पारख के अंग की वाणी नं. 1097-1124 का सरलार्थ पवित्र कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश’’ में विस्तार से प्रमाणों के साथ लिखा है जो मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा सरल करके लिखा है जो इस प्रकार है:-
कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ का सारांश (छठा अध्याय)
जैसा कि इस ग्रन्थ (कबीर सागर का सरलार्थ) के प्रारम्भ में लिखा है कि कबीर सागर के यथार्थ अर्थ को न समझकर कबीर पंथियों ने इस ग्रन्थ में अपने विवेक अनुसार फेर-बदल किया है। कुछ अंश काटे हैं। कुछ आगे-पीछे किए हैं। कुछ बनावटी वाणी लिखकर कबीर सागर का नाश किया है। परंतु सागर तो सागर ही होता है। उसको खाली नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कबीर सागर में बहुत सा सत्य विवरण उनकी कुदृष्टि से बच गया है। शेष मिलावट को अब एक बहुत पुराने हस्तलिखित ‘‘कबीर सागर‘‘ से मेल करके तथा संत गरीबदास जी की अमृतवाणी के आधार से तथा परमेश्वर कबीर जी द्वारा मुझ दास (रामपाल दास) को दिया, दिव्य ज्ञान के आधार से सत्य ज्ञान लिखा गया है। एक प्रमाण बताता हूँ जो बुद्धिमान के लिए पर्याप्त है।
ज्ञान प्रकाश में परमेश्वर कबीर जी द्वारा धनी धर्मदास जी को शरण में लेने का विवरण है। आपसी संवाद है, परंतु धर्मदास जी का निवास स्थान भी गलत लिखा है। पृष्ठ 21 पर पूर्व गुरू रूपदास जी से शंका का निवारण करके अपने घर चले गए। धर्मदास जी का निवास स्थान ‘‘मथुरा नगर‘‘ लिखा है, वाणी इस प्रकार हैः-
तुम हो गुरू वो सतगुरू मोरा। उन हमार यम फंदा तोरा (तोड़ा)।।
धर्मदास तब करी प्रणामा। मथुरा नगर पहुँचे निज धामा।।
जबकि धर्मदास जी का निज निवास स्थान ‘‘बांधवगढ़‘‘ कस्बा था जो मध्यप्रदेश में है। संत गरीबदास जी ने अपनी वाणी में सर्व सत्य विवरण लिखा है कि धर्मदास बांधवगढ़ के रहने वाले सेठ थे। वे तीर्थ यात्र के लिए मथुरा गए थे। उसके पश्चात् अन्य तीर्थों पर जाना था। कुछ तीर्थों पर भ्रमण कर आए थे। नकली कबीरपंथियों द्वारा किए फेर-बदल का अन्य प्रमाण इसी ज्ञान प्रकाश में धर्मदास जी का प्रकरण चल रहा है। बीच में सर्वानन्द ब्राह्मण की कथा लिखी है जो वहाँ पर नहीं होनी चाहिए। केवल धर्मदास की ही बात होनी चाहिए। पृष्ठ 37 से 50 तक सर्वानन्द की कथा है। इससे पहले पृष्ठ 34 पर धर्मदास जी को नाम दीक्षा देने, आरती-चौका करने का प्रकरण है। पृष्ठ 35 पर गुरू की महिमा की वाणी है जो पृष्ठ 36 तक है। फिर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई है जो मात्र तीन वाणी हैं। इसके बाद ‘‘सतगुरू वचन‘‘ वाला प्रकरण मेल नहीं करता। पृष्ठ 36 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई की तीन वाणी के पश्चात् पृष्ठ 50 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ से मेल (स्पदा) करता है जो सर्वानन्द के प्रकरण के पश्चात् ‘‘धर्मदास वचन‘‘ की वाणी है।
ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 36 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चैपाई
हो साहब तव पद सिर नाऊँ। तव पद परस परम पद पाऊँ।।
केहि विधि आपन भाग सराही । तव बरत गहैं भाव पुनः बनाई।।
कोधों मैं शुभ कर्म कमाया। जो सदगुरू तव दर्शन पाया।।
ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 50 ‘‘धर्मदास वचन‘‘
धन्य धन्य साहिब अविगत नाथा। प्रभु मोहे निशदिन राखो साथा।।
सुत परिजन मोहे कछु न सोहाही। धन दारा अरू लोक बड़ाई।।
इसके पश्चात् सही प्रकरण है। बीच में अन्य प्रकरण लिखा है, वह मिलावटी तथा गलत है।
नाम दीक्षा देने के पश्चात् परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को प्रसन्न करने के लिए कहा कि जब आपको विश्वास हो जाएगा कि मैं जो ज्ञान तथा भक्ति मंत्र बता रहा हूँ, वे सत्य हैं। फिर तेरे को गुरू पद दूँगा। आप दीक्षा लेने वाले से सवा लाख द्रव्य (रूपये या सोना) लेकर दीक्षा देना। परमात्मा ने धर्मदास जी की परीक्षा ली थी कि वैश्य (बनिया) जाति से है यदि लालची होगा तो इस लालचवश मेरा ज्ञान सुनता रहेगा। ज्ञान के पश्चात् लालच रहेगा ही नहीं। परंतु धर्मदास जी पूर्ण अधिकारी हंस थे। सतलोक से विशेष आत्मा भेजे थे। फिर उन्होंने इस राशि को कम करवाया और निःशुल्क दीक्षा देने का वचन करवाया यानि माफ करवाया।
अब ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 9 से आवश्यक वाणी लेते हैं क्योंकि जो अमृतवाणी परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल से बोली गई है, उसके पढ़ने-सुनने से भी अनेकों पाप नाश होते हैं। ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 9 से वाणीः-
धर्मदास बोध = ज्ञान प्रकाश
निम्न वाणी पुराने कबीर सागर ग्रन्थ के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ से हैं:-
बांधवगढ़ नगर कहाय। तामें धर्मदास साह रहाय।।
धन का नहीं वार रू पारा। हरि भक्ति में श्रद्धा अपारा।।
रूप दास गुरू वैष्णव बनाया। उन राम कृष्ण भगवान बताया।।
तीर्थ बरत मूर्ति पूजा। एकादशी और सालिग सूजा।।
ताके मते दृढ़ धर्मनि नागर। भूल रहा वह सुख का सागर।।
तीर्थ करन को मन चाहा। गुरू आज्ञा ले चला उमाहा।।
भटकत भ्रमत मथुरा आया। कृष्ण सरोवर में उठ नहाया।।
चैका लीपा पूजा कारण। फिर लगा गीता सलोक उचारण।।
ताही समय एक साधु आया। पाँच कदम पर आसन लाया।।
धर्मदास को कहा आदेशा। जिन्दा रूप साधु का भेषा।।
धर्मदास देखा नजर उठाई। पूजा में मगन कछु बोल्या नाहीं।।
जग्यासु वत देखै दाता। धर्मदास जाना सुनत है बाता।।
ऊँचे सुर से पाठ बुलाया। जिन्दा सुन-सुन शीश हिलाया।।
धर्मदास किया वैष्णव भेषा। कण्ठी माला तिलक प्रवेशा।।
पूजा पाठ कर किया विश्रामा। जिन्दा पुनः किया प्रणामा।।
जिन्दा कहै मैं सुना पाठ अनुपा। तुम हो सब संतन के भूपा।।
मोकैं ज्ञान सुनाओ गोसाँई। भक्ति सरस कहीं नहीं पाई।।
मुस्लिम हिन्दू गुरू बहु देखे। आत्म संतोष कहीं नहीं एके।।
धर्मदास मन उठी उमंगा। सुनी बड़ाई तो लागा चंगा।।
धर्मदास वचन
जो चाहो सो पूछो प्रसंगा। सर्व ज्ञान सम्पन्न हूँ भक्ति रंगा।।
पूछहूँ जिन्दा जो तुम चाहो। अपने मन का भ्रम मिटाओ।।
जिन्द वचन
तुम काको पाठ करत हो संता। निर्मल ज्ञान नहीं कोई अन्ता।।
मोकूं पुनि सुनाओ बाणी। जातें मिलै मोहे सारंग पाणी।।
तुम्हरे मुख से ज्ञान मोहे भावै। जैसे जिह्ना मधु टपकावै।।
धर्मदास सुनि जब कोमल बाता। पोथी निकाली मन हर्षाता।।
धर्मदास का गीता का पाठ अनुवाद सहित सुनाना
(उग्र गीता)
धर्मदास जी को ज्ञान था कि जिन्दा वेशधारी मुसलमान संत होते हैं जबकि मुसलमान नहीं मानते कि पुनर्जन्म होता है। इसलिए पहले उसी प्रकरण वाले श्लोक सुनाए। (गीता अध्याय 2 श्लोक 12 व 17, अध्याय 4 श्लोक 5 व 9)
हे अर्जुन आपन जन्म-मरण बहुतेरे। तुम ना जानत याद है मेरे।।
नाश रहित प्रभु कोई और रहाई। जाको कोई मार सकता नाहीं।।
फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 1 से 10 सुनाए:-
अर्जुन मन जो शंका आई। कृष्ण से पूछा विनय लाई।।
हे कृष्ण तुम तत् ब्रह्म बताया। अध्यात्म अधिभूत जनाया।।
वाका भेद बताओ दाता। मन्द मति हूँ देवो ज्ञान विधाता।। (गीता अ. 8 श्लोक 1-2)
कृष्ण अस बोले बानी। दिव्य पुरूष की महिमा बखानी।।
तत् ब्रह्म परम अक्षर ब्रह्म कहाया। जिन सब ब्रह्माण्ड बनाया।।
मम भक्ति करो मोकूं पाई। यामै कछु संशय नाहीं।। (गीता अ. 8 श्लोक 5, 7)
जहाँ आशा तहाँ बाशा होई। मन कर्म बचन सुमरियो सोई।। (गीता अ. 8 श्लोक 6)
जोहै सनातन अविनाशी भगवाना। वाकि भक्ति करै वा पर जाना।।
जैसे सूरज चमके आसमाना। ऐसे सत्यपुरूष सत्यलोक रहाना।।
वाकी भक्ति करे वाको पावै। बहुर नहीं जग में आवै।। (गीता अ. 8 श्लोक 8-9-10)
मम मंत्र है ओम् अकेला। (गीता अ. 8 श्लोक 13)
ताका ओम् तत् सत् दूहेला।। (गीता अ. 17 श्लोक 23)
तुम अर्जुन जावो वाकी शरणा। सो है परमेश्वर तारण तरणा।। (गीता अ. 18 श्लोक 62, 66)
वाका भेद परम संत से जानो। तत ज्ञान में है प्रमाणो।। (गीता अ. 4 श्लोक 34)
वह ज्ञान वह बोलै आपा। ताते मोक्ष पूर्ण हो जाता।। (गीता अ. 4 श्लोक 32)
सब पाप नाश हो जाई। बहुर नहीं जन्म-मरण में आई।।
मिले संत कोई तत्त्वज्ञानी। फिर वह पद खोजो सहिदानी।।
जहाँ जाय कोई लौट न आया। जिन यह संसार वृक्ष निर्माया।। (गीता अ. 15 श्लोक 4)
अब अर्जुन लेहू विचारी। कथ दीन्ही गीता सारी।। (गीता अ. 18 श्लोक 63)
गुप्त भेद बताया सारा। तू है मोकूं आजीज पियारा।। (गीता अ. 18 श्लोक 63)
अति गुप्त से गुप्त भेद और बताऊँ। मैं भी ताको इष्ट मनाऊँ।। (गीता अ. 18 श्लोक 64)
जे तू रहना मेरी शरणा। कबहु ना मिट है जन्म रू मरणा।।
नमस्कार कर मोहे सिर नाई। मेरे पास रहेगा भाई।। (गीता अ. 18 श्लोक 65)
बेसक जा तू वाकी शरणा। मम धर्म पूजा मोकूं धरणा।।
फिर ना मैं तू कूं कबहूं रोकूं। ना मन अपने कर तू शोकूं।। (गीता अ. 18 श्लोक 66)
और अनेक श्लोक सुनाया। सुन जिन्द एक प्रश्न उठाया।।
जिन्दा बाबा (कबीर जी) वचन
हे वैष्णव! तव कौन भगवाना। काको यह गीता बखाना।।
धर्मदास वचन
राम कृष्ण विष्णु अवतारा। विष्णु कृष्ण है भगवान हमारा।।
श्री कृष्ण गीता बखाना। एक एक श्लोक है प्रमाणा।।
जे तुम चाहो मोक्ष कराना। भक्ति करो अविनाशी भगवाना।।
विष्णु का कबहु नाश न होई। सब जगत के कर्ता सोई।।
तीर्थ वरत करूँ मन लावो। पिण्ड दान और श्राद्ध करावो।।
यह पूजा है मुक्ति मार्ग। और सब चले कुमार्ग।।
जिन्दा बाबा (कबीर जी) वचन
जै गीता विष्णु रूप में कृष्ण सुनाया। कह कई बार मैं नाश में आया।।1।।
अविनाशी है कोई और विधाता। जो उत्तम परमात्मा कहाता।।2।।
वह ज्ञान मोकूं नाहीं। वाको पूछो संत शरणाई।।3।।
अविनाशी की शरण में जाओ। पुनि नहीं जन्म-मरण में आओ।।4।।
मैं भी इष्ट रूप ताही पूजा। अविनाशी कोई है मोते दूजा।।5।।
मम भक्ति मंत्र ओम् अकेला। वाका ओम् तत् सत् दुहेला।।6।।
मैं तोकूं पूछूं गोसांई। तेरे भगवान मरण के माहीं।।7।।
हम भक्ति वाकी चाहैं। जो नहीं जन्म-मरण में आहै।।8।।
जे तुम पास वह मंत्र होई। तो मैं पक्का चेला होई।।9।।
यही बात एक संत सुनाई। राम कृष्ण सब मरण के माहीं।।10।।
अविनाशी कोई और दाता। वाकी भक्ति मैं बताता।।11।।
वो कह में वाही लोक से आया। मैं ही हूँ वह अविगत राया।।12।।
आज तुम गीता में फरमाया। फिर तो वह संत साच कहाया।।13।।
हे वैष्णव! तुम भी धोखे माहीं। बर्था आपन जन्म नशाहीं।।14।।
जो तू चाहो भवसागर तिरणा। जा के गहो वाकी शरणा।।15।।
कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को गीता से ही प्रश्न तथा उत्तर देकर सत्य ज्ञान समझाया। उपरोक्त वाणी सँख्या 1 में गीता अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12 वाला वर्णन बताया जिसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। वाणी सँख्या 2 में गीता अध्याय 15 श्लोक 17 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 3 में गीता अध्याय 4 श्लोक 34 वाला ज्ञान बताया है। वाणी सँख्या 4 में गीता अध्याय 18 श्लोक 62, 66 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 5 में गीता अध्याय 18 श्लोक 64 का वर्णन है जिसमें काल कहता है कि मेरा ईष्ट देव भी वही है। वाणी सँख्या 6 में गीता अध्याय 8 श्लोक 13 तथा अध्याय 17 श्लोक 23 वाला ज्ञान है। आगे की वाणियों में कबीर परमेश्वर जी ने अपने आपको छुपाकर अपने ही विषय में बताया है।
धर्मदास वचन
विष्णु पूर्ण परमात्मा हम जाना। जिन्द निन्दा कर हो नादाना।।
पाप शीश तोहे लागे भारी। देवी देवतन को देत हो गारि।।
जिन्दा (कबीर जी) वचन
जे यह निन्दा है भाई। यह तो तोर गीता बतलाई।।
गीता लिखा तुम मानो साचा। अमर विष्णु है कहा लिख राखा।।
तुम पत्थर को राम बताओ। लडूवन का भोग लगाओ।।
कबहु लड्डू खाया पत्थर देवा। या काजू किशमिश पिस्ता मेवा।।
पत्थर पूज पत्थर हो गए भाई। आखें देख भी मानत नाहीं।।
ऐसे गुरू मिले अन्याई। जिन मूर्ति पूजा रीत चलाई।।
इतना कह जिन्द हुए अदेखा। धर्मदास मन किया विवेका।।
धर्मदास वचन
यह क्या चेटक बिता भगवन। कैसे मिटे आवा गमन।।
गीता फिर देखन लागा। वही वृतान्त आगे आगा।।
एक एक श्लोक पढ़ै और रौवै। सिर चक्रावै जागै न सोवै।।
रात पड़ी तब न आरती कीन्हा। झूठी भक्ति में मन दीन्हा।।
ना मारा ना जीवित छोड़ा। अधपका बना जस फोड़ा।।
यह साधु जे फिर मिल जावै। सब मानू जो कछु बतावै।।
भूल के विवाद करूं नहीं कोई। आधीनी से सब जानु सोई।।
उठ सवेरे भोजन लगा बनाने। लकड़ी चुल्हा बीच जलाने।।
जब लकड़ी जलकर छोटी होई। पाछलो भाग में देखा अनर्थ जोई।।
चटक-चटक कर चींटी मरि हैं। अण्डन सहित अग्न में जर हैं।।
तुरंत आग बुझाई धर्मदासा। पाप देख भए उदासा।।
ना अन्न खाऊँ न पानी पीऊँ। इतना पाप कर कैसे जीऊँ।।
कराऊँ भोजन संत कोई पावै। अपना पाप उतर सब जावै।।
लेकर थार चले धर्मनि नागर। वृक्ष तले बैठे सुख सागर।।
साधु भेष कोई और बनाया। धर्मदास साधु नेड़े आया।।
रूप और पहचान न पाया। थाल रखकर अर्ज लगाया।।
भोजन करो संत भोग लगाओ। मेरी इच्छा पूर्ण कराओ।।
संत कह आओ धर्मदासा। भूख लगी है मोहे खासा।।
जल का छींटा भोजन पे मारा। चींटी जीवित हुई थाली कारा।।
तब ही रूप बनाया वाही। धर्मदास देखत लज्जाई।।
कहै जिन्दा तुम महा अपराधी। मारे चीटी भोजन में रांधी।।
चरण पकड़ धर्मनि रोया। भूल में जीवन जिन्दा मैं खोया।।
जो तुम कहो मैं मानूं सबही। वाद विवाद अब नहीं करही।।
और कुछ ज्ञान अगम सुनाओ। कहां वह संत वाका भेद बताओ।।
जिन्द (कबीर) वचन
तुम पिण्ड भरो और श्राद्ध कराओ। गीता पाठ सदा चित लाओ।।
भूत पूजो बनोगे भूता। पितर पूजै पितर हुता।।
देव पूज देव लोक जाओ। मम पूजा से मोकूं पाओ।।
यह गीता में काल बतावै। जाकूं तुम आपन इष्ट बतावै।। (गीता अ. 9/25)
इष्ट कह करै नहीं जैसे। सेठ जी मुक्ति पाओ कैसे।।
धर्मदास वचन
हम हैं भक्ति के भूखे। गुरू बताए मार्ग कभी नहीं चुके।।
हम का जाने गलत और ठीका। अब वह ज्ञान लगत है फीका।।
तोरा ज्ञान महा बल जोरा। अज्ञान अंधेरा मिटै है मोरा।।
हे जिन्दा तुम मोरे राम समाना। और विचार कुछ सुनाओ ज्ञाना।।
जिन्द (कबीर) वचन
मार्कण्डे एक पुराण बताई। वामें एक कथा सुनाई।।
रूची ऋषी वेद को ज्ञानी। मोक्ष मुक्ति मन में ठानी।।
मोक्ष की लगन ऐसी लगाई। न कोई आश्रम न बीवाह सगाई।।
दिन एक पितर सामने आए। उन मिल ये वचन फरमाए।।
बेटा रूची हम महा दुःख पाए। क्यों नहीं हमरे श्राद्ध कराए।।
रूची कह सुनो प्राण पियारो। मैं बेद पढ़ा और ज्ञान विचारो।।
बेद में कर्मकाण्ड अविद्या बताई। श्राद्ध करे पितर बन जाई।।
ताते मैं मोक्ष की ठानी। वेद ज्ञान सदा प्रमानी।।
पिता, अरू तीनों दादा। चारों पंडित नहीं बेद विधि अराधा।।
तातें भूत योनि पाया। अब पुत्र को आ भ्रमाया।।
कहें पितर बात तोरी सत है। वेदों में कर्मकाण्ड अविद्या कथ है।।
तुम तो मोक्ष मार्ग लागे। हम महादुःखी फिरें अभागे।।
विवाह कराओ अरू श्राद्ध कराओ। हमरा जीवन सुखी बनाओ।।
रूची कह तुम तो डूबे भवजल माहीं। अब मोहे वामें रहे धकाई।।
चतवारिस (40) वर्ष आयु बड़ेरी। अब कौन करै सगाई मेरी।।
पितर पतन करवाया आपन। लगे रूची को थापना थापन।।
विचार करो धर्मनी नागर। पीतर कहें वेद है सत्य ज्ञान सागर।।
वेद विरूद्ध आप भक्ति कराई। तातें पितर जूनी पाई।।
रूची विवाह करवाकर श्राद्ध करवाया। करा करवाया सबै नाशाया।।
यह सब काल जाल है भाई। बिन सतगुरू कोई बच है नाहीं।।
या तो बेद पुराण कहो है झूठे। या पुनि तुमरे गुरू हैं पूठे।।
शास्त्रा विरूद्ध जो ज्ञान बतावै। आपन बूडै शिष डूबावै।।
डूब मरै वो ले चुलु भर पाणी। जिन्ह जाना नहीं सारंगपाणी।।
दोहा:– सारंग कहें धनुष, पाणी है हाथा।
सार शब्द सारंग है और सब झूठी बाता।।
सारंगपाणी काशी आया। अपना नाम कबीर बताया।।
हम तो उनके चेले आही। गरू क्या होगा समझो भाई।।
धर्मदास वचन
जिन्दा एक अचरज है मोकूं। तुर्क धर्म और वेद पुराण ज्ञान है ताकूं।।
तुम इंसान नाहीं होई। हो अजब फरिश्ता कोई।।
और ज्ञान मोहे बताओ। युगों युगों की कथा सुनाओ।।
जिन्दा (कबीर) वचन
सुनो धर्मनि सृष्टि रचना। सत्य कहूँ नहीं यह कल्पना।।
जब हम जगत रचना बताई। धर्मदास को अचरज अधिकाई।।
धर्मदास बचन
यह ज्ञान अजीब सुनायो। तुम को यह किन बतायो।।
कहाँ से बोलत हो ऐसी बाता। जानो तुम आप विधाता।।
विधाता तो निराकार बताया। तुम को कैसे मानु राया।।
तुम जो लोक मोहे बतायो। सृष्टि की रचना सुनायो।।
आँखों देखूं मन धरै धीरा। देखूं कहा रहत प्रभु अमर शरीरा।।
(तब हम गुप्त पुनै छिपाई। धर्मदास को मूर्छा आई।।)
‘‘कबीर परमेश्वर जी का अन्य वेश में छठे दिन मिलना’’
चैपाई
दिवस पाँच जब ऐसहि बीता। निपट विकल हिय व्यापेउ चिन्ता।।
छठयें दिन अस्नान कहँ गयऊ। करि अस्नान चिंतवन कियऊ।।
पुहुप वाटिका प्रेम सोहावन। बहु शोभा सुन्दर शुठि पावन।।
तहां जाय पूजा अनुसारा। प्रतिमा देव सेव विस्तारा।।
खोलि पेटारी मूर्ति निकारी। ठाँव ठाँव धरि प्रगट पसारी।।
आनेउ तोरि पुहुप बहु भाँती। चैका विस्तार कीन्ही यहि भाँती।।
भेष छिपाय तहाँ प्रभु आये। चैका निकटहिं आसन लाये।।
धर्मदास पूजा मन लाये। निपट प्रीति अधिक चित चाये।।
मन अनुहारि ध्यान लौलावई। कहि कहि मंत्र पुहुप चढ़ावई।।
चन्दन पुष्प अच्छत कर लेही। निमित होय प्रतिमा पर देही।।
चवर डोलावहिं घण्ट बजायी। स्तुति देव की पढ़ैं चित लायी।।
करि पूजा प्रथमहि शिर नावा। डारि पेटारी मूर्ति छिपावा।।
सतगुरू बचन
अहो सन्त यह का तुम करहूँ। पौवा सेर छटंकी धरहूँ।।
केहि कारण तुम प्रगट खिडायहु। डारि पेटारी काहे छिपायेहु।।
धर्मदास बचन
बुद्धि तुम्हार जान नहि जाई। कस अज्ञानता बोलहु भाई।।
हम ठाकुर कर सेवा कीन्हा। हम कहँ गुरू सिखावन दीन्हा।।
ता कहँ सेर छटंकी कहहूँ। पाहन रूप ना देव अनुसरहूँ।।
सतगुरू बचन
अहो संत तुम नीक सिखावा। हमरे चित यक संशय आवा।।
एक दिन हम सुनेउ पुराना। विप्रन कहे ज्ञान सुनिधाना।।
वेद वाणि तिन्ह मोहि सुनावा। प्रभु कै लीला सुनि मन भावा।।
कहे प्रभु वह अगम अपारा। अगम गहे नहि आव अकारा।।
सुनेउँ शीश प्रभुकेर अकाशा। पग पताल तेहि अपर निवाशा।।
एकै पुरूष जगत कै ईसा। अमित रूप वह लोचन अमीसा।।
सोकित पोटली माहि समाहीं। अहो सन्त यह अचरज आहीं।।
औ गुरू गम्य मैं सुना रे भाई। अहैं संग प्रभु लखौ न जाई।।
अहो सन्त मैं पूछहुँ तोहीं। बात एक जो भाषो मोहीं।।
यहि घटमहँ को बोलत आही। ज्ञानदृष्टि नहि सन्त चिन्हाही।।
जौ लगि ताहि न चीन्हहुँ भाई। पाहन पूजि मुक्ति नहिं पाई।।
कोटि कोटि जो तीर्थ नहाओ। सत्यनाम विन मुक्ति न पाओ।।
जिन सुन्दर यह साज बनाया। नाना रंग रूप उपजाया।।
ताहि न खोजहु साहु के पूता। का पाहन पूजहु अजगूता।।
धर्मदास सुनि चक्रित भयऊ। पूजा पाती बिसरि सब गयऊ।।
एक टक मुख जो चितवत रहाई। पलकौ सुरति ना आनौ जाई।।
प्रिय लागै सुनि ब्रह्मका ज्ञाना। विनय कीन्ह बहु प्रीति प्रमाना।।
धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 16)
अहो साहब तब बात पियारी। चरण टेकि बहु विनय उचारी।।
अहो साहब जस तुम्ह उपदेशा। ब्रह्मज्ञान गुरू अगम संदेशा।।
छठयें दिवस साधु एक आये। प्रीय बात पुनि उनहु सुनाये।।
अगम अगाधि बात उन भाखा। कृत्रिम कला एक नहिं राखा।।
तीरथ व्रत त्रिगुण कर सेवा। पाप पुण्य वह करम करेवा।।
सो सब उन्हहि एक नहिं भावै। सबते श्रेष्ठ जो तेहि गुण गावै।।
जस तुम कहेहु बिलोई बिलोई। अस उनहूँ मोहि कहा सँजोई।।
गुप्त भये पुनि हम कहँ त्यागी। तिन्ह दरशन के हम बैरागी।।
मोरे चित अस परचै आवा। तुम्ह वै एक कीन्ह दुइ भावा।।
तुम कहाँ रहो कहो सो बाता। का उन्ह साहब कहँ जानहु ताता।।
केहि प्रभु कै तुम सुमिरण करहू। कहहु बिलोइ गोइ जनि धरहू।।
सतगुरू वचन
अहो धर्मदास तुम सन्त सयाना। देखौ तोहि में निरमल ज्ञाना।।
धर्मदास मैं उनकर सेवक। जहँहि सो भव सार पद भेवक।।
जिन कहा तुमहिं अस ज्ञाना। तिन साहेब कै मोहि सहिदाना।।
वे प्रभु सत्यलोकके वासी। आये यहि जग रहहि उदासी।।
नहिं वौ भग दुवार होइ आये। नहिं वो भग माहिं समाये।।
उनके पाँच तत्त्व तन नाहीं। इच्छा रूप सो देह नहिं आहिं।।
निःइच्छा सदा रहँहीं सोई। गुप्त रहहिं जग लखै न कोई।।
नाम कबीर सन्त कहलाये। रामानन्द को ज्ञान सुनाये।।
हिन्दू तुर्क दोउ उपदेशैं। मेटैं जीवन केर काल कलेशैं।।
माया ठगन आइ बहु बारी। रहैं अतीत माया गइ हारी।।
तिनहि पठावा मोहे तोहि पाही। निश्चय उन्ह सेवक हम आही।।
अहो सन्त जो तुम कारज चहहू। तो हमार सिखावन चित दे गहहू।।
उनकर सुमिरण जो तुम करिहौ। एकोतर सौ वंशा लै तरिहौ।।
वो प्रभु अविगत अविनाशी। दास कहाय प्रगट भे काशी।।
भाषत निरगुण ज्ञान निनारा। वेद कितेब कोइ पाव न पारा।।
तीन लोक महँ महतो काला। जीवन कहँ यम करै जंजाला।।
वे यमके सिर मर्दन हारे। उनहि गहै सो उतरै पारे।।
जहाँ वो रहहि काल तहँ नाहीं। हंसन सुखद एक यह आही।।
धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 17)
अहो साहब बलि बलि जाऊँ। मोहिं उनके सँदेश सुनाऊँ।।
मोरे तुम उनहीं सम आही। तुम वै एक नाहिं बिलगाई।।
नाम तुम्हार काह है स्वामी। सो भाषहु प्रभु अन्तर्यामी।।
सतगुरू वचन
धर्मनि नाम साधु मम आही। सन्तन माँह हम सदा रहाही।।
साधु संगति निशिदिन मन भावै। सन्त समागम तहाँ निश्चय जावैं।।
जो जिव करै साधु सेवकाई। सो जिव अति प्रिय लागै भाई।।
हमरे साहिब की ऐसन रीति। सदा करहिं सन्त समागम सो प्रीती।।
जो जिव उन्हकर दीक्षा लेहीं। साधू सेव सिखावन देहीं।।
जीव पर दया अरू आतम पूजा। सतपुरूष भक्ति देव नहिं दूजा।।
सद्गुरू संकट मोचक आहीं। सच्चि भक्ति छुवैं यम नाहीं।।
धर्मदास बचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 18)
अहो साहब तुम्ह अविगत अहहू। अमृत वचन तुम निश्चय कहहू।।
हे प्रभु पूछेऊँ बात दुइ चारा। अब मैं परिचय भेद विचारा।।
सो तो हम नहिं जानहिं स्वामी। तुम कहहु प्रभु अंतरयामी।।
सतगुरू वचन
अहो धर्मदास तुम्ह भल यह भाखो। कहो सो जो प्रतीति तुम राखो।।
अहहु निगुरा कि गुरू कीन्हूँ भाई। तौन बात मोहि कहहु बुझाई।।
धर्मदास वचन
समर्थ गुरू हमने कीन्हा। यह परिचे गुरू मोहि न दीन्हा।।
रूपदास विठलेश्वर रहहीं। तिनकर शिष्य सुनहुँ हम अहहीं।।
उन मोहिं इहे भेद समुझावा। पूजहु शालिग्राम मन भावा।।
गया गोमती काशी परागा। होइ पुण्य शुद्ध जनम अनुरागा।।
लक्ष्मी नारायण शिला कै दीन्हा। विष्णु पंजर पुनि गीता चीन्हा।।
जगन्नाथ बलभद्र सहोद्रा। पंचदेव औरो योगीन्द्रा।।
बहुतैं कही प्रमोध दृढ़ाई। विष्णुहिं सुमिरि मुक्ति होइ भाई।।
गुरू के वचन शीश पर राखा। बहुतक दिन पूजा अभिलाखा।।
तुम्हरे भेष मिले प्रभु जबते। तुम बानी प्रिय लागी तबते।।
वे गुरू तुम्हहीं सतगुरू अहहू। सारभेद मोहिं प्रभु कहहू।।
तुम्हरा दास कहाउब स्वामी। यमते छोड़ावहु अन्तरयामी।।
उनहूँ कर नाहीं निन्द करावै। अस विश्वास मोरे मन आवै।।
वह गुरू सर्गुण निर्गुण पसारा। तुमहौ यमते छोड़ावनहारा।।
सतगुरू वचन
सुनु धर्मनि जो तव मन इच्छा। तौ तोहिं देउँ सार पद दिच्छा।।
दो नाव पर जो होय असवारा। गिरे दरिया में न उतरे पारा।।
तुम अब निज भवन चलि जाऊ। गुरू परीक्षा जाइ कराऊ।।
अब तुम रूपदास पै जाओ। अपना संसा दूर कराओ।।
जो गुरू तुम्हैं न कहैं सँदेशा। तब हम तुम्ह कहँ देवें उपदेशा।।
धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 19)
हे साहेब एक आज्ञा चाहों। दया करो कछु प्रसाद लै आवों।।
सतगुरू वचन
हे धर्मदास मोहि इच्छा नाहीं। छुधा न व्यापै सहज रहाहीं।।
सत्यनाम है मोर अधारा। भक्ति भजन सतसंग सहारा।।
धर्मदास वचन
अहो साहब जो अन्न न खाहू। तो मोरे चितकर मिटै न दाहू।।
सतगुरू वचन
तुमरी इच्छा तो ल्यावहु भाई। अन्न खायें तब हम जाई।।
धर्मदास उठि हाट सिधाये। बतासा पेड़ा रूचि लै आये।।
धरेउ मोर आगे भाव ऊचेरा। विनय भाव कीन्ह बहुतेरा।।
विमल भाव किन्हा धर्मदासा। खाया प्रसाद पेड़ा पतासा।।
अहो साहु अब अज्ञा देहू। गुरू पहँ जाय मैं आशिष लेहू।।
धर्मदास वचन
करि दण्डवत धर्मनि कर जोरी। अब कब सुदिन होई मोरी।।
तेहि दिन सुदिन लेखे प्रभुराई। जेहि दिन तुव पुनः दरशन पाई।।
हम कहँ निज चेरा करि जानो। सत्य कहौं निश्चय करि मानो।।
आशिष दै प्रभु चले तुरन्ता। अबिगति लीला लखे को अन्ता।।
धर्मदास चितवहिं मगु ठाढो। उपजा प्रेम हृदय अति गाढो।।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से कहा कि हे प्रभु! आपकी आज्ञा हो तो कुछ प्रसाद खाने को लाऊँ। परमात्मा ने कहा कि मुझे क्षुधा (भूख) नहीं लगती। मैं सतनाम स्मरण के आधार रहता हूँ। धर्मदास जी ने कहा कि यदि आप मेरा अन्न नहीं खाओगे तो मेरी दाह यानि तड़फ समाप्त नहीं होगी। आप अवश्य कुछ भोग लगाओ। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि जो तेरी इच्छा है, ले आ। धर्मदास दुकान से बतासे और पेड़े ले आया। धर्मदास का सच्चा भाव देखकर परमात्मा जी ने भोग लगाया। फिर कहा कि हे साहु (सेठ) धर्मदास! मुझे आज्ञा दे, मैं अपने गुरू जी के पास काशी में जाकर आशीर्वाद ले लुँ। धर्मदास जी ने कहा कि प्रभु! अब पुनः मेरे कब अच्छे दिन आएँगे? मेरे वह सुदिन लेखे में होंगे जब आप पुनः मुझे मिलोगे। आप मुझे अपना दास मान लो, मैं विश्वास के साथ कह रहा हूँ। प्रभु कबीर जी धर्मदास को आशीर्वाद देकर चल पड़े। धर्मदास उस रास्ते को देखता रहा और हृदय में परमात्मा के प्रति विशेष प्रेम उमड़ रहा था।
‘‘धर्मदास जी का गुरू रूपदास जी के निकट जाकर प्रश्न पूछना’’
धर्मदास वचन-चैपाई (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 20)
धर्मदास चलि गए गुरू पाहाँ। रूपदास कर आश्रम जाहाँ।।
पहुँचे जाइ गुरू के धामा। होइ आधीन तब कीन्ह प्रणामा।।
तुम गुरूदेव शिष्य हम आहीं। परचे ज्ञान कहहु मोहि ताँही।।
जीव मुक्त कौन विधि होई। तन छूटे कहँ जाय समोई।।
(जिवकर मुक्ति कैसे होइ सांई। पारब्रह्म सो कहाँ रहाई?।।)
आदि ब्रह्म सो कहवां रहाई। घट महँ बोले कौन सो आही।।
ताकर नाम कहो हम ताँही। मेरे मन का संशय जाई।।
राम कृष्ण से न्यारा सोई। जग करता प्रभु कहां समोई।।
गुरू रूपदास वचन
धर्मदास तुम भयो अजाना। को सिखयो तोहि अस ज्ञाना।।
सुमिरहु राम कृष्ण भगवाना। ठाकुर सेवा कर बुधिवाना।।
हरदम जप लक्ष्मी नारायण। प्रतिमा पूजन मुक्ति परायन।।
मन वच सुमिरहु कुन्ज बिहारी। रहै वैकुण्ठ सोइ बनवारी।।
पुरूषोत्तम पुरि वेगि सिधाओ। जगन्नाथ परसो घर आओ।।
गया गोमती काशी थाना। तीरथ नहाय पुण्य परधाना।।
निराकार निर्गुण अविनाशी। ज्योति स्वरूप शून्य का वासी।।
ताहि पुरूषकर सुमिरहु नामा। तन छूटै पहुँचहु हरिधामा।।
धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 21)
हो गुरूदेव पूँछो यक बाता। क्रोध करि कहहु जनि ताता।।
जीव रक्षक सो कहाँ रहाही। निराकार जिव भक्षक आही।।
लक्ष जीव नित खाय निरंजन। सवा लाख करै नित उत्पन्न।।
तीनों देव पडे़ं मुख काला। सुर नर मुनि सब करै बिहाला।।
नर बपुराकी कौन चलावै। कौनी ठोर जीव बच पावै।।
तीन लोक वैकुण्ठ नशायी। अस्थिर घर मोहि देहु बतायी।।
पाप पुण्य भ्रम जाल पसारा। कर्म बन्ध भरमे संसारा।।
कीर्ति क्रत्रम की करें जुनि नहिं छूटै। सत्यनाम बिनु यम धरि लूटै।।
रूपदास वचन
अहो धर्मदास हम चक्रित होही। यह कछु समझि परै नहिं मोही।।
तीनि लोक के कर्ता जोहै। तेहि भाषत हौ जमरा सोहै।।
ब्रह्मा विष्णु महेश गोसाई। तुम्ह तेही कहहु काल धरि खाई।।
तीनि लोक में वैकुण्ठहिं श्रेष्ठा। सो सब तुम्ह कहेहु निकृष्ठा।।
तीरथ व्रत अरू पुण्य कमाई। तुम यमजाल ताहि ठहराई।।
और अधिक मैं कहा बताऊँ। जो जानों सो नहीं दुराऊँ।।
जिन्ह तोहि अस बुद्धि दिया भाई। तिनहीं कहँ तुम सेवहु जाई।।
धर्मदास वचन
धर्मदास विनवैं कर जोरी। चूक ढिठाई बक्सहु मोरी।।
हम तेही पद अब सेवैं जायी। जिन्ह यह अगम मोही बतायी।।
तुम्हहूँ गुरू वो सतगुरू मोरा। उन हमार यमफन्दा तोरा।।
तुमने ज्ञान देय अभक्ष्य छुड़ावा। उन मोहि अलख अगम्य लखावा।।
धर्मदास तब करी प्रणामा। बांधवगढ़ पहुँचे निज धामा।।
कैतिक दिन यहि भाँति गयऊ। धर्मदास मन चिन्ता भयऊ।।
केतिक दिवस यहि विधि बीता। धर्मदास चित बाढ़ी प्रीता।।
धर्मदास मन माही विचारा। प्रभु आवै करूं भण्डारा।।
यज्ञ मांही साधु जीमाऊँ। जिन्दा कहत हम साधन मांह आऊँ।।
इस विध मैं दर्शन पाऊँ। अपना सब संसा नसाऊँ।।
धर्मनि तीन दिवस धर्म यज्ञ आरंभा। अन्तिम दिन हुआ अचम्बा।।
जिन्दा रूप धरी प्रभु आये। कदम वृक्ष तलै आसन लाये।।
आसन अधर देह नहिं छाया। अविगति लीला देख हर्षाया।।
धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 23)
जोरि पाणि (हाथ) मैं पूछौं स्वामी। कहो कृपा करि अन्तरयामी।।
अहो साहेब नाम का आही। परचै नाम कहो मोहि पाहीं।।
गुरू अरू सतगुरू तुमको का कहहूँ। हे प्रभु कौन देश तुम रहहू।।
जिन्दा वचन
हो धर्मनि जो पूछेहु मोहीं। सुनहुँ सुरति धरि कहो मैं तोही।।
जिन्दा नाम अहै सुनु मोरा। जिन्दा भेष खोज किहँ तोरा।।
हम सतगुरू कर सेवक आहीं। सतगुरू संग हम सदा रहाहीं।।
सत्य पुरूष वह सतगुरू आहीं। सत्यलोक वह सदा रहाहीं।।
सकल जीव के रक्षक सोई। सतगुरू भक्ति काज जिव होई।।
सतगुरू सत्यकबीर सो आहीं। गुप्त प्रगट कोइ चीन्है नाहीं।।
सतगुरू आ जगत तन धारी। दासातन धरि शब्द पुकारी।।
काशी रहहिं परखि हम पावा। सत्यनाम उन मोहि दृढ़ावा।।
जम राजा का सब छल चीन्हा। निरखि परखिभै यम सो भीना।।
तीन लोक जो काल सतावै। ताको ही सब जग ध्यान लगावै।।
ब्रह्म देव जाकूँ बेद बखानै। सोई है काल कोइ मरम न जानै।।
तिन्ह के सुत आहि त्रिदेवा। सब जग करै उनकी सेवा।।
त्रिगुण जाल यह जग फन्दाना। जाने न अविचल पुरूष पुराना।।
जाकी ईह जग भक्ति कराई। अन्तकाल जिव को सो धरि खाई।।
सबै जीव सतपुरूषके आहीं। यम दै धोख फांसा ताहीं।।
प्रथमहि भये असुर यमराई। बहुत कष्ट जीवन कहँ लाई।।
दूसरि कला काल पुनि धारा। धरि अवतार असुर सँघारा।।
जीवन बहु विधि कीन्ह पुकारा। रक्षा कारण बहु करै पुकारा।।
जिव जानै यह धनी हमारा। दे विश्वास पुनि धरै अवतारा।।
प्रभुता देखि कीन्ह विश्वासा। अन्तकाल पुनि करै निरासा।।
(ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 24)
कालै भेष दयाल बनावा। दया दृढ़ाय पुनि घात करावा।।
द्वापर देखहु कृष्णकी रीती। धर्मनि परिखहु नीति अनीती।।
अर्जून कहँ तिन्ह दया दृढावा। दया दृढाय पुनि घात करावा।।
गीता पाठकै अर्थ बतलावा। पुनि पाछे बहु पाप लगावा।।
बन्धु घातकर दोष लगावा। पाण्डो कहँ बहु काल सतावा।।
भेजि हिमालय तेहि गलाये। छल अनेक कीन्ह यमराये।।
पतिव्रता वृन्दा व्रत टारा। ताके पाप पहने औतारा।।
बलिते सो छल कीन्ह बहुता। पुण्य नसाय कीन्ह अजगूता।।
छल बुद्वि दीन्हे ताहिं पताला। कोई न लखै प्रंपची काला।।
बावन सरूप होय प्रथम देखाये। पृथिवी लीन्ह पुनि स्वस्ति कराये।।
स्वस्ति कराइ तबै प्रगटाना। दीर्घरूप देखि बलि भय माना।।
तीनि पग तीनौ पुर भयऊ। आधा पाँव नृप दान न दियऊ।।
देहु पुराय नृप आधा पाऊँ। तो नहिं तव पुण्य प्रभाव नसाऊँ।।
तेहि कारण पीठ जगह दीन्हा। अन्धा जीव छल प्रगट न चीन्हा।।
तब लै पीठ नपय तेहि दीन्हा। हरि ले ताहि पतालै कीन्हा।।
यह छल जीव देखि नहि चीन्हा । कहै मुक्ति हरि हमको कीन्हा।।
और हरिचन्द का सुन लेखा। धर्मदास चित करो विवेका।।
स्वर्ग के धोखे नरकही जाहीं। जीव अचेत यम छल चीन्है नाहीं।।
पाण्डव सम की कृष्ण कूँ प्यारे। सो ले नरक मेंह डारे।।
(ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 25)
यती सती त्यागी भयऊ। सब कहँ काल बिगुचन लयऊ।।
सो वैकुंठ चाहत नर प्रानी। यह यम छल बिरले पहिचानी।।
जस जो कर्म करै संसारा। तस भुगतै चैरासी धारा।।
मानुष जन्म बडे़ पुण्य होई। सो मानुष तन जात बिगोई।।
नाम विना नहिं छूटे कालू। बार बार यम नर्कहिं घालू।।
नरक निवारण नाम जो आही। सुर नर मुनि जानत कोइ नाहीं।।
ताते यम फिर फिर भटकावै। नाना योनिन में काल सतावै।।
विरलै सार शब्द पहिचाने। सतगुरू मिले सतनाम समाने।।
ऐसे परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को काल जाल से छुड़वाने के लिए कई झटके दिए। अब दीक्षा मंत्र देने का प्रकरण पढ़ें।
‘‘धर्मदास जी को प्रथम नाम दीक्षा देना’’
(ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 30) धर्मदास वचन
हे साहब मैं तब पग सिर धरऊँ। तुम्हते कछु दुविधा नहिं करऊँ।।
अब मोहि चिन्हि परी यमबाजी। तुम्हते भयउ मोरमन राजी।।
मोरे हृदय प्रीति अस आई। तुम्हते होइहै जिव मुक्ताई।।
तुमहीं सत्यकबीर हौ स्वामी। कृपा करहु तुम अन्तर्यामी।।
हे प्रभु देहु प्रवाना मोही। यम तृण तोरि भजौ मैं तोही।।
मोरे नहीं अवर सो कामा। निसिदिन सुमिरों सद्गुरू नामा।।
पीतर पात्थर देव बहायी। सद्गुरू भक्ति करूँ चितलायी।।
अरपौं शीस सर्वस सब तोहीं। हे प्रभु यमते छोड़ावहु मोही।।
सन्तन्ह सेवाप्रीति सों करिहौं। वचन शिखापन निश्चय धरिहौं।।
जो तुम्ह कहो करब हम सोई। हे प्रभु दुतिया कबहुँ नहिं होई।।
जिन्दा वचन
सुनु धर्मनि अब तोहीं मुक्ताओ। निश्चय यमसों तोहि बचाओं।।
देइ परवाना हंस उबारों। जनम मरण दुख दारूण टारों।।
ले प्रवाना जो करै प्रतीती। जिन्दा कहै चले यम जीती।।
अब मोहि आज्ञा देहु धर्मदासा। हम गवनहि सद्गुरू के पासा।।
सद्गुरू संग आइब तव पाहीं। तब परवाना तोहि मिलाहीं।।
धर्मदास वचन
हे प्रभु अब तोहि जाने न दैहौं। नहिं आवो तो मैं पछितैहौं।।
पछताइ पछताइ बहु दुख पैहौं। नहिं आवहुतो प्राण गवैहौं।।
हाथ के रतन खोइ कोइ डारै। सो मूरख निजकाज विगारै।।
विशेष:– कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 31 से 35 में भले ही मिलावट है, परंतु अन्य पृष्ठों पर सच्चाई भी कमाल की है। जो आरती चैंका की सामग्री है, वह मिलावटी है। कुछ शब्दों का भी फेरबदल किया हुआ है। आप जी को सत्य ज्ञान इसी विषय में इसी पुस्तक के पृष्ठ 384 पर पढ़ने को मिलेगा जिसका शीर्षक (भ्मंकपदह) है ‘‘किस-किसको मिला परमात्मा‘‘। कबीर सागर के ये पृष्ठ नम्बर पाठकों को विश्वास दिलाने के लिए बताए हैं ताकि आप कबीर सागर में देखकर मुझ दास (लेखक) द्वारा बताए ज्ञान को सत्य मानें।
विचार करें:– ज्ञान प्रकाश में धर्मदास जी का प्रकरण पृष्ठ 35 के पश्चात् पृष्ठ 50 से जुड़ता (स्पदा होता) है। पृष्ठ 36 से 49 तक सर्वानन्द का प्रकरण गलत लिखा है। उस समय तक तो सर्वानन्द से परमात्मा कबीर जी मिले भी नहीं थे।
विचार:– कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ पृष्ठ 31 से 35 तथा 50 से 51 पर परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा कि मैं तेरे को गुरूपद प्रदान करूँगा। आप उसको दीक्षा देना जो आपको सवा लाख रूपये गुरू दक्षिणा के चढ़ाए। परमेश्वर कबीर जी को पता था कि धर्मदास व्यापारी व्यक्ति है, कहीं नाम दीक्षा को व्यापार न बना ले। परंतु धर्मदास जी विवेकशील थे। भगवान प्राप्त करने के लिए समर्पित थे। धर्मदास जी ने कहा कि प्रभु! जिसके पास सवा लाख रूपये (वर्तमान के सवा करोड़ रूपये) नहीं होंगे, वह तो काल का आहार ही रहेगा अर्थात् उसकी मुक्ति नहीं हो सकेगी। हे परमेश्वर! कुछ थोड़े करो। करते-कराते अंत में मुफ्त दीक्षा देने का वचन ले लिया। फिर जिसकी जैसी श्रद्धा हो, वैसा दान अवश्य करे। इस प्रकरण में पृष्ठ 51.53 पर कबीर पंथियों ने कुछ अपने मतलब की वाणी बनाकर लिखी हैं जो कहा है कि सवा सेर मिठाई आदि-आदि। यह भावार्थ पृष्ठ 51-53 का है।
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 53 और 54 की है।
पृष्ठ 53-54 दोनों का भावार्थ इस प्रकार है:-
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी धर्मदास जी को पहले कई बार अन्य रूप में मिले थे। धर्मदास जी की अरूचि देखकर अंतध्र्यान हो जाते थे। बीच में धर्मदास जी को अन्य रूप में मिले थे। तब धर्मदास जी ने कहा था कि मुझे एक संत मिले थे। वे भी आप वाला ज्ञान ही सुनाते थे। उन्होंने मेरे को बहुत सुख दिया। जब आप मुझे छोड़कर चले जाते थे, मैं रोता रहता था। उस संत ने मुझे सांत्वना दी तथा अमर पुरूष तथा अमर लोक की कथा सुनाई। तब परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! हम दोनों ही उस काशी वाले कबीर जुलाहे के सेवक हैं। हम एक ही गुरू के शिष्य हैं। इसलिए हम वही ज्ञान प्रचार करते हैं जो हमारे गुरू कबीर जी ने हमें बताया है। धर्मदास ने कहा कि हे साहिब! आपने बताया कि आप तथा वह एक गुरू के शिष्य हैं। आपका ऐसा ज्ञान है तो आप जी के गुरू जी का ज्ञान कितना उत्तम होगा। मैं आपके सतगुरू जी के दर्शन करना चाहता हूँ। परमेश्वर जी ने पृष्ठ 54 पर यह भी बताया है कि शिष्य की आस्था गुरू के प्रति कैसी होनी चाहिए?
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 55 की है।
भावार्थ:– प्रभु कबीर जी धर्मदास के समक्ष तीनों रूप में प्रकट हुए तथा कहा कि यह तीनों रूप मेरे ही हैं। काशी वाले कबीर के रूप में दोनों समा गए। एक कबीर रूप बन गए। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से सत्यलोक तथा परमात्मा को देखने की विनय की तो परमेश्वर जी ने कहा कि यह मानव शरीर विकारों से भरा है। इसमें कैसे परमात्मा देखा जा सकता है? आप दीक्षा लो, भक्ति करो। जब शरीर समाप्त होने का ठीक का (निर्धारित) समय आएगा, तब सत्यलोक में परमात्मा को जाकर देखना। धर्मदास जी अधिक हठ करने लगा तो परमात्मा अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास जी ने सात दिन तक अन्न नहीं खाया तथा प्रथम मंत्र का निरंतर जाप किया।
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 56 की है।
भावार्थ:– वर्णन है कि धर्मदास जी ने सात दिन तक कुछ नहीं खाया-पीया। सातवें दिन प्रभु कबीर जी धर्मदास जी के पास प्रकट हुए। धर्मदास जी ने विलाप करते हुए परमेश्वर के चरण पकड़े और चरणों में गिर गए क्योंकि शरीर दुर्बल हो गया था। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को हाथ पकड़कर अपने चरणों से उठाया और सिर पर हाथ रखा। अपने शरीर से मिलाकर धर्मदास जी को प्यार दिया। धर्मदास जी ने चरणोदक (चरण धोकर चरणामृत बनाकर) पीया। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी से कहा कि तुम कुछ प्रसाद (भोजन) खाओ। फिर मेरे पास आओ। धर्मदास जी शीघ्र गए और शीघ्र-शीघ्र कुछ अल्प आहार करके आचमन करके शीघ्र परमेश्वर जी के पास आ गए। भय था कि कहीं फिर न चले जाएँ। धर्मदास जी ने पूछा कि हे परवरदिगार! आप इतने दिन कहाँ रहे? प्रभु ने बताया कि मैं कालिंजर देश में गया था। वहाँ कुछ भक्तों को प्रथम दीक्षा दी। वहाँ मैंने कोई आरती चैंका नहीं किया, न ही नारियल फोड़ा। वचन से नाम देकर अपना किया है। वहाँ साखी तथा शब्द व रमैणी करके उनको पवित्र किया है। उनको सत्यनाम की प्रेरणा की थी, परंतु उन्होंने समझा नहीं और सत्यनाम में रूचि नहीं दिखाई। उन्होंने दूसरा प्रवाना (नाम दीक्षा) नहीं लिया।
धर्मदास को सत्यलोक तथा सत्यपुरूष के दर्शन कराना
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 57 की है।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने कहा कि हे प्रभु! मैं आपके निहोरे निकालते हुए यानि गिड़गिड़ाते हुए कह रहा हूँ कि आप एक बार मेरे को सत्यलोक तथा उसमें रहने वाले समर्थ परमात्मा के दर्शन करा दो। आपने सत्यलोक की शोभा का जो वर्णन किया है, उसको देखने को मेरा मन लुभा रहा है। आपकी लीला (चमत्कार) मैंने बहुत देखे हैं, परंतु परमात्मा को देखे बिना मेरे मन में शंका बनी रहेगी। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप यह जिद क्यों कर रहे हो? आप मेरी बातों पर विश्वास करो, मेरे बताए भक्ति कर्म को करके शरीर त्यागकर वहाँ चले जाओगे, फिर लोक तथा लोक नायक दोनों को देखना। मेरे तथा परमात्मा में कोई अंतर नहीं है जैसे जल तथा तरंग में भिन्नता नहीं होती। यह नियम है कि परमात्मा और गुरू को एक मानना चाहिए, तब सफलता मिलती है। यह वचन सुनकर भी धर्मदास जी ने फिर वही रट लगाई तो परमेश्वर जी धर्मदास जी की आत्मा को सत्यलोक में ले गए। एक पल में सत्यलोक में पहुँच गए। सत्यलोक की शोभा देखकर धर्मदास आनन्दित हुआ। वहाँ पर मानों असँख्यों सूरज तथा चाँद उदय हुए हों, इतना प्रकाश सत्यलोक की भूमि का है। शेष ज्ञान प्रकाश के पृष्ठ 58 पर आगे है।
‘‘कबीर जी ही सतपुरूष हैं’’
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 58 की है।
भावार्थ:– सत्यलोक में जहाँ तक दृष्टि गई, धर्मदास जी ने देखा कि प्रकाश झलक रहा था। परमेश्वर (सत्य पुरूष) के दरबार के द्वार पर एक द्वारपाल (सन्तरी) खड़ा था। उसको जिन्दा रूप में नीचे से गए प्रभु ने कहा कि यह भक्त परमेश्वर जी के दर्शन करने मृतलोक से आया है, इसको प्रभु के दर्शन कराओ। जिन्दा वेशधारी परमेश्वर बाहर ही बैठ गए थे। द्वारपाल ने एक अन्य हंस (सत्यलोक में भक्त को हंस तथा भक्तमती को हंसनी कहते हैं) से कहा कि आप इस भक्त को सत्यपुरूष के दर्शन कराओ। जब वह हंस धर्मदास जी को दर्शन के लिए लेकर चला तो बहुत सारे हंस आ गए और धर्मदास जी का स्वागत करते हुए नाचते हुए आगे-आगे चले। उनका शरीर विशाल था, गले में रत्नों की माला थी। उनके नाक, मुख, गर्दन की शोभा अनोखी थी। सोलह सूर्यों जितना शरीर का प्रकाश था। उनके रोम (शरीर के बाल) की चमक रत्न (हीरे) जितनी थी। उनका शरीर अमर (अविनाशी) है। सब मिलकर पुरूष दरबार में गए। सत्यपुरूष जी सिंहासन पर बैठे थे। उनके एक रोम का प्रकाश करोड़ चन्द्रमाओं तथा सूर्यों जितना था। धर्मदास जी ने देखा कि ये तो वही चेहरा है जो नीचे जिन्दा बाबा के वेश में मिले थे तथा मुझे यहाँ लेकर आए हैं। धर्मदास जी बहुत लज्जित हुए और विचार करने लगे कि नीचे मुझे विश्वास नहीं हुआ कि यह जिन्दा ही परमेश्वर हैं। दर्शन करवाकर धर्मदास जी को वहीं लाया गया जहाँ जिन्दा रूप में प्रभु दरबार के बाहर बैठे छोड़कर अन्दर गया था।
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 59 की है।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने कहा कि कबीर तथा सत्य पुरूष एक ही है। यही सत्यपुरूष जगत में दास (कबीर दास) कहलाता है। यह इनकी महानता है। धर्मदास जी ने दौड़कर परमेश्वर जी के चरण पकड़कर कहा कि हे प्रभु! अब आपका यथार्थ परिचय मिला है। आप स्वयं ही परमेश्वर हैं। हे परमेश्वर! आपने अपनी यह छवि वहाँ (पृथ्वी पर) किसलिए छुपा रखी है? वहाँ पर प्रकट क्यों नहीं की? परमेश्वर कबीर जी ने उत्तर दिया कि मेरी शोभा नीचे देखकर काल निरंजन मुझे पहचानकर व्याकुल हो जाएगा। सर्व प्राणी मेरे पीछे पड़ जाएँगे। मैंने काल से वचन किया है कि मैं अपना ज्ञान देकर सत्य भक्ति का धनी बनाकर जीवों को सत्यलोक में ले जाऊंगा। यह वचन काल निरंजन ने विनय करके लिया था। वास्तविकता यह है कि जब तक जीव को काल लोक के कष्ट का और सत्यलोक के सुख का ज्ञान नहीं होगा तो वह यदि सत्यलोक चला भी गया तो फिर वापिस आ जाएगा। पहले सब सत्यलोक में ही तो थे। वहीं से नीचे गिरे हैं। इसलिए तत्त्वज्ञान कराना तथा सत्यभक्ति से धनी बनाकर सत्यलोक ले जाना उचित है। मैं इसीलिए नीचे पृथ्वी पर गुप्त रहकर सर्व कार्य करता हूँ। धर्मदास जी ने कहा कि हे प्रभु! मुझे यहीं रहने दो। मैं अब उस गन्दे लोक में नहीं जाऊँगा। परमेश्वर जी ने कहा कि आप चिन्ता न करो, मैं सदा तेरे साथ रहूँगा। आपने जो सत्य लोक तथा परमात्मा को आँखों देखा है, नीचे के भक्तों को बताना, उनका विश्वास बढ़ाना। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी की आज्ञा मानी और उनके साथ नीचे आए। शरीर में प्रवेश करके उठे तथा यहाँ के लोक को देखकर व्याकुल हो गए। इस पृष्ठ के प्रकरण में कुछ प्रकरण छोड़ा है, कुछ जोड़ा है। यह मिलावट करने वालों की करतूत है। फिर भी सच्चाई पर्याप्त है। यह तो पाठकों को विश्वास दिलाने के लिए फोटोकाॅपी लगाई है। वास्तविक ज्ञान आप जी पढ़ेंगे इसी पुस्तक के पृष्ठ 384 पर ‘‘किस-किसको मिला परमात्मा‘‘ में।
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 60 की है।
भावार्थ:– सत्यलोक तथा परमेश्वर को सत्यलोक में पहचानकर धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी का धन्यवाद किया। कहा है कि जैसे पारस पत्थर से स्पर्श होने के पश्चात् लोहा स्वर्ण बन जाता है। ऐसे मेरा जीवन सत्य भक्ति से बहुमूल्य हो गया है। मेरा जन्म-मरण समाप्त हो जाएगा। जैसे भृंग, कीट को अपने समान बना लेता है, ऐसे आप जी ने मेरे को अपना शिष्य बनाया है। गुरू का शब्द (मन्त्रा) विश्वास के साथ गहे (ग्रहण) करे तो उस शिष्य की मनोकामना गुरू पूरी करता है। सतगुरू भक्ति धन का शाह (सेठ) यानि धनी होता है। सेठ से धन लेकर जो अपना व्यापार बढ़ाता है तो धनी हो जाता है यानि शिष्य गुरू से दीक्षा लेकर मर्यादा में रहकर भक्ति करता है तो मोक्ष प्राप्त कर लेता है। कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 61 में गुरू की महिमा बताई है। पढ़ने से आसानी से समझ आती है। अधिक सरलार्थ की आवश्यकता नहीं है।
यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 62 की है।
इसमें सत्यनाम भी लिखा है जो धर्मदास को परमेश्वर कबीर जी ने जाप के लिए दिया था। यह अपभ्रंश किया है:-
सोहं ओहं जानव बीरू। धर्मदास से कहा कबीरू।।
सत्य शब्द (नाम) गुरू गम पहिचाना। बिन जिभ्या करू अमृत पाना।।
विवेचन:– आप जी ने कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ की फोटोकाॅपी पढ़ी। ये प्रमाण के लिए लगाई हैं। भले ही इनमें कुछ मिलावट है, परंतु कुछ सच्चाई भी बची है। इस पृष्ठ पर यह भी स्पष्ट किया है कि नाद पुत्र दो प्रकार के हैं। जैसे सतलोक में सतपुरूष ने सोलह वचनों से सोलह सुत उत्पन्न किए थे। वे नाद पुत्र हैं तथा धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ली थी तो धर्मदास जी भी नाद पुत्र हुए। इसी प्रकार जो गुरू से दीक्षा लेता है, वह नाद पुत्र होता है। उसे वचन पुत्र भी कहते हैं।
अब आप जी को आत्मा (धर्मदास जी) तथा परमात्मा (कबीर बन्दी छोड़ जी) का यथार्थ संवाद अर्थात् धर्मदास जी को शरण में लेने का यथार्थ प्रकरण सुनाता हूँ।