Muktibodh - Sant Rampal Ji

कबीर सागर |ज्ञान प्रकाश -2 | पारख का अंग

किस-किसको मिला परमात्मा

कलयुग में परमेश्वर जिन-जिन महान आत्माओं को मिले, उनको तत्त्वज्ञान बताया, उनका मैं संक्षिप्त वर्णन करता हूँः-

सन्त धर्मदास जी से प्रथम बार परमेश्वर कबीर जी का साक्षात्कार

श्री धर्मदास जी बनिया जाति से थे जो बाँधवगढ़ (मध्य प्रदेश) के रहने वाले बहुत धनी व्यक्ति थे। उनको भक्ति की प्रेरणा बचपन से ही थी। जिस कारण से एक रुपदास नाम के वैष्णव सन्त को गुरु धारण कर रखा था। हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण सन्त रुपदास जी श्री धर्मदास जी को राम कृष्ण, विष्णु तथा शंकर जी की भक्ति करने को कहते थे। एकादशी का व्रत, तीर्थों पर भ्रमण करना, श्राद्ध कर्म, पिण्डोदक क्रिया सब करने की राय दे रखी थी। गुरु रुपदास जी द्वारा बताई सर्व साधना श्री धर्मदास जी पूरी आस्था के साथ किया करते थे। गुरु रुपदास जी की आज्ञा लेकर धर्मदास जी मथुरा नगरी में तीर्थ-दर्शन तथा स्नान करने तथा गिरीराज (गोवर्धन) पर्वत की परिक्रमा करने के लिए गए थे। परम अक्षर ब्रह्म स्वयं मथुरा में प्रकट हुए। एक जिन्दा महात्मा की वेशभूषा में धर्मदास जी को मिले। श्री धर्मदास जी ने उस तीर्थ तालाब में स्नान किया जिसमें श्री कृष्ण जी बाल्यकाल में स्नान किया करते थे। फिर उसी जल से एक लोटा भरकर लाये। भगवान श्री कृष्ण जी की पीतल की मूर्ति (सालिग्राम) के चरणों पर डालकर दूसरे बर्तन में डालकर चरणामृत बनाकर पीया। फिर सालिग्राम को स्नान करवाकर अपना कर्मकाण्ड पूरा किया। फिर एक स्थान को लीपकर अर्थात् गारा तथा गाय का गोबर मिलाकर कुछ भूमि पर पलस्तर करके उस पर स्वच्छ कपड़ा बिछाकर श्रीमद्भगवत् गीता का पाठ करने बैठे। यह सर्व क्रिया जब धर्मदास जी कर रहे थे। परमात्मा जिन्दा भेष में थोड़ी दूरी पर बैठे देख रहे थे। धर्मदास जी भी देख रहे थे कि एक मुसलमान सन्त मेरी भक्ति क्रियाओं को बहुत ध्यानपूर्वक देख रहा है, लगता है इसको हम हिन्दुओं की साधना मन भा गई है। इसलिए श्रीमद्भगवत् गीता का पाठ कुछ ऊँचे स्वर में करने लगा तथा हिन्दी का अनुवाद भी पढ़ने लगा। परमेश्वर उठकर धर्मदास जी के निकट आकर बैठ गए। धर्मदास जी को अपना अनुमान सत्य लगा कि वास्तव में इस जिन्दा वेशधारी बाबा को हमारे धर्म का भक्ति मार्ग अच्छा लग रहा है। इसलिए उस दिन गीता के कई अध्याय पढ़े तथा उनका अर्थ भी सुनाया। जब धर्मदास जी अपना दैनिक भक्ति कर्म कर चुका, तब परमात्मा ने कहा कि हे महात्मा जी! आपका शुभ नाम क्या है? कौन जाति से हैं। आप जी कहाँ के निवासी हैं? किस धर्म-पंथ से जुड़े हैं? कृपया बताने का कष्ट करें। मुझे आपका ज्ञान बहुत अच्छा लगा, मुझे भी कुछ भक्ति ज्ञान सुनाईए। आपकी अति कृपा होगी।

धर्मदास जी ने उत्तर दिया:– मेरा नाम धर्मदास है, मैं बांधवगढ़ गाँव का रहने वाला वैश्य कुल से हूँ। मैं वैष्णव पंथ से दीक्षित हूँ, हिन्दू धर्म में जन्मा हूँ। मैंने पूरे निश्चय के साथ तथा अच्छी तरह ज्ञान समझकर वैष्णव पंथ से दीक्षा ली है। मेरे गुरुदेव श्री रुपदास जी हैं। अध्यात्म ज्ञान से मैं परिपूर्ण हूँ। अन्य किसी की बातों में आने वाला मैं नहीं हूँ। राम-कृष्ण जो श्री विष्णु जी के ही अवतार हुए हैं तथा भगवान शंकर की पूजा करता हूँ, एकादशी का व्रत रखता हूँ। तीर्थों में जाता हूँ, वहाँ दान करता हूँ। शालिग्राम की पूजा नित्य करता हूँ। यह पवित्र पुस्तक श्रीमद्भगवत् गीता है, इसका नित्य पाठ करता हूँ। मैं अपने पूर्वजों का श्राद्ध भी करता हूँ जो स्वर्गवासी हो चुके हैं। पिण्डदान भी करता हूँ। मैं कोई जीव हिंसा नहीं करता, माँस, मदिरा, तम्बाकू सेवन नहीं करता।

प्रश्न:- परमेश्वर बीर ने पूछा कि आप जिस पुस्तक को पढ़ रहे थे, इसका नाम क्या है?

उत्तर:- धर्मदास जी ने बताया कि यह श्रीमद्भगवत गीता है। हम शुद्र को निकट भी नहीं आने देते, शुद्ध रहते हैं।

प्रश्न:- (कबीर जी जिन्दा रुप में) आप क्या नाम-जाप करते हो?

उत्तर:- (धर्मदास जी का) हम हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे, ओम् नमः शिवाय, ओम् भगवते वासुदेवाय नमः, राधे-राधे श्याम मिलादे, गायत्री मन्त्र का जाप 108 बार प्रतिदिन करता हूँ। विष्णु सहंस्रनाम का जाप भी करता हूँ।

प्रश्न:- (जिन्दा बाबा का) हे महात्मा धर्मदास! गीता का ज्ञान किसने दिया?

उत्तर: (धर्मदास का) भगवान श्री कृष्ण जी ने, यही श्री विष्णु जी हैं।

प्रश्न: (जिन्दा बाबा रुप में परमात्मा का):- आप जी के पूज्य देव श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु हैं। उनका बताया भक्ति ज्ञान गीता शास्त्र है।

एक किसान को वृद्धावस्था में पुत्र प्राप्त हुआ। किसान ने विचार किया कि जब तक पुत्र कृषि करने योग्य होगा, तब तक मेरी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए उसने कृषि करने का तरीका अपना अनुभव एक बही (रजिस्टर) में लिख दिया। अपने पुत्र से कहा कि बेटा जब आप युवा हो जाओ तो मेरे इस रजिस्टर में लिखे अनुभव को बार-2 पढ़ना। इसके अनुसार फसल बोना। कुछ दिन पश्चात् पिता की मृत्यु हो गई, पुत्र प्रतिदिन अपने पिता के अनुभव का पाठ करने लगा। परन्तु फसल का बीज व बिजाई, सिंचाई उस अनुभव के विपरित करता था। तो क्या वह पुत्र अपने कृषि के कार्य में सफलता प्राप्त करेगा?

उत्तर: (धर्मदास का): इस प्रकार तो पुत्र निर्धन हो जाएगा। उसको तो पिता के लिखे अनुभव के अनुसार प्रत्येक कार्य करना चाहिए। वह तो मूर्ख पुत्र है।

प्रश्न: (बाबा जिन्दा रुप में भगवान जी का) हे धर्मदास जी! गीता शास्त्र आप के परमपिता भगवान कृष्ण उर्फ विष्णु जी का अनुभव तथा आपको आदेश है कि इस गीता शास्त्र में लिखे मेरे अनुभव को पढ़कर इसके अनुसार भक्ति क्रिया करोगे तो मोक्ष प्राप्त करोगे। क्या आप जी गीता में लिखे श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार भक्ति कर रहे हो? क्या गीता में वे मन्त्र जाप करने के लिए लिखा है जो आप जी के गुरुजी ने आप जी को जाप करने के लिए दिए हैं? (हरे राम-हरे राम, राम-राम हरे-हरे, हरे कृष्णा-हरे कृष्णा, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे, ओम नमः शिवाय, ओम भगवते वासुदेवाय नमः, राधे-राधे श्याम मिलादे, गायत्री मन्त्र तथा विष्णु सहंस्रनाम) क्या गीता जी में एकादशी का व्रत करने तथा श्राद्ध कर्म करने, पिण्डोदक क्रिया करने का आदेश है?

उत्तर:- (धर्मदास जी का) नहीं है।

प्रश्न:– (परमेश्वर जी का) फिर आप जी तो उस किसान के पुत्र वाला ही कार्य कर रहे हो जो पिता की आज्ञा की अवहेलना करके मनमानी विधि से गलत बीज गलत समय पर फसल बीजकर मूर्खता का प्रमाण दे रहा है। जिसे आपने मूर्ख कहा है। क्या आप जी उस किसान के मूर्ख पुत्र से कम हैं?

धर्मदास जी बोले: हे जिन्दा! आप मुसलमान फकीर हैं। इसलिए हमारे हिन्दू धर्म की भक्ति क्रिया व मन्त्रों में दोष निकाल रहे हो।

उत्तर: (कबीर जी का जिन्दा रुप में) हे स्वामी धर्मदास जी! मैं कुछ नहीं कह रहा, आपके धर्मग्रन्थ कह रहे हैं कि आपके धर्म के धर्मगुरु आप जी को शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण करवा रहे हैं जो आपकी गीता के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी कहा है कि हे अर्जुन! जो साधक शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण कर रहा है अर्थात् मनमाने मन्त्र जाप कर रहा है, मनमाने श्राद्ध कर्म व पिण्डोदक कर्म व व्रत आदि कर रहा है, उसको न तो कोई सिद्धि प्राप्त हो सकती, न सुख ही प्राप्त होगा और न गति अर्थात् मुक्ति मिलेगी, इसलिए व्यर्थ है। गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि इससे तेरे लिए कत्र्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म करने चाहिए तथा अकत्र्तव्य (जो भक्ति कर्म न करने चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। उन शास्त्रों में बताए भक्ति कर्म को करने से ही लाभ होगा।

धर्मदास जी: हे जिन्दा! तू अपनी जुबान बन्द कर ले, मुझसे और नहीं सुना जाता।

जिन्दा रुप में प्रकट परमेश्वर ने कहा, हे वैष्णव महात्मा धर्मदास जी! सत्य इतनी कड़वी होती है जितना नीम, परन्तु रोगी को कड़वी औषधि न चाहते हुए भी सेवन करनी चाहिए। उसी में उसका हित है। यदि आप नाराज होते हो तो मैं चला। इतना कहकर परमात्मा (जिन्दा रुप धारी) अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास को बहुत आश्चर्य हुआ तथा सोचने लगा कि यह कोई सामान्य सन्त नहीं था। यह पूर्ण विद्वान लगता है। मुसलमान होकर हिन्दू शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है। यह कोई देव हो सकता है। धर्मदास जी अन्दर से मान रहे थे कि मैं गीता शास्त्र के विरुद्ध साधना कर रहा हूँ। परन्तु अभिमानवश स्वीकार नहीं कर रहे थे। जब परमात्मा अन्तध्र्यान हो गए तो पूर्ण रुप से टूट गए कि मेरी भक्ति गीता के विरुद्ध है। मैं भगवान की आज्ञा की अवहेलना कर रहा हूँ। मेरे गुरु श्री रुपदास जी को भी वास्तविक भक्ति विधि का ज्ञान नहीं है। अब तो इस भक्ति को करना, न करना बराबर है, व्यर्थ है। बहुत दुखी मन से इधर-उधर देखने लगा तथा अन्दर से हृदय से पुकार करने लगा कि मैं कैसा नासमझ हूँ। सर्व सत्य देखकर भी एक परमात्मा तुल्य महात्मा को अपनी नासमझी तथा हठ के कारण खो दिया। हे परमात्मा! एक बार वही सन्त फिर से मिले तो मैं अपना हठ छोड़कर नम्र भाव से सर्वज्ञान समझूंगा। दिन में कई बार हृदय से पुकार करके रात्रि में सो गया। सारी रात्रि करवट लेता रहा। सोचता रहा हे परमात्मा! यह क्या हुआ। सर्व साधना शास्त्राविरुद्ध कर रहा हूँ। मेरी आँखें खोल दी उस फरिस्ते ने। मेरी आयु 60 वर्ष हो चुकी है। अब पता नहीं वह देव (जिन्दा रुपी) पुनः मिलेगा कि नहीं।

प्रातः काल वक्त से उठा। पहले खाना बनाने लगा। उस दिन भक्ति की कोई क्रिया नहीं की। पहले दिन जंगल से कुछ लकड़ियाँ तोड़कर रखी थी। उनको चूल्हे में जलाकर भोजन बनाने लगा। एक लकड़ी मोटी थी। वह बीचो-बीच थोथी थी। उसमें अनेकों चीटियाँ थीं। जब वह लकड़ी जलते-जलते छोटी रह गई तब उसका पिछला हिस्सा धर्मदास जी को दिखाई दिया तो देखा उस लकड़ी के अन्तिम भाग में कुछ तरल पानी-सा जल रहा है। चीटियाँ निकलने की कोशिश कर रही थी, वे उस तरल पदार्थ में गिरकर जलकर मर रही थी। कुछ अगले हिस्से में अग्नि से जलकर मर रही थी। धर्मदास जी ने विचार किया। यह लकड़ी बहुत जल चुकी है, इसमें अनेकों चीटियाँ जलकर भस्म हो गई है। उसी समय अग्नि बुझा दी। विचार करने लगा कि इस पापयुक्त भोजन को मैं नहीं खाऊँगा। किसी साधु सन्त को खिलाकर मैं उपवास रखूँगा। इससे मेरे पाप कम हो जाएंगे। यह विचार करके सर्व भोजन एक थाल में रखकर साधु की खोज में चल पड़ा। परमेश्वर कबीर जी ने अन्य वेशभूषा बनाई जो हिन्दू सन्त की होती है। एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी ने साधु को देखा। उनके सामने भोजन का थाल रखकर कहा कि हे महात्मा जी! भोजन खाओ। साधु रुप में परमात्मा ने कहा कि लाओ धर्मदास! भूख लगी है। अपने नाम से सम्बोधन सुनकर धर्मदास को आश्चर्य तो हुआ परंतु अधिक ध्यान नहीं दिया। साधु रुप में विराजमान परमात्मा ने अपने लोटे से कुछ जल हाथ में लिया तथा कुछ वाणी अपने मुख से उच्चारण करके भोजन पर जल छिड़क दिया। सर्वभोजन की चींटियाँ बन गई। चींटियों से थाली काली हो गई। चींटियाँ अपने अण्डों को मुख में लेकर थाली से बाहर निकलने की कोशिश करने लगी। परमात्मा भी उसी जिन्दा महात्मा के रुप में हो गए। तब कहा कि हे धर्मदास वैष्णव संत! आप बता रहे थे कि हम कोई जीव हिंसा नहीं करते, आपसे तो कसाई भी कम हिंसक है। आपने तो करोड़ों जीवों की हिंसा कर दी। धर्मदास जी उसी समय साधु के चरणों में गिर गया तथा पूर्व दिन हुई गलती की क्षमा माँगी तथा प्रार्थना की कि हे प्रभु! मुझ अज्ञानी को क्षमा करो। मैं कहीं का नहीं रहा क्योंकि पहले वाली साधना पूर्ण रुप से शास्त्र विरुद्ध है। उसे करने का कोई लाभ नहीं, यह आप जी ने गीता से ही प्रमाणित कर दिया। शास्त्र अनुकूल साधना किस से मिले, यह आप ही बता सकते हैं। मैं आपसे पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान सुनने का इच्छुक हूँ। कृपया मुझ किंकर पर दया करके मुझे वह ज्ञान सुनाऐं जिससे मेरा मोक्ष हो सके।

व्रत करना गीता अनुसार कैसा है

परमेश्वर (जिन्दा साधु के रुप में) बोले कि हे धर्मदास! आप एकादशी का व्रत करते हो। श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में मना किया है कि हे अर्जुन! यह योग (भक्ति) न तो अधिक खाने वाले का और न ही बिल्कुल न खाने वाले का अर्थात् यह भक्ति न ही व्रत रखने वाले, न अधिक सोने वाले की तथा न अधिक जागने वाले की सफल होती है। इस श्लोक में व्रत रखना पूर्ण रुप से मना है। देख अपनी गीता खोलकर, धर्मदास जी को गीता के श्लोक याद भी थे क्योंकि प्रतिदिन पाठ किया करता था। फिर भी सोचा कि कहीं जिन्दा सन्त नाराज न हो जाए, इसलिए गीता खोलकर अध्याय 6 श्लोक 16 पढ़ा तथा स्वीकारा कि आपने मेरी आँखें खोल दी जिन्दा। आप तो परमात्मा के स्वरुप लगते हो।

श्राद्ध-पिण्डदान गीता अनुसार कैसा है?

आप श्राद्ध व पिण्डदान करते हो। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में स्पष्ट किया है कि भूत पूजने वाले भूतों को प्राप्त होंगे। श्राद्ध करना, पिण्डदान करना यह भूत पूजा है, यह व्यर्थ साधना है।

श्राद्ध-पिण्डदान के प्रति रूची ऋषि का वेदमत

मार्कण्डेय पुराण में ‘‘रौच्य ऋषि के जन्म’’ की कथा आती है। एक रुची ऋषि था। वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदों अनुसार साधना करता था। विवाह नहीं करवाया था। रुची ऋषि के पिता, दादा, परदादा तथा तीसरे दादा सब पित्तर (भूत) योनि में भूखे-प्यासे भटक रहे थे। एक दिन उन चारों ने रुची ऋषि को दर्शन दिए तथा कहा कि बेटा! आपने विवाह क्यों नहीं किया? विवाह करके हमारे श्राद्ध करना। रुची ऋषि ने कहा कि हे पितामहो! वेद में इस श्राद्ध आदि कर्म को अविद्या कहा है, मूर्खों का कार्य कहा है। फिर आप मुझे इस कर्म को करने को क्यों कह रहे हो?

पित्तरों ने कहा कि यह बात सत्य है कि श्राद्ध आदि कर्म को वेदों में अविद्या अर्थात् मूर्खों का कार्य ही कहा है। इससे सिद्ध हुआ कि वेदों में तथा वेदों के ही संक्षिप्त रुप गीता में श्राद्ध-पिण्डोदक आदि भूत पूजा के कर्म को निषेध बताया है, नहीं करना चाहिए। उन मूर्ख ऋषियों ने अपने पुत्रा को भी श्राद्ध करने के लिए विवश किया। उसने विवाह करवाया, उससे रौच्य ऋषि का जन्म हुआ, बेटा भी पाप का भागी बना लिया।

जिसे गायत्री मन्त्र कहते हो, वह यजुर्वेद के अध्याय 36 का मन्त्रा 3 है जिसके आगे ‘‘ओम्‘‘ अक्षर नहीं है। यदि ‘‘ओम्’‘ अक्षर को इस वेद मन्त्रा के साथ जोड़ा जाता है तो परमात्मा का अपमान है क्योंकि ओम् (ऊँ) अक्षर तो ब्रह्म का जाप है। यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्रा 3 में परम अक्षर ब्रह्म की महिमा है। यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति पत्रा तो लिख रहा है प्रधानमन्त्राी को और लिख रहा है सेवा में ‘मुख्यमन्त्राी जी’ तो वह प्रधानमन्त्राी का अपमान कर रहा है। फिर बात रही इस मन्त्रा यजुर्वेद के अध्याय 36 मन्त्रा 3 को बार-बार जाप करने की, यह क्रिया मोक्षदायक नहीं है। मन्त्र का मूल पाठ इस प्रकार है:-

भूर्भवः स्वः तत् सवितु वरेणीयम् भृगो देवस्य धीमहि धीयो योनः प्रयोदयात्।

अनुवाद:– (भूः) स्वयंभू परमात्मा पृथ्वी लोक को (भवः) गोलोक आदि भवनों को वचन से प्रकट करने वाला है (स्वः) स्वर्गलोक आदि सुख धाम हैं। (तत्) वह (सवितुः) उन सर्व का जनक परमात्मा है। (वरेणीयम) सर्व साधकांे को वरण करने योग्य अर्थात् अच्छी आत्माओं के भक्ति योग्य है। (भृगो) तेजोमय अर्थात् प्रकाशमान (देवस्य) परमात्मा का (धीमहि) उच्च विचार रखते हुए अर्थात् बड़ी समझ से (धी यो नः प्रचोदयात) जो बुद्धिमानों के समान विवेचन करता है, वह विवेकशील व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी बनता है।

भावार्थ: परमात्मा स्वयंभू जो भूमि, गोलोक आदि लोक तथा स्वर्ग लोक है उन सर्व का सृजनहार है। उस उज्ज्वल परमेश्वर की भक्ति श्रेष्ठ भक्तों को यह विचार रखते हुए करनी चाहिए कि जो पुरुषोत्तम (सर्व श्रेष्ठ परमात्मा) है, जो सर्व प्रभुओं से श्रेष्ठ है, उसकी भक्ति करें जो सुखधाम अर्थात् सर्वसुख का दाता है।

उपरोक्त मन्त्र का यह हिन्दी अनुवाद व भावार्थ है। इसकी संस्कृत या हिन्दी अनुवाद को पढ़ते रहने से मोक्ष नहीं है क्योंकि यह तो परमात्मा की महिमा का एक अंश है अर्थात् हजारों वेद मन्त्रों में से यजुर्वेद अध्याय 36 का मंत्रा सँख्या 3 केवल एक मन्त्रा है। यदि कोई चारों वेदों को भी पढ़ता रहे तो भी मोक्ष नहीं। मोक्ष होगा वेदों में वर्णित ज्ञान के अनुसार भक्ति क्रिया करने से।

उदाहरण:– विद्युत की महिमा है कि बिजली अंधेरे को उजाले में बदल देती है, बिजली ट्यूबवेल चलाती है जिससे फसल की सिंचाई होती है। बिजली आटा पीसती है, आदि-आदि बहुत से गुण बिजली के लिखे हैं। यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन बिजली के गुणों का पाठ करता रहे तो उसे बिजली का लाभ प्राप्त नहीं होगा। लाभ प्राप्त होगा बिजली का कनेक्शन लेने से। कनेक्शन कैसे प्राप्त हो सकता है? उस विधि को प्राप्त करके फिर बिजली के गुणों का लाभ प्राप्त हो सकता है। केवल बिजली की महिमा को गाने मात्रा से नहीं। इसी प्रकार वेद मंत्रों में अर्थात् श्रीमद्भगवत् गीता (जो चारों वेदों का सार है) में मोक्ष प्राप्ति के लिए जो ज्ञान कहा है, उसके अनुसार आचरण करने से मोक्ष लाभ अर्थात् परमेश्वर प्राप्ति होती है।

प्रश्न:– (धर्मदास जी का) हे जिन्दा! मुझे तो यह भी ज्ञान नहीं है कि गीता में मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान कौन-सा है? मैंनें गीता को पढ़ा है, समझा नहीं। हमारे धर्मगुरुओं ने जो भक्ति बताई, उसे श्रद्धा से करते आ रहे हैं। वर्षों से चला आ रहा भक्ति का शास्त्रा विरुद्ध प्रचलन सर्व भक्तों को सत्य लग रहा है। क्या गीता में लिखी भक्ति विधि पर्याप्त है?

उत्तर (जिन्दा बाबा का):- गीता में केवल ब्रह्म स्तर की भक्तिविधि लिखी है। पूर्ण मोक्ष के लिए परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करनी होगी। गीता में पूर्ण विधि नहीं है, केवल संकेत है। जैसे गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है कि ‘‘सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति के लिए ‘‘ऊँ, तत्, सत्‘‘ इस मन्त्रा का निर्देश है। इसके स्मरण की विधि तीन प्रकार से है। इस मन्त्रा में ऊँ तो क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म का मन्त्रा तो स्पष्ट है परन्तु ‘‘पर ब्रह्म’’ (अक्षर पुरुष) का मन्त्रा ‘‘तत्’’ है जो सांकेतिक है, उपदेशी को तत्त्वदर्शी सन्त बताएगा। ‘‘सत्’’ यह मन्त्रा पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) का है जो सांकेतिक है, इसको भी तत्त्वदर्शी सन्त उपदेशी को बताता है। तत्त्वदर्शी सन्त के पास पूर्ण मोक्ष मार्ग होता है। जो न वेदों में है, न गीता में तथा न पुराणों या अन्य उपनिषदों में है। तत्त्वज्ञान की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए गीता तथा वेद सहयोगी हैं। जो भक्तिविधि वेद-गीता में है, वही तत्त्वज्ञान में भी है। सूक्ष्मवेद अर्थात् तत्त्वज्ञान में वेदों तथा गीता वाली भक्तिविधि तो है ही, इससे भिन्न पूर्ण मोक्ष वाली साधना भी है। उदाहरण के लिए दसवीं कक्षा का पाठ्यक्रम गलत नहीं है, परंतु अधूरा है। ठण्।ण्ए डण्।ण् वाले सलेबस में दसवीं वाला ज्ञान भी होता है, उससे आगे का भी होता है। यही दशा वेदों-गीता तथा सूक्ष्मवेद के ज्ञान में अंतर की जानें।

प्रश्न:- (धर्मदास जी का) गीता तथा वेदों में यह कहाँ प्रमाण है कि पूर्ण मोक्ष मार्ग तत्त्वदर्शी सन्त के पास ही होता है, वेदों व गीता में नहीं है। हे प्रभु जिन्दा! मेरी शंका का समाधान कीजिए, आपका ज्ञान हृदय को छूता है, सत्य भी है परन्तु विश्वास तो प्रत्यक्ष प्रमाण देखकर ही होता है।

उत्तर:- (जिन्दा परमेश्वर जी का) गीता अध्याय 4 श्लोक 25 से 30 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि हे अर्जुन! सर्व साधक अपनी साधना व भक्ति को पापनाश करने वाली अर्थात् मोक्षदायक जान कर ही करते हैं। यदि उनको यह निश्चय न हो कि तुम जो भक्ति कर रहे हो, यह शास्त्रानुकुल नहीं है तो वे साधना ही छोड़ देते। जैसे कई साधक देवताओं की पूजा रुपी यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करके ही पूजा मानते हैं। अन्य ब्रह्म तक ही पूजा करते हैं। कई केवल अग्नि में घृत आदि डालकर अनुष्ठान करते हैं जिसको हवन कहते हैं। (गीता अध्याय 4 श्लोक 25)

अन्य योगीजन अर्थात् भक्तजन आँख, कान, मुहँ बन्द करके क्रियाएं करते हैं। उसी में अपना मानव जीवन हवन अर्थात् समाप्त करते हैं। (गीता अध्याय 4 श्लोक 26)

अन्य योगीजन अर्थात् भक्तजन श्वांसांे को आना-जाना ध्यान से देखकर भक्ति साधना करते हैं जिससे वे आत्मसंयम साधना रुपी अग्नि में अपना जीवन हवन अर्थात् मानव जीवन पूरा करते हैं, जिसे ज्ञान दीप मानते हैं अर्थात् अपनी साधना को श्रेष्ठ मानते हैं। (गीता अध्याय 4 श्लोक 27)

कुछ अन्य साधक द्रव्य अर्थात् धन से होने वाले यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करते हैं जैसे भोजन भण्डारा करना, कम्बल-कपड़े बाँटना, धर्मशाला, प्याऊ बनवाना, यह यज्ञ करते हैं। कुछ तपस्या करते हैं, कुछ योगासन करते हैं। इसी को परमात्मा प्राप्ति की साधना मानते हैं। कितने ही साधक अहिंसा आदि तीक्ष्ण व्रत करते हैं। जैसे मुख पर पट्टी बाँधकर नंगे पैरों चलना, कई दिन उपवास रखना आदि-आदि। अन्य योगीजन अर्थात् साधक स्वाध्याय अर्थात् प्रतिदिन किसी वेद जैसे ग्रन्थ से कुछ मन्त्रों (श्लोकों) का पाठ करना, यह ज्ञान यज्ञ कहलाती है, करते रहते हैं। इन्हीं क्रियाओं को मोक्षदायक मानते हैं। (अध्याय 4 श्लोक 28)

दूसरे योगीजन अर्थात् भक्तजन प्राण वायु (श्वांस) अपान वायु में पहुँचाने वाली क्रिया करते हैं। अन्य योगीजन इसके विपरित अपान वायु को प्राण वायु में पहुँचाने वाली क्रिया करते हैं। कितने ही साधक अल्पाहारी रहते हैं। कुछ योगिक क्रियाएँ करते हैं। जैसे प्राणायाम में लीन साधक पान-अपान की गति को रोककर श्वांस कम लेते हैं। इसी में अपना मानव जीवन हवन अर्थात् समर्पित कर देते हैं। ये सभी उपरोक्त (अध्याय 4 श्लोक 25 से 30 तक) साधक अपने-अपने यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों को करके मानते हैं कि हम पाप का नाश करने वाली साधना भक्ति कर रहे हैं। (गीता अध्याय 4 श्लोक 30)

यदि साधक की साधना शास्त्रानुकूल हो तो हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! इस यज्ञ से बचे हुए अमृत भोग को खाने वाले साधक सनातन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और यज्ञ अर्थात् शास्त्रानुकूल साधना न करने वाले पुरुष के लिए तो यह पृथ्वीलोक भी सुखदायक नहीं होता, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है अर्थात् उस शास्त्र विरूद्ध साधक को कोई लाभ नहीं होता। यही प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी है। (गीता अध्याय 4 श्लोक 31)

गीता ज्ञान दाता ने ऊपर के 25 से 30 तक श्लोकों में स्पष्ट किया है कि जो साधक जैसी साधना कर रहा है, उसे मोक्षदायक तथा सत्य मानकर कर रहा है। परन्तु गीता अध्याय 4 के ही श्लोक 32 में बताया कि ‘‘यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का यथार्थ ज्ञान परम अक्षर ब्रह्म स्वयं अपने मुख कमल से बोलकर ज्ञान देता है। (वह सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की वाणी कही गई है। उसे तत्त्वज्ञान भी कहते हैं। उसी को पाँचवां वेद (सूक्ष्म वेद) भी कहते हैं।) उस तत्त्वज्ञान में भक्तिविधि विस्तार के साथ बताई गई है। उसको जानकर साधक सर्व पापों से मुक्त हो जाता है अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। (गीता अध्याय 4 श्लोक 32)

नोट: गीता अध्याय 4 श्लोक 32 के अनुवाद में सर्व अनुवादकों ने एक जैसी ही गलती कर रखी है। ‘‘ब्रह्मणः’’ शब्द का अर्थ वेद कर रखा है। ‘‘ब्रह्मणः मुखे’’ का अर्थ वेद की वाणी में’’ किया है जो गलत है। उन्हीें अनुवादकों ने गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘ब्रह्मणः’’ का अर्थ सच्चिदानन्द घन ब्रह्म किया है जो उचित है। इसलिए गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में भी ‘‘ब्रह्मणः’’ का अर्थ सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म करना उचित है।

गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि उस ज्ञान को (जो परमात्मा अपने मुख कमल से बोलकर सुनाता है जो तत्त्वज्ञान है उसको) तू तत्त्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत प्रणाम करने से, कपट छोड़कर नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से तत्त्वदर्शी सन्त तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।

इससे यह भी सिद्ध हुआ कि गीता वाला ज्ञान पूर्ण नहीं है, परन्तु गलत भी नहीं है। गीता ज्ञानदाता को भी पूर्ण मोक्षमार्ग का ज्ञान नहीं है क्योंकि तत्त्वज्ञान की जानकारी गीता ज्ञानदाता को नहीं है जो परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) ने अपने मुख से बोला होता है। उसको तत्त्वदर्शी सन्तों से जानने के लिए कहा है।

यही प्रमाण यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में भी है। कहा है कि परम अक्षर ब्रह्म को कोई तो ‘सम्भवात्’ अर्थात् राम-कृष्ण की तरह उत्पन्न होने वाला साकार कहते हैं। कोई ‘असम्भवात्’ अर्थात् परमात्मा उत्पन्न नहीं होता, वह निराकार है। परमेश्वर उत्पन्न होता है या नहीं उत्पन्न होता, वास्तव में कैसा है? यह ज्ञान ‘धीराणाम्’ तत्त्वदर्शी सन्त बताते हैं, उनसे सुनो।

प्रश्न:– (धर्मदास जी का) हे प्रभु! हे जिन्दा! तत्त्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है तथा प्रमाणित सद्ग्रन्थों में कहाँ प्रमाण है? आपका ज्ञान आत्मा के आर-पार हो रहा है। गीता का शब्दा-शब्द यथार्थ भावार्थ आप जी के मुख कमल से सुनकर युगों की प्यासी आत्मा कुछ तृप्त हो रही है तथा गदगद हो रही है।

उत्तर:– (जिन्दा परमेश्वर जी का) परमेश्वर ने बताया कि पहले तो लक्षण सुन तत्त्वदर्शी सन्त अर्थात् पूर्ण ज्ञानी सत्गुरु के:-

गुरू के लक्षण चार बखाना, प्रथम वेद शास्त्रा को ज्ञाना (ज्ञाता)।
दूजे हरि भक्ति मन कर्म बानी, तीसरे समदृष्टि कर जानी।
चौथे वेद विधि सब कर्मा, यह चार गुरु गुण जानो मर्मा।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ के पृष्ठ 1960 पर ये अमृतवाणियां अंकित हैं।

भावार्थः– जो तत्त्वदर्शी सन्त (पूर्ण सतगुरु) होगा उसमें चार मुख्य गुण होते हैं-

  1. वह वेदों तथा अन्य सभी ग्रन्थों का पूर्ण ज्ञानी होता है।
  2. दूसरे वह परमात्मा की भक्ति मन-कर्म-वचन से स्वयं करता है, केवल वक्ता-वक्ता नहीं होता, उसकी करणी और कथनी में अन्तर नहीं होता।
  3. वह सर्व अनुयाईयों को समान दृष्टि से देखता है। ऊँच-नीच का भेद नहीं करता।
  4. चौथे वह सर्व भक्तिकर्म वेदों के अनुसार करता तथा करवाता है अर्थात् शास्त्रानुकूल भक्ति साधना करता तथा करवाता है। यह ऊपर का प्रमाण तो सूक्ष्म वेद में है जो परमेश्वर ने अपने मुखकमल से बोला है। अब आप जी को श्रीमद्भगवत गीता में प्रमाण दिखाते हैं कि तत्त्वदर्शी सन्त की क्या पहचान बताई है?

श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में स्पष्ट हैः

ऊर्धव मूलम् अधः शाखम् अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम्। छन्दासि यस्य प्रणानि, यः तम् वेद सः वेदवित्।।

अनुवाद: ऊपर को मूल (जड़) वाला, नीचे को तीनों गुण रुपी शाखा वाला उल्टा लटका हुआ संसार रुपी पीपल का वृक्ष जानो, इसे अविनाशी कहते हैं क्योंकि उत्पत्ति-प्रलय चक्र सदा चलता रहता है जिस कारण से इसे अविनाशी कहा है। इस संसार रुपी वृक्ष के पत्ते आदि छन्द हैं अर्थात् भाग (parts) हैं। (य तम् वेद) जो इस संसार रुपी वृक्ष के सर्वभागों को तत्त्व से जानता है, (सः) वह (वेदवित्) वेद के तात्पर्य को जानने वाला है अर्थात् वह तत्त्वदर्शी सन्त है। जैसा कि गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा है कि परम अक्षर ब्रह्म स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से तत्त्वज्ञान विस्तार से बोलते हैं। परमेश्वर ने अपनी वाणी में अर्थात् तत्त्वज्ञान में बताया हैः-

कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, क्षर पुरुष वाकि डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।

भावार्थ:– जमीन से बाहर जो वृक्ष का हिस्सा है, उसे तना कहते हैं। तना तो जानों अक्षर पुरुष, तने से कई मोटी डार निकलती हैं। उनमें से एक मोटी डार जानों क्षर पुरुष। उस डार से तीन शाखा निकलती हैं, उनको जानों तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव-शंकर जी) और इन शाखाओं को पत्ते लगते हैं, उन पत्तों को संसार जानो।

गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में सांकेतिक विवरण है। तत्त्वज्ञान में विस्तार से कहा गया है। पहले गीता ज्ञान के आधार से ही जानते हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 2 में कहते हैं कि संसार रुपी वृक्ष की तीनों गुण (रजगुण ब्रह्माजी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शंकर जी) रुपी शाखाएं है। ये ऊपर (स्वर्ग लोक में) तथा नीचे (पाताल लोक) फैली हुई हैं।

नोट:- रजगुण ब्रह्मा, सत्गुण विष्णु तथा तमगुण शंकर हैं।

देखें प्रमाण निम्न प्रश्न के उत्तर में:-

प्रश्न: यह कहाँ प्रमाण है कि रजगुण ब्रह्मा है, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर है?

उत्तर: 1) श्री मार्कण्डेय पुराण (सचित्रा मोटा टाईप गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के 123 पृष्ठ पर कहा है कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर, तीनों ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ है, ये ही तीन देवता हैं। ये ही तीन गुण हैं।

2) श्री देवी महापुराण संस्कृत व हिन्दी अनुवाद (श्री वैंकटेश्वर प्रैस बम्बई से प्रकाशित) में तीसरे स्कंद अध्याय 5 श्लोक 8 में लिखा है कि शंकर भगवान बोले, हे मात! यदि आप हम पर दयालु हैं तो मुझे तमोगुण, ब्रह्मा रजोगुण तथा विष्णु सतोगुण युक्त क्यों किया?

उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शंकर जी हैं।

तीनों शाखाएं ऊपर-नीचे फैली हैं, का तात्पर्य है कि गीता का ज्ञान पृथ्वी लोक पर बोला जा रहा था। तीनों देवता की सत्ता तीन लोकों में है। 1. पृथ्वी लोक, 2. स्वर्ग लोक तथा 3. पाताल लोक। ये तीन मन्त्राी हैं, एक-एक विभाग के मन्त्राी हैं। रजगुण विभाग के श्री ब्रह्मा जी, सतगुण विभाग के श्री विष्णु जी तथा तमगुण विभाग के श्री शिव जी।

गीता अध्याय 15 श्लोक 3 में कहा है कि हे अर्जुन! इस संसार रुपी वृक्ष का स्वरुप जैसे यहाँ (विचार काल में) अर्थात् तेरे और मेरे गीता के ज्ञान की चर्चा में नहीं पाया जाता अर्थात् मैं नहीं बता पाऊँगा क्योंकि इसके आदि और अन्त का मुझे अच्छी तरह ज्ञान नहीं है। इसलिए इस अतिदृढ़ मूल वाले अर्थात् जिस संसार रुपी वृक्ष की मूल है। (वह परमात्मा भी अविनाशी है तथा उनका स्थान सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अकह लोक, ये चार ऊपर के लोक भी अविनाशी हैं। इन चारों में एक ही परमात्मा भिन्न-भिन्न रुप बनाकर सिंहासन पर विराजमान हैं। इसलिए इसको ‘‘सुदृढ़मूलम्’’ अति दृढ़ मूल वाला कहा है।) इसे तत्त्वज्ञान रुपी शस्त्रा से काटकर अर्थात् तत्त्वदर्शी सन्त से तत्त्वज्ञान समझकर।

फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद अर्थात् सत्यलोक की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व संसार की रचना की है। उसी परमेश्वर की भक्ति को पहले तत्त्वदर्शी सन्त से समझो! गीता ज्ञान दाता अपनी भक्ति को भी मना कर रहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन प्रभु बताये हैं। क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष ये दोनों नाशवान हैं। तीसरा परम अक्षर पुरुष है जो संसार रुपी वृक्ष का मूल (जड़) है। वह वास्तव में अविनाशी है। जड़ (मूल) से ही वृक्ष के सर्व भागों ‘‘तना, डार-शाखाओं तथा पत्तों‘‘ को आहार प्राप्त होता है। वह परम अक्षर पुरुष ही तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। उसी (मूल) मालिक की पूजा करनी चाहिए। इस विवरण में तत्त्वदर्शी सन्त की पहचान तथा गीता ज्ञान दाता की अल्पज्ञता अर्थात् तत्त्वज्ञानहीनता स्पष्ट है।