Muktibodh - Sant Rampal Ji - Parakh Ka Ang

पारख का अंग (940-1124)

धर्मदास जी को शरण में लेना

{पाठकों से निवेदन है कि अमृतवाणी को भी पढ़ें। इसके पढ़ने से आत्मा का आकर्षण परमात्मा की ओर अधिक होता है। यह वाणी परमात्मा से मिले महात्मा के मुख कमल से उच्चारण की गई है। यह सिद्ध वाणी है। आत्मा को धो देती है। फिर परमात्मा की भक्ति में रूचि बढ़ती है।}

पारख के अंग की वाणी नं. 940-1024 तथा चैपाई नं. 1025-1124 का सरलार्थः-

पारख के अंग की वाणी नं. 940-943:-

धर जिंदे का रूप, सैल बृन्दाबन कीनी। तहां मिले धर्मदास करत हैं बहुत आधीनी।।940।।
बौहरंगी बरियाम, काम निहकामी सोई। धरि सतगुरू का रूप, धनी उतरे हैं लोई।।941।।
परम उजागर ज्ञान, ध्यान बौहरंगी बानां। तहां मिले धर्मदास, अचार बिचार दिवानां।।942।।
कौन तुम्हारी जाति, कहां सें आये स्वामी। पूछैं पुरूष कबीर, धनी साहिब निहकामी।।943।।

पारख के अंग की वाणी नं. 940-943 का सरलार्थ:– भक्त धर्मदास जी नगर बांधवगढ़ प्रांत- मध्यप्रदेश के रहने वाले धनी (सेठ) थे। परमात्मा में अधिक श्रद्धा थी। एक रूपदास नाम के वैष्णव पंथी साधु से दीक्षा ले रखी थी। उनके बताए अनुसार मूर्तियों की पूजा करना, श्राद्ध करना, एकादशी का व्रत, राम, कृष्ण यानि विष्णु तथा लक्ष्मी देवी तथा शिव-पार्वती की पूजा, तीर्थों व धामों पर जाकर स्नान करना आदि शास्त्रविरूद्ध साधना किया करता था। गीता का नित्य पाठ किया करता। गायत्री मंत्र का जाप, राम, कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम, ॐ नमो शिवायः, ॐ भागवते वासुदेवाय नमः आदि-आदि जाप किया करता। एक समय तीर्थों पर भ्रमण करते-करते धर्मदास जी मथुरा वृंदावन में गए हुए थे। धर्मदास जी को सतपुरूष कबीर जी ने पृथ्वी पर जन्म दिया था। एक धनवान बनिये के घर इनका जन्म हुआ था। धन अत्यधिक था। कबीर परमेश्वर जी ने इसे भेजा तो इसलिए था कि पृथ्वी पर मेरा ज्ञान प्रचार कर, सच्चाई जनता को बता तथा सबको काल ब्रह्म का जाल समझा। सतलोक व सतपुरूष का ज्ञान करवा। सब जीव सतलोक से काल ब्रह्म के लोक में कष्ट उठा रहे हैं। सबको धर्मराय (काल ब्रह्म) ने धोखा देकर रखा है। सच्चा अध्यात्म ज्ञान खत्म कर दिया। अपने को पूर्ण परमात्मा सिद्ध किए हुए है। एक लाख मानव जीवों को प्रतिदिन खाता है। सवा लाख प्रतिदिन उत्पन्न करता है। कष्ट देने के लिए चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में जन्म देता है। कर्म भोग प्रधान नियम है। धर्मदास जी को ज्योति निरंजन काल ने अपने जाल में दृढ़ फंसा लिया तथा उसके पुत्र के रूप में अपना महादुष्ट दूत मृत्यु-अंधा को भेज दिया। धर्मदास जी ने उसका नामकरण अपने गुरू रूपदास जी से करवाया था। उन्होंने धर्मदास जी के उस पुत्र का नाम नारायण दास रखा। धर्मदास जी का जन्म विक्रमी संवत् 1452 (सन् 1395) में हुआ। परमेश्वर जी का प्राकाट्य तीन वर्ष पश्चात् विक्रमी संवत् 1455 (सन् 1398) में ज्येष्ठ महीने की पूर्णमासी को हुआ। {कबीर परमात्मा जी, धर्मदास को मथुरा में मिले। उस समय धर्मदास की आयु के विषय में कबीरपंथियों की पुस्तक में साठ (60) वर्ष लिखा है। दामाखेड़ा वालों (धर्मदास जी की गद्दी वालों) की पुस्तक में 89 वर्ष लिखा है। हमने इस चक्कर में नहीं पड़ना है। उस समय आयु क्या थी? हमने ज्ञान समझना है। धर्मदास जी आए तो थे जीवों को काल के जाल से निकालने, स्वयं ही काल के जाल में बुरी तरह फंस गए। धर्मदास को निकालना परमात्मा कबीर जी के लिए कठिन हो गया था। धर्मदास जी ने वृंदावन के तालाब में तीर्थ स्नान किया। सुबह का समय था। फिर एक स्थान को गाय के गोबर व गारा से लीपकर उसके ऊपर चद्दर बिछाकर सब भगवानों की मूर्ति आदर से रखी। कुछ छोटी थी, कुछ बड़ी थी। विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, गणेश, शिवलिंग, नादियाँ आदि-आदि की मूर्ति थी। विष्णु की पूजा ईष्ट रूप में करता था। उनकी मूर्ति बड़ी थी। धर्मदास अपना कर्मकाण्ड करने लगा। उसी समय परमेश्वर कबीर जी जिंदा बाबा का वेश बनाकर धर्मदास जी से थोड़ी दूरी पर बैठ गए। धर्मदास जी ने सब मूर्तियों को तिलक किया। धूप जगाई, दीप (ज्योति) जगाई। घंटी बजा-बजाकर आरती गाई। गीता का पाठ करने लगा। कबीर जी और निकट आकर बैठकर ध्यान से गीता का पाठ सुनने लगे। जब धर्मदास जी ने सब पूजा कर ली, तब कबीर जी ने प्रश्न किया कि हे स्वामी जी! आप किस जाति से संबंध रखते हो तथा कहाँ से आए हो? आप तो पहुँचे हुए संत दिखाई देते हैं। धर्मदास बोला:-

पारख के अंग की वाणी नं. 944-945:-

हम वैष्णव बैरागी, धर्म में सदा रहाई। सुद्र न बैठें संग, कलप ऐसी मन मांही।।944।।
दोहा-सुन जिंदा मम ज्ञान कूं, अधिक अचार बिचार। हमरी करनी जो करै, उतरे भवजल पार।।945।।

धर्मदास वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 944-945 का सरलार्थ:– धर्मदास जी ने उत्तर दिया कि मैं वैष्णव पंथ से दीक्षित हूँ। मेरे को अपने परमात्मा विष्णु के प्रति पूर्ण वैराग्य है। सदा अपने हिन्दू धर्म में पुण्य के कार्य करता हूँ। हम शुद्र को निकट नहीं बैठने देते, यह हमारे मन की कल्पना है। हम शुद्ध, स्वच्छ रहते हैं। हे जिन्दा! हमारा ज्ञान सुन। हम अधिक आचार-विचार यानि कर्मकाण्ड करते हैं। हमारी क्रिया जो करेगा, वह भवजल (संसार सागर) से पार हो जाएगा। कबीर जी ने कहा:-

पारख के अंग की वाणी नं. 946-951:-

बोलैं धनी कबीर, सुनौं वैष्णव बैरागी। कौन तुम्हारा नाम, गाम कहिये बड़भागी।।946।।
कौन कौंम कुल जाति, कहां को गवन किया है। कौन तुम्हारी रहसि, किन्हें तुम नाम दिया है।।947।।
कौन तुम्हारा ज्ञान ध्यान, सुमरण है भाई। कौन पुरूषकी सेव, कहां समाधि लगाई।।948।।
को आसन को गुफा, के भ्रमत रहौ सदाई। शालिग सेवन कीन, बहुत अति भार उठाई।।949।।
झोली झंडा धूप दीप, तुम अधिक आचारी। बोलै धनी कबीर, भेद कहियौं ब्रह्मचारी।।950।।
दोहा-हम कूं पार लंघावही, पार उजागर रूप। जिंद कहै धर्मदास सैं, तुम हो मुक्ति स्वरूप।।951।।

कबीर साहिब वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 946-951 का सरलार्थ:– (धनी कबीर) कुल के मालिक कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को एक महात्मा, स्वामी जी कहकर संबोधित किया ताकि यह मेरी पूर्ण बात सुन सके। परमात्मा ने प्रश्न किया कि हे वैष्णव बैरागी! हे (बड़ भागी) भाग्यवान! आप अपना नाम तथा गाँव का नाम बताने की कृपा करें। आप किस वर्ण (जाति) में जन्में हैं? अब आपको कहाँ जाना है? आपका (रिहिस) निवास यानि संत डेरा कहाँ है? आपको किस गुरू ने नाम दिया है? आप किस नाम का स्मरण करते हैं? आप किस (पुरूष) प्रभु के पुजारी हैं? कहाँ पर समाधि लगाते हो? आप किसी गुफा में रहते हो या कोई (आसन) स्थाई स्थान यानि डेरा बनाया है या सदा भ्रमण करते रहते हो? आपने शालिगराम (मूर्तियाँ जो पत्थर तथा पीतल की ढे़र सारी ले रखी थी जो एक पेटी में डाल रखी थी। उनको उस समय देखा था जब धर्मदास जी उनकी पूजा कर रहा था) यानि मूर्तियों की पूजा की है। यह बहुत भार उठाया हुआ है। हे ब्रह्मचारी (ब्रह्म = परमात्मा के आचारी = भक्ति के आचार यानि कर्मकाण्ड आचरण करने वाले)! मुझे इस साधना का ज्ञान बताएँ। मैं भक्ति करने का इच्छुक हूँ। मुझे सच्ची साधना का ज्ञान बताने वाला कोई नहीं मिला है। आप धूप, दीप (ज्योति के लिए दीपक जैसा पीतल का पात्र), झोली, झंडा आदि लिए हो। आप तो अधिक (आचारी) कर्मकांडी हो। आप बहुत भक्ति करने वाले लगते हो। (धनी कबीर) सबके मालिक कुल धनी कबीर जी ने जिंदा बाबा के वेश में धर्मदास जी से निवेदन किया कि आप तो मुक्ति के दाता हैं। मेरे को भी पार करो। आपका चेहरा बताता है कि आप महान आत्मा (उजागर स्वरूप) हैं। धर्मदास ने बताया:-

पारख के अंग की वाणी नं. 952-957:-

बांदौगढ़ है गाम, नाम धर्मदास कहीजै। वैश्य कुली कुल जाति, शुद्र की नहीं बात सुनीजै।।952।।
सिर्गुण ज्ञान स्वरूप, ध्यान शालिग की सेवा। मलागीर छिरकंत, संत सब पुजै देवा।।953।।
अठसठि तीरथ न्हांन, ध्यान करि करि हम आये। पुजै शालिगराम, तिलक गलि माल चढायै।।954।।
धूप दीप अधिकार, आरती करैं हमेशा। राम कृष्ण का जाप, रटत हैं शंकर शेषा।।955।।
नेम धर्म सें नेह, सनेह दुनियां से नांहीं। आरूढं बैराग, औरकी मानौं नांहीं।956।।
दोहा-सुनि जिंदे मम धर्म कूं, वैष्णव रूप हमार। अठसठि तीरथ हम किये, चीन्हा सिरजनहार।।957।।

धर्मदास वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 952-957 का सरलार्थ:– धर्मदास जी अपनी प्रशंसा सुनकर मन-मन में हर्षित हुआ तथा अपना परिचय बताया। मेरा गाँव-बांधवगढ़ (मध्यप्रदेश प्रान्त में) है। मेरे को धर्मदास कहते हैं। मेरी कुल जाति वैश्य है। हम शुद्र से बात नहीं करते। मैं सर्गुण परमात्मा के स्वरूप शालिग (मूर्तियों) की पूजा करता हूँ। (मलया गीर) चंदन छिड़कता हूँ। सब संत इसी प्रकार देवताओं की पूजा करते हैं। मैं अड़सठ तीर्थों के स्नान के लिए निकला हूँ। कुछ पर स्नान कर आया हूँ। वहाँ ध्यान व पूजा करके आया हूँ। हम शालिगराम की पूजा करते हैं, तिलक लगाते हैं। गले में माला डालते हैं। इस तरह सर्गुण परमात्मा रूप में मूर्ति की पूजा करते हैं। धूप लगाते हैं, (दीप) देशी घी की ज्योति जलाते हैं। आरती प्रतिदिन सदा करते हैं। राम-कृष्ण का जाप जपते हैं। शंकर भगवान तथा शेष नाग की पूजा करते हैं। मैं तो सदा अपने नित्य नियम यानि भक्ति कर्म में लगा रहता हूँ। मुझे संसार से कोई प्रेम (लगाव) नहीं है। मैं अपने वैष्णव धर्म पर पूर्ण रूप से आरूढ़ हूँ। अन्य किसी के धर्म के ज्ञान को नहीं मानता। हे जिन्दा! मेरे धर्म के विषय में सुन! मेरा वैष्णव धर्म है। मेरी वैष्णव वेशभूषा है। मैंने अड़सठ तीर्थों पर भ्रमण करके (सृजनहार) सबके उत्पत्तिकर्ता परमात्मा को चिन्हा है यानि प्राप्त किया है। कबीर जी ने कहा:-

पारख के अंग की वाणी नं. 958-975:-

बौलै जिन्दा बैंन, कहां सें शालिंग आये। को अठसठिका धाम, मुझैं ततकाल बताये।।958।।
राम कृष्ण कहां रहै, नगर वह कौन कहावै। ये जड़वत हैं देव, तास क्यौं घंट बजावै।।959।।
सुनहि गुनहि नहीं बात, धात पत्थर के स्वामी। कहां भरमें धर्मदास, चीन्ह निजपद निहकामी।।960।।
आवत जात न कोय, हम ही अलख अबिनाशी सांई। रहत सकल सरबंग, बोलि है जहाँ तहाँ सब मांही।।961।।
बोलत घट घट पूर्ण ब्रह्म, धर्म आदू नहीं जाना। चिदानंदकौं चीन्ह, डारि पत्थर पाषाणा।।962।।
दोहा-राम कृष्ण कोट्यौं गये, धनी एक का एक। जिंद कहै धर्मदाससैं, बूझौं ज्ञान बिबेक।।963।।
बूझौं ज्ञान बिबेक, एक निज निश्चय आनं। दूजा दोजिख जात, कहा पूजो पाषानं।।964।।
शिला न शालिगराम, प्रतिमा पत्थर कहावै। पत्थर पीतल घात बूड़ जल दरीया जावै।965।।
कूटि घड्या घनसार, लगी है टांकी ज्याकै। चितर्या बदन बनाय, ऐसी पूजा को राखै।।966।।
जलकी बूंद जिहान, गर्भ में साज बनाया। दश द्वार की देह, नेहसैं मनुष्य कहाया।।967।।
जठर अग्नि में राखि, साखि सुनियौं धर्मदासा। तजि पत्थर पाषान, छाड़ि यह बोदी आशा।।968।।
दोहा-अनंत कोटि ब्रह्मांड रचि, सब तजि रहै नियार। जिंद कहैं धर्मदाससूं, जाका करो बिचार।।969।।
जाका करौ बिचार, सकल जिन सृष्टि रचाई। वार पार नहीं कोय, बोलता सब घट माहीं।।970।।
अजर आदि अनादि, समाधि स्वरूप बखाना। दम देही नहीं तास, अभय पद निरगुण जान्या।।971।।
सकल सुनि प्रवान, समानि रहै अनुरागी। तुम्हरी चीन्ह न परैं, सुनौं वैष्णव बैरागी।।972।।
अलख अछेद अभेद, सकल ज्यूनीसैं न्यारा। बाहरि भीतरि पूर्णब्रह्म, आश्रम अधरि अधारा।।973।।
अलख अबोल अडोल, संगि साथी नहीं कोई। परलो कोटि अनंत, पलक में अनगिन होई।।974।।
दोहा-अजर अमर पद अभय है, अबिगत आदि अनादि। जिंद कहै धर्मदाससैं, जा घर विद्या न बाद।।975।।

कबीर परमेश्वर वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 958-975 का सरलार्थ:– जिंदा रूप में परमेश्वर कबीर जी ने तर्क-वितर्क करके यथार्थ अध्यात्म ज्ञान समझाया। प्रश्न किया कि जो शालिगराम (मूर्तियाँ) लिए हुए हो, ये किस लोक से आए हैं? अड़सठ तीर्थ के स्नान व भ्रमण से किस लोक में साधक जाएगा? यह तत्काल बता। राम तथा कृष्ण कौन-से लोक में रहते हैं? जिनको आप शालिगराम कहते हो, ये तो जड़ (निर्जीव) हैं। इनके सामने घंटा बजाने का कोई लाभ नहीं। ये न सुन सकते हैं, न बोल सकते हैं। ये तो पत्थर या अन्य धातु से बने हैं। हे धर्मदास! कहाँ भटक रहे हो? (निजपद निहकामी) सतलोक को (चीन्ह) पहचान। जिस परमेश्वर की शक्ति से प्रत्येक जीव बोलता है, हे धर्मदास! उसको नहीं जाना। चिदानंद परमेश्वर को पहचान। इन पत्थर व धातु को पटक दे। परमेश्वर कबीर जी जिंदा बाबा ने कहा कि हे धर्मदास! राम-कृष्ण तो करोड़ों जन्म लेकर मर लिए। (धनी) मालिक सदा से एक ही है। वह कभी नहीं मरता। आप विवेक से काम लो। ये आपके पत्थर व पीतल धातु के भगवानों को दरिया में छोड़कर देखो, डूब जाएँगे तो ये आपकी क्या मदद करेंगे? इनको मूर्तिकार ने काट-पीट, कूटकर इनकी छाती पर पैर रखकर (तरासा) काटकर रूप दिया। इनका रचनहार तो कारीगर है। ये जगत के उत्पत्तिकर्ता व दुःख हरता कैसे हैं? ऐसी पूजा कौन करे? जिस परमेश्वर ने माता के गर्भ में रक्षा की, खान-पान दिया, सुरक्षित जन्म दिया, उसकी भक्ति कर। यह पत्थर-पीतल तथा तीर्थ के जल की पूजा की (बोदी) कमजोर आशा त्याग दे। जिंदा बाबा ने कहा कि जो पूर्ण परमात्मा सब सृष्टि की रचना करके इससे भिन्न रहता है। अपनी शक्ति से सब ब्रह्माण्डों को चला व संभाल रहा है, उसका विचार कर। उसका शरीर श्वांस से नहीं चलता। वह सबसे ऊपर के लोक में रहता है। आपकी समझ में नहीं आता है। उसकी शक्ति सर्वव्यापक है। उसका आश्रम (स्थाई स्थान) अधर-अधार यानि सबसे ऊपर है। वह अजर-अमर अविनाशी है। धर्मदास जी ने कहा:-

पारख के अंग की वाणी नं. 976-981:-

बोलत है धर्मदास, सुनौं जिंदे मम बाणी। कौन तुम्हारी जाति, कहांसैं आये प्राणी।।976।।
ये अचरज की बात, कही तैं मोसैं लीला। नामा के पीया दूध, पत्थरसैं करी करीला।।977।।
नरसीला नित नाच, पत्थर के आगै रहते। जाकी हूंडी झालि, सांवल जो शाह कहंते।।978।।
पत्थर सेयै रैंदास, दूध जिन बेगि पिलाया। सुनौ जिंद जगदीश, कहां तुम ज्ञान सुनाया।।979।।
परमेश्वर प्रवानि, पत्थर नहीं कहिये जिंदा। नामा की छांनि छिवाई, दइ देखो सर संधा।।980।।
दोहा-सिरगुण सेवा सार है, निरगुण सें नहीं नेह। सुन जिंदे जगदीश तूं, हम शिक्षा क्या देह।।981।।

धर्मदास वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 976-981 का सरलार्थ:– धर्मदास जी कुछ नाराज होकर परमेश्वर से बोले कि हे (प्राणी) जीव! तेरी जाति क्या है? कहाँ से आया है? आपने मेरे से बड़ी (अचरज) हैरान कर देने वाली बातें कही हैं, सुनो! नामदेव ने पत्थर के देव को दूध पिलाया। नरसी भक्त नित्य पत्थर के सामने नृत्य किया करता यानि पत्थर की मूर्ति की पूजा करता था। उसकी (हूंडी झाली) ड्राॅफ्ट कैश किया। वहाँ पर सांवल शाह कहलाया। रविदास ने पत्थर की मूर्ति को दूध पिलाया। हे जिन्दा! तू यह क्या शिक्षा दे रहा है कि पत्थर की पूजा त्याग दो। ये मूर्ति परमेश्वर समान हैं। इनको पत्थर न कहो। नामदेव की छान (झोंपड़ी की छत) छवाई (डाली)। देख ले परमेश्वर की लीला। हम तो सर्गुण (पत्थर की मूर्ति जो साक्षात आकार है) की पूजा सही मानते हैं। निर्गुण से हमारा लगाव नहीं है। हे
जिन्दा! मुझे क्या शिक्षा दे रहा है?

पारख के अंग की वाणी नं. 982-988:-

बौलै जिंद कबीर, सुनौ बाणी धर्मदासा। हम खालिक हम खलक, सकल हमरा प्रकाशा।।982।।
हमहीं से चंद्र अरू सूर, हमही से पानी और पवना। हमही से धरणि आकाश, रहैं हम चैदह भवना।।983।।
हम रचे सब पाषान नदी यह सब खेल हमारा। अचराचर चहुं खानि, बनी बिधि अठारा भारा।।984।।
हमही सृष्टि संजोग, बिजोग किया बोह भांती। हमही आदि अनादि, हमैं अबिगत कै नाती।।985।।
हमही माया मूल, हमही हैं ब्रह्म उजागर। हमही अधरि बसंत, हमहि हैं सुखकै सागर।।986।।
हमही से ब्रह्मा बिष्णु, ईश है कला हमारी। हमही पद प्रवानि, कलप कोटि जुग तारी।।987।।
दोहा-हम साहिब सत्यपुरूष हैं, यह सब रूप हमार। जिंद कहै धर्मदाससैं, शब्द सत्य घनसार।।988।।

परमेश्वर कबीर वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 982-988 का सरलार्थ:- हे धर्मदास! आपने जो भक्त बताए हैं, वे पूर्व जन्म के परमेश्वर के परम भक्त थे। सत्य साधना किया करते थे जिससे उनमें भक्ति-शक्ति जमा थी। किसी कारण से वे पार नहीं हो सके। उनको तुरंत मानव जन्म मिला। जहाँ उनका जन्म हुआ, उस क्षेत्र में जो लोकवेद प्रचलित था, वे उसी के आधार से साधना करने लगे। जब उनके ऊपर कोई आपत्ति आई तो उनकी इज्जत रखने व भक्ति तथा भगवान में आस्था मानव की बनाए रखने के लिए मैंने वह लीला की थी। मैं समर्थ परमेश्वर हूँ। यह सब सृष्टि मेरी रचना है। हम (खालिक) संसार के मालिक हैं। (खलक) संसार हमसे ही उत्पन्न है। हमने यानि मैंने अपनी शक्ति से चाँद, सूर्य, तारे, सब ग्रह तथा ब्रह्माण्ड उत्पन्न किए हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की आत्मा की उत्पत्ति मैंने की है। हे धर्मदास! मैं सतपुरूष हूँ। यह सब मेरी आत्माएँ हैं जो जीव रूप में रह रहे हैं। यह सत्य वचन है।

धर्मदास जी ने अपनी शंका बताई। कहा कि:-

पारख के अंग की वाणी नं. 989-994:-

बोलत हैं धर्मदास, सुनौं सरबंगी देवा। देखत पिण्ड अरू प्राण, कहौ तुम अलख अभेवा।।989।।
नाद बिंद की देह, शरीर है प्राण तुम्हारै। तुम बोलत बड़ बात, नहीं आवत दिल म्हारै।।990।।
खान पान अस्थान, देह में बोलत दीशं। कैसे अलख स्वरूप, भेद कहियो जगदीशं।।991।।
कैसैं रचे चंद अरू सूर, नदी गिरिबर पाषानां। कैसैं पानी पवन, धरनि पृथ्वी असमानां।।992।।
कैसैं सष्टि संजोग, बिजोग करैं किस भांती। कौन कला करतार, कौन बिधि अबिगत नांती।।993।।
दोहा-कैसैं घटि घटि रम रहे, किस बिधि रहौ नियार। कैसैं धरती पर चलौ, कैसैं अधर अधार।।994।।

धर्मदास वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 989-994 का सरलार्थ:– धर्मदास जी श्री विष्णु जी के भक्त थे। शिव जी की भी भक्ति करते थे। परमात्मा इन्हीं को मानते थे। फिर लोकवेद के आधार से परमात्मा को निराकार भी कहते थे। इसी आधार पर धर्मदास जी ने परमात्मा से प्रश्न किया कि आपका नाद-बिन्द यानि माता-पिता से उत्पन्न शरीर प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। आप खाते-पीते हो, बोलते, चलते हो। आप अपने को परमेश्वर भी कह रहे हो। परमात्मा तो निराकार है। वह दिखाई नहीं देता। हे जगदीश! मुझे यह (भेद) रहस्य समझाईए। आपने सृष्टि की रचना कैसे की? कैसे चाँद व सूर्य उत्पन्न किए? कैसे नदी, पहाड़, पानी, पवन, पृथ्वी, आकाश की रचना की? आप कितनी कला के प्रभु हैं? जैसे श्री विष्णु जी सोलह कला के प्रभु हैं। आप कैसे सर्वव्यापक हैं? कैसे सबसे (न्यारे) भिन्न हो? धरती पर चलते हो। परंतु आकाश में कैसे चलते हो? यह सब ज्ञान मुझे बताएँ। जिंदा वेशधारी कबीर परमेश्वर जी
ने कहा कि:-

पारख के अंग की वाणी नं. 995-1000:-

बोलत जिंद अबंध, सकल घट साहिब सोई। निर्वानी निजरूप, सकल सें न्यारा होई।।995।।
हमही राम रहीम, करीम पूर्ण कर्तारा। हमही बांधे सेतु, चढे संग पदम अठारा।।996।।
हमही रावण मारा, लंक पर करी चढाई। हमही दशशिर मारि, देवता बंधि छुटाई।।997।।
हमरी शक्ति से सीता सती, जती लक्ष्मण हनुमाना। हमही कलप उठाय, करत हम ही क्षैमानां।।998।।
बलि कै हम बावन रूप, इन्द्र और बरूण कुबेरं। हमही से हैं धर्मराय, अदलि करि सष्टि सुमेरं।।999।।
दोहा-छिन में धरती पग धरौं, नादैं सष्टि संजोग। पद अमान न्यारा रहूं, इस बिधि दुनी बिजोग।।1000।।

परमेश्वर कबीर वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 995-1000 का सरलार्थ:– जिन्दा वेशधारी परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मैं असँख्य कला का करतार हूँ। मेरा शरीर पाँच तत्त्व से नहीं बना है। मैंने अपनी वचन शक्ति से सब चाँद-सूर्य, तारे, ग्रह, ब्रह्माण्ड, नदी-पानी, पवन, धरती, आकाश व पहाड़ तथा वनस्पति की रचना की है। {जैसे वैज्ञानिक वायुयान को बनाकर उसके ऊपर सवार होकर आकाश में घूमता है। जैसे राॅकेट वैज्ञानिकों ने बनाया। उसे आकाश में छोड़ा। वह कई वर्षों तक आकाश में उड़ता रहता है। वैज्ञानिक इन दोनों (विमान तथा राॅकेट) से भिन्न भी रिमोट शक्ति से राॅकेट को कंट्रोल भी करता है। मैं पूर्ण परमेश्वर हूँ।} मेरे द्वारा बनाए नियम के आधार से रावण व रामचन्द्र की उत्पत्ति हुई। उनका युद्ध पूर्व निर्धारित संस्कार से हुआ था। मैंने रामचन्द्र के पूर्व जन्म के संस्कार के कारण उसकी गुप्त सहायता की थी। समुद्र पर पुल मैंने अपनी शक्ति से पत्थर हल्के करके बनवाया था। रावण को गुप्त रूप से मैंने मारा था। रामचन्द्र अंदर से थक चुका था। मेरी शक्ति से सीता सती धर्म पर कायम रही। हनुमान में मेरी शक्ति ने काम किया जिसके कारण द्रोणागिरी को उठाकर उड़कर लाया था। हनुमान जी महाबली तो थे। बलवान व्यक्ति अधिक भार उठाकर पृथ्वी पर तो शारीरिक बल से चल सकता है, उड़ नहीं सकता। लक्ष्मण की रक्षा करनी थी। इसलिए हनुमान जी में आध्यात्मिक शक्ति (उड़ने की सिद्धि) मैंने प्रवेश की थी। सीता की खोज के समय समुद्र पार उड़कर गया था। यह भी शक्ति मैंने गुप्त रूप में दी थी। इन दो घटनाओं के अतिरिक्त हनुमान जी कभी आकाश में नहीं उड़े। राजा बली की अश्वमेघ यज्ञ में हम ही बावना रूप बनाकर गए थे। मेरे विधान से भक्ति के कारण वरूण (जल का देवता) तथा कुबेर (धन का देव) की पदवी प्राप्त हैं। हमारे से ही धर्मराय (काल का न्यायधीश) विद्यमान है। मैं एक (छिन) क्षण में सतलोक से आकर पृथ्वी के ऊपर (पग) पैर रख देता हूँ तथा दूसरे (छिन) क्षण में (न्यारा) पृथ्वी से भिन्न होकर सतलोक (जो सोलह शंख कोस की दूरी पर है, वहाँ) चला जाता हूँ। इस प्रकार मैं सृष्टि से न्यारा हूँ। (नादै) वचन से सृष्टि की उत्पत्ति कर देता हूँ।

पारख के अंग की वाणी नं. 1000-1005:-

बोलत है धर्मदास, जिंद जननी को थारी। कौंन पिता परवेश, कौन गति रहनि अधारी।।1001।।
क्यौं उतरे कलि मांहि, कहौ सभ भेद बिचारा। तुम निज पूरण ब्रह्म, कहां अन्न पान अहारा।।1002।।
कौन कुली कर्तार, कौन है बंश बिनांनी। शब्द रूप सर्बंग, कहांसैं बोलत बानी।।1003।।
कौन देह सनेह, नयन मुख नासा नेहा। तुम दीखत हौ मनुष्य, कौन बिधि जिंद बिदेहा।।1004।।
कौन तुम्हारा धाम, नाम सुमरन क्या कहिये। तुम व्यापक कलिमांहि, कहौ कहां साहिब रहिये।।1005।।

धर्मदास वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 1001-1005 का सरलार्थ:– धर्मदास ने पुनः प्रश्न किया कि हे जिन्दा! ऊपर जहाँ आप रहते हो, वहाँ आपकी जननी का क्या नाम है? पिता का क्या नाम है? आप यदि ऊपर रहते हो तो पृथ्वी के ऊपर किसलिए आए हो? यदि आप (निज) वास्तव में पूर्ण ब्रह्म हैं तो आप ऊपर आकाश में अन्न-पानी का आहार कहाँ से करते हो? आप कौन से कुल के प्रभु हो? जैसे विष्णु के अवतार हो या शिव के गण हो? यदि आपके सब अंग शब्द रूप हैं तो बोल कैसे रहे हो? आप तो मनुष्य दिखाई देते हो। आप परमात्मा कैसे हो सकते हो? आपका (धाम) लोक कौन-सा है? स्मरण का नाम क्या है? आप अपने को सर्वव्यापक कह रहे हो और एक स्थान पर भी रहते हो। कृपया समझाइए। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि:-

पारख के अंग की वाणी नं. 1006-1012:-

दोहा-गगन शून्य में हम रहें, व्यापक सबही ठौर। हृदय रहनि हमार है, फूल पान फल मौर।।1006।।
जिंद कहै धर्मदास, सुनौं सतगुरू की बानी। हमही संत सुजान, हमही हैं शारंगपानी।।1007।।
¬कार अरू माया, सब तास के पुत्र कहावै। हम परमात्म पद पिता, दहूं कै मधि रहावै।।1008।।
हम उतरे तुम काज, शुन्य सें किया पयाना। शब्द रूप धरि देह, समझि बानी सुर ज्ञाना।।1009।।
नहीं नाद नहीं बिंद, नहीं पांच तत्व अकारं। घुड़िला ज्ञान अमान, हंस उतारूं पारं।।1010।।
निरखि परखि करि देख, नहीं भौतिक हमरैं काया। हम उतरे तुम काज, नहीं कछु मोह न माया।।1011।।
दोहा-गगन शून्य में धाम है, अबिगत नगर नरेश। अगम पंथ कोई ना लखै, खोजत शंकर शेष।।1012।।

परमेश्वर कबीर वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 1006-1012 का सरलार्थ:– हे धर्मदास! मैं ऊपर आकाश में सुंनसान स्थान पर यानि काल ब्रह्म व अक्षर पुरूष के लोकों से दूर एकान्त में बने सतलोक में रहता हूँ। मेरी शक्ति सर्वव्यापक है। वह मेरे शरीर से जुड़ी है यानि शरीर से ऊर्जा प्राप्त करके विश्व में व्यापक है। मैं सब प्राणियों के हृदय में निवास करता हूँ। जैसे सूर्य दूर रहकर भी घड़े के जल में विद्यमान रहता है। {गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में भी यही प्रमाण है कि हे अर्जुन! शरीर रूप यन्त्रा में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करता हुआ, सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।} हे धर्मदास! सुनो, मैं ही पूर्ण संत हूँ। मैं ही (सारंगपाणी) हाथ में शक्ति रूपी (सारंग) बाण रखता हूँ। {पाणी माने हाथ, सारंग माने बाण, यह उपमा श्री रामचन्द्र पर लगा रखी है कि श्री रामचन्द्र इसलिए परमेश्वर हैं। वे हाथ में बाण रखते थे। वे सारंगपाणी हैं। यदि इस बाण से परमेश्वर की पहचान है तो श्री कृष्ण जी तो बाण हाथ में नहीं रखते थे। वे तो परमात्मा नहीं हुए। वास्तविक्ता है जो ऊपर बता दी है।} ओंकार (ज्योति निरंजन) तथा माया (अष्टंगी) इनके सब पुत्र कहे जाते हैं जो काल ब्रह्म के लोक में हैं। मैं (परमात्मा पद पिता) सबका परम पिता परमात्मा हूँ। मैंने सब आत्माओं को वचन से उत्पन्न किया है। हे धर्मदास! मैं तेरे काम से पृथ्वी पर उतरा हूँ। शून्य यानि सतलोक से प्रस्थान (गति) करके आया हूँ। शब्द रूप देह (हल्के तेज का अविनाशी शरीर) धारण करके आया हूँ। हे बुद्धिमान देव पुरूष! यह मेरी वाणी समझ ले। मेरा शरीर पाँच तत्त्व का नहीं है। हाथ लगाकर (परख-निरख) अच्छी तरह जाँचकर देख। मेरा भौतिक शरीर नहीं है। मैं आपके काम के लिए आपको काल के जाल से छुड़वाने के लिए ऊपर से उतरा हूँ। मेरे को इस लोक से कोई मोह नहीं है। मेरा सतलोक बहुत दूर ऊपर है जिसको शंकर जी व शेषनाग जी भी खोज रहे हैं। कोई उसे मेरी कृपया के बिना न ही प्राप्त कर सकता और न ही देख सकता।

धर्मदास जी ने कहा:-

पारख के अंग की वाणी नं. 1013-1017:-

बोलत है धर्मदास, सुनौं सतगुरू सैलानी। निरखि परखि सें न्यार, भेद कछु अकल अमानी।।1013।।
सुन जिंदे जगदीश, शीश पग चरण तुम्हारे। पौहमी आसन साज, कहौ तुम अधरि अधारै।।1014।।
जूंनी जीव दम श्वास, उश्वास कहौ क्यौं स्वामी। नहीं जो माया मोह, तौ क्यौं उतरे घननामी।।1015।।
तुम सुखसागर रूप, अनूप जो अधर रहाई। नहीं पिंड नहीं प्राण, तौ कित सें बोलैं गुसांई।।1016।।
अन्नजल करौं अहार, ब्यौहार ब्रह्म की बातां। निराकार निर्मूल, तुम्हरै दीखै तन गाता।।1017।।

धर्मदास वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 1013-1017 का सरलार्थ:– धर्मदास जी ने वितर्क किया कि हे सतगुरू! आपका ज्ञान मेरे विवेक से भिन्न है। आप मेरे सामने पृथ्वी पर बैठे हो। कह रहे हो कि मैं ऊपर रहता हूँ। आपका शीश है, पैर हैं, आप श्वांस-उश्वांस ले रहे हो। परमात्मा तो निराकार है, आप अन्न-जल खाते-पीते हो। आप मानव सदृश हो। मेरे सामने हो। आप बता रहे हो कि (ब्रह्म) परमात्मा हो। यदि आपको कोई मोह-माया नहीं है तो किसलिए उतरे हो? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा।

पारख के अंग की वाणी नं. 1018-1025 (कबीर परमेश्वर जी ने कहा):-

दोहा-सुंन गगन में हम बसैं, पथ्वी आसन थीर। धर्मदास धोखा दिलां, छानौं नीर अरू खीर।।1018।।
हम हैं शब्द स्वरूप, अनूप अनंत अजूंनी। हमरै न पिण्ड अरू प्राण, हमें काया मधि मौनी।।1019।।
हमरै नाद और बिंद, सिन्ध सरबर सैलाना। हम से गहचारी पुरुष, हमही से हैं सृष्टि अमाना।।1020।।
हमही से सकल सरूप, हमही से पुरुषा और नारी। हमही से स्वर्ग पताल, ख्याल साहिब संसारी।।1021।।
फजल अदल अधिकार, भार हलके कूं हलका। छिन में छार उडंत, संत सूभर सर पलका।।1022।।
जो धारै सो होय, गुप्त मंत्र मुसकानी। कहैं जिंद जगदीश, सुनौं तुम धर्म निशानी।।1023।।
दोहा-ना मैं जन्मूं ना मरूं, नहीं आबूं नहीं जांहि। शब्द विहंगम शून्य में, ना मेरै धूप न छांहि।।1024।।
त.र.-बोलै जिंद सुनो धर्मदासा, हमरै पिण्ड प्राण नहीं श्वासा। गर्भ योनि में हम नहीं आये, मादर-पिदर न जननी जाए।।1025।।

परमेश्वर कबीर वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 1018-1025 का सरलार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मैं आसमान के ऊपर सतलोक में रहता हूँ। पृथ्वी पर भी बैठा हूँ। आपके दिल में अज्ञान छाया है। आप मुझे पहचानने में धोखा खा रहे हो। मेरा तेरे जैसा शरीर नहीं है। मैं गृहस्थी हूँ क्योंकि अनंत ब्रह्माण्ड मेरा परिवार है। मेरे कारण ही सृष्टि में (अमाना) अमन-चैन यानि शांति है। मेरे पास मोक्ष का गुप्त मंत्र है। हे धर्मदास! यह मेरी निशानी जान ले कि मैं भक्ति का गुप्त नाम प्रकट करता हूँ। परमात्मा के बिना यह गुप्त नाम कोई नहीं जानता। {ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त नं. 95 मंत्र नं. 2 में कहा है कि परमात्मा अपने मुख से वाणी बोलकर भक्ति की प्रेरणा करता है। परमात्मा भक्ति के गुप्त नाम का आविष्कार करता है। कबीर परमात्मा ने कहा है कि सोहं शब्द हम जग में लाए। सारशब्द हम गुप्त छुपाए।।} न तो मेरा जन्म होता है, न मेरी मृत्यु होती है। सतलोक में गर्मी व सर्दी नहीं है। सदा बसंत रहती है। शब्द की शक्ति से विहंगम मार्ग से सतलोक जाया जाता है।

बाबा जिंदा वेशधारी परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरा शरीर श्वांस-उश्वांस वाला नहीं है। मेरा (पिंड) पाँच तत्त्व का शरीर नहीं है। मैं कभी माता के गर्भ में नहीं आता। माता-पिता के संयोग से मेरा जन्म कभी नहीं हुआ। हे धर्मदास! आप विष्णु जी की भक्ति करते हो, यह तो नाशवान है। इसकी मृत्यु होती है। आप जो गीता पढ़ रहे थे। इसमें देखो! आपका कृष्ण उर्फ विष्णु स्वयं कह रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। अविनाशी तो उसे जान जिसे कोई मार नहीं सकता जिससे सर्व संसार व्याप्त है। (गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा 17, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में।)

फिर कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपया से तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।(गीता अध्याय 18 श्लोक 62) फिर कहा है कि तत्त्वज्ञानी संत मिल जाए तो उससे तत्त्वज्ञान समझने के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आता। जिस परमेश्वर से संसार वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिस परमात्मा ने सृष्टि की उत्पत्ति की है, उसकी भक्ति कर।(गीता अध्याय 15 श्लोक 4) फिर कहा है कि हे अर्जुन! इस संसार में दो पुरूष हैं। एक क्षर पुरूष, दूसरा अक्षर पुरूष। इन दोनों प्रभुओं के अंतर्गत जितने प्राणी हैं, सब नाशवान हैं। ये दोनों (पुरूष) प्रभु भी नाशवान हैं। आत्मा किसी की नहीं मरती।(गीता अध्याय 15 श्लोक 16) फिर कहा है कि (उत्तम पुरूष) श्रेष्ठ पुरूष यानि पुरूषोत्तम तो इन दोनों से अन्य ही है जो परमात्मा कहा जाता है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता रहता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है।(गीता अध्याय 15 श्लोक 17) कबीर साहेब ने कहा कि धर्मदास! कृष्ण उर्फ विष्णु तो अन्य परमेश्वर को अविनाशी कह रहा है। उसी की शरण में जाने का निर्देश दे रहा है। क्या आप जानते हैं, वह परमेश्वर कौन है? मैं जानता हूँ। परमेश्वर के मुख कमल से गीता का गूढ़ रहस्य सुनकर धर्मदास स्तब्ध रह गया। उसको सब श्लोक याद थे, परंतु अभिमानवश हार मानने को तैयार नहीं था। कहा कि तुम मुसलमान हो। जीव हिंसा करते हो। हम कोई जीव हिंसा नहीं करते। सदा धर्म करते हैं। तुम पाप करते हो। कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। मैं आपकी कोई बात सुनने को तैयार नहीं हूँ।

धर्मदास जी: हे जिन्दा! तू अपनी जुबान बन्द कर ले, मुझसे और नहीं सुना जाता। जिन्दा रुप में प्रकट परमेश्वर ने कहा, हे वैष्णव महात्मा धर्मदास जी! सत्य इतनी कड़वी होती है जितना नीम, परन्तु रोगी को कड़वी औषधि न चाहते हुए भी सेवन करनी चाहिए। उसी में उसका हित है। यदि आप नाराज होते हो तो मैं चला। इतना कहकर परमात्मा (जिन्दा रुप धारी) अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास को बहुत आश्चर्य हुआ तथा सोचने लगा कि यह कोई सामान्य सन्त नहीं था। यह पूर्ण विद्वान लगता है। मुसलमान होकर हिन्दू शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है। यह कोई देव हो सकता है। धर्मदास जी अन्दर से मान रहे थे कि मैं गीता शास्त्र के विरुद्ध साधना कर रहा हूँ। परन्तु अभिमानवश स्वीकार नहीं कर रहे थे। जब परमात्मा अन्तध्र्यान हो गए तो पूर्ण रुप से टूट गए कि मेरी भक्ति गीता के विरुद्ध है। मैं भगवान की आज्ञा की अवहेलना कर रहा हूँ। मेरे गुरु श्री रुपदास जी को भी वास्तविक भक्ति विधि का ज्ञान नहीं है। अब तो इस भक्ति को करना, न करना बराबर है, व्यर्थ है। बहुत दुखी मन से इधर-उधर देखने लगा तथा अन्दर से हृदय से पुकार करने लगा कि मैं कैसा नासमझ हूँ। सर्व सत्य देखकर भी एक परमात्मा तुल्य महात्मा को अपनी नासमझी तथा हठ के कारण खो दिया। हे परमात्मा! एक बार वही सन्त फिर से मिले तो मैं अपना हठ छोड़कर नम्र भाव से सर्वज्ञान समझूंगा। दिन में कई बार हृदय से पुकार करके रात्रि में सो गया। सारी रात्रि करवट लेता रहा। सोचता रहा हे परमात्मा! यह क्या हुआ। सर्व साधना शास्त्रविरुद्ध कर रहा हूँ। मेरी आँखें खोल दी उस फरिस्ते ने। मेरी आयु 60 वर्ष हो चुकी है। (धर्मदास जी की संतान द्वारा लिखी पुस्तक में 89 वर्ष आयु लिखी है। जो भी है, हमने तत्त्वज्ञान समझना है।) अब पता नहीं वह देव (जिन्दा रुपी) पुनः मिलेगा कि नहीं।

प्रातः काल वक्त से उठा। पहले खाना बनाने लगा। उस दिन भक्ति की कोई क्रिया नहीं की। पहले दिन जंगल से कुछ लकड़ियाँ तोड़कर रखी थी। उनको चूल्हे में जलाकर भोजन बनाने लगा। एक लकड़ी मोटी थी। वह बीचांे-बीच थोथी थी। उसमें अनेकों चीटियाँ थीं। जब वह लकड़ी जलते-जलते छोटी रह गई तब उसका पिछला हिस्सा धर्मदास जी को खाई दिया तो देखा उस लकड़ी के अन्तिम भाग में कुछ तरल पानी-सा जल रहा है। चीटियाँ निकलने की कोशिश कर रही थी, वे उस तरल पदार्थ में गिरकर जलकर मर रही थी। कुछ अगले हिस्से में अग्नि से जलकर मर रही थी। धर्मदास जी ने विचार किया। यह लकड़ी बहुत जल चुकी है, इसमें अनेकों चीटियाँ जलकर भस्म हो गई है। उसी समय अग्नि बुझा दी। विचार करने लगा कि इस पापयुक्त भोजन को मैं नहीं खाऊँगा। किसी साधु सन्त को खिलाकर मैं उपवास रखूँगा। इससे मेरे पाप कम हो जाएंगे। यह विचार करके सर्व भोजन एक थाल में रखकर साधु की खोज में चल पड़ा। परमेश्वर कबीर जी ने अन्य वेशभूषा बनाई जो हिन्दू सन्त की होती है। एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी ने साधु को देखा। उनके सामने भोजन का थाल रखकर कहा कि हे महात्मा जी! भोजन खाओ। साधु रुप में परमात्मा ने कहा कि लाओ धर्मदास! भूख लगी है। अपने नाम से सम्बोधन सुनकर धर्मदास को आश्चर्य तो हुआ परंतु अधिक ध्यान नहीं दिया। साधु रुप में विराजमान परमात्मा ने अपने लोटे से कुछ जल हाथ में लिया तथा कुछ वाणी अपने मुख से उच्चारण करके भोजन पर जल छिड़क दिया। सर्वभोजन की चींटियाँ बन गई। चींटियों से थाली काली हो गई। चींटियाँ अपने अण्डों को मुख में लेकर थाली से बाहर निकलने की कोशिश करने लगी। परमात्मा भी उसी जिन्दा महात्मा के रुप में हो गए। तब कहा कि हे धर्मदास वैष्णव संत! आप बता रहे थे कि हम कोई जीव हिंसा नहीं करते, आप तो कसाई से भी अधिक हिंसक हैं। आपने तो करोड़ों जीवों की हिंसा कर दी। धर्मदास जी उसी समय साधु के चरणों में गिर गया तथा पूर्व दिन हुई गलती की क्षमा माँगी तथा प्रार्थना की कि हे प्रभु! मुझ अज्ञानी को क्षमा करो। मैं कहीं का नहीं रहा क्योंकि पहले वाली साधना पूर्ण रुप से शास्त्र विरुद्ध है। उसे करने का कोई लाभ नहीं, यह आप जी ने गीता से ही प्रमाणित कर दिया। शास्त्र अनुकूल साधना किस से मिले, यह आप ही बता सकते हैं। मैं आपसे पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान सुनने का इच्छुक हूँ। कृपया मुझ किंकर पर दया करके मुझे वह ज्ञान सुनाएंे जिससे मेरा मोक्ष हो सके।

कबीर परमेश्वर ने कहा कि और सुन। तुम कितनी जीव हिंसा करते हो?

पारख के अंग की वाणी नं. 1026-1036:-

शब्द स्वरूपी रूप हमारा, क्या दिखलावै अचार बिचारा।
सतरि ब्राह्मण की है हत्या, जो चैका तुम देहौ नित्या।।1026।।
ब्राह्मण सहंस हत्या जो होई, जल स्नान करत हो सोई।
चैके करम कीट मर जांही, सूक्ष्म जीव जो दरसैं नाहीं।।1027।।
हरी भांति पृथ्वी के रंगा, अंनत कोटि जीव उड़ैं पतंगा।
तारक मंत्र कोटि जपाहीं, वाह जीव हत्या उतरै नाहीं।।1028।।
पृथ्वी ऊपर पग जो धारै, कोटि जीव एक दिन में मारै।
करै आरती संजम सेवा, या अपराध न उतरै देवा।।1029।।
ठाकुर घंटा पौंन झकोरैं, कोटि जीव सूक्ष्म शिर तोरैं।
ताल मृदंग अरू झालर बाजैं, कोटि जीव सूक्ष्म तहां साजैं।।1030।।
धूप, दीप और अर्पण अंगा, अनंत कोटि जीव जरैं बिहंगा।
एती हिंसा करत हो सारे कैसे दीदार करो करतारे।।1031।।
स्वामी सेवक बूडत बेरा, मार परै दरगह जम जेरा।
ऐसा ज्ञान अचंभ सुनाऊं, पूजा अर्पण सबै छुडाऊं।।1032।।
झाड़ी लंघी करत हमेशा, सूक्ष्म जीव होत हैं नेशा।
खान पान में दमन पिरानी, कैसैं पावैं मुक्ति निशानी।।1033।।
कोटि जीव जल अचमन प्रानी, यामैं शंकि सुबह नहीं जानी।
कहौ कैसैं बिधि करौ अचारं, त्रिलोकी का तुम शिर भारं।।1034।।
रापति सूक्ष्म एकही अंगा, अल्प जीव जूंनी जत संगा।
योह जतसंग अभंगा होई, कहौ अचार सधै कहां लोई।।1035।।
आत्म जीव हतै जो प्राणी, जो कहां पावै मुक्ति निशानी।
उरध पींघ जो झूलै भेषा, जिनका कदे न सुलझै लेखा।।1036।।

पारख के अंग की वाणी नं. 1026-1036 का सरलार्थ:– कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! जो खाना बनाने के स्थान पर यानि चूल्हे तथा आसपास के क्षेत्र को प्रतिदिन लीपते हो तथा पोंचा लगाते हो। पूजा के स्थान पर लीपते हो (mud plaster करते हो)। उसमें सत्तर ब्राह्मणों की हत्या के समान पाप लगता है। इतनी जीव हिंसा होती है।

जो आप तीर्थ वाले तालाब में स्नान करते हो, उसके जल में असँख्यों जीव होते हैं। जो आप मल-मलकर स्नान करते हो, असँख्यों जीवों की मृत्यु हो जाती है। वह पाप एक हजार ब्राह्मणों की हत्या के समान लगता है। पृथ्वी के ऊपर घास के अंदर भी जीव हैं। कुछ तो पृथ्वी के रंग जैसे हैं, कुछ घास के रंग जैसे हैं। कुछ सूक्ष्म हैं जो दिखाई भी नहीं देते। एक दिन में करोड़ों जीव पृथ्वी के ऊपर चलने से मर जाते हैं। जो आप आरती करते हो, उस समय ज्योति जलाते हो। उसमें जीव मरते हैं। घंटी बजाते हो, झालर बजाते हो, ताल मृदंग बजाते हो, उनमें करोड़ों जीव मर जाते हैं। (धूप) अगरबत्ती के धुँऐ में करोड़ों जीव वायु वाले मरते हैं। इतने पाप करते हो तो आपको परमात्मा के दर्शन कैसे होंगे? और सुन! (झाड़ी लंघी) टट्टी-पेशाब करते हो, उसमें जीव मरते हैं। खाना खाते हो, पानी पीते हो, उसमें भी जीव हिंसा होती है। कैसे मुक्ति पाओगे? आप बताओ कि इतना पाप करते हो तो आपका आचार-विचार यानि क्रियाकर्म भक्ति की शुद्धता कैसे रहेगी? आपने कहा था कि जो जीव हिंसा करते हैं, उनका मोक्ष कभी नहीं हो सकता। आपका मोक्ष भी कभी नहीं हो सकता। मैं ऐसा अद्भुत ज्ञान सुनाऊँगा जिससे सब शास्त्रविरूद्ध साधना बंद हो जाएगी तथा ऐसा नाम जाप करने की दीक्षा दूँगा कि सब पाप कट जाएँगे। प्रतिदिन होने वाला उपरोक्त पाप नाम के जाप से नाश हो जाएगा। (कबीर परमेश्वर जी ने आगे और बताया।)

पारख के अंग की वाणी नं. 1037-1062:-

दोहा – ऐसा ज्ञान सुनाय हूं, ना कहीं भ्रमण जावै।
गरीबदास जिंदा कहैं, धर्मदास उर भाव।।1037।।
झरणै बैठि जलाबिंब धारा, संखौं जीव करत प्रतिहारा।
पंच अग्नि जो धूप धियाना, जन्म तीसरै शूकर स्वाना।।1038।।
बजर दंड करि दमकूं तोड़ै, वहां तो जीव मरत हैं करोड़ैं।
निसबासर जो धूनी फूकैं, तामैं जीव असंखौ सूकैं।।1039।।
तीरथ बाट चले जो प्राणी, सो तो जन्म जन्म उरझानी।
जाय तीरथ करि हैं दानं, आवत जात जीव मरै अरबानं।।1040।।
परबी लेन जात है दुनियां, हमारा ज्ञान किनौं नहीं सुनियां।
गोते गोते परि है भारं, गंगा जमना गया किदारं।।1041।।
लोहागिर पौहकरकी आशा, अनंत कोटि जीव होत बिनाशा।
पाती तोरि चढावैं अंधें, जिन के कदे न कटि हैं फंदे।।1042।।
गंगा काशी गया प्रियागु, बहुरि जाय द्वारा लै दागु।
हरि पैड़ी हरिद्वार हमेशा, ऐसा ज्ञान देत उपदेशा।।1043।।
जा गरूवाकी गरदन मारं, जो जीव भरमावै अचार बिचारं।
पिण्ड पिहोवै बहुतक जाहीं, बदरी बोध सुनौं चितलाहीं।।1044।।
सरजू करि अस्नान हजूमं, अनंत कोटि जीव घाली धूमं।
पिण्ड प्रदान मुक्ति नहीं होई, भूत जूनि छूटत है लोई।।1045।।
दोहा – भूत योनि जहां छूटि है, पिण्ड प्रदान करंत।
गरीबदास जिंदा कहै, नहीं मिलैं भगवंत।।1046।।
जगन्नाथ जो दर्शन जांहीं, काली प्रतिमा भवन कै मांहीं।
वह जगदीश न पावै किसही, जगन्नाथ जो घट घट बसही।।1047।।
गोमति और गोदावरी न्हांहीं, अठसठ तीरथ का फल पांही।
नहीं पूजै जिन संत सुजाना, जाके मिथ्या सब अस्नाना।।1048।।
कोटि यज्ञ अश्वमेघ करांही, संत चरण रज नांहितुलांही।
कोटि गऊ नित दान जुदेहीं, एक पलक संतन परबीलेही।।1049।।
धूप दीप और जोग जुगंता, कोटि ज्ञान क्यों कथहीं मिथ्या।
जिन जान्या नहीं पदका भेऊ, जाके संत न रहे बटंेऊ।।1050।।
तीरथ व्रत करै जो प्राणी, तिनकी छूटत है नहीं खानी।
चैदस नौमी द्वादश बरतं, जिनसै जम जौंरा नहीं डरतं।।1051।।
करैं एकादशी संजम सोई, करवा चैथ गदहरी होई।
आठैं सातैं करैं कंदूरी, सो तो जन्म धारें सूरी।।1052।।
दोहा – आन धर्म जो मन बसै, कोइ करो नर नार।
गरीबदास जिंदा कहै, सो जासी जमद्वार।।1053।।
कहे जो करूवा चैथि कहांनी, तास गदहरी निश्चय जानी।
दुर्गा देबी भैरव भूता, राति जगावै होय जो पूता।।1054।।
करै कढाही लपसी नारी, बूढैबंश सहित घरबारी।
दुर्गाघ्यान परै तिस बगरं, ता संगति बूडै सब नगरं।।1055।।
ये सब हमरे ख्याल मुरारी, हम नहीं नाचे देदे तारी।
हम से ही भैरव खित्र खलीला, आदिअंत सब हमरी लीला।।1056।।
हम नहीं वैष्णवधर्म चलाया, हमनहीं तीरथ व्रत बनाया।
हम से ही जपतप संजमशाखा, हमही चारि बेद सबभाखा।।1057।।
हम नहीं देवल धाम बनाये, हम नही पुजारी पूजन आये।
हम हैं नरसिंह हम हैं पीरं, हम ही तोरे जम जंजीरं।।1058।।
हमही राजा भूप कहावैं, हमही माल भरनकौं जावैं।
हम नहीं कौम छतीस बनाये, हम नहीं चार वरण सरसाये।।1059।।
दोहा-सकल सृष्टि में रमि रहा, सकल जाति अजाति।
गरीबदास जिंदा कहै, ना मेरै दिवस न राति।।1060।।
ना मेरै आदि अंत नहीं मूलं, ना मेरै पिण्ड प्राण अस्थूलं।
ना मेरै गगन शून्य सैलाना, ना मेरै रचना आवन जाना।।1061।।
ना हम जोगी ना हम भोगी, ना बीतरागी सृष्टि संजोगी।
नहिं मेरै पवन नहीं मेरै पानी, नहीं मेरै चंद्र सूर रजधानी।।1062।।

पारख के अंग की वाणी नं. 1037-1062 का सरलार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास को समझाया कि हे धर्मदास! अब ऐसा ज्ञान सुनाता हूँ जिसको सुनकर कहीं भी भटकना नहीं पड़ेगा। ध्यानपूर्वक दिल लगाकर सुन। जो सर्दी के मौसम में जलधारा (झरने) के नीचे बैठकर सिर के ऊपर शीतल जल बरसाते हैं तथा गर्मी के मौसम में पाँच धूंने अग्नि के लगाकर उनके मध्य में बैठकर तप करते हैं। जो श्वांस को रोकते हैं। जो दिन-रात धूनि (अग्नि) जलाकर रखते हैं। चिलम में तम्बाकू पीते हैं, उसमें करोड़ों जीव मर जाते हैं। जो तीर्थ यात्रा करते हैं, वे जन्म-जन्म यानि असँख्यों जन्म काल जाल में उलझकर रह जाते हैं। जो तीर्थ पर जाकर दान करते हो। पहले उस तीर्थ में स्नान करते हो। उसमें करोड़ों जीवों की हिंसा का पाप लग जाता है। पुण्य एक, पाप अनेक लगे।

दुनिया वाले प्रभी लेने सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर जाते हैं। हमारा ज्ञान किसी ने नहीं सुना कि इससे पाप मिलते हैं, पुण्य नहीं मिलता। तीर्थ के जल में जितने गोते (डुबकी) लगाते हैं, प्रत्येक में जीव हिंसा होती है। पाती तोड़कर पत्थर की मूर्ति पर चढ़ाते हैं, वे ज्ञान नेत्राहीन (अंधे) हैं। उनके फंदे यानि काल का जाल कभी नहीं छूट सकता। तीर्थों के नाम बताए हैं:- जो साधक लोहागिर, पुष्कर पर जाकर स्नान करते हैं। उनको महापाप लगता है। काशी, गया, प्रयाग, द्वारका, हर की पैड़ी हरिद्वार में जाने व तीर्थ में स्नान-दान करने से मोक्ष बताते हैं। उन गुरूओं की गर्दन पर जूते मारने चाहिए। जो जीवों को (आचार-विचार) कर्मकांड में भ्रमित करते हैं। शास्त्रविधि विरूद्ध साधना का ज्ञान देते हैं। जो पिहोवा (हरियाणा) में पिंड भरवाने की कहते हैं, बद्रीनाथ पर जाने की कहते हैं। (सरजू) सूर्य नदी में स्नान से मोक्ष बताते हैं। यह साधना व्यर्थ है। पिंडदान करने से भूत की योनि छूट जाती है, मोक्ष नहीं मिलता। भूत की जूनि छूटकर गधे की मिल गई तो क्या लाभ हुआ पिंडदान करने का?

जगन्नाथ के दर्शन करने जाते हैं। एक भवन (महल) में काली मूर्ति रखी है उस जगन्नाथ की। जो जगन्नाथ सर्वव्यापक है, उसको कोई नहीं खोजता। वह किसी को गलत भक्ति से नहीं मिलता।

गोदावरी नदी तथा गोमती नदी में स्नान करते हैं। कहते हैं कि हम अड़सठ तीर्थों का फल प्राप्त करेंगे यानि अड़सठ तीर्थ स्नान करके मोक्ष प्राप्त करेंगे। यह गलत धारणा है। जिन्होंने पूर्ण संत की (पूजा) सेवा नहीं की तो उसके सब स्नान व्यर्थ हैं। करोड़ अश्वमेघ यज्ञ करो, संत के चरण की रज (धूल) के समान भी नहीं है। करोड़ गऊ दान दो, कोई लाभ नहीं। एक पल संतों के साथ ज्ञान चर्चा रूपी प्रभी लेने से जीवन बदल जाता है। जिनके मेहमान संत नहीं हुए यानि जिन्होंने पूरे संत का सत्संग नहीं सुना, उनको यथार्थ भक्ति (पद) पद्धति का ज्ञान नहीं हो सकता। उसके बिना मोक्ष नहीं होगा।

जो तीर्थ तथा व्रत करते हैं, उनकी चारों खानि यानि चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर में जाना नहीं बचेगा। चैदस, नौमी, द्वादशी आदि किसी भी व्रत से जम का दूत नहीं डरता। जो एकादशी का व्रत करते हो। करवा चैथ की कहानी कहती हैं, व्रत रखती हैं, वे गधी की योनि प्राप्त करती हैं। (आन धर्म) आन-उपासना नर या नारी कोई करो, वह नरक में जाएगा। जो दुर्गा देवी की पूजा करते हैं, भैरव, भूत की पूजा करते हैं। पुत्र होने पर रात जगाते हैं। ये सब नरक के भागी बनेंगे, नरक में गिरेंगे। जो करवाचैथ का व्रत रखने वाली को कहानी सुनाती हैं, दोनों गधी का जीवन प्राप्त करेंगी। जिस बगड़ (कालौनी) में दुर्गा देवी का जागरण होता है, उसके कारण सारा नगर डूब जाता है क्योंकि वह साधना शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण है जो व्यर्थ है। परंतु उसका अनुष्ठान करने वाले सुरीली आवाज वाले होते हैं, नाचते हैं, बाजा बजाते हैं। मन को मोहने वाला जागरण करते हैं। देखा-देखी सारा नगर उस अनुष्ठान को करवाने लगता है। जिस कारण से वह नगर ही नरक में जाता है।

उदाहरण:– एक रात्रि में एक घर के आंगन में टैंट लगा था जिसमें जागरण करने वाली मंडली रूकी थी। मौसम न गर्मी थी, न सर्दी। अक्तूबर का महीना था। आंगन में टैंट से बाहर जागरण चल रहा था। जो मुख्य गायक था, वह कह रहा था कि सारे बोलो जय माता दी। अगले बोलो जय माता दी, पिछले बोलो जय माता दी। यूं कहता-कहता टैंट में गया और शराब की बोतल से एक कप शराब पीकर तुरंत बाहर आ गया। आते ही बोला मैं नहीं सुनियां जय माता दी, ओए! मैं नहीं सुनिया। श्रोता बोल रहे थे जय माता दी। उसने पी रखी शराब, उसको कैसे सुनेगा? बोलने वालों का गला सूख गया। वह कह रहा था मैं नहीं सुनिया। इस कारण से दुर्गा का अनुष्ठान (जागरण) जहाँ भी होगा, उसका प्रभाव पड़ेगा। आध्यात्मिक लाभ कुछ नहीं मिलता। केवल मन खुश करके नरक में जाना है। परमात्मा कबीर जी ने कहा कि हम (देवल) मंदिर व धामों की पूजा न तो करते हैं, न करने की राय देते हैं। हमने तीर्थ, व्रत आदि की क्रिया शुरू नहीं की। (कबीर परमेश्वर जी ने और बताया)

पारख के अंग की वाणी नं. 1063-1096:-

योह रंग रास बिलास हमारा, हमरी योनि सकल संसारा।
हम ज्ञानी हम चातुरा चोरा, हमही दशशिर का शिर फोर्या।।1063।।
व्रता सुर जब बेद चुराये, हम ही बराह रूप धरि आय।
हम हिरणाकुश उदर विहंडा, नृसिंहरूप गाज नौ खंडा।।1064।।
जब प्रहलाद अग्नि में डारे, हम हिरणाकुश उदरबिदारे।
जब प्रहलाद बांधियां खंभा, हम नृसिंह रूप धर्या प्रचण्डा।।1065।।
हम सुरपति का राज डिगाये, हमही बलि के द्वारे आये।
हम ही त्रिलोकी सब मापी, तास डरे बलि तन मन कांपी।।1066।।
दोहा-विष्णु को दीन बढाई, हम पूर्ण करतार।
गरीबदास जिंदा कहै, सकल सृष्टि हमार।।1067।।
हम बाहरि हम भीतर बोलै, हमही अनन्त लोक में डोलै।
हम नहीं गहचारी हम नहीं उदासी, न हम बैरागी नहीं सन्यासी।। ृ 1068।।
हम नहीं मुग्ध ज्ञान घनसारा, हम नहीं करत अचार बिचारा।
हमरी पूजा हमरी सेवा हम नहीं पाती तोरत देवा।।1069।।
हम नहीं घंटा ताल बजावै, दोखा दोष और किस लावै।
हम नहीं जड़ जूंनी जहड़ाये, हमही चेतन हो करि आये।।1070।।
हम ज्ञानी हमनहीं मुग्ध मुवासी, हमही ख्याल रच्या चैरासी।
हमसे ही काल कर्म करतारा, हम नहीं मारै हम रहै नियारा।।1071।।
हम नहीं दोष अदोष लगावैं, हम नहीं अनंत लोक भरमावै।
हम नहीं गाडन फूकन जांही, हम नहीं च्यारि दाग में आंही।।1072।।
हम न रोवैं हम ना शोक संतापं, हम न मुये जपि अजपा जापं।
हम नहीं कर्मकांड व्यवहारा, हम नहीं पाहन पूज बिचारा।।1073।।
दोहा-जलथल जूंनि जीव में, सब घट मोहि मुकाम।
च्यारि बेद वर्णन करैं, हमरा नाम और गाम।।1074।।
हम नहीं नाश काल में आवै, हम नहीं चैदह भवन रचावै।
कलप करै एक माया मेरी, सो तो सत्यपुरूष की चेरी।।1075।।
ताकी कलप शरू जो होई, अनंत लोक रचि ताना गोई।
अनंत लोक ब्रह्मांड कटाचं, ऐसी कलप करै मन सांचं।।1076।।
अनंत कोटि विष्णु शंकर और ब्रह्मा, नारद शारद और विश्वकर्मा।
कामधेनु कल्पवृक्ष कलावर, एकनाद जहां पंच मुजांबर।।1077।।
छटा मन भैरव भरमाया, पांचैं गैल पचीस लगाया।
तास भारिजा अनंतं, कैसैं भेटैं सतगुरू संतं।।1078।।
औह निजरूप निरंतर न्यारा, वस्तु अलप और बहुत पसारा।
बस्त अलप नहीं पावैं भाई, कोटिक ब्रह्मा गए बिलाई।।1079।।
कोटिक शंकर गऐ समूलं, कैसैं पावैं बिन अस्थूलं।
अधर विदेही अचल अभंगी, सबसैं न्यारा सब सत्संगी।।1080।।
दोहा – बेचगून चिंतामनं, है निमूंन निर्बांन।
गरीबदास जिंदा कहै, अविगत पद प्रवान।।1081।।
बेद कितेब न जाकौं पावैं, अठारा पुराण कथा नित गावैं।
जिन सिरजे पुरूष और नारी, जाकौ खोज रहे त्रिपुरारी।।1082।।
शब्द स्वरूपी सब घट बोलै, प्रगट देखि नहीं वह ओलै।
सनक सनंदन ब्रह्मा थाके, अनंत कोटि शंकर पढि भाखे।।1083।।
निर्णय किन्हें न कीन्हा भाई, कोटि विष्णु गये दुनी रचाई।
कितसैं बीज पान फल मौरा, अनंत कोटि जहां बीज बिजौरा।।1084।।
वह निर्गुण निह बीज निशांनी, अलफ रूप नित रहै अमानी।
कुंडलनाद मुकुट नहीं माला, पद बहुरंगी बर्ण विशाला।।1085।।
चतुर्भुजी नहीं अष्ट अनादं, सहंस भुजा कोई जानै साधं।
शंख भुजा परि शंख समूलं, जाका उर्ध बिमानं झूलं।।1086।।
नारद शारद महिमा गावैं, अलफ रूपकूं सो नहीं पावैं।
अलफ रूप है हमरा अंगा, जहां अनंत कोटि त्रिवेणी गंगा।।1087।।
दोहा-सुरग नरक नहीं मृत्यु है, नहीं लोक बंधान।
गरीबदास जिंदा कहैं, शब्द सत्य प्रमाण।।1088।।
शब्दै शब्द रहैगा भाई, दुनी सृष्टि सब परलो जाई।
चलसी कच्छ मच्छ कूरंभा, चलसी धौल धरणि अठखंभा।।1089।।
चलसी सुरग पाताल समूलं, चलसी चंद सूर दो फूलं।
जे आरंभ चलै धर्मदासा, पिण्ड प्राण चलसी घटश्वासा।।1090।।
चलै भिस्त बैकुंठ विशालं, चलसी धर्मराय जमशालं।
पानी पवन पृथ्वी नासा, शब्द रहैगा सुनि धर्मदासा।।1091।।
चलै इंद्र कुबेर बरूण धर्मराजा, ब्रह्मा विष्णु ईश चलि साजा।
चलै आदि माया ब्रह्मज्ञानी, हम नहीं चलै पद प्रवानी।।1092।।
शब्द स्वरूपी पिण्ड हमारा, हम न चलै चलि है संसारा।
जलतरंग जल में मिल जाई, अविगति लहरि लीन पद झांई।।1093।।
जिंद कहै सुनियौं धर्मनिनागर, लहरि मिलत है सुख के सागर।
लहरि बीनिवौं बान विजोगं, पल पल रूप माया रस भोगं।।1094।।
वह उदगार नेश होय जाई, सुखसागर सो अमर रहाई।
हम हैं अमर लोक के वासी, सदा रहें जहाँ पुरूष अविनाशी।।1095।।
दोहा-अगम अनाहद अधर में, नराकार निज नरेश।
गरीबदास जिंदा कहै, सुनौं धर्म उपदेश।।1096।।

पारख के अंग की वाणी नं. 1063-1096 का सरलार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मैंने ही गुप्त रूप में दस सिर वाले रावण को मारा। हम ही ज्ञानी हैं। चतुर भी हम ही हैं। चोर भी हम हैं क्योंकि काल के जाल से निकालने वाला स्वयं सतपुरूष होता है। अपने को छुपाकर चोरी-छुपे सच्चा ज्ञान बताता है। यह रंग रास यानि आनंददायक वस्तुएँ भी मैंने बनाई हैं। सब आत्माओं की उत्पत्ति मैंने की है जिससे काल ब्रह्म ने भिन्न-भिन्न योनियां (जीव) बनाई हैं। जब-जब भक्तों पर आपत्ति आती है, मैं ही सहायता करता हूँ। व्रतासुर ने जब वेद चुराए थे तो मैंने ही बरहा रूप धरकर व्रतासुर को मारकर वेदों की रक्षा की थी। हिरण्यकशिपु को मैंने ही नरसिंह रूप धारण करके उदर फाड़कर मारा था। मैंने ही बली राजा की यज्ञ में बावन रूप बनाकर तीन कदम (डंग) स्थान माँगा था। सुरपति के राज की रक्षा की थी। महिमा विष्णु की बनाई थी। इन्द्र ने विष्णु को पुकारा। विष्णु ने मुझे पुकारा। तब मैं गया था। मैं जन्मता-मरता नहीं हूँ। इसलिए चार प्रकार से जो अंतिम संस्कार किया जाता है, वह मेरा नहीं होता। हम किसी को भ्रमित नहीं करते।

काल का रूप मन सबको भ्रमित करता है। करोड़ों शंकर मरकर समूल (जड़ा मूल से) चले गए। ब्रह्मा, विष्णु की गिनती नहीं कि कितने मरकर जा चुके हैं। मैं वह परमेश्वर हूँ जिसका गुणगान वेद तथा कतेब (कुरान व बाईबल) करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर, सनकादिक भी जिसे प्राप्त नहीं कर सके, वे प्रयत्न करके थक चुके हैं। अल्फ रूप यानि मीनी सतलोक भी हमारा अंग (भाग) है। उसको भी ये प्राप्त नहीं कर सके जहाँ पर अनंत करोड़ त्रिवेणी तथा गंगा बह रही हैं। हमारे लोक में स्वर्ग-नरक नहीं, मृत्यु नहीं होती। कोई बंधन नहीं है। सब स्वतंत्र हैं। सत्य शब्द उस स्थान को प्राप्त करवाने का मंत्र है। केवल हमारे वचन (शब्द) से उत्पन्न ऊपर के लोक तथा उनमें रहने वाले भक्त/भक्तमती (हंस, हंसनी) अमर रहेंगे, और सब ब्रह्माण्ड एक दिन नष्ट हो जाएँगे। कच्छ, मच्छ, कूरंभ, धौल, धरती सब नष्ट हो जाएँगे। स्वर्ग, पाताल सब नष्ट हो जाएँगे। इन्द्र, कुबेर, वरूण, धर्मराय, ब्रह्मा, विष्णु, तथा शिव भी मर जाएँगे। आदि माया (दुर्गा) काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) भी मरेंगे। सब संसार मरेगा। हम नहीं मरंेगे। जो हमारी शरण में हैं, वो नहीं मरेंगे। सतलोक में मौज करेंगे।

पारख के अंग की वाणी नं. 1097-1124 (धर्मदास जी ने कहा):-

धर्मदास बोलत है बानी, कौंन रूप पद कहां निशानी।
तुम जो अकथ कहांनी भाषी, तुमरै आगै तुमही साषी।।1097।।
योह अचरज है लीला स्वामी, मैं नहीं जानत हूं निजधामी।
कौन रूप पदका प्रवानं, दया करौं मुझ दीजै दानं।।1098।।
हम तो तीरथ ब्रत करांही, अगम धामकी कछु सुध नांही।
गर्भ जोनि में रहैं भुलाई, पद प्रतीति नहीं मोहि आई।।1099।।
हम तुम दोय या एकम एका, सुन जिंदा मोहि कहौ बिबेका।
गुण इन्द्री और प्राण समूलं, इनका कहो कहां अस्थूलं।।1100।।
तुम जो बटकबीज कहिदीन्या, तुमरा ज्ञान हमौं नहीं चीन्या।
हमकौं चीन्ह न परही जिंदा, कैसे मिटै प्राण दुख दुन्दा।।1101।।
त्रिदेवनकी की महिमा अपारं, ये हैं सर्व लोक करतारं।
सुन जिन्दा क्यूं बात बनाव, झूठी कहानी मोहे सुनावैं।।1102।।
मैं ना मानुं, बात तुम्हारी। मैं सेवत हूँ, विष्णु नाथ मुरारी।
शंकर-गौरी गणेश पुजाऊँ, इनकी सेवा सदा चित लाऊँ।।1103।।
तहां वहां लीन भये निरबांनी, मगन रूप साहिब सैलानी।
तहां वहां रोवत है धर्मनीनागर, कहां गये तुम सुख के सागर।।1104।।
अधिक बियोग हुआ हम सेती, जैसैं निर्धन की लुटी गई खेती।
कलप करै और मन में रोवै, दशौं दिशा कौं वह मग जोवै।।1105।।
हम जानैं तुम देह स्वरूपा, हमरी बुद्धि अंध गृह कूपा।
हमतो मानुषरूप तुम जान्या, सुन सतगुरू कहां कीन पियाना।।1106।।
बेग मिलौ करि हूं अपघाता, मैं नाहीं जीवूं सुनौं विधाता।
अगम ज्ञान कुछि मोहि सुनाया, मैं जीवूं नहीं अविगत राया।।1107।।
तुम सतगुरू अबिगत अधिकारी, मैं नहीं जानी लीला थारी।
तुम अविगत अविनाशी सांई, फिरि मोकूं कहां मिलौ गोसांई।।1108।।
दोहा – कमर कसी धर्मदास कूं, पूरब पंथ पयान।
गरीब दास रोवत चले, बांदौगढ अस्थान।।1109।।
जा पौंहचैं काशी अस्थाना, मौमन के घरि बुनि है ताना।
षटमास बीतै जदि भाई, तहां धर्मदास यग उपराई।।1110।।
बांदौगढ में यग आरंभा, तहां षटदर्शन अधि अचंभा।
यज्ञमांहि जगदीश न आये, धर्मदास ढूंढत कलपाये।।1111।।
अनंत भेष टुकड़े के आहारी, भेटै नहीं जिंद व्यौपारी।
तहां धर्मदास कलप जब कीनं, पलक बीच बैठै प्रबीनं।।1112।।
औही जिंदे का बदन शरीरं, बैठे कदंब वृक्ष के तीरं।
चरण लिये चिंतामणि पाई, अधिक हेत सें कंठ लगाई।।1113।।

कबीर वचन:-

अजब कुलाहल बोलत बानी, तुम धर्मदास करूं प्रवानी।
तुम आए बांदौगढ स्थाना, तुम कारण हम कीन पयाना।।1114।।
अललपंख ज्यूं मारग मोरा, तामधि सुरति निरति का डोरा।
ऐसा अगम ज्ञान गोहराऊँ, धर्मदास पद पदहिं समाऊं।।1115।।
गुप्त कलप तुम राखौं मोरी, देऊँ मक्रतार की डोरी।
पद प्रवानि करूं धर्मदासा, गुप्त नाम हृदय प्रकाशा।।1116।।
हम काशी में रहैं हमेशं, मोमिन घर ताना प्रवेशं।
भक्ति भाव लोकन कौ देही, जो कोई हमारी सिष बुद्धि लेही।।1117।।
ऐसी कलप करौ गुरूराया, जैसे अंधरें लोचन पाया।
ज्यूं भूखैकौ भोजन भासै, क्षुध्या मिटि है कलप तिरासै।।1118।।
जैसै जल पीवत तिस जाई, प्राण सुखी होय तृप्ती पाई।
जैसे निर्धनकूं धन पावैं, ऐसैं सतगुरू कलप मिटावैं।।1119।।
कैसैं पिण्ड प्राण निसतरहीं, यह गुण ख्याल परख नहीं परहीं।
तुम जो कहौ हम पद प्रवानी, हम यह कैसैं जानैं सहनानी।।1120।।
दोहा – धर्म कहैं सुन जिंद तुम, हम पाये दीदार।
गरीबदास नहीं कसर कुछ, उधरे मोक्षद्वार।।1121।।

कबीर वचन:-

अजर करूं अनभै प्रकाशा, खोलि कपाट दिये धर्मदासा।
पद बिहंग निज मूल लखाया, सर्व लोक एकै दरशाया।।1122।।
खुलै कपाट घाटघट माहीं, शंखकिरण ज्योति झिलकांहीं।
सकल सृष्टि में देख्या जिंदा, जामन मरण कटे सब फंदा।।1123।।
दोहा – जिंद कहैं धर्मदास सैं, अभय दान तुझ दीन।
गरीबदास नहीं जूंनि जग, हुय अभय पद लीन।।1124।।

धर्मदास वचन

पारख के अंग की वाणी नं. 1097-1124 का सरलार्थ:– धर्मदास ने कहा कि हे जिन्दा! जो यह (अकथ) अवर्णननीय अद्भुत कथा आपने सुनाई है, यह किसी से नहीं सुनी। इसके तो आप ही वक्ता, आप ही साक्षी हैं। कृपया करके मुझे विश्वास दिलाओ। हम तो तीर्थ, व्रत करते हैं। (अगम धाम) स्वर्ग से आगे के धाम (सतलोक) का हमें ज्ञान नहीं है। हम तो जन्म-मरण में पड़े हैं। निजधाम को भूल गए हैं। आप द्वारा बताए स्थान पर विश्वास (प्रतित) नहीं हो रहा। (त्रिदेवन) ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की अपार महिमा हमने सुनी है। ये सब लोकों के सृजनहार हैं। हे जिन्दा! सुन! क्यों झूठी कहानी बनाता है? मैं आपकी बात को नहीं मानता। मैं तो विष्णु जी को मानता (पूजता) हूँ। गौरी, शंकर तथा गणेश को भी पूजता हूँ। इनकी पूजा सदा करूँगा। धर्मदास की अरूचि देखकर परमेश्वर कबीर जी अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास रोने लगा। बोला कि हे सुखसागर! कहाँ चले गए? मेरा तो सब कुछ लुट गया। जैसे निर्धन किसान की खेती लुट जाती है। इस तरह की कल्पना करे और मन-मन में रोवे। मुख से बात कह नहीं पावे। मैंने तो आपको शरीरधारी मानव समझा था। मेरी बुद्धि अंधे कँुए के समान है यानि मैं मूर्ख हूँ। हे सतगुरू! आप कहाँ चले गए? (बेग) शीघ्र दर्शन दो, अन्यथा मैं (अपघात) आत्महत्या करूँगा। हे विधाता! मैं जीवित नहीं रहूँगा। आपने (अगम ज्ञान) आगे का ऊँचा ज्ञान समझाया है। हे (अविगत राया) दिव्य स्वामी! मैं आपके दर्शन बिना जीवित नहीं रहूँगा। संत गरीबदास जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से पिछले चलचित्र देखकर सब वर्णन आँखों देखा बताया है कि इस प्रकार विलाप करके रोता हुआ धर्मदास अपने गाँव बांधवगढ़ की ओर चल पड़ा। अन्य तीर्थों पर जाने का ईरादा भी बदल दिया क्योंकि ज्ञान ही ऐसा है। धर्मदास जी अपने घर बांधवगढ़ चला गया। परमेश्वर कबीर जी काशी में मोमिन नूर अली (नीरू) के घर पर चले गए। वहाँ कपड़ा बुनने का कार्य करते थे। वह करने लगे। छः महीनों के पश्चात् धर्मदास को अपनी पत्नी आमनी देवी के कहने से प्रेरणा हुई कि सतगुरू परमेश्वर ने क्या कहा था कि वे कैसे मिलते हैं? धर्मदास जी को याद आया कि उन्होंने कहा था कि जहाँ धर्म-भंडारे (लंगर) चलते हैं या सत्संग में संत इकट्ठे होते हैं तो वहाँ मैं अवश्य आता हूँ। आमनी ने कहा कि आप धर्म यज्ञ प्रारंभ कर दो। धर्मदास जी ने तीन दिन के भंडारे का आयोजन किया। दो दिन तक परमात्मा नहीं आए। तीसरे दिन भी दोपहर बाद आए। धर्मदास बहुत दुःखी हो रहा था। इधर-उधर खोज रहा था। अंतिम दिन परमेश्वर कबीर जी उसी जिन्दे के वेश में भंडारे के स्थान के समीप कदंब के वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास की दृष्टि उसी खोज में बार-बार इधर-उधर व भोजन खा रहे संतों की ओर लगी थी। धर्मदास दौड़कर गया। ध्यान से चेहरा देखा। पहचान लिया। चरणों में सिर रखकर कहा कि यदि आज आप नहीं आते तो आपका दास संसार से चला जाता। धर्मदास जी अधिक प्रेम के साथ परमात्मा कबीर जी के गले मिले। परमेश्वर ने कहा कि धर्मदास! मेरे विषय में यहाँ अन्य किसी को न बताना। मैं तेरे को एक अति उत्तम अध्यात्म ज्ञान सुनाऊँगा। सच्ची साधना का ज्ञान करवाकर मोक्ष प्रदान करूँगा। मैं काशी शहर में मोमीन नीरू के घर ताना बुनने का कार्य करता हूँ। जो हमारा ज्ञान सुनता है, उसको ज्ञान सुनाता हूँ। सच्चे अध्यात्म ज्ञान से परिचित करवाता हूँ तथा भक्ति भाव लोगों को बताता हूँ। धर्मदास जी ने कहा कि हे गुरूदेव! आपके मिलने से मुझे आशा है कि मेरा कल्याण होगा। आपने दया की। अब ऐसी दया और करो। मुझे सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान सुनाओ। मुझ अंधे को आँखें मिल गई हैं। भूखे को भोजन मिल गया। भूख समाप्त हुई। प्यासे को जल मिला प्यास बुझी। जीव सुखी हुआ। आप तो कहते हो कि आप (पद प्रवानी) पूर्ण भक्ति पद्यति के जानने वाले हो। मैं कैसे जानूँ? आप समझाने की कृपया करें। धर्मदास जी ने कहा कि हे जिन्दा! सुनो। आपके दर्शन हुए अब मुझे मोक्ष मिलने की आशा बनी है। कृपया अपना दास जानकर सब भेद बताओ। परमेश्वर कबीर जी ने सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान समझाया। प्रथम नाम की दीक्षा दी। फिर सतलोक ले गए, वापिस छोड़ा। धर्मदास जी ने देखा कि सर्व सृष्टि का मालिक यही जिन्दा बाबा है। इसके सामने ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तो कुछ भी मायने नहीं रखते हैं। सतलोक से तीन दिन बाद शरीर में धर्मदास आए। सामने जिन्दा नहीं मिला। ज्ञान हो गया था कि काशी में मुसलमान नीरू जुलाहे के घर कपड़ा बुनने का कार्य करते हैं। विश्वास नहीं हो रहा था कि परमात्मा जुलाहे के घर कैसे रूके हैं? वे कपड़ा क्यों बनाएँगे? परंतु अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था उनसे मिलने का। तब धर्मदास काशी शहर में गए। इससे पूर्व पाँच बार अंतध्र्यान हो चुके थे। {पूर्ण प्रकरण विस्तार के साथ आगे इसी पारख के अंग के सरलार्थ में लिखा है। पूरा पढ़ें, तब सब समझ आएगा।}

धर्मदास जी ने काशी में वही सकल (सूरत) जिन्दा वाली कपड़ा बुनते देखी। आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि परमेश्वर यह कार्य कर रहे हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि आओ शाहू के पूता धर्मदास! मैं वही हूँ जिसकी तुझे खोज है। ये वचन परमेश्वर के मुख से सुनकर चरणों में गिर गया। सतनाम प्राप्त किया। अपने घर ले गया। कई दिन परमात्मा को घर रखा। सत्संग सुना। {कृपया आगे पढ़ें सम्पूर्ण प्रकरण धर्मदास को परमात्मा कबीर जी के मिलने का, आँखें भर आएँगी। आत्मा भक्ति से ओत-प्रोत हो जाएगी।}

सरलार्थ:– उपरोक्त वाणियों का सरलार्थ पवित्र कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश’’ में विस्तार से प्रमाणों के साथ लिखा है जो मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा सरल करके लिखा है जो इस प्रकार है:-

{यदि केवल गद्य भाग यानि सत्य कहानी रूप में पढ़ना है तो इसी पुस्तक के पृष्ठ 384 पर पढ़ें जिसकी हैडिंग है ’’किस-किसको मिला परमात्मा‘‘। प्रमाणों सहित जानना है तो लगातार पढ़ते चलें।}