काशी नगर में भोजन-भण्डारा (लंगर) देना
पारख के अंग की वाणी नं. 793-939:-
सिमटि भेष इकठा हुवा, काजी पंडित मांहि। गरीबदास चिठा फिर्या, जंबुदीप सब ठांहि।।793।।
मसलति करी मिलापसैं, जीवन जन्म कछु नांहि। गरीबदास मेला सही, भेष समेटे तांहि।।794।।
सेतबंध रामेश्वरं, द्वारका गढ गिरनार। गरीबदास मुलतान मग, आये भेष अपार।।795।।
हरिद्वार बदरी बिनोद, गंगा और किदार। गरीबदास पूरब सजे, ना कछु किया बिचार।।796।।
अठारा लाख दफतर चढे, अस्तल बंध मुकाम। गरीबदास अनाथ जीव, और केते उस धाम।।797।।
बजैं नगारे नौबतां, तुरही और रनसींग। गरीबदास झूलन लगे, उरधमुखी बौह पींघ।।798।।
एक आक धतूरा चबत है, एक खावै खड़घास। गरीबदास एक अरध मुखी, एक जीमैं पंच गिरास।।799।
एक बिरक्त कंगाल हैं, एक ताजे तन देह। गरीबदास मुहमुंदियां, एक तन लावै खेह।।800।।
एक पंच अग्नि तपत हैं, एक झरनैं बैठंत। गरीबदास एक उरधमुख, नाना बिधि के पंथ।।801।।
एक नगन कोपीनियां, इंद्री खैंचि बधाव। गरीबदास ऐसै बहुत, गरदन पर धरि पांव।।802।।
एक कपाली करत हैं, ऊपर चरण अकाश। गरीबदास एक जल सिज्या, नाना भांति उपास।।803।।
एक बैठे एक ठाडेसरी, एक मौनी महमंत। गरीबदास बड़बड़ करैं, ऐसैं बहुत अनंत।।804।।
एक जिकरी जंजालिया, एक ज्ञानी धुनि वेद। गरीबदास ऐसे बहुत, वृक्ष काटि घर खेद।।805।।
एक उंचै सुर गावहीं, राग बंध रस रीत। गरीबदास ऐसे बहुत, आदर बिना अतीत।।806।।
एक भरड़े सिरडे़ फिरै, एक ज्ञानी घनसार। गरीबदास उस पुरी में, पड़ी है किलकार।।807।।
एक कमरि जंजीर कसि, लोहे की कोपीन। गरीबदास दिन रैंन सुध, पडे़ रहैं बे दीन।।808।।
एक मूंजौं की मुदरा, केलौं के लंगोट। गरीबदास लंबी जटा, एक मुंडावैं घोट।।809।।
एक रंगीले नाचहीं, करैं अचार बिचार। गरीबदास एक नगन हैं, एकौं खरका भार।।810।।
एक धूंनी तापैं दहूँ, सिंझ्या देह बुझाय। गरीबदास ऐसे बहुत, अन्न जल कछु न खाय।।811।।
एक मूंधे सूंधे पडे़, आसन मोर अधार। गरीबदास ऐसे बहुत, करते हैं जलधार।।812।।
एक पलक मूंदैं नहीं, एक मूंदे रहैं हमेश। गरीबदास न्यौली कर्म, एक त्राटिक ध्यान हमेश।।813।।
एक बजर आसन करैं, एक पदम प्रबीन। गरीबदास एक कनफट्टा, एक बजावैं बीन।।814।।
शंख तूर झालरि, बजैं रणसींगे घनघोर। गरीबदास काशीपुरी, दल आये बड जोर।।815।।
एक मकरी फिकरी बहुत, गलरी गाल बजंत। गरीबदास तिन को गिनै, ऐसे बहुत से पंथ।।816।।
एक हर हर हका करैं, एक मदारी सेख। गरीबदास गुदरी लगी, आये भेष अलेख।।817।।
एक चढे घोड्यौं फिरैं, एक लड़ावैं फील। गरीबदास कामी बहुत, एक राखत हैं शील।।818।।
एक तनकौं धोवैं नहीं, एक त्रिकाली न्हाहि। गरीबदास एक सुचितं, एक ऊपर को बांहि।।819।।
एक नखी निरबांनीया, एक खाखी हैं खुश। गरीबदास पद ना लख्या, सब कूटत हैं तुश।।820।।
तुश कूटैं और भुस भरैं, आये भेष अटंब। गरीबदास नहीं बंदगी, तपी बहुत आरंभ।।821।।
ठोडी कंठ लगावहीं, आठ बखत नक ध्यान। गरीबदास ऐसे बहुत, कथा छंद सुर ज्ञान।।822।।
एक सौदागर भेष में, कस्तूरी ब्यौपार। गरीबदास केसर कनी, सिमट्या भेष अपार।।823।।
एक तिलक धोती करैं, दर्पन ध्यान गियान। गरीबदास एक अग्नि में, होमत है अन्नपान।।824।।
पारख के अंग की वाणी नं. 793-824 का सरलार्थ:– कबीर परमेश्वर जी को काशी शहर से भगाने के उद्देश्य से हिन्दू तथा मुसलमानों के धर्मगुरूओं तथा धर्म के प्रचारकों ने षड़यंत्र के तहत झूठी चिट्ठी में निमंत्रण भेजा कि कबीर जुलाहा तीन दिन का भोजन-भंडारा (लंगर) करेगा। प्रत्येक बार भोजन खाने के पश्चात् दस ग्राम स्वर्ण की मोहर (सोने का सिक्का) तथा एक दोहर (खद्दर की दोहरी सिली चद्दर जो कंबल के स्थान पर सर्दियों में ओढ़ी जाती थी) दक्षिणा में देगा। भोजन में सात प्रकार की मिठाई, हलवा, खीर, पूरी, मांडे, रायता, दही बड़े आदि मिलेंगे। सूखा-सीधा (एक व्यक्ति का आहार, जो भंडारे में नहीं आ सका, उसके लिए) दिया जाएगा। यह सूचना पाकर दूर-दूर के संत अपने शिष्यों समेत निश्चित तिथि को पहुँच गए। काजी तथा पंडित भी उनके बीच में पहुँच गए। चिट्ठी जंबूदीप (पुराने भारत) में सब जगह पहुँची। {ईराक, ईरान, गजनवी, तुर्की, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान आदि-आदि सब पुराना भारत देश था।} संतजन कहाँ-कहाँ से आए? सेतुबंध, रामेश्वरम्, द्वारका, गढ़ गिरनार, मुलतान, हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगा घाट। अठारह लाख तो साधु-संत व उनके शिष्य आए थे। अन्य अनाथ (बिना बुलाए) अनेकों व्यक्ति भोजन खाने व दक्षिणा लेने आए थे। जो साधु जिस पंथ से संबंध रखते थे, उसी परंपरागत वेशभूषा को पहने थे ताकि पहचान रहे। अपने पंथ की प्रचलित साधना कर रहे थे। कोई (बाजे) वाद्य यंत्र बजाकर नाच-नाचकर परमात्मा की स्तूति कर रहे थे।
कोई आक तथा धतूरे को खा रहे थे जो बहुत कड़वा तथा नशीला होता है। कोई खड़घास खा रहे थे। कोई उल्टा लटककर वृक्ष के नीचे साधना कर रहा था। कोई सिर नीचे पैर ऊपर को करके साधना यानि तप कर रहा था। कोई केवल पाँच ग्रास भोजन खाता था। उसका यह नियम था। कोई (मुँहमुंदिया) मुख पर पट्टी बांधकर रखने वाले थे। कोई शरीर के ऊपर (खेह) राख लगाए हुए थे। कोई पाँच धूने लगाकर तपस्या कर रहा था। कोई तिपाई के ऊपर मटके को रखकर उसमें सुराख करके पानी डालकर नीचे बैठकर जल धारा यानि झरना साधना कर रहे थे। कई नंगे थे। कई केवल कोपीन बांधे हुए थे। कोई अपनी गर्दन के ऊपर दोनों पैर रखकर आसन कर रहे थे। कोई (ठाडेसरी) खडे़ होकर तपस्या कर रहे थे। किसी ने मौन धारण कर रखा था। जो बड़बड़ कर थे, वे भी अनेकों आए थे। कुछ ऊँचे स्वर से भगवान के शब्द गा रहे थे। अनेकों ऐसे थे जिनके साथ कोई चेला नहीं था। उनका कोई सम्मान नहीं कर रहा था। कोई सिरड़े-भिरडे़ (बिना स्नान किए मैले-कुचैले वस्त्र पहने) रेत-मिट्टी में पड़े थे। संत गरीबदास जी दिव्य दृष्टि से देखकर कह रहे हैं कि काशी पुरी में किलकारी पड़ रही थी। कोई सिर के ऊपर बड़े-बड़े बालों की जटा रखे हुए थे। कोई-कोई मूंड-मुंडाए हुए थे। कोई अपने पैरों में लोहे की जंजीर बांधे हुए था। कोई लोहे की कोपीन (पर्दे पर लोहे की पतली पत्ती लगाए हुए था) बांधे हुए था। कोई केले के पत्तों का लंगोट बांधे हुए था। कोई त्राटक ध्यान लगा रहा था। कोई आँख खोल ही नहीं रहा था। कोई कान चिराए हुए था। इस प्रकार के अनेकों पंथों के शास्त्र विरूद्ध साधना करने वाले परमात्मा को चाहने वाले (भेष) पंथ काशी में परमेश्वर कबीर जी द्वारा दिए गए भंडारे के निमंत्रण से इकट्ठे हुए थे। अठारह लाख तो साधु-शिष्य वेश वाले थे। अन्य सामान्य नागरिक भी अनेकों आए थे।
पारख के अंग की वाणी नं. 825-837:-
भेष देखि रैदास जी, गये कबीरा पास। गरीबदास रैदास कहै, छूट्या काशीबास।।825।।
बिहंसे बदन कबीर तब, सुन रैदास बिचार। गरीबदास जुलहा कहै, लाय धनी सें तार।।826।।
लाय तार ल्यौ लीन होय, रूप बिहंगम मांहि। गरीबदास जुलहा गया, अगमपुरी निज ठांहि।।827।।
जहां बोडी संख असंख सुर, बनजारे और बैल। गरीबदास अबिगतपुरी, हुई काशी कूं सैल।।828।।
जरद सेत और हीरे नघ, बोड़ी भरी अनंत। गरीबदास ऐसैं कह्या, ल्यौह कबीर भगवंत।।829।।
औह खाकी खंजूस पुर, अन्नजल ना अधिकार। गरीबदास ऐसैं कह्या, सुन तूं कबीर सिरजनहार।।830।।
अनंत कोटि बालदि सजी, तास लई नौ लाख। दासगरीब कबीर केशव कला, एक पलकपुर झांकि।।831।।
जहां कलप ऐसी करी, चैपड़ि के बैजार। गरीबदास तंबू तने, पचरंग झंडे सार।।832।।
खुल्या भंडारा गैबका, बिन चिटठी बिन नाम। गरीबदास मुक्ता तुलैं, धन्य केशौ बलि जांव।।833।।
झीनैं झनवा तुलत हैं, बूरा घृत और दाल। गरीबदास ना आटै अटक, लेवैं मुक्ता माल।।834।।
कस्तूरी पान मिठाइयां, लड्डू जलेबी चंगेर। गरीबदास नुकति निरखि, जैसे भण्डारी कुबेर।।835।।
बिना पकाया पकि रह्या, उतरे अरस खमीर। गरीबदास मेला सरू, जय जय होत कबीर।।836।।
सकल संप्रदा त्रिपती, तीन दिन जौंनार। गरीबदास षट दर्शनं, सीधे गंज अपार।।837।।
केशोआया है बनजारा,काशील्याया मालअपारा।।टेक।।
नौलख बोडी भरी विश्म्भर, दिया कबीर भण्डारा। धरती उपर तम्बू ताने, चैपड़ के बैजारा।।1।।
कौन देश तैं बालद आई, ना कहीं बंध्या निवारा। अपरम्पार पार गति तेरी, कित उतरी जल धारा।।2।।
शाहुकार नहीं कोई जाकै, काशी नगर मंझारा। दास गरीब कल्प से उतरे, आप अलख करतारा।।3।।
राग छन्द बंगाली से शब्द नं. 2 तथा 3 का कुछ अंश:-
ऐसे अगम अगाध सतगुरु, ऐसे अगम अगाध।।टेक।। अजामेल गनिका से त्यारे, ऐसे पापी अधम उधारे, छाड़ो बाद बिबाद।।1।। ध्रू प्रहलाद स्वर्ग सिधारा एक कल्प, न आवैं इस संसारा, गुरु द्रोही कूं खादि।।2।। सदनां सेऊ समन त्यारे, गुरु द्रोही तौ चुणि चुणि मारै, निंदत कूं नहीं दादि।।3।। धना भगत का खेत निपाया, नामदेव की छांनि छिवाया, सतगुरु लीन्हें अराध।।4।। षट्दर्शन कूं हांसी करिया, भगति हेत केसो तन धरिया, ल्याये बालदि लादि।।5।। जा कूं कहैं कबीर जुलाहा, सब गति पूरन अगम अगाहा, अबिगत आदि अनादि।।6।। ऐसी सतगुरु थापनि थापी, कोटि अकर्मी त्यारे पापी, मेरी क्या बुनियादि।।7।। बाहर भीतरि की सब जानैं, नौका लगी जिहाज निदांनैं, उतरि गये कई साध।।8।। दास गरीब कबीर समर्थ नाथा, हम कूं भेटे सतगुरु दाता। मिटि गई कोटि उपाधि।।9।।2।। ऐसे हैं निज नेक सतगुरु, ऐसे हैं निज नेक।।टेक।। चैरासी सें बेगि उधारैं, जम किंकर की तिरास निवारैं। मेटै कर्म के रेख।।1।। सत कबीर सरबंगी सोई, आदि अनाहद अबिगत जोही, कहा धरत हो भेष।।2।।
राग आसावरी से शब्द नं. 61:-
षट्दर्शन चढि आया देखौ, ऐसी तेरी माया।।टेक।। चिठ्ठा फिर्या समुंदरौं ताई, भेषौ तोत बनाया। ठारा लाख चढे दफतर में, कलम बंधि लखि धाया।।1।। करनामई कलप जदि कीन्हीं, दिल में ऐसी धारी। नौ लख बोड़ी भरि करि आई, केशो नाम मुरारी।।2।। चावल चूंन और घिरत मिठाई, लागि गये अटनाले। छप्पन भोग सिंजोग सलौंनें, भेष भये मतवाले।।3।।कबीर गोसांई, रसोई दीन्हीं, आपै केशो बनि करि आये।परानंदनी जा कै द्वारै, बहु बिधि भेष छिकाये।।4।। हिंदू मुसलमांन कहत हैं, ब्राह्यन और बैरागी। सन्यासी काशी कै गांवै, नाचै दुनिया नागी।।5।। कोई कहै भंडारा दीन्हा, कोई कोई कहै महौछा। बडे़ बड़ाई देत हैं भाई, गारी काढैं ओछा।।6।। अमर शरीर कबीर पुरुष का, जल रूप जगदीशं। गरीबदास सतलोक है असतल साहिब बिसवे बीसं।।7।।61।।
राग नट से शब्द नं. 4 का कुछ अंश:-
नामदेव ने निरगुन चीन्ह्या, देवल बेग फिरी रे। अजामेल से पापी होते, गनिका संगि उधरी रे।।4।। नाम कबीरा जाति जुलाहा, षटदल हांसि करी रे। हे हरि हे हरि होती आई, बालदि आंनि ढुरी रे।।5।।
राग निहपाल से शब्द नं. 1:-
जालिम जुलहै जारति लाई, ऐसा नाद बजाया है।।टेक।। काजी पंडित पकरि पछारे, तिन कूं ज्वाब न आया है। षट्दर्शन सब खारज कीन्हें, दोन्यौं दीन चिताया है।।1।। सुर नर मुनिजन भेद ना पावैं, दहूं का पीर कहाया है। शेष महेश गणेश रु थाके, जिन कूं पार न पाया है।।2।। नौ औतार हेरि सब हारे, जुलहा नहीं हराया है। चरचा आंनि परी ब्रह्मा सैं, चार्यों बेद हराया है।।3।। मघर देश कूं किया पयांना, दोन्यौं दीन डुराया है। घोर कफन हम काठी दीजौ, चदरि फूल बिछाया है।।4।। गैबी मजलि मारफति औंड़ी, चादरि बीचि न पाया है। काशी बासी है अबिनाशी, नाद बिंद नहीं आया है।।5।। नां गाड्या ना जार्या जुलहा, शब्द अतीत समाया है।च्यारि दाग सें रहित सतगुरु, सो हमरै मन भाया है।।6।। मुक्ति लोक के मिले प्रगनें, अटलि पटा लिखवाया है। फिरि तागीर करै ना कोई, धुर का चाकर लाया है।।7।। तखत हिजूरी चाकर लागे, सति का दाग दगाया है। सतलोक में सेज हमारी, अबिगत नगर बसाया है।।8।। चंपा नूर तूर बहु भांती, आंनि पदम झलकाया है। धन्य बंदी छोड़ कबीर गोसांई, दास गरीब बधाया है।।9।। 1।।
राग होरी से शब्द नं. 10 का कुछ अंश:-
केशो नाम धर कबीरा आए, बालदि आनि ढही रे। दास गरीब कबीर पुरुष कै, उतरी सौंज नई रे।।6।।
अरील से शब्द नं. 22-25:-
एक चदरी एक गुदरी सतगुरु पास रे। हम नहीं निकसैं बाहरि होय है हांसि रे।।1।। शाह सिकंदर सुनि करि डेरै जात है। बोलै माय कबीर यहाँ कुछि घात है।।2।। इनि कपटी कुलहीन लगाया काट रे। बनि केशव बनजारा करि हैं साँटि रे।।3।। जहाँ शाह सिकंदर सतगुरु गोसटि कीन्हियाँ। तुम कर्ता पुरुष कबीर तिबै उहाँ चीन्हियाँ।।4।। हम रेजा कपरा बुनि हैं आत्म कारनैं। ठारा लाख दल भेष पर्या है बारनैं।।5।। खाँन पाँन घर माँहि नहीं है मोर रे। षट् दल कीन्ही हांसि कीया बहु जोर रे।।6।। मुसकल की आसांन करैंगा जांनि करि। एक केशव बनजारा उतर्या आंनि करि।।7।। कह शाह सिकंदर साची भाषि हैं। काशी कै बैजार द्रव्य बहु लाख हैं।।8।। गुदरी गहनै धरि करि सीधा देत हैं। गौंड़ी टोड़ी और बिलावल लेत हैं।।9।। रासा निरगुण नाम हमारे एक है। हरिहां महबूब कहता दास गरीब मुझे कोई देखि है।।10।।22।। कुटल भेष कुलहीन कुबुद्धि कूर हैं। भाव भक्ति नहीं जानैं श्वाना सूर हैं।।1।। चलि मेले का भाव देखि फिर आवहीं। उहां केशव बनजारा भूल भूलावही ं।।2।। एक हिलकारा आंनि तंबु में ले गया। केशव और कबीर सु मेला दे गया।।3।। तीनि दिबस दरबेश महात्म मालवै। गैबी फिरै नकीब कंूच करि चालवै।।4।। गंग उतरि करि गैब हुये दल भिन्न रे। कहां गये बनजारे बोड़ी अन्न रे।।5।। केशव और कबीर मिलत एकै भये। हरिहां महबूब कहता दास गरीब तकी रौवे दहे।।6।।23।। शाह तकी नहीं लखी निरंजन चाल रे। या परचैं सें आगै मांगै ज्वाल रे।।1।। साला कर्म सुभांन सरीकति देखिया। शाहतकी निरभाग न कागज छेकिया।।2।। शाह सिकंदर चरण जुहाँरे जानि करि। तुम अबिगत पुरुष कबीर बसौ उर आँनि करि।।3।। तुम खालिक सरबंग सरूप कबीर है। हरिहाँ महबूब कहता दास गरीब पीरन शिर पीर है।।4।।24।। यौह सौदा सति भाय करौ प्रभाति रे। तनमन रतन अमोल बटाऊ साथ रे।।1।। बिछरि जांहिगे मीत मता सुनि लीजिये। बौहरि न मेला होय कहौ क्या कीजिये।।2।। सील संतोष बिबेक दया के धाम है। ज्ञान रतन गुलजार संगाती राम है।।3।। धर्म धजा फरकंत फरहरैं लोक रे। ता मध्य अजपा नाम सु सौदा रोक रे।।4।। चले बनजुवा उठि हूंठ गढ छाड़ि रे। हरिहां महबूब कहता दास गरीब लगै जम डांढ रे।।5।।25।।
पारख के अंग की वाणी नं. 825-837 का सरलार्थ:– संत रविदास जी सुबह जंगल फिरने के लिए गए तो इतने सारे साधु-संतों को देखकर आश्चर्य किया तथा प्रश्न किया कि किस उपलक्ष्य में आए हो? उन्होंने बताया कि इस शहर के सेठ कबीर जुलाहा यज्ञ कर रहे हैं। हमारे पास पत्र गया था, हम आ गए हैं। तीन दिन का भोजन-भंडारा है। देखो पत्र साथ लाए हैं। रविदास जी को समझते देर नहीं लगी। परमेश्वर कबीर जी के पास घर पर गए। बताया कि हे प्रभु! अबकी बार तो काशी त्यागकर कहीं अन्य शहर में चलना होगा। सब बात बताई। परमात्मा कबीर जी संत रविदास जी की बात सुनकर चिंतित नहीं हुए। हँसे तथा बोले कि हे रविदास! बात सुन! बैठ जा भक्ति कर। परमात्मा आप संभालेगा। कबीर परमात्मा एक रूप में तो वहाँ कुटी में बैठे भजन करने का अभिनय कर रहे थे। अन्य रूप में सतलोक में गए। उनको पहले ही सतर्क कर रखा था। सतलोकवासियों ने असँख्यों बनजारे तथा बौड़ी (बैलों के ऊपर बोरे रखकर भोजन सामग्री भर रखी थी। एक बैल को बोरे समेत बंजारे लोग बोडी कहते थे) तैयार कर रखी थी।
जब कबीर जी सतलोक में बोडी लेने गए तो सतलोक वाले सेवक बोले कि हे कबीर भगवान! ले जाओ जितनी आवश्यकता है। हे कबीर सृजनहार! वह तो (खंजूस) भूखा निर्धन लोक है। कबीर जी ने उनमें से नौ लाख बौडी तथा कुछ बनजारे वाले वेश में भक्त सेवादार साथ लिए तथा स्वयं केशव बंजारे का रूप धारण किया। एक पलक (क्षण) में पृथ्वी के ऊपर आ गए। काशी शहर में तंबू (ज्मदज) लगाए। पाँच रंग के झंडे सतलोक वाले लगाए। भंडारे में कोई खाना खाओ, कोई रोक-टोक नहीं थी। यह नहीं था कि जिनके नाम निमंत्रण पत्र गया है, वे अपनी चिट्ठी तथा नाम-पता दिखाओ और खाना खाओ जैसा कि काल लोक वाले साधु किया करते थे। सूखा सीधा के लिए आटा, खांड, चावल, घी, दाल सब दी जा रही थी। मिठाई, लड्डू, जलेबी, चंगेर (बर्फी) सब खिलाई जा रही थी। जैसे कुबेर भंडारी ही पृथ्वी पर आया हो। बिना पकाया पक रहा था। टैंटों-तंबुओं में ढ़ेर के ढ़ेर मिठाईयों के लगे थे। कड़ाहे चावल, खीर, हलवा के भरे थे। सब खा रहे थे। दक्षिणा दी जा रही थी। कबीर परमेश्वर की जय-जयकार हो रही थी। बैल बिना सींगों वाले थे। बैल पृथ्वी से छः इंच ऊपर-ऊपर चल रहे थे। पृथ्वी के ऊपर पैर नहीं रख रहे थे क्योंकि यह पृथ्वी किटाणुओं से भरी है। पैरों के नीचे जीव मारने से पाप लगता है। तीन दिन तक सब सम्प्रदायों के व्यक्ति भोजन से तृप्त किए। षटदर्शन पंथों वाले साधुओं ने असँख्यों सीधे (एक व्यक्ति का एक समय की सूखी सामग्री, चावल, खांड, दाल, आटा, घी आदि-आदि) ले लिये। एक वर्ष का भोजन संग्रह कर ले गए। तीन दिन यहाँ छककर खा गए।
पारख के अंग की वाणी नं. 838-850:-
शाह सिकंदरकूं सुनी, धन कबीर बलिजांव। गरीबदास मेलै चलौ, मम हिरदे धरि पांव।।838।।
कहै कबीर सुन शाह तूं, भेष बीगाड़ा काम। गरीबदास कैसैं चलौं, मो गठरी नहीं दांम।।839।।
नहीं काशी में शाह कोई, मोहि उधारा देत। गरीबदास ताना तनूं, जिब कुंनबै सुधि लेत।।840।।
मैं अधीन अनकीट हूं, उदर भरै नहीं मोहि। गरीबदास माता दुखी, अरू मोमिन है छोहि।।841।।
ऐ कबीर तुम अलह हो, पलक बीच प्रवाह। गरीबदास कर जोरि करि, ऐसैं कहता शाह।।842।।
तुम दयाल दरबेश हौ, धरि आये नर रूप। गरीबदास ऐसैं कहैं, शाह सिकन्दर जहां भूप।।843।।
उठे कबीर करम किया, बरसे फूल अकाश। गरीबदास मेलै चले, चैंर करत रैदास।।844।।
तीनि एक चंहडोल में, रैदास शाह कबीर। गरीबदास चैंरा करैं, बादशाह बलबीर।।845।।
मुकुट मनोहर बांधि करि चढे फील कबीर। गरीबदास उस पुरी में, कोई न धरिहै धीर।।846।।
केशव चले कबीर पै, कबीर कष्ट क्यौं कीन। गरीबदास हस्ती चढे, मेला देखन तीन।।847।।
चैपड़ि के बैजार फिरि, आये केशव पास। गरीबदास कुरबांन गति, क्या क्या कहूं बिलास।।848।।
पाट पिटंबर बिछि गये, ऊपरि हीरे लाल। गरीबदास साहिब धनी, ल्याये मुक्ता माल।।849।।
केशव और कबीर का, तंबू मांहि मिलाप। गरीबदास आठ पहर लग, गोष्टी निज गरगाप।।850।।
पारख के अंग की वाणी नं. 838-850 का सरलार्थ:– उन षड़यंत्रकारियों ने सुनियोजित सोची-समझी चाल के तहत दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोधी को भी भंडारे का निमंत्रण भेजा था। सोचा था कि सिकंदर राजा आएगा। यहाँ कोई भंडारा नहीं मिलेगा। जनता कबीर को गालियाँ दे रही होगी। अराजकता का माहौल होगा। कबीर भाग जाएगा। राजा के मन से उसकी महिमा समाप्त हो जाएगी। शेखतकी जो राजा सिकंदर का धार्मिक पीर (गुरू) था तथा मंत्री भी था, वह इस षड़यंत्र का मुखिया था। जब राजा व शेखतकी भंडारा स्थल पर आए तो देखा लंगर लग रहा है। मोहन भोजन परोसे जा रहे हैं। दक्षिणा भी दी जा रही है। कबीर जी सेठ की जय बुलाई जा रही है। राजा ने उपस्थित व्यक्तियों से पूछा कि भंडारा कौन कर रहा है? उत्तर मिला कि कबीर सेठ जुलाहा कर रहा है। वह तो अभी आए नहीं हैं। उनका नौकर सामने तंबू में बैठा है। वह सब व्यवस्था कर रहा है। राजा सिंकदर तथा शेखतकी तंबू के पास गए। उस व्यक्ति का परिचय पूछा तो बताया कि मेरा नाम केशव बनजारा है। कबीर मेरा पगड़ी-बदल मित्र है। उनका पत्र मेरे पास गया था कि आप कुछ सामान भंडारे का लेते आना। छोटा-सा भंडारा करना है। मैं हाजिर हो गया। कबीर जी कहाँ है? राजा ने पूछा। वे किस कारण से नहीं आए? केशव ने कहा कि वे मालिक हैं। मर्जी है कभी आएँ। उनका नौकर जो बैठा है। यह व्यवस्था वे स्वयं ही कुटी में बैठे संभाल रहे हैं। वे परमात्मा हैं। राजा सिकंदर हाथी पर सवार होकर कबीर जी की कुटी पर पहुँचा। दरवाजा बंद था। निवेदन करके खुलवाया तथा कहा कि आप मेरा दिल का निवेदन स्वीकार करके मेरे साथ मेले में भंडारे पर चलो तो परमात्मा ने कहा कि हे राजन! मेरे साथ अभद्र मजाक किया गया है। मैं निर्धन व्यक्ति कपड़ा बुनकर परिवार का पोषण कर रहा हूँ। अठारह लाख साधु भोजन-भंडारा छकने आए हैं। तीन दिन का भंडारा पत्र में लिखा है। मैं कहाँ से खिलाऊँगा? मैं तो घर से बाहर नहीं निकल सकता। रात्रि में परिवार सहित भाग जाऊँगा। हे राजा! इन भेषों वालों ने काम बिगाड़ा है। झूठी चिट्ठी मेरे नाम से भेज रखी है। मेरा उदर भी नहीं भरता। मेरी माता तथा पिता (मँुह बोले माता-पिता) मेरे पर क्रोध करेंगे। कोई काशी नगर में सेठ (शाह) भी मुझे उधार नहीं देता क्योंकि मेरी आमदनी कम है, निर्धन हूँ। मैं कैसे आपके साथ मेले में भंडारे के स्थान पर चलूँ। राजा सिकंदर जो दिल्ली का सम्राट था, उसने हाथ जोड़कर कहा कि हे कबीर! आप परमात्मा (अल्लाह) हो। नर रूप बनाकर आए हो। तुम दयाल (दरवेश) संत हो।
कबीर ने (करम) रहम किया। चलने के लिए उठे तो आकाश से फूल बरसने लगे। सिकंदर राजा ने परमात्मा कबीर को हाथी पर बैठाया। साथ में रविदास जी कबीर जी के सिर के ऊपर चंवर करते हुए कबीर जी के आदेश अनुसार उनके साथ हाथी पर बैठ गए। राजा भी हाथी पर उनके साथ बैठा। फिर रविदास जी से निवेदन करके राजा सिकंदर ने चंवर ले लिया और कबीर जी के ऊपर चंवर करने लगे। कबीर परमात्मा के सिर के ऊपर अपने आप मनोहर मुकुट आकर सुशोभित हो गया। काशी पुरी के व्यक्ति बेचैनी से कबीर परमेश्वर के दर्शन करने का इंतजार कर रहे थे। भंडारा स्थल पर आए तो केशव रूप उनके हाथी के पास आया तथा कहा कि हे कबीर प्रभु! आपने यहाँ आने का कष्ट क्यांे किया? आपका दास जो सेवा में हाजिर है। उसकी बात को अनसुना करके तीनों हाथी को आगे मेले में ले गए जहाँ अठारह लाख व्यक्ति ठहरे थे। वह तो बहुत बड़ा मेला था। चैपड़ के बाजार में घूम-फिरकर केशव के पास आ गए। जब कबीर जी हाथी से उत्तरे तथा केशव वाले तंबू में गए तो अपने आप संुदर तख्त आ गया तथा उसके ऊपर संुदर बिछौनी बिछ गई। बिछौनी के चारों ओर हीरे, लाल लग गए। महाराजा जैसा आसन लग गया। दूसरी ओर ऐसा ही केशव के लिए लगा था। कबीर जी को देखने के लिए सब साधु-संत आकर चारों ओर कुछ बैठ गए, पीछे वाले खड़े रहे। परमात्मा कबीर जी ने केशव के साथ (आठ पहर) चैबीस घंटे लगातार आध्यात्मिक गोष्ठी की, तत्त्वज्ञान सुनाया। लगभग दस लाख उन भ्रमित साधुओं के शिष्यों ने कबीर जी से दीक्षा ली और जीवन सफल किया।
पारख के अंग की वाणी नं. 851-886:-
केशव कहत कबीर सैं, पूछत बातां बीन। गरीबदास क्यूं ऊतरे, ऐसै मुलक मलीन।।851।।
खांनपान की इंछि जित, नाहीं अधरि बिमान। गरीबदास यौह लोक जीव, छाड्या मुलक अमांन।।852।।
झूठ-कपट इस लोक में, पाप पुण्य ब्यौहार। गरीबदास केशव कहै, कैसैं रहन तुम्हार।।853।।
नहीं अधरि सरबर तहां, नहीं अधरि कोई बाग। गरीबदास केशव कहैं, क्यौं नहीं देते त्याग।।854।।
नहीं फुहारे गगन में, नहीं मानसी गंग। गरीबदास जग देखि करि, हमरा चित मन भंग।।855।।
नहीं नगर हैं नूर के, नहीं बगर तिस हीर। गरीबदास केशव कहै, तुम क्यौं रहै कबीर।।856।।
कलंगी कला न मनुष्य कै, देवंगना नहीं दीप। गरीबदास केशव कहै, जहां सायर तहां सीप।।857।।
नहीं तुरंगम अधर भूमि, नहीं रापति कोई सेत। गरीबदास केशव कहै, खाली राखत खेत।।858।।
धन्य कबीर कुरबांनजां, ऐसी रहनि तुम्हार। गरीबदास केशव कहै, छाड़ि गीद संसार।।859।।
धन्य कबीर कुरबांनजां, पल पल चरण जुहार। गरीबदास तैं क्यौं तजे, हीरे लाल के पहार।।860।।
याह पौहमी है छार की, मुरदफरोशी पिंड। गरीबदास केशव कहै, चरण धरे शिर डंड।।861।।
मुरद कफन सब बिछि रह्या, तापरि मुरदे आव। गरीबदास केशव कहै, यहां नहीं धरिये पांव।।862।।
मुरद जिमी असमान है, मुरद चंद और सूर। गरीबदास केशव कहै, मुरद बजावै तूर।।863।।
मुरद नदी कुल वक्ष हैं, मुरद पिण्ड अरु प्राण। गरीबदास वह क्यौं तजे, शंख पद्म शशि भांन।।864।।
सुनि कबीर इस धरणि परि, तुम नहीं धरियो पांव। गरीबदास बोडी बहुत, यहां रहत सत भाव।।865।।
गांडि भडू.का खेलही, या जग में सब लोग। गरीबदास रूचि मानहीं, इस कूं थापैं भोग।।866।।
नरक भरे तिस उदर हैं, रूधिर भरी सब देह। गरीबदास केशव कहै, या मनुष्यौं मुख खेह।।867।।
राम नाम कैसैं फुरैं, नरक नगीन शरीर। गरीबदास केशव कहै, बिलंबे कहां कबीर।।868।।
जूंनी संकट में परे, फिरि जूंनी सें संग। गरीबदास केशव कहै, भाव भक्ति सब भंग।।869।।
जूंनी संकट भुगतहीं, फिरि जुंनी सें भोग। गरीबदास केशव कहै, मुरद भूत सब लोग।।870।।
सौ जोजन पर लगत है, या दुनियां की गंध। गरीबदास केशव कहै, हाड चाम का फंद।।871।।
हाड चाम के गाम सब, हाड चाम सब खांन। गरीबदास केशव कहै, हाड चाम का दान।।872।।
हाड चाम की गूदरी, हाड चाम का चोल। गरीबदास केशव कहै, हाड चाम शिर खोल।।873।।
हाड चाम की नाक है, हाड चाम का मुख। गरीबदास केशव कहै, तज कबीर योह रुख।।874।।
हाथ इकीसौ आंत है, भरी नरक सब ठेल। गरीबदास केशव कहै, खाटी करवी बेल।।875।।
करवी करवा फल लगैं, करवी करवा खाय। गरीबदास केशव कहै, मीठा नाम निपाय।।876।।
सुनि कबीर सुर भेद हूं, केशव कसत करंत। गरीबदास गंदे मनुष्य, झगड़ा आनि करंत।।877।।
बिष्टा जिनकी देह में, मगन फिरैं दिन रात। गरीबदास केशव कहै, जिन शिर जमकी घात।।878।।
अजब अहंकारी मनुष्य हैं, सुन कबीर मम ज्ञान। गरीबदास केशव कहै, इन्हें कैसा ज्ञान अरू ध्यान।।879।।
सुन कबीर मन भावने, तुमरी बात अगाध। गरीबदास केशव कहै, तुमसे तुमही साध।।880।।
नाद बिंदमै बोय है, चलि है पान अपान। गरीबदास केशव कहै, बिन ही दम सैलान।।881।।
दम नहीं देही नहीं, नहीं जिमीं असमान। गरीबदास केशव कहै, जहां रहन अस्थान।।882।।
हरे पीत मोती जहां, हीरे बदन सपेद। गरीबदास केशव कहै, सुनौं देशका भेद।।883।।
लाल श्याम जहां रत्न हैं, नहीं भौतिक आकार। गरीबदास केशव कहै, चलि कबीर परिवार।।884।।
उर अमोघ जहां भजन है, केशव जहां रहंत। गरीबदास केशव कहै, कोई कोई जन समझंत।।885।।
उर अमोघ आसन अरस, उर अमोघ सरसंध। गरीबदास केशव कहै, सोई साध निर्बंध।।886।।
कबीर जी तथा केशव जी की ज्ञान चर्चा
पारख के अंग की वाणी नं. 851-886 का सरलार्थ:– केशव ने कबीर परमेश्वर से कहा कि हे कबीर! आप इस मलीन देश में किसलिए आए हो? आप तो सतलोक के सुख सागर के मालिक हो। वहाँ तो सर्व सुख है। यहाँ कष्ट के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह तो जीव लोक है। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तक जीव हैं। जन्म-मृत्यु के चक्कर में हैं। आपने वह सतलोक (अमान) सुख-चैन वाला यानि परम शांति वाला लोक क्यों छोड़ दिया? इस काल लोक के व्यक्ति झूठ-कपट की बातें करते हैं। पाप तथा पुण्य के भोग में जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े हैं। महान कष्ट उठा रहे हैं। हे कबीर जी! आप कैसे रह रहे हो? छोड़ क्यों ना देते? जहाँ से आप आए हो, वहाँ तो जगह-जगह बाग हैं। गंगा जल जैसे जल के सरोवर हैं। स्थान-स्थान पर फव्वारे चल रहे हैं। सदा बसंत जैसा मौसम रहता है। इस लोक को देखकर मेरा चितभंग हो गया है। मैं आश्चर्य कर रहा हूँ कि ये कैसे लोग हैं? वहाँ तो सब निवासी मानवों के सिर पर कलंगी शोभा करती है। सुंदर देवांगनाएँ (देवों की स्त्रियाँ) हैं। यहाँ तो कोई भी व्यवस्था अच्छी नहीं है। न अच्छे (तुरंगम) घोड़े हैं, न सफेद हाथी हैं। धन्य हैं हे कबीर जी! आप पर मैं कुर्बान जाऊँ, आपकी ऐसी सामान्य जिंदगी। केशव ने कहा कि इस गंदे लोक को छोड़ दे। चल अपने देश सतलोक में। ऊपर सतलोक में हीरों व लालों के पहाड़ हैं। यहाँ पत्थर के पहाड़ हैं। यह धरती (पोहमी) तो मिट्टी की है। इसके ऊपर कदम रखने से भी पाप लगता है। यहाँ पर पाँव भी ना रखना। इन सबका (मुरद परोसी पिंड) नाशवान शरीर है। सतलोक में अमर शरीर है। यहाँ के स्त्री-पुरूष आपस में (गांडि-भडुका खेलहीं) मिलन करते हैं। इसी को सबसे अच्छा भोग मानते हैं। सतलोक का भोग असँख्य गुणा आनंददायक है।
सब मानव (स्त्री-पुरूष) के शरीरों में नरक भरा है। नसों में रूधिर भरा है, थूक भरा है। बिस्टा (टट्टी) भरा है। ये दिन-रात इसी नरक भरे शरीर में मस्त रहते हैं। फिर कुत्ते-गधे बनते हैं। यमदूत इनके ऊपर (घात) मारने के लिए छुपकर दांव लगाए रहता है। इस काल लोक की पृथ्वी की सौ योजन (एक योजन बारह किलोमीटर के समान होता है) यानि बारह सौ किमी. ऊपर तक दुर्गंध जाती है।
हे कबीर जी! ये सब अहंकारी जीव हैं। इनको कैसा ज्ञान और ध्यान बताया जा सकता है? ये कैसे भक्ति करेंगे? हे कबीर जी! आप इनमें कहाँ फँसे बैठे हो? हे कबीर मन भावने यानि मेरे प्रिय सुन! आपकी बात उत्तम है। आप जैसा साधु हो ही नहीं सकता। आप इनका कल्याण चाहते हो। ये आपको कष्ट देते हैं। उस लोक में जहाँ आपका निवास है, पाँच तत्त्व की देही (शरीर) नहीं है। (दम) श्वांस से भी उस शरीर का कोई संबंध नहीं है। बिना श्वांस का अविनाशी शरीर है। कबीर जी ने उत्तर दिया:-
पारख के अंग की वाणी नं. 887-924:-
सुनि केशव अब बंदना, कहै कबीर संदेश। गरीबदास सर्व लोक में, है हमरा प्रवेश।।887।।
हम अमान अबिगत पुरुष, चुंबक ज्यूं चमकार। गरीबदास लोहा फिरै, हमरै अधर अधार।।888।।
लोहे रूपी देह है, चुंबक रूपी प्राण। गरीबदास दोऊसैं बगल, शब्दातीत अमान।।889।।
जब हम खैंचैं प्राणकौं, दम मिलैं दरियाव। गरीबदास पिण्डा परै, सुनि श्वास मिलि जाय।।890।।
सुंन हमारा रूप है, हम हैं सुंनसैं न्यार। गरीबदास उस प्राणकूं, हमहीं जोवनहार।।891।।
हम जोवैं हम ऐंचिहैं, योह सब ख्याल हमार। गरीबदास अबिगत अदल, फजल फूल दीदार।।892।।
फूल रूप सब प्रान हैं, फूल फूल में गंध। गरीबदास मम महल की, मैंही जानत सिंध।।893।।
पिण्ड पेड़ जीव बीज हैं, पिण्ड बीजसैं होत। गरीबदास जानैं नहीं, माता दूझत सोत।।894।।
बालक पीवै अति अघाय, माता दूधी धैंन। गरीबदास उस नरक में, कहां रतन सुरसैंन।।895।।
हाड चामकी देहिमें, दूध रतन सरबंत। गरीबदास घट पिण्ड में, ऐसै है भगवंत।।896।।
थन दूधिकौं पारिकरि, जै कोई देखै दूध। गरीबदास उस पिण्ड में, हाड चाम और गूद।।897।।
हमरैही उनिहारि है, हमरा सिरजनहार। गरीबदास बिधि भेद सुन, उघरै मुक्ति द्वार।।898।।
तनकै अंदर मन बसै, मनमें दिल दरियाव। गरीबदास उस लहरसैं, न्यारा है प्रभाव।।899।।
चितकै बीच चबूतरा, तहां वहां रहनि हमार। गरीबदास उस महल में, दूजा नहीं लगार।।900।।
हिरदे की खिरकी खुल्है, ऐंनक मध्य अनूप। गरीबदास घट घट बसैं, रहै गगन जल कूप।।901।।
जलसैं गगन न भीजि है, नहीं सुकावै धूप। गरीबदास मम देश यौह, सुन सें न्यारा रूप।।902।।
हम हैं सुंन सनेहीयां, सुन केशव करतार। गरीबदास हम चरण सैं, उतरे जीव अपार।।903।।
जुग सतरि हम ज्ञान दे, जीव न समझया एक। गरीबदास घर घर फिरैं, धरैं कबीरा भेष।।904।।
सतरि जुग सेवन किये, किन्हे न बूझी बात। गरीबदास मैं समझात हूँ, मोहे लगावें लात।।905।।
कलप कोटि जुग बीतिया, हम आये हर बेर। गरीबदास केशव सुनौं, देन भक्ति की टेर।।906।।
स्वर्ग मृत्यु पाताल में, हम पैठे कई बार। गरीबदास घरि घरि सिज्या, मारि मारि कहै मारि।।907।।
हमरी जाति अपूरबी, पूरब रहनि हमार। गरीबदास कैसैं जुड़ै, पश्चिम के का तार।।908।।
हम हैं पूरब ठेट के, उतरे औघट घाट। गरीबदास जीव दक्षिण के, यौ नहीं मिलती साटि।।909।।
हम पूरब के पूरबी, उतर देश उतरंत। गरीबदास जीव दक्षिण के, यौ नहीं संगि चलंत।।910।।
जीन्ह हमरी सीख लई, काटों जम जंजीर। गरीबदास केशव सुनै, ऐसैं कहैं कबीर।।911।।
फिरि बाजी बिधना रचै, वै नहीं जीव आवंत। गरीबदास सत्यलोक में, अमरपटा पावंत।।912।।
अनंत कोटि बाजी तहां, रचे सकल ब्रह्मंड। गरीबदास मैं क्या करूं, काल करत जीव खंड।।913।।
कीलौं काल निकंदिहूँ, जीव विध्वंस नहीं होय। गरीबदास जुलहा कहै, शब्द न बूझै कोय।।914।।
मनुष्य जीव क्या बात है, पशु पक्षी प्रवान। गरीबदास जुलहा कहै, करिहूँ हंस अमान।।915।।
मैं बनजारा आदि का, याही हमरि साटि। गरीबदास जीव अभय करि, बौहरि न आवै बाट।।916।।
एक गाडै एक जारिये, यह नहीं मोहि सुहाय। गरीबदास सतलोक में, देऊं जीव मिलाय।।917।।
सुन केशव साहिब धनी, मैं हूं तुमरा दास। गरीबदास तुम हुक्म सैं, काटत जीव की फांस।।918।।
मुझ आजिज की कलप सुनि, तुम उतरें ततकाल। गरीबदास जुलहा कहै, मग झीना पंथ बाल।।919।।
नौलख बोडी ऊतरी, केशव कसत करंत। गरीबदास मम कारणैं, भक्ति सरू भगवंत।।920।।
सुनि स्वामी साहिब धनी, करिहूं अरज अनेक। गरीबदास जुलहा कहै, पूरण कीन्हे भेष।।921।।
कामधेनु कल्पवृक्ष तूं, मैं एक तुमरा फूल। गरीबदास केशव धनी, सदा संग मखमूल।।922।।
तुमसे संगी संग हैं, हमरे कछू न चाह। गरीबदास सतगुरु धनी, उतरे माल भराय।।923।।
पूरण ब्रह्म कृपानिधान, सुन केशव करतार। गरीबदास मुझ दीन की, राखियौं बहुत संभार।।924।।
कबीर जी वचन
पारख के अंग की वाणी नं. 887-924 का सरलार्थ:– कबीर जी ने कहा कि हे केशव! मेरा निवेदन सुन। मैं सब स्थानों पर विद्यमान हूँ। मैं सर्वव्यापक हूँ। जैसे गऊ बच्चे को जन्म देती है। गाय के शरीर में रूधिर भी है। गोबर-पेशाब भी है। माँस भी है, हड्डियाँ भी हैं। उसी शरीर में बच्चे के लिए दूध भी बन गया है। इसी प्रकार सत्य साधना करने से इसी रूधिर व मल भरे मानव शरीर में परमात्मा भी प्रकट हो जाता है। भक्ति की शक्ति बन जाती है। जीव का मोक्ष हो जाता है। बच्चे के जन्म से पहले यदि गाय या भैंस के थन (दूधी) को चीर-फाड़कर देखें तो दूध नहीं मिलेगा। माँस व रक्त मिलेगा। बच्चा उत्पन्न होने के पश्चात् दूध की बाल्टी भर देती है। हे केशव! अपना सृजनहार अपने (हुनियार) जैसा है यानि मानव स्वरूप है। {यह सब वार्ता मानव को समझाने के लिए है।}
मैंने (कबीर जी ने) जो काल से अधिक प्रभावित हैं, कर्महीन हैं, उनको सत्तर युग तक तत्त्वज्ञान समझाया। एक भी जीव नहीं समझा। मैं घर-घर भिन्न-भिन्न वेश धारण करके जाता हूँ, समझाना चाहता हूँ। मेरे को लात मारते हैं। हे केशव! सुन। मैं करोड़ों कल्पों तक बार-बार सच्ची भक्ति करने की प्रेरणा करने स्वर्ग लोक, पाताल लोक तथा पृथ्वी लोक पर कई बार गया-आया हूँ। ये जीव मेरे पीछे पड़ जाते हैं। कहते हैं कि यह झूठा ज्ञान कहता है। इसको मारो-मारो। हम पूर्व के यानि ऊपर सतलोक के रहने वाले हैं। जीव पश्चिम के हैं। इसलिए बोली मिलती नहीं। पश्चिम यानि काल लोक के निवासी हैं यानि हमारे ज्ञान को समझ नहीं पाते। इनको काल लोक का लोक वेद पढ़ा रखा है। मेरी कोशिश है कि इनको नरक से निकालूँ।
जिन्होंने हमारी शिक्षा (उपदेश) मान ली, दीक्षा ले ली, उनके (जम जंजीर) काल के लोक के पाप कर्मों के बंधन को समाप्त कर देता हूँ। इस बात को केशव भी सुन रहा था तथा प्रभावित हो रहा था। कबीर जी ने कहा कि वे मेरी शरण वाले सत्य भक्ति करके सतलोक में चले जाते हैं। वहाँ पर (अमर पट्टा) अमर पद प्राप्त करते हैं। वे कभी जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं गिरते। मैंने (कबीर जी ने) अनंत करोड़ दुनिया बनाई हैं। अनंत करोड़ ब्रह्माण्ड बनाए हैं। मैं इतना सक्षम हूँ। परंतु काल जीव का नाम खण्ड करवाकर मेरे से दूर कर देता है। बताओ मैं क्या करूँ? मैं काल को (कील दूं) बाँध दँू। किसी भी जीव को कष्ट नहीं होगा। सब सत्यलोक में चले जाएँगे। परंतु मेरे ज्ञान को कोई नहीं मानता है, न सुनता है। कबीर जुलाहा यह कह रहा है कि मानव की तो बात ही क्या है, पशु-पक्षियों को भी (अमान) सुखी कर दूँ। मैं तो सदा का (आदि का) बनजारा (व्यापारी) हूँ। मेरी यही (साट) सौदागरी है कि जीवों को सच्चा ज्ञान, सच्चा नाम बताकर भक्ति करवाकर काल ब्रह्म का हिसाब करवाकर जीव को मुक्त करवाकर सत्यलोक ले जाऊँ। वे जीव पुनः काल के जाल में नहीं आते। उन जीवों को अमर कर देता हूँ। जो भिन्न-भिन्न धर्म बनाकर काल ने आपस में लड़ा रखे हैं, भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज बना रखे हैं। हिन्दू मुर्दे को जलाता है। मुसलमान इसे बुरा मानते हैं। वे जमीन में गाड़ते हैं। मुझे ये अच्छा नहीं लगता। मैं चाहता हूँ कि ये तत्त्वज्ञान समझें। एक हो जाएँ। सत्य साधना करें, सतलोक जाएँ। सदा सुखी रहें। डबल रोल करके कबीर जी ने कहा कि हे केशव! (धनी) मालिक मैं तो आपका दास हूँ। आपकी आज्ञा से जीवों के कर्म बंधन काटता हूँ। मुझ आजिज की पुकार सुनकर आप तत्काल सहयोग के लिए उतरे हो। नौ लाख बौडी लेकर आए हो। मेरी लाज रखी है। आपके कारण भगवान की सच्ची भक्ति प्रारंभ होती है। हे केशव साहिब धनी! मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने सब (भेषांे) पंथों के साधुओं को पूर्ण रूप से तृप्त किया है। आप तो कामधेनु (मनोकामना व सब प्रकार के खाद्य पदार्थ देने वाली देवताओं की गाय) के समान हो। मैं आपका छोटा-सा फूल यानि बच्चा हूँ। आप सदा साथ रहना। आप जैसे साथी मेरे साथ हैं, फिर मुझे क्या चाहिए? मेरे सतगुरू धनी आप माल भरकर उतरे हो। हे पूर्ण ब्रह्म केशव करतार! मेरी अर्ज सुनो। मुझ दीन का बहुत ध्यान रखना। काल लोक में मेरी सुध लेते रहना।
पारख के अंग की वाणी नं. 925-930:-
सुनि कबीर केशव कहै, जो कुछ करौ सो कीन। गरीबदास मुख्त्यार तुम, तुमैं दीन बेदीन।।925।।
सुनि सतगुरु तोसैं कहूं, तुमहो दीनदयाल। गरीबदास आधीन मैं, तुम साहिब अबदाल।।926।।
अनंत कोटि ब्रह्मांडकौं, त्यारत लगैं न बार। गरीबदास केशव कहै, तुमही दारमदार।।927।।
तुमही दारमदार हौ, यहां कलप नहीं इंछ। गरीबदास केशव कहै, तुमरे ही प्रपंच।।928।।
तूं प्रपंची आदिका, अनंत जीव तुम त्यार। गरीबदास केशव कहै, तुम कोली घनसार।।929।।
अनंत लोक ताना तन्या, गूढी गांठी तूं बीनि। गरीबदास केशव कहै, तुम कोली परवीन।।930।।
केशव जी के वचन तथा भंडारा सम्पन्न की वाणी
पारख के अंग की वाणी नं. 925-930 का सरलार्थ:– केशव ने कहा कि हे कबीर जी! आप समर्थ परमेश्वर हैं। आप जो चाहो, सो कर सकते हो। हे सतगुरू! सुनो आप तो दीनदयाल हो, मैं आपके आधीन हूँ। आप समर्थ (साहिब) परमेश्वर हो। आपको अनंत कोटि ब्रह्माण्ड को पार करने में कोई देर नहीं लगेगी। आप ही (दारमदार) सर्वेसर्वा हैं। सबके मालिक हो। आप ऐसे प्रपंच सदा से करते आए हो। अपना भेद नहीं देते। आप सबके उत्पत्तिकर्ता हो, मोक्ष दाता हो। सुख के सागर हो। जीव के सच्चे साथी हो। आप सर्व सृष्टि का ताना बुनने वाले (कोली) जुलाहा हो यानि सर्व ब्रह्माण्डों के रचनहार हो।
पारख के अंग की वाणी नं. 931-939:-
केशव चले स्व धाम को, नौलख बोडी लीन। गरीबदास बंधन किया, बाजत हैं सुर बीन।।931।।
केशव और कबीर जित, मिलत भये तहां एक। दासगरीब कबीर हरी, धरते नाना भेख।।932।।
बनजारे और बैल सब, लाए थे भर माल। गरीबदास सत्यलोक कूं, चले गये ततकाल।।933।।
आवत जाते ना लखै, कौन धाम प्रकाश। गरीबदास शाह बूझि है, कहां गये हरिदास।।934।।
हरि में हरिके दास हैं, दासनकै हरि पास। गरीबदास पद अगमगति, शाहतकी उदास।।935।।
चलौ सिकंदर पातशाह, क्यों बिरथा बखत गमाय। गरीबदास उस पीरकै, तन मन लागी भाय।।936।।
जेता शहर कबीर का, हमरै बौहत अनेक। गरीबदास शाहतकीकै, लगी जुबांनं मेख।।937।।
गुंग भये बोलैं नहीं, नहीं जुबाब जुबान। गरीबदास मार्या पर्या, बिन शर करौं कमान।।938।।
एता दोष धरै कहां, दग्ध जिमीं असमान। गरीबदास सुनिये नहीं, गंुग द्वार मुख कान।।939।।
पारख के अंग की वाणी नं. 931-939 का सरलार्थ:– केशव रूपधारी परमेश्वर कबीर जी ने सब बैलों तथा बनजारों को आज्ञा दी कि तुम स्वधाम को चलो। इतना कहते ही सब चल पडे़। गंगा दरिया पार कर गए। कुछ देर बाद सिकंदर राजा ने देखा तो नौ लाख बैल, एक लाख सेवादार कोई भी दिखाई नहीं दिया। तब सिकंदर लोधी राजा ने केशव से पूछा कि हे केशव! वे सब कहाँ गए? केशव बोला कि सतलोक से आए थे, सतलोक चले गए। मैं भी चलता हूँ। यूं कहकर केशव कबीर जी में समा गए। संत गरीबदास जी ने कहा है कि कबीर परमेश्वर स्वयं ही भिन्न-भिन्न रूप बनाकर लीला करते हैं। बनजारे तथा बैल माल भरकर लाए थे। सतलोक में तत्काल चले गए। शेखतकी जो सिकंदर राजा का मंत्री व पीर था। उसके तो तन-मन में आग लग गई और राजा से कहने लगा कि चलो! क्यों यहाँ समय व्यर्थ कर रहे हो? जैसा कबीर का शहर है, ऐसे हमारे अनेक हैं। इसने क्या भण्डारा किया है, महोछा-सा किया है। हम ऐसे-ऐसे सौ भंडारे कर देंगे। उसी समय शेखतकी गूंगा हो गया। आजीवन गूंगा रहा। भुगतकर मरा।
गरीब, कोई कहे जग जौनार करी है, कोई कहे महोच्छा। बड़े बड़ाई करत हैं, गारी काढ़े ओच्छा।।
अर्थात् कोई तो कह रहा था कि दिल खोलकर रूपया खर्चा है। (जग जौनार) धर्म यज्ञ जीमनवार की है। कोई कह रहा था कि महोछा किया है। महोछा उसे कहते हैं जो किसी वृद्ध के लिए पंडित के द्वारा थोपा हुआ धर्म किया जाता है। उसमें घटिया कपड़ा, घटिया घी (डालडा) लगाता है, कंजूसी करता है। सौ के स्थान पर दस खर्च करने की कोशिश करता है। उसे महोछा कहते हैं। बड़े लोग यानि अच्छी आत्मा तो यज्ञकर्ता की बड़ाई करते हैं। ओच्छा यानि दुष्ट आत्मा गाली देता है। उसे बिसराता है (घटिया बताता है)।
उपरोक्त वाणियों का कथा रूप
सरलार्थ:– जब सब षड़यंत्र फैल हो गए तो सब काशी के पंडित, काजी-मुल्लाओं ने सभा करके निर्णय लिया कि कबीर एक निर्धन जुलाहा है। हम इसके नाम से पूरे हिन्दुस्तान में चिट्ठी भिजवा देते हैं कि कबीर सेठ पुत्र नीरू जुलाहा काॅलोनी बनारस वाला तीन दिन का भोजन-भण्डारा (धर्म यज्ञ) करने जा रहा है। सब अखाड़े वाले बाबा, साधु-संत आमंत्रित हैं। साथ में अपने सर्व शिष्यों को अवश्य लाएँ। तीनों दिन प्रत्येक भोजन के पश्चात् प्रत्येक साधु-संत, ब्राह्मण, काजी-मुल्ला, पीर-पैगम्बर, औलिया को एक दोहर, एक मोहर तथा जो कोई सुखा-सीधा (आटा, मिठाई, घी, दाल, चावल) भी लेना चाहे तो वह भी दिया जाएगा। ‘दोहर‘ एक लोई होती थी जो उस समय की सबसे मँहगी तथा उपयोगी कम्बल मानी जाती थी जिसको अमीर लोग ही ओढ़ते थे। ‘मोहर‘ लगभग 10 ग्राम सोने (gold) से बना वर्तमान कीमत लगभग 30 हजार रूपये है। उस लोई की कीमत वर्तमान में 10 हजार से कम नहीं है।
सर्व सम्मति से यह निर्णय लेकर पत्र भिजवा दिए, दिन निश्चित कर दिए। निश्चित दिन को 18 लाख साधु-संत, ब्राह्मण, मण्डलेश्वर अपने-अपने सर्व शिष्यों सहित पहुँच गए। सबको लालच था कि प्रत्येक भोजन के पश्चात् उपरोक्त दक्षिणा मिलेगी। इसलिए अपने-अपने सर्व शिष्यों को मण्डलेश्वर ले आए कि अच्छा माल मिलेगा, सूखा-सीधा भी लेंगे। महीनों का खाने का तथा कई-कई हजार का सोना तथा लोई मिलेगी। बेचकर काम चलाएँगे।
कबीर परमेश्वर ने दो रूप में अभिनय किया। एक रूप तो अपनी कुटिया में बैठे रहे। दूसरे रूप में अपने सतलोक से 9 लाख बैलों पर थैले रखकर पका-पकाया सामान तथा सूखा सामान तथा दोहर-मोहर भरकर ले आए। (बोरे जो वर्तमान में गधों पर रखते हैं। उस समय बनजारे अर्थात् व्यापारी बैलों पर रखकर माल एक मण्डी से दूसरी मण्डी में ट्रान्सपोर्ट करते थे।) काशी के बाजार में टैंट लगाकर सारा सामान टैंटों में रख दिया और कुछ सेवादार भी सतलोक से साथ आए थे जो सर्व व्यवस्था संभाल रहे थे। भण्डारा शुरू कर दिया, तीन दिन तक चिट्ठी में लिखे अनुसार सर्व दक्षिणा दी गई। उस समय भोजन-भण्डारे में दिल्ली का राजा सिकन्दर लोधी भी आया था तथा उसका निजी पीर शेखतकी भी आया था। शेखतकी उपरोक्त षड़यंत्र का मुख्य सदस्य था। उसने सिकंदर लोधी को भी पत्र भिजवाया। वह चाहता था कि किसी तरह सिकंदर लोधी के दिल से कबीर जी उतरें और मेरी पूर्ण महिमा बने। उस शेख का अनुमान था कि अबकी बार कबीर काशी से भाग जाएगा और भण्डारे में पहुँचे साधु कबीर को गालियाँ दे रहे होंगे। राजा भी कबीर जी का फैन (प्रसंशक) नहीं रहेगा। परंतु जब भण्डारे के स्थान पर पहुँचे तो देखा, लंगर चल रहा है, सर्व दक्षिणा दी जा रही है। सब साधु तथा अन्य व्यक्ति भोजन खाकर दक्षिणा लेकर कबीर सेठ की जय-जयकार कर रहे हैं। बादशाह सिकंदर लोधी ने पता किया कि भण्डारा करने वाला कहाँ है? बताया गया कि उस सामने वाले बड़े टैंट (तम्बू) में है। राजा तथा शेखतकी उस तम्बू में गए और पहले अपना परिचय दिया, फिर उसका परिचय पूछा। तम्बू में बैठे सेठ ने परिचय बताया कि मेरा नाम केशव है, मैं बनजारा हूँ। कबीर जी मेरे मित्र हैं। उनका मेरे पास संदेश गया था कि एक छोटा-सा भण्डारा करना है, कुछ सामान लेकर आना। मेरा भी निमंत्रण भेजा था। राजा सिकंदर लोधी ने पूछा कि कबीर जी क्यों नहीं आए? केशव रूपधारी परमेश्वर ने कहा मैं जो बैठा हूँ उनका नौकर, वे मालिक हैं, इच्छा होगी, तब चले आएंगे। उनकी कृपा तथा आदेश से सब ठीक चल रहा है। आप जी भी भोजन करें। राजा ने कहा पहले उस शुभान अल्लाह के दर्शन करूँगा, बाद में भोजन करूँगा। यह कहकर हाथी पर बैठकर राजा सिकंदर कबीर जी की कुटिया पर पहुँचे। साथ में कई अंगरक्षक भी थे।
कबीर परमेश्वर जी को संत रविदास जी ने सुबह ही बता दिया था कि हे कबीर जी! आज तो विरोधियों ने बनारस छोड़कर भगाने का कार्य कर दिया। आपके नाम से पत्र भेज रखे हैं और ऐसा-ऐसा लिखा है। लगभग 18 लाख व्यक्ति साधु-संत लंगर खाने पहुँच चुके हैं। कबीर जी ने कहा कि मित्र आजा बैठ जा! दरवाजा बंद करके सांगल लगा ले। आज-आज का दिन बिताकर रात्रि में अपने परिवार को लेकर भाग जाऊँगा। कहीं अन्य शहर-गाँव में निर्वाह कर लूंगा। जब उनको कुछ खाने को मिलेगा ही नहीं तो झल्लाकर गाली-गलौच करके चले जाएंगे। हम सांकल खोलेंगे ही नहीं, यदि किवाड़ तोड़ेंगे तो हाथ जोड़ लूंगा कि मेरा सामथ्र्य आप जी को भण्डारा कराने का नहीं है। गलती से पत्र डाले गए, मारो भावें छोड़ो। दोनों संत माला लेकर भक्ति करने लगे। मुँह बोले माता-पिता तथा मृतक जीवित किए हुए लड़का तथा लड़की सुबह सैर को गए थे। इतने में दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोधी ने दरवाजा खटखटाया। संत रविदास जी ने कहा प्रभु! लगता है कि अतिथि यहाँ पर भी पहुँच गए हैं। कबीर जी ने कहा कि देख सुराख से बच्चे तो नहीं आ गए हैं। रविदास जी ने देखकर बताया कि नहीं, कोई और ही है। दो-तीन बार दरवाजा खटखटाकर राजा सिकंदर ने अपना परिचय देकर बताया कि आपका दास सिकंदर आया है, आपके दर्शन करना चाहता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा राजन! आज दरवाजा नहीं खोलूंगा। मेरे नाम से झूठी चिट्ठियाँ भेज रखी हैं, लाखों संत-भक्त पहुँच चुके हैं। रात्रि होते ही मैं अपने परिवार को लेकर कहीं दूर चला जाऊँगा। सिकंदर लोधी ने कहा परवरदिगार! आप मुझे नहीं बहका सकते, मैं आपको निकट से जान चुका हूँ। आप एक बार दरवाजा खोलो, मैं आपके दर्शन करके ही जलपान करूँगा। परमेश्वर की आज्ञा से रविदास जी ने दरवाजा खोला तो सिकंदर लोधी मुकट पहने-पहने ही चरणों में लोट गया और बताया कि आप अपने आपको छिपाकर बैठे हो, आपने कितना सुंदर भण्डारा लगा रखा है। आपका मित्र केशव आपके संदेश को पाकर सर्व सामान लेकर आया है। आपके नाम का अखण्ड भण्डारा चल रहा है। सर्व अतिथि आपके दर्शनाभिलाषी हैं। कह रहे हैं कि देखें तो कौन है कबीर सेठ जिसने ऐसे खुले हाथ से लंगर कराया है। मेरी भी प्रार्थना है कि आप एक बार भण्डारे में घूमकर सबको दर्शन देकर कृतार्थ करें। तब परमेश्वर कबीर जी उठे और कुटिया से बाहर आए तो आकाश से कबीर जी पर फूलों की वर्षा होने लगी तथा आकाश से आकर सिर पर सुन्दर मुकुट अपने आप पहना गया। तब हाथी पर बैठकर कबीर जी तथा रविदास जी व राजा चले तो सिकंदर लोधी परमेश्वर कबीर जी पर चंवर करने लगे और पीलवान से कहा कि हाथी को भण्डारे के साथ से लेकर चल। जो भी देखे और पूछे काशी वालों से कि कबीर सेठ कौन-सा है, उत्तर मिले कि जिसके सिर पर मोरपंख वाला मुकुट है, वह है कबीर सेठ जिस पर सिकंदर लोधी दिल्ली के बादशाह चंवर कर रहे हैं। सब एक स्वर में जय बोल रहे थे। जय हो कबीर सेठ की, जैसा लिखा था, वैसा ही भण्डारा कराया है। ऐसी व्यवस्था कहीं देखी न सुनी। भोजन खाने का स्थान बहुत लम्बा-चैड़ा था। उसमें घूमकर फिर वहाँ पर आए जहाँ पर केशव टैंट में बैठा था। हाथी से उतरकर कबीर जी तम्बू में पहुँचे तो अपने आप एक सुंदर पलंग आ गया, उसके ऊपर एक गद्दा बिछ गया, ऊपर गलीचे बिछ गए जिनकी झालरों में हीरे, पन्ने, लाल लगे थे। टैंट को ऊपर कर दिया गया जो दो तरफ से बंद था। खाना खाने के पश्चात् सब दर्शनार्थ वहाँ आने लगे, तब परमेश्वर कबीर जी ने उन परमात्मा के लिए घर त्यागकर आश्रमों में रहने वालों तथा अन्य गृहस्थी व्यक्ति व ब्राह्मणों को आपस में (केशव तथा कबीर जी ने) आध्यात्मिक प्रश्न-उत्तर करके सत्यज्ञान समझाया। 8 पहर (24 घण्टे) तक सत्संग करके उनका अज्ञान दूर किया। कई लाख साधुओं ने दीक्षा ली और अपना कल्याण कराया। विरोधियों ने तो परमेश्वर का बुरा करना चाहा था, परंतु परमात्मा को इकट्ठे करे-कराए भक्त मिल गए अपना ज्ञान सुनाने के लिए। उन भक्तों को सतलोक से आया हुआ उत्तम भोजन कराया जिसके खाने से अच्छे विचार उत्पन्न हुए। उन्होंने परमेश्वर का तत्त्वज्ञान समझा, दीक्षा ली तथा कबीर जी ने उनको वर्षों का खर्चा भी दक्षिणा रूप में दे दिया। सब भण्डारा पूरा करके सर्व सामान समेटकर बैलों पर रखकर जो सेवादार आए थे, वे चल पड़े। तब सिकंदर लोधी, शेखतकी, कबीर जी, केशव जी तथा राजा के कई अंगरक्षक भी खड़े थे। अंगरक्षक ने आवाज लगाई कि बैल धरती से छः इन्च ऊपर चल रहे हैं। पृथ्वी पर पैर नहीं रख रहे। यह लीला देखकर सब हैरान थे। फिर कुछ देर बाद देखा तो आसपास तथा दूर तक न बैल दिखाई दिए और न बनजारे सेवक। सिकंदर लोधी ने पूछा हे कबीर जी! बनजारे और बैल कहाँ गए? परमेश्वर कबीर जी ने उत्तर दिया कि जिस परमात्मा के लोक से आए थे, उसी में चले गए। उसी समय केशव वाला स्वरूप देखते-देखते कबीर जी के शरीर में समा गया। सिकंदर राजा ने कहा हे अल्लाहु अकबर! मैं तो पहले ही कह रहा था कि यह सब आप कर रहे हो, अपने आपको छिपाए हुए हो। शेखतकी तो जल-भुन रहा था। कहने लगा कि ऐसे भण्डारे तो हम अनेकों कर दें। यह तो महौछा-सा किया है। हम तो जग जौनार कर देते।
महौछा कहते हैं वह धर्म अनुष्ठान जो किसी पुरोहित द्वारा पित्तर दोष मिटाने के लिए थोपा गया हो। उसमें व्यक्ति बताए गए नग (items) मन मारकर सस्ती कीमत के लाकर पूरे करता है, हाथ सिकोड़कर लंगर लगाता है।
जग जौनार कहते हैं जिसके घर कई वर्षों उपरांत संतान उत्पन्न होती है तो दिल खोलकर खर्च करता है, भण्डारा करता है तो खुले हाथों से।
संत गरीबदास जी ने उस भण्डारे के विषय में जिसकी जैसी विचारधारा थी, वह बताई:-
गरीब, कोई कहे जग जौनार करी है, कोई कहे महौछा। बड़े बड़ाई कर्या करें, गाली काढ़ै औछा।।
भावार्थ है कि जो भले पुरूष थे, वे तो बड़ाई कर रहे थे कि जग जौनार करी है। जो विरोधी थे, ईष्र्यावश कह रहे थे कि क्या खाक भण्डारा किया है, यह तो महौछा-सा किया है। जब शेखतकी ने ये वचन कहे तो गूंगा तथा बहरा हो गया, शेष जीवन पशु की तरह जीया। अन्य के लिए उदाहरण बना कि अपनी ताकत का दुरूपयोग करना अपराध होता है, उसका भयंकर फल भोगना पड़ता है।
केशव आन भया बनजारा षट्दल किन्ही हाँस है।
परमेश्वर कबीर जी स्वयं आकर (आन) केशव बनजारा बने। षट्दल कहते हैं गिरी-पुरी, नागा-नाथ, वैष्णों, सन्यासी, शैव आदि छः पंथों के व्यक्तियों को जिन्होंने हँसी-मजाक करके चिट्ठी डाली थी। परमात्मा ने यह सिद्ध किया है कि भक्त सच्चे दिल से मेरे पर विश्वास करके चलता है तो मैं उसकी ऐसे सहायता करता हूँ।
एक अन्य करिश्मा जो उस भण्डारे में हुआ
वह जीमनवार (लंगर) तीन दिन तक चला था। दिन में प्रत्येक व्यक्ति कम से कम दो बार भोजन खाता था। कुछ तो तीन-चार बार भी खाते थे क्योंकि प्रत्येक भोजन के पश्चात् दक्षिणा में एक मौहर (10 ग्राम सोना) और एक दौहर (कीमती सूती शाॅल) दिया जा रहा था। इस लालच में बार-बार भोजन खाते थे। तीन दिन तक 18 लाख व्यक्ति शौच तथा पेशाब करके काशी के चारों ओर ढे़र लगा देते। काशी को सड़ा देते। काशी निवासियों तथा उन 18 लाख अतिथियों तथा एक लाख सेवादार जो सतलोक से आए थे। उस गंद का ढ़ेर लग जाता, श्वांस लेना दूभर हो जाता, परंतु ऐसा महसूस ही नहीं हुआ। सब दिन में दो-तीन बार भोजन खा रहे थे, परंतु शौच एक बार भी नहीं जा रहे थे, न पेशाब कर रहे थे। इतना स्वादिष्ट भोजन था कि पेट भर-भरकर खा रहे थे। पहले से दुगना भोजन खा रहे थे। उन सबको मध्य के दिन टैंशन (चिंता) हुई कि न तो पेट भारी है, भूख भी ठीक लग रही है, कहीं रोगी न हो जाएँ। सतलोक से आए सेवकों को समस्या बताई तो उन्होंने कहा कि यह भोजन ऐसी जड़ी-बूटियां डालकर बनाया है जिनसे यह शरीर में ही समा जाएगा। हम तो प्रतिदिन यही भोजन अपने लंगर में बनाते हैं, यही खाते हैं। हम कभी शौच नहीं जाते तथा न पेशाब करते हैं। आप निश्चिंत रहो। फिर भी विचार कर रहे थे कि खाना खाया है, कुछ तो मल निकलना चाहिए। उनको लैट्रिन जाने का दबाव हुआ। सब शहर से बाहर चल पड़े। टट्टी के लिए एकान्त स्थान खोजकर बैठे तो गुदा से वायु निकली। पेट हल्का हो गया तथा वायु से सुगंध निकली जैसे केवड़े का पानी छिड़का हो। यह सब देखकर सबको सेवादारों की बात पर विश्वास हुआ। तब उनका भय समाप्त हुआ, परंतु फिर भी सबकी आँखों पर अज्ञान की पट्टी बँधी थी। परमेश्वर कबीर जी को परमेश्वर नहीं स्वीकारा।
पुराणों में भी प्रकरण आता है कि अयोध्या के राजा ऋषभ देव जी राज त्यागकर जंगलों में साधना करते थे। उनका भोजन स्वर्ग से आता था। उनके मल (पाखाने) से सुगंध निकलती थी। आसपास के क्षेत्र के व्यक्ति इसको देखकर आश्चर्यचकित होते थे। इसी तरह सतलोक का भोजन आहार करने से केवल सुगंध निकलती है, मल नहीं। स्वर्ग तो सतलोक की नकल है जो नकली (duplicate) है।