध्याय 3 श्लोक 15 में कहा है कि वह अविनाशी परमात्मा जिसने ब्रह्म को भी उत्पन्न किया, सदा ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों में उसी को ईष्ट रूप में मानकर आरती स्तूति करनी चाहिए।

इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 2 में यह भी स्पष्ट किया है कि आप (कविर्वेधस्य) कविर्देव है जो सर्व को उपदेश देने की इच्छा से आते हो, आप पवित्र परमात्मा हैं। हमारे पापों को छुड़वाकर अर्थात् नाश करके हे अमर परमात्मा! आप हम को सुख दें और (द्युतम् वसानः निर्निजम् परियसि) हम आप की सन्तान हैं। हमारे प्रति वह वात्सल्य वाला प्रेम भाव उत्पन्न करते हुए उसी (निर्निजम्) सुन्दर रूप को (परियासि) उत्पन्न करें अर्थात् हमारे को अपने बच्चे जानकर जैसे पहले और जब चाहें तब आप अपनी प्यारी आत्माओं को प्रकट होकर मिलते हैं, उसी तरह हमें भी दर्शन दें।

विवेचन:- यह फोटोकापी ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26 की है जो आर्यसमाज के आचार्यों व महर्षि दयानन्द के चेलों द्वारा अनुवादित है जिसमें स्पष्ट है कि यज्ञ करने वाले अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करने वाले यजमानों अर्थात् भक्तों के लिए परमात्मा, सब रास्तों को सुगम करता हुआ अर्थात् जीवन रूपी सफर के मार्ग को दुःखों रहित करके सुगम बनाता हुआ। उनके विघ्नों अर्थात् संकटों का मर्दन करता है अर्थात् संकटों को समाप्त करता है।भक्तों को पवित्र अर्थात् पाप रहित, विकार रहित करता है। जैसा की अगले मन्त्रा 27 में कहा है कि ’’जो परमात्मा द्यूलोक अर्थात् सत्यलोक के तीसरे पृष्ठ पर विराजमान है, वहाँ पर परमात्मा के शरीर का प्रकाश बहुत अधिक है।‘‘ उदाहरण के लिए परमात्मा के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्य तथा इतने ही चन्द्रमाओं के मिले-जुले प्रकाश से भी अधिक है। यदि वह परमात्मा उसी प्रकाश युक्त शरीर से पृथ्वी पर प्रकट हो जाए तो हमारी चर्म दृष्टि उन्हें देख नहीं सकती। जैसे उल्लु पक्षी दिन में सूर्य के प्रकाश के कारण कुछ भी नहीं देख पाता है। यही दशा मनुष्यों की हो जाए। इसलिए वह परमात्मा अपने रूप अर्थात् शरीर के प्रकाश को सरल करता हुआ उस स्थान से जहाँ परमात्मा ऊपर रहता है, वहाँ से गति करके बिजली के समान क्रीड़ा अर्थात् लीला करता हुआ चलकर आता है, श्रेष्ठ पुरूषों को मिलता है। यह भी स्पष्ट है कि आप कविः अर्थात् कविर्देव हैं। हम उन्हें कबीर साहेब कहते हैं।

ववेचन:– यह फोटोकापी ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 के मन्त्र 27 की है। इसमें स्पष्ट है कि ’’परमात्मा द्यूलोक अर्थात् अमर लोक के तीसरे पृष्ठ अर्थात् भाग पर विराजमान है। सत्यलोक अर्थात् शाश्वत् स्थान (गीता अध्याय 18 श्लोक 62) में तीन भाग है। एक भाग में वन-पहाड़-झरने, बाग-बगीचे आदि हैं। यह बाह्य भाग है अर्थात् बाहरी भाग है। (जैसे भारत की राजधानी दिल्ली भी तीन भागों में बँटी है। बाहरी दिल्ली जिसमें गाँव खेत-खलिहान और नहरें हैं, दूसरा बाजार बना है। तीसरा संसद भवन तथा कार्यालय हैं।)

इसके पश्चात् द्यूलोक में बस्तियाँ हैं। सपरिवार मोक्ष प्राप्त हंसात्माएँ रहती हैं। (पृथ्वी पर जैसे भक्त को भक्तात्मा कहते हैं, इसी प्रकार सत्यलोक में हंसात्मा कहलाते हैं।) (3) तीसरे भाग में सर्वोपरि परमात्मा का सिंहासन है। उसके आस-पास केवल नर आत्माएँ रहती हैं, वहाँ स्त्राी-पुरूष का जोड़ा नहीं है। वे यदि अपना परिवार चाहते हैं तो शब्द (वचन) से केवल पुत्र उत्पन्न कर लेते हैं। इस प्रकार शाश्वत् स्थान अर्थात् सत्यलोक तीन भागों में परमात्मा ने बाँट रखा है। वहाँ यानि सत्यलोक में प्रत्येक स्थान पर रहने वालों में वृद्धावस्था नहीं है, वहाँ मृत्यु नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में कहा है कि जो जरा अर्थात् वृद्ध अवस्था तथा मरण अर्थात् मृत्यु से छूटने का प्रयत्न करते हैं, वे तत् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को जानते हैं। सत्यलोक में सत्यपुरूष रहता है, वहाँ पर जरा-मरण नहीं है, बच्चे युवा होकर सदा युवा रहते हैं।

(फोटोकाॅपी ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 54 मन्त्र 3)

ववेचनः– ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 की फोटोकापी में आप देखें, इसका अनुवाद आर्यसमाज के विद्वानों ने किया है। उनके अनुवाद में भी स्पष्ट है कि वह परमात्मा (भूवनोपरि) सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के ऊध्र्व अर्थात् ऊपर (तिष्ठति) विराजमान है, ऊपर बैठा हैः-

इसका यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:-

(अयं) यह (सोमः देव) अमर परमेश्वर (सूर्यः) सूर्य के (न) समान (विश्वानि) सर्व को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (भूवनोपरि) सर्व ब्रह्माण्डों के ऊध्र्व अर्थात् ऊपर (तिष्ठति) बैठा है।

भावार्थ:– जैसे सूर्य ऊपर है और अपना प्रकाश तथा ऊष्णता से सर्व को लाभ दे रहा है। इसी प्रकार यह अमर परमेश्वर जिसका ऊपर के मन्त्रों में वर्णन किया है। सर्व ब्रह्माण्डों के ऊपर बैठकर अपनी निराकार शक्ति से सर्व प्राणियों को लाभ दे रहा है तथा सर्व ब्रह्माण्डों का संचालन कर रहा है।

(फोटोकाॅपी ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 20 मन्त्र 1)

विवेचन:– ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1 का अनुवाद भी आर्यसमाज के विद्वानों ने किया है। इसका अनुवाद ठीक कम गलत अधिक है। इसमें मूल पाठ में लिखा हैः-

’प्र कविर्देव वीतये अव्यः वारेभिः अर्षति साह्नान् विश्वाः अभि स्पृस्धः

सरलार्थ:– (प्र) वेद ज्ञान दाता से जो दूसरा (कविर्देव) कविर्देव कबीर परमेश्वर है, वह विद्वानों अर्थात् जिज्ञासुओं को, (वीतये) ज्ञान धन की तृप्ति के लिए (वारेभिः) श्रेष्ठ से अच्छी आत्माओं को (अर्षति) ज्ञान देता है। वह (अव्यः) अविनाशी है, रक्षक है, (साह्नान्) सहनशील (विश्वाः) तत्त्वज्ञान हीन सर्व दुष्टों को (स्पृधः) अध्यात्म ज्ञान की कृपा स्पर्धा अर्थात् ज्ञान गोष्टी रूपी वाक् युद्ध में (अभि) पूर्ण रूप से तिरस्कृत करता है, उनको फिट्टे मुँह कर देता है।

विशेष:– (क) इस मन्त्र के अनुवाद में आप फोटोकाॅपी में देखेंगे तो पता चलेगा कि कई शब्दों के अर्थ आर्य विद्वानों ने छोड़ रखे हैं जैसे = ’’प्र’’ ’’वारेभिः’’ जिस कारण से वेदों का यथार्थ भाव सामने नहीं आ सका।

(ख) मेरे अनुवाद से स्पष्ट है कि वह परमात्मा अच्छी आत्माओं (दृढ़ भक्तों) को ज्ञान देता है, उसका नाम भी लिखा है:- ’’कविर्देव’’। हम कबीर परमेश्वर कहते हैं।

(प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 95 मन्त्र 2)

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मन्त्र 2 का अनुवाद महर्षि दयानन्द के चेलों ने किया है जो बहुत ठीक किया है।

इसका भावार्थ है कि पूर्वोक्त परमात्मा अर्थात् जिस परमात्मा के विषय में पहले वाले मन्त्रों में ऊपर कहा गया है, वह (सृजानः) अपना अन्य शरीर धारण करके (ऋतस्य पथ्यां) सत्यभक्ति का मार्ग अर्थात् यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान अपनी अमृतमयी (वाक्) वाणी द्वारा मुक्ति मार्ग की प्रेरणा करता है।

वह मन्त्र ऐसा है जैसे (अरितेव नावम्) नाविक नौका में बैठाकर पार कर देता है, ऐसे ही परमात्मा सत्यभक्ति रूपी नौका के द्वारा साधक को संसार रूपी दरिया के पार करता है। वह (देवानाम् देवः) सब देवों का देव अर्थात् सब प्रभुओं का प्रभु परमेश्वर (बर्हिषि प्रवाचे) वाणी रूपी ज्ञान यज्ञ के लिए (गुह्यानि) गुप्त (नामा आविष्कृणोति) नामों का आविष्कार करता है अर्थात् जैसे गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘ऊँ तत् सत्‘‘ में तत् तथा सत् ये गुप्त मन्त्रा हैं जो उसी परमेश्वर ने मुझे (संत रामपाल दास को) बताऐ हैं। उनसे ही पूर्ण मोक्ष सम्भव है।

सूक्ष्म वेद में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-

’’सोहं’’ शब्द हम जग में लाए, सारशब्द हम गुप्त छिपाए।

भावार्थ:– कबीर परमेश्वर ने स्वयं ’’सोहं’’ शब्द भक्ति के लिए बताया है। यह सोहं मन्त्र किसी भी प्राचीन ग्रन्थ (वेद, गीता, र्कुआन, पुराण तथा बाईबल) में नहीं है। फिर सूक्ष्म वेद में कहा है किः-

सोहं ऊपर और है, सत्य सुकृत एक नाम। सब हंसो का जहाँ बास है, बस्ती है बिन थाम।।

भावार्थ:– ‘‘सोहं’’ नाम तो परमात्मा ने प्रकट कर दिया, आविष्कार कर दिया परन्तु सार शब्द को गुप्त रखा था। अब मुझे (लेखक संत रामपाल को) बताया है जो साधकों को दीक्षा के समय बताया जाता है। इसका गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहे ‘‘ऊँ तत् सत्‘‘ से सम्बन्ध है।

(प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 94 मन्त्र 1)

विवेचन:– ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 का अनुवाद भी आर्यसमाज के विद्वानों द्वारा किया गया है।

विवेचन:– पुस्तक विस्तार को ध्यान में रखते हुए उन्हीं के अनुवाद से अपना मत सिद्ध करते हैं। जैसे पूर्व में लिखे वेदमन्त्रों में बताया गया है कि परमात्मा अपने मुख कमल से वाणी उच्चारण करके तत्त्वज्ञान बोलता है, लोकोक्तियों के माध्यम से, कवित्व से दोहों, शब्दों, साखियों, चैपाईयों के द्वारा वाणी बोलने से प्रसिद्ध कवियों में से भी एक कवि की उपाधि प्राप्त करता है। उसका नाम कविर्देव अर्थात् कबीर साहेब है।

इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 में भी यही कहा है कि जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, वह (कवियन् व्रजम् न) कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी पर विचरण करता है।

पारख के अंग की वाणी नं. 380 में कहा है कि:-

गरीब, सेवक होय करि ऊतरे, इस पथ्वी के मांहि। जीव उधारन जगतगुरू, बार बार बलि जांहि।।380।।

परमात्मा कबीर से (सेबक) दास बनकर (ऊतरे) ऊपर आकाश में अपने निवास स्थान सतलोक से गति करके उतरकर नीचे पृथ्वी के ऊपर आए। उद्देश्य बताया है कि जीवों का काल जाल से उद्धार करने के लिए जगत गुरू बनकर आए। मैं (संत गरीबदास जी) अपने सतगुरू कबीर जी पर बार-बार बलिहारी जाऊँ।