जिन्दा बाबा का दूसरी बार अंतर्ध्यान होना
(धर्मदास जी ने कहा):- हे जिन्दा! आप यह क्या कह रहे हो कि श्री विष्णु जी तीनों लोको में केवल एक विभाग के मंत्री हैं। आप गलत कह रहे हो। श्री विष्णुजी तो अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। ये ही श्री ब्रह्मा जी रुप में उत्पत्ति करते हैं। विष्णु रुप होकर संसार का पालन करते हैं तथा शिव रुप होकर संहार करते हैं। ये तो कुल के मालिक हैं, यदि फिर से आपने श्री विष्णु जी को अपमानित किया तो ठीक बात नहीं रहेगी। परमेश्वर कबीर जी ने कहा:-
मूर्ख के समझावतें, ज्ञान गाँठि का जाय। कोयला होत न उजला, भावें सौ मन साबुन लाय।।
इतना कहकर परमेश्वर जिन्दा रुपधारी अन्तध्र्यान हो गए। दूसरी बार परमेश्वर को खोने के पश्चात् धर्मदास बहुत उदास हो गए। भगवान विष्णु में इतनी अटूट आस्था थी कि आँखों प्रमाण देखकर भी झूठ को त्यागने को तैयार नहीं थे।
कबीर, जान बूझ साची तजै, करे झूठ से नेह। ताकि संगति हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।
कुछ देर के पश्चात् धर्मदास की बुद्धि से काल का साया हटा और अपनी गलती पर विचार किया कि सब प्रमाण गीता से ही प्रत्यक्ष किए गए थे। जिन्दा बाबा ने अपनी ओर से तो कुछ नहीं कहा। मैं कितना अभागा हूँ कि मैंने अपने हठी व्यवहार से देव स्वरुप तत्त्वदर्शी सन्त को खो दिया। अब तो वे देव नहीं मिलेंगे। मेरा जीवन व्यर्थ जाएगा। यह विचार करके धर्मदास सिहर उठा अर्थात् भय से काँपने लगा। खाना भी कम खाने लगा, उदास रहने लगा तथा मन-मन में अर्जी लगाने लगा हे देव! हे जिन्दा बाबा! एक बार दर्शन दे दो। भविष्य में ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा। मैं आपसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ। मुझ मूर्ख की ओच्छी-मन्दी बातों पर ध्यान न दो। मुझे फिर मिलो गुसांई। आपका ज्ञान सत्य, आप सत्य, आप जी का एक-एक वचन अमृत है। कृपया दर्शन दो नहीं तो अधिक दिन मेरा जीवन नहीं रहेगा। तीसरे दिन परमेश्वर कबीर जी एक दरिया के किनारे वृक्ष के नीचे बैठे थे। आसपास कुछ आवारा गायें भी उसी वृक्ष के नीचे बैठी जुगाली कर रही थीं। कुछ दरिया के किनारे घास चर रही थी। धर्मदास की दृष्टि दरिया के किनारे पिताम्बर पहने बैठे सन्त पर पड़ी, देखा आस-पास गायें चर रही है। ऐसा लगा जैसे साक्षात् भगवान कृष्ण अपने लोक से आकर बैठे हों। धर्मदास उत्सुकता से सन्त के पास गया तथा देखा यह तो कोई सामान्य सन्त है। फिर भी सोचा चरण स्पर्श करके फिर आगे बढूँगा। धर्मदास जी ने जब चरणों का स्पर्श किया, मस्तक चरणों पर रखा तो ऐसा लगा कि जैसे रुई को छुआ हो। फिर चरणों को हाथों से दबा-दबाकर देखा तो उनमें कहीं भी हड्डी नहीं थी। ऊपर चेहरे की ओर देखा तो वही बाबा जिन्दा उसी पहले वाली वेशभूषा में बैठा था। धर्मदास जी ने चरणों को दृढ़ करके पकड़ लिया कि कहीं फिर से न चले जाएँ और अपनी गलती की क्षमा याचना की। कहा कि हे जिन्दा! आप तो तत्त्वदर्शी सन्त हो। मैं एक भ्रमित जिज्ञासु हूँ। जब तक मेरी शंकाओं का समाधान नहीं होगा, तब तक मेरा अज्ञान नाश कैसे होगा? आप तो महाकृपालु हैं। मुझ किंकर पर दया करो। मेरा अज्ञान हटाओ प्रभु।
प्रश्न (धर्मदास जी का):- हे जिन्दा! यदि श्री विष्णु जी पूर्ण परमात्मा नहीं है तो कौन है पूर्ण परमात्मा, कृपया गीता से प्रमाण देना?
उत्तर:– वह परमात्मा ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है जो कुल का मालिक है।
प्रमाण:– श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 का सारांश व भावार्थ है कि ‘‘उल्टे लटके हुए वृक्ष के समान संसार को जानो। जैसे वृक्ष की जड़ें तो ऊपर हैं, नीचे तीनों गुण रुपी शाखाएं जानो। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में यह भी स्पष्ट किया है कि तत्त्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है? तत्त्वदर्शी सन्त वह है जो संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग (सभी भाग) भिन्न-भिन्न बताए।
विशेष:– वेद मन्त्रों की जो आगे फोटोकाॅपियाँ लगाई हैं, ये आर्यसमाज के आचार्यों तथा महर्षि दयानंद द्वारा अनुवादित हैं और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं। जिनमें वर्णन है कि परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होकर कवियों की तरह आचरण करता हुआ सत्य आध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है। (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2, सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में) इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा सर्व भवनों अर्थात् लोकों के उपर के लोक में विराजमान है। जब-जब पृथ्वी पर अज्ञान की वृद्धि होने से अधर्म बढ़ जाता है तो परमात्मा स्वयं सशरीर चलकर पृथ्वी पर प्रकट होकर यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार लोकोक्तियों, शब्दों, चैपाईयों, साखियों, कविताओं के माध्यम से कवियों जैसा आचरण करके घूम-फिरकर करता है। जिस कारण से एक प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कृपया देखें उपरोक्त वेद मन्त्रों की फोटोकाॅपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 258 पर।
परमात्मा ने अपने मुख कमल से ज्ञान बोलकर सुनाया था। उसे सूक्ष्म वेद कहते हैं। उसी को ‘तत्त्व ज्ञान’ भी कहते हैं। तत्त्वज्ञान का प्रचार करने के कारण परमात्मा ‘‘तत्त्वदर्शी सन्त’’ भी कहलाने लगता है। उस तत्त्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमात्मा ने संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग इस प्रकार बताये:-
कबीर, अक्षर पुरुष एक वृक्ष है, क्षर पुरुष वाकि डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।
भावार्थ: वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, उसको तना कहते हैं। जैसे संसार रुपी वृक्ष का तना तो अक्षर पुरुष है। तने से मोटी डार निकलती है वह क्षर पुरुष जानो, डार से मानो तीन शाखाएँ निकलती हों, उनको तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव) हैं तथा इन शाखाओं पर टहनियों व पत्तों को संसार जानों। इस संसार रुपी वृक्ष के उपरोक्त भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देते हैं। मूल (जड़ें), जमीन के अन्दर हैं। जिनसे वृक्ष के सर्वांगों का पोषण होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरुष कहे हैं। श्लोक 16 में दो पुरुष कहे हैं ‘‘क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष’’ दोनों की स्थिति ऊपर बता दी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी कहा है कि क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों नाशवान हंै। इनके अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं। परन्तु आत्मा तो किसी की भी नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भिन्न है जिसको परमात्मा कहा गया है। इसी प्रभु की जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है जिसको ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इसी का वर्णन है। यही प्रभु तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। यह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। मूल से ही वृक्ष की परवरिश होती है, इसलिए सबका धारण-पोषण करने वाला परम अक्षर ब्रह्म है। जैसे पूर्व में गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में बताया है कि ऊपर को जड़ (मूल) वाला, नीचे को शाखा वाला संसार रुपी वृक्ष है। जड़ से ही वृक्ष का धारण-पोषण होता है। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म जो संसार रुपी वृक्ष की जड़ (मूल) है, यही सर्व पुरुषों (प्रभुओं) का पालनहार इनका विस्तार (रचना करने वाला = सृजनहार) है। यही कुल का मालिक है।
प्रश्न:- धर्मदास जी ने पूछा कि क्या श्री विष्णु जी और शंकर जी की पूजा करनी चाहिए?
उत्तर:- (जिन्दा बाबा का):- नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न (धर्मदास जी का):- कृपया गीता से प्रमाणित कीजिए।
उत्तर:- श्री मद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24, गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6 में प्रमाण है कि जो व्यक्ति रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की भक्ति करते हैं, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। (यह प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24 में यही कहा है और क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में जिनका वर्णन है), को छोड़कर श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी अन्य देवताओं में गिने जाते हैं। इन दोनों अध्यायों (गीता अध्याय 7 तथा अध्याय 9 में) में ऊपर लिखे श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जिस भी उद्देश्य को लेकर अन्य देवताओं को भजते हैं, वे भगवान समझकर भजते हैं। उन देवताओं को मैंने कुछ शक्ति प्रदान कर रखी है। देवताओं के भजने वालों को मेरे द्वारा किए विधान से कुछ लाभ मिलता है। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं के लोक में जाते हैं। मेरे पुजारी मुझे प्राप्त होते हैं।
गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्रविधि को त्यागकर जो साधक मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् जिन देवताओं पित्तरों, यक्षों, भैरों-भूतों की भक्ति करते हैं और मनकल्पित मन्त्रों का जाप करते हैं, उनको न तो कोई सुख होता है, न कोई सिद्धि प्राप्त होती है तथा न उनकी गति अर्थात् मोक्ष होता है। इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कत्र्तव्य (जो भक्ति करनी चाहिए) और अकत्र्तव्य (जो भक्ति न करनी चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण! (क्योंकि अर्जुन मान रहा था कि श्री कृष्ण ही ज्ञान सुना रहा है, परन्तु श्री कृष्ण के शरीर में प्रेत की तरह प्रवेश करके काल (ब्रह्म) ज्ञान बोल रहा था जो पहले प्रमाणित किया जा चुका है)। जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अन्य देवताओं आदि की पूजा करते हैं, वे स्वभाव में कैसे होते हैं? गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया कि सात्विक व्यक्ति देवताओं का पूजन करते हैं। राजसी व्यक्ति यक्षों व राक्षसों की पूजा तथा तामसी व्यक्ति प्रेत आदि की पूजा करते हैं। ये सब शास्त्रविधि रहित कर्म हैं। फिर गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनकल्पित घोर तप को तपते हैं, वे दम्भी (अभिमानी) हैं और शरीर के कमलों में विराजमान शक्तियों को तथा मुझे भी क्रश करने वाले राक्षस स्वभाव के अज्ञानी जान। सूक्ष्मवेद में भी परमेश्वर जी ने कहा है किः-
कबीर, माई मसानी सेढ़ शीतला भैरव भूत हनुमंत। परमात्मा से न्यारा रहै, जो इनको पूजंत।।
राम भजै तो राम मिलै, देव भजै सो देव। भूत भजै सो भूत भवै, सुनो सकल सुर भेव।।
स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी (रजगुण), श्री विष्णु जी (सत्गुण) तथा श्री शिवजी (तमगुण) की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए तथा इसके साथ-साथ भूतों, पित्तरों की पूजा, (श्राद्ध कर्म, तेरहवीं, पिण्डोदक क्रिया, सब प्रेत पूजा होती है) भैरव तथा हनुमान जी की पूजा भी नहीं करनी चाहिए।
धर्मदास को प्रभु ने सुनाया, गीता शास्त्र से प्रत्यक्ष प्रमाण देखकर धर्मदास की आँखें खुली की खुली रह गई। जैसे किसी को सदमा लग गया हो। झूठ कह नहीं सकता, स्वीकार करने से लिए अभी वक्त लगेगा।
जिन्दा रुपधारी परमेश्वर ने धर्मदास को सम्बोधित करते हुए कहा कि हे वैष्णव महात्मा! कौन-सी दुनिया में चले गये, लौट आओ। मानो धर्मदास नींद से जागा हो। सावधान होकर कहा, कुछ नहीं-कुछ नहीं। कृपया और ज्ञान सुनाओ ताकि मेरा भ्रम दूर हो। परमेश्वर कबीर जी ने सृष्टि की रचना धर्मदास जी को सुनाई, कृपया पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 518 पर।
सृष्टि रचना सुनकर धर्मदास जी को ऐसा लगा मानो पागल हो जाऊँगा क्योंकि जो ज्ञान आजतक हिन्दू धर्मगुरुओं, ऋषियों, महर्षियों-सन्तांे से सुना था, वह निराधार तथा अप्रमाणित लग रहा था। जिन्दा बाबा हिन्दू सद्ग्रन्थों से ही प्रमाणित कर रहे थे। शंका का कोई स्थान नहीं था। मन-मन में सोच रहा था कि कहीं मैं पागल तो नहीं हो जाऊँगा?
प्रश्न:- (धर्मदास जी का): हे जिन्दा! क्या हिन्दू धर्म के गुरुओं तथा ऋषियों को शास्त्रों का ज्ञान नहीं है?
उत्तर:– (जिन्दा महात्मा का):- क्या यह बताने की भी आवश्यकता शेष है? धर्मदास जी ने मन में विचार किया कि यह कैसे हो सकता है कि हिन्दू धर्म के किसी सन्त, गुरु, महर्षि को सत्य अध्यात्म ज्ञान नहीं? धर्मदास जी के मन में आया कि किसी महामण्डलेश्वर से ज्ञान पता करना चाहिए। एक रमते फकीर के पास क्या मिलेगा? यह बात मन में सोच ही रहा था कि परमेश्वर जिन्दा जी ने धर्मदास जी के मन का दोष जानकर कहा कि आप अपने महामण्डलेश्वरों से ज्ञान प्राप्त करलो। यह कहकर परमेश्वर तीसरी बार अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास जी ठगे से रह गए और अपने मन के दोष को जिन्दा महात्मा के मुखकमल से सुनकर बहुत शर्मसार हुए। जब प्रभु अन्तध्र्यान हो गए तो बहुत व्याकुल हो गया। परन्तु धर्मदास जी को आशा थी कि हमारे महामण्डलेश्वरों के पास तत्त्वज्ञान अवश्य मिलेगा। यदि जिन्दा बाबा (मुसलमान) के ज्ञान को तत्त्वज्ञान मानकर साधना स्वीकार करना तो ऐसा लग रहा है जैसे धर्म परिवर्तन करना हो। यह समाज में निन्दा का कारण बनेगा। इसलिए अपने हिन्दू महात्माओं से तत्त्वज्ञान जानकर श्रेष्ठ शास्त्रानुकूल भक्ति करनी ही उचित रहेगी। इस बार धर्मदास जी को जिन्दा बाबा का अचानक चला जाना खटका नहीं क्योंकि उसकी गलतफहमी थी कि हिन्दू इतना बड़ा तथा पुरातन धर्म है, क्या कोई भी तत्त्वदर्शी सन्त नहीं मिलेगा?
धर्मदास जी एक वैष्णव महामण्डलेश्वर श्री ज्ञानानंद जी वैष्णव के आश्रम में गया। उस समय श्री ज्ञानानन्द जी का बहुत बोलबाला था। वह स्वामी रामानन्द जी काशी वाले का शिष्य था। परन्तु उस समय स्वामी रामानन्द जी तो परमेश्वर कबीर जी का शिष्य/गुरु बन चुका था। वह अपने ज्ञान को अज्ञान मान चुका था। स्वामी रामानन्द जी ने अपने सर्वऋषि शिष्यों से बोल दिया था कि मेरे द्वारा बताया ज्ञान व्यर्थ है और यह साधना शास्त्रविरुद्ध है। आप सब परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ले लें। परन्तु जाति का अभिमान, शिष्यों में प्रतिष्ठा, ज्ञान के स्थान पर अज्ञान का भण्डार जीव को सत्य स्वीकार करने नहीं देता।
कबीर, राज तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान बड़ाई ईष्र्या, दुर्लभ तजना येह।।
धर्मदास जी ने श्री ज्ञानानंद जी से प्रश्न किया है कि स्वामी जी क्या भगवान विष्णु से भी ऊपर कोई प्रभु है। श्री ज्ञानानन्द जी ने उत्तर दिया कि श्री विष्णु स्वयं परम ब्रह्म परमात्मा है। इनसे ऊपर कौन हो सकता है? श्री कृष्ण जी भी श्री विष्णु जी स्वयं ही थे। उन्होंने ही श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान दिया। आपको किसने भ्रमित कर दिया? धर्मदास जी ने पूछा कि गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में भगवान ने कहा है कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। यह तो भगवान कृष्ण से अन्य प्रभु हुआ। ज्ञानानन्द स्वामी बोला, लगता है कि तेरे को उस काशी वाले जुलाहे का जादू चढ़ा हुआ है। चल-चल अपना काम कर। भगवान कृष्ण से अन्य कोई प्रभु नहीं है। धर्मदास जी को पता चल गया कि इसके पास वह ज्ञान नहीं है जो जिन्दा बाबा ने प्रमाणों सहित बताया है। धर्मदास निराश होकर वहाँ से चल दिया। धर्मदास जी को यह नहीं पता था कि काशी वाला जुलाहा वह बाबा जिन्दा ही है।
फिर धर्मदास को पता चला कि एक मोहनगिरी नाम के महामण्डलेश्वर हैं, उनके पास जाकर भगवान की चर्चा करनी शुरु की। पहले एक रुपया दक्षिणा चढ़ाई जिस कारण से मोहनगिरी ने उनको निकट बैठाया और बताया कि भगवान शिव सर्व सृष्टि के रचने वाले हैं। इनसे बढ़कर संसार में कोई प्रभु नहीं है। ‘‘ओम् नमः शिवाय’’ मन्त्र का जाप करो। धर्मदास जी प्रणाम करके चल पड़े। सोचा इनका कितना अच्छा नाम है, ज्ञान धेल्ले (एक पैसे) का नहीं।
धर्मदास जी से किसी ने बताया कि एक बहुत बड़ा तपस्वी है। कई वर्षों से खड़ा तप कर रहा है। धर्मदास जी वहाँ गए, वह नाथ पंथ से जुड़ा था। भगवान शिव को समर्थ परमात्मा बताता था। तप करके हठयोग से परमात्मा की प्राप्ति मान रहा था। धर्मदास जी ने विवेक किया कि यदि इतनी घोर कठिन तपस्या से परमात्मा मिलेगा तो हमारे वश से बाहर की बात है। वहाँ से भी आगे चला। पता चला कि एक बहुत बड़ा विद्वान महात्मा काशी विद्यापीठ से पढ़कर आया है। वेदों का पूर्ण विद्वान है। धर्मदास जी ने उस महात्मा से पूछा परमात्मा कैसा है? उत्तर मिला-निराकार है। उस निराकार परमात्मा का कोई नाम है? धर्मदास ने पूछा। उत्तर विद्वान का:- उसका नाम ब्रह्म है। क्या परमात्मा को देखा जा सकता है, धर्मदास जी ने प्रश्न किया? उत्तर मिला परमात्मा निराकार है, उसको कैसे देख सकते हैं। केवल परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है।
प्रश्नः- क्या श्री कृष्ण या विष्णु परमात्मा हैं? उत्तर था कि ये तो सर्गुण देवता हैं, परमात्मा निर्गुण है।
गीता और वेद के ज्ञान में क्या अन्तर है? धर्मदास ने प्रश्न किया। ब्राह्मण का उत्तर था कि गीता चारों वेदों का सारांश है। धर्मदास जी ने पूछा कि भक्ति मन्त्र कौन सा है? उत्तर ब्राह्मण का था कि गायत्री मन्त्र का जाप करो = ओम् भूर्भवस्वः तत् सवितुः वरेणियम भृगोदेवस्य धीमहि, धीयो यो नः प्रचोदयात्’’ धर्मदास जी को जिन्दा बाबा ने बताया था कि इस मन्त्र से मोक्ष सम्भव नहीं।
धर्मदास जी फिर आगे चला तो पता चला कि एक सन्त गुफा में रहता है। कई-कई दिन तक गुफा से नहीं निकलता है। उसके पास जाकर प्रश्न किया कि भगवान कैसे मिलता है? उत्तर मिला कि इन्द्रियों पर संयम रखो, इसी से परमात्मा मिल जाता है। नाम जाप से कुछ नहीं होता। खाण्ड (चीनी) कहने से मुँह मीठा नहीं होता। धर्मदास जी को सन्तोष नहीं हुआ।
सब सन्तों से ज्ञान चर्चा करके धर्मदास जी को बहुत पश्चाताप हुआ कि मेरे को उस जिन्दा बाबा पर विश्वास नहीं हुआ कि उसने कहा था किसी भी सन्त महामण्डलेश्वर के पास यथार्थ अध्यात्म ज्ञान नहीं है। किसी भी सन्त महात्मा का ज्ञान प्रमाणित नहीं है। कोई शास्त्र का आधार नहीं है, तब धर्मदास रोने लगा। अपनी अज्ञानता पर पश्चाताप करने लगा कि मैं कैसा कलमुँहा हूँ अर्थात् बुरी किस्मत वाला हूँ। मुझे उस परमात्मास्वरुप जिन्दा महात्मा पर विश्वास नहीं आया। अब वह अन्तर्यामी मुझे नहीं मिलेगा क्योंकि मैंने कई बार उनका अपमान कर दिया। अब क्या करुँ, न जीने को मन करता है, आत्महत्या पाप है। बुरी तरह रोने लगा। पछाड़ खाकर अचेत हो गया।
परमात्मा जिन्दा महात्मा के रुप में एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी सचेत हुआ और हृदय से पुकार की कि हे जिन्दा! एक बार दर्शन दे दो। मैं टूट चुका हूँ। किसी के पास ज्ञान नहीं है। आपकी सर्व बातें सत्य हैं। परमात्मा एक बार मुझ अज्ञानी महामूर्ख को क्षमा करो परमेश्वर। आप जिन्दा नहीं परमात्मा हो। आप महाविद्वान हो। आपके ज्ञान का कोई सामना करने वाला नहीं है। मैं जिन्दगी में कभी आप पर अविश्वास नहीं करुँगा। ऐसे विचार कर आगे चला तो देखा एक वृक्ष के नीचे एक साधु बैठा है, कुछ व्यक्ति उसके पास बैठे हैं। धर्मदास जी ने सोचा कि मैं तो उन महामण्डलेश्वरों से मिलकर आया हूँ। जिनके पास कई सैंकड़ों भक्त दर्शनार्थ बैठे रहते हैं। इस छोटे साधु से क्या मिलना? परन्तु अपने आप मन में आया कि कुछ देर विश्राम करना है, यहीं कर लेता हूँ। फिर सोचा कि प्रश्न करता हूँ। पूछाः- हे महात्मा! जी परमात्मा कैसा है? साधु ने उत्तर दिया कि मैं ही परमात्मा हूँ। धर्मदास जी चुप हो गए, सोचा यह तो मजाक कर रहा है। यह तो सन्त भी नहीं है। धीरे-धीरे सर्व व्यक्ति चले गए। जब धर्मदास जी चलने लगे परमात्मा बोले कि हे महात्मा! क्या आपके मण्डलेश्वरों ने नहीं बताया कि परमात्मा कैसा है? धर्मदास जी ने आश्चर्य से देखा कि इस साधु को कैसे पता कि मैं कहाँ-कहाँ भटका हूँ? उसी समय परमात्मा ने वही जिन्दा बाबा वाला रुप बना लिया। धर्मदास जी चरणों में गिरकर बिलख-बिलखकर रोने लगा तथा कहा कि हे भगवन! किसी के पास ज्ञान नहीं है। मुझ पापी अवगुण हारे को क्षमा करो महाराज! मैंने बड़ी भारी भूल की है। आपने सृष्टि रचना का ज्ञान जो बताया है, उसके सामने सर्व सन्त का ज्ञान ऐसा है जैसे सूरज के सामने दीपक, सब ऊवा-बाई बकते हैं। परमेश्वर ने धर्मदास जी से कहा कि आपने जिन वेदों के पूर्ण विद्वान से प्रश्न किया था कि ‘‘परमात्मा कैसा है? उत्तर मिला कि परमात्मा निराकार है। आपने प्रश्न किया था कि क्या परमात्मा देखा जा सकता है? उस अज्ञानी का उत्तर था कि ‘‘जब परमात्मा निराकार है तो उसे देखने का प्रश्न ही नहीं है। परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है।‘‘
विचार करो धर्मदास! यह विचार तो ऐसे व्यक्ति के हैं जैसे किसी नेत्रहीन से कोई प्रश्न करे कि सूर्य कैसा है? उत्तर मिला कि सूर्य निराकार है। फिर प्रश्न किया कि क्या सूर्य को देखा जा सकता है? उत्तर मिले कि सूर्य को नहीं देखा जा सकता, सूर्य का प्रकाश देखा जाता है। उस नेत्रहीन से पूछें कि सूर्य बिना प्रकाश किसका देखा जा सकता है? इसी प्रकार अध्यात्म ज्ञान नेत्रहीन अर्थात् पूर्ण अज्ञानी सन्त ऐसी व्याख्या किया करते हैं कि परमात्मा तो निराकार है, उसका प्रकाश कैसे देखा जा सकता है? परमात्मा का ही तो प्रकाश होगा। धर्मदास जी ने कहा कि हे महात्मा जी! यह विचार तो मेरे दिमाग में भी नहीं आया। आप जी के दिव्य तर्क से मेरी आँखें खुल गई। जितने भी महामण्डलेश्वर मिले हैं, वे सर्व महाअज्ञानी मिले हैं। हे जिन्दा महात्मा जी! यदि मैं आपके ज्ञान को सुनने के पश्चात् यदि इन मूर्खों से नहीं मिलता तो मेरा भ्रम निवारण कभी नहीं होता, चाहे आप जी कितने ही प्रमाण दिखाते और बताते।
राग आसावरी से शब्द नं. 79-80:-
भूले गुरुवा गरब न कीजै, तातैं पाहन कदे न रीझै।।टेक।। बाल मुकंदं बोलत नांही, लटक
बिहारी लूटै। गुरुवा कै सिर मार परैगी, पैंडा कदे न छूटै।।1।। गुरुवा कै सिर फरुवा फोरौं, घर सें
काढि घसीटौ। इसके मारै पाप नहीं है, या कूं निहचै पीटो।।2।। या देवल में देव नहीं है, पांन
पतासे खाई। बिल्ली बीठि शीश परि कीन्हीं, कुतरे धार चलाई।।3।। बिल्ली देव बिडारत नाहीं,
मूरति में कुछि खोरी। या देवा में अजमति नाहीं, कुतरे की टांग न तोरी।।4।। मूरति कै नहीं श्रवन
चिसमें, गुरुवा घंट बजावै। खीर खांड का भोजन धरि कै, आपन ही गुटकावै।।5।। बैरागर की
परख नहीं रे, पाहन गांटी बांधे। या गुरुवा कै लीतर लावौ, ये गुरुवा सब आंधे।।6।। जड़ कै आगै
चेतन नाचै, अंधे कूदैं गावैं, गरीबदास इस पूजा सेती, नर पत्थर हो जावै।।7।।79।। गुरुवा गाम
बिगारे संतौ, गुरुवा गाम बिगारे। ऐसे कर्म जीव कै लाये, बहुरि झरैं नहीं झारे।।टेक।। पाहन कूं
परेश्वर कहते, या निंद्या बड़ भारी। या की मो कूं समझ न परहीं, पूजा करी क गारी।।1।। जोहड़
का जल भरि करि ल्याये, चरनांमृत ठहराये। जड़ के चरण धोय करि दीन्हें, चेतन कूं फिरि
प्याये।।2।। दस लख जंत जीव ज उपजैं, यौह चरणामृत नांही। या में छोति घनेरी पांडे, समझि
देखि मन मांही।।3।। शालिग शिला धोय करि पीये सें हिरदा पत्थर होई। चरण कमल में
चरणामृत है, जिस पीवत नहीं कोई।।4।। कउवा मच्छ मीन जल पीया, बिसटा कीन्हीं मांही।
गुरुवा कै तो गारा लाया, जुग जुग छूटै नांही।।5।। भरम बिधूसन शब्द हमारा, कोई गावै कोई रोवै।
पांडै कूं तौ परख नहीं है, कीचड़ि महमूदी धोवै।।6।। शालिग शिला गांठि में बांधे, तीरथ चले
पराधी। समझ न परै परख नहीं आवै, बड़े ज्ञान के बादी।।7।। भैंरौं भूत मसांनी पूजै, दुरगा देबी
ध्यावैं। ऊती कै तौ तबही बाजैं, बकरै आंनि कटावैं।।8।। भेड़ पूंछ कूं पंडित पकरैं, भादौं नदी
बिहंगा। गरीबदास वै भौजल बूडे़, नहीं साध सतसंगा।।9।।80।।