पुरी के जगन्नाथ मंदिर में राम सहाय पाण्डेय के पैर को गर्म प्रसाद से जलने से काशी में बैठे कबीर जी ने बचाया
पारख के अंग की वाणी नं. 710-725:-
मनसा वाचा कर्मणा, षटदर्शन खटकंत। गरीबदास समझे नहीं, भरमे भेष फिरंत।।710।।
सहज मते सतगुरु गये, शाह सिकंदर पास। गरीबदास आसन दिया, संग तहां रैदास।।711।।
पग ऊपरि जल डारि करि, हो गये खडे कबीर। गरीबदास पंडा जर्या, तहां पर्या योह नीर।।712।।
जगन्नाथ जगदीश का, जरत बुझाया पंड। गरीबदास हर हर करत, मिट्या कलप सब दंड।।713।।
शाह सिकंदरकूं कह्या, कहा किया येह ख्याल। गरीबदास गति को लखै, पंड बचाया ततकाल।।714।।
तुरतही पती लिखाय करि, भेज्या सूत्रा सवार। गरीबदास पौंहचे तबै, पंथ लगे दशबार।।715।।
जगन्नाथके दर्श करि, दूत पूछि हैं पंड। गरीबदास कैसैं जर्या, कहौ बिथा पग हंड।।716।।
पंडा कहै सु दूतसैं, या बिधि दाझ्या पांय। गरीबदास अटका फुट्या, बेगही दिया सिराय।।717।।
किन बुझाया मुझि कहौ, सुनि पंडा योह पांव। गरीबदास साची कहौ, ना कछु और मिलाव।।718।।
पंड कहै सोई साच मानि, सुनौं हो दूत मम बीर। गरीबदास यहां खडे़ थे, डार्या नीर कबीर।।719।।
कहौ कबीर कहां बसत है, कौंन जिन्हौंकी जाति। गरीबदास पंडा कहै, ज्यूंकी त्यूंही बात।।720।।
वै कबीर काशी बसैं, जाति जुलहदी तास। गरीबदास दर्शन करैं, जगन्नाथकै दास।।721।।
नितही आवत जात है, जगन्नाथ दरबार। गरीबदास उस जुलहदीकूं, पंडा लिया उबार।।722।।
पंडेकूं पतीया लिखी, जो कछु हुई निदान। गरीबदास बीती कही, लिखि भेज्या फुरमान।।723।।
आये काशी नगर में, दूत कही सत गल। गरीबदास इस जुलहदीकी, बड़ी मजल जाजुल।।724।।
शाह सिकंदर सुनि थके, याह अचरज अधिकार। गरीबदास उस जुलहदीका, नित करि हैं दीदार।।725।।
सरलार्थ:– एक दिन शाम के समय परमेश्वर कबीर जी अपने साथ संत रविदास जी को लेकर राजा बीरदेव सिंह बघेल के दरबार में गए। उस दिन दिल्ली के सम्राट सिकंदर लोधी भी वहाँ आए हुए थे। सिकंदर लोधी पूरे भारत का शासक था, वह महाराजा था। काशी नरेश बीरदेव सिंह बघेल छोटे राजा थे जो दिल्ली के बादशाह के आधीन होते थे। दोनों संतों को बैठने के लिए आसन दिया गया। कुछ देर दोनों राजाओं के साथ परमात्मा की चर्चा की। फिर अचानक शीघ्रता से कबीर परमेश्वर जी ने खड़ा होकर अपने लोटे का जल अपने पैर के ऊपर डालना प्रारम्भ कर दिया। सिकंदर ने पूछा प्रभु! यह क्या किया अपने पैर के ऊपर पानी डाला, इसका कारण बताईये। कबीर जी ने कहा कि पुरी में जगन्नाथ के मन्दिर में एक रामसहाय नाम का पाण्डा पुजारी है। वह भगवान का खिचड़ी प्रसाद बना रहा था। उसको उतारने लगा तो अति गर्म खिचड़ी उसके पैर के ऊपर गिर गई। वह चिल्लाकर अचेत हो गया था। यह बर्फ जैसा जल उसके जले हुए पैर पर डाला है, उसके जीवन की रक्षा की है अन्यथा वह मर जाता। जगन्नाथ जी का मंदिर उड़ीसा प्रान्त में पुरी शहर में है जो बनारस से लगभग एक हजार किलोमीटर दूर है। यह बात राजा सिकंदर तथा बीरदेव सिंह बघेल के गले नहीं उतरी। कबीर जी को बताए बिना उसकी जाँच करने के आदेश दे दिए। दो सैनिक ऊँटों (ब्ंउमसे) पर सवार होकर पुरी में गए। 10 दिन जाने में लगे। पुरी में जाकर पूछा कि रामसहाय पाण्डा कौन है? उसको बुलाया गया। सिपाहियों ने पूछा कि क्या आपका पैर खिचड़ी से जला था? उत्तर मिला-हाँ। प्रश्न किया कि किसने ठीक किया? उत्तर मिला कि कबीर जी यहाँ पास ही खड़े थे, उन्होंने करमण्डल से हिमजल डाला था। उससे मेरी जलन बंद हो गई। यदि वे जल नहीं डालते तो मेरी छुट्टी हो गई थी, मैं अचेत हो गया था। प्रश्न-क्या समय था? शाम के समय सूर्य अस्त से लगभग एक घण्टा पहले। अन्य उपस्थित व्यक्तियों ने भी साक्ष्य दिया। सिपाहियों ने कहा सब लिखकर दस्तखत-अंगूठे लगाओ। रामसहाय पाण्डे ने तथा वहाँ के अन्य पुजारियों ने बताया कि कबीर जी तो नित्य-प्रतिदिन मन्दिर में आते हैं। सर्व प्रमाण लेकर-सुनकर दोनों सिपाही वापिस आए और सच्चाई बताई। दोनों राजा कबीर जी की कुटिया पर गए। दण्डवत प्रणाम किया तथा अपने अविश्वास रूपी अपराध की क्षमा माँगी। बताया कि आप सत्य कह रहे थे। आप जी ने ही जगन्नाथ मंदिर के रामसहाय पाण्डे के पैर को जलने से बचाया था। हमने अपनी तसल्ली के लिए दो सैनिक भेजकर पता कराया है। आप स्वयं वह खुदा हो जो सातवें आसमान पर बैठा है। आप नर रूप धारण करके पृथ्वी पर लीला करने आए हो। परमेश्वर कबीर जी ने कहा महाराज! आपको यहाँ भी गलती लगी है। मैं तो अल्लाहु अकबर हूँ। मैं करोड़ों आसमानों के पार सत्यलोक (सतलोक) में तख्त पर विराजमान हूँ। यहाँ मैं आपके सामने खड़ा हूँ। मैं पैगम्बर मुहम्मद को भी मिला था। उन्होंने भी मुझे पहचानने में भूल की थी। (ब्रह्मबेदी अंग में लिखा है:- ‘‘पाण्डा पाँव बुझाया सतगुरू, जगन्नाथ की बात है।‘‘)
पारख के अंग की वाणी नं. 726-792:-
फिर गणिका कै संग चले, शीशी भरी शराब। गरीबदास उस पुरी में, जुलहा भया खराब।।726।।
तारी बाजी पुरी में, भिष्ट जुलहदी नीच। गरीबदास गनिका सजी, दहूं संतौं कै बीच।।727।।
गावत बैंन बिलासपद, गंगाजल पीवंत। गरीबदास विह्नल भये, मतवाले घूमंत।।728।।
भडु.वा भडु.वा सब कहैं, कोई न जानैं खोज। दास गरीब कबीर करम, बांटत शिरका बोझ।।729।।
देखो गनिका संगि लई, कहते कौंम छतीस। गरीबदास इस जुलहदी का, दर्शन आन हदीस।।730।।
शाह सिकंदर कूं सुनी, भिष्ट हुये दो संत। गरीबदास च्यारों वरण, उठि लागे सब पंथ।।731।।
च्यारि वरण षट आश्रम, दोनौं दीन खुशाल। गरीबदास हिंदू तुरक, पड्या शहर गलि जाल।।732।।
शाह सिकंदरकै गये, सुनि कबले अरदास। गरीबदास तलबां हुई, पकरे दोनौं दास।।733।।
कहौ कबीर यौह क्या किया, गनिका लिन्हीं संग। गरीबदास भूले भक्ति, पर्या भजन में भंग।।734।।
सुनौं सिकंदर बादशाह, हमरी अरज अवाज। गरीबदास वह राखिसी, जिन यौह साज्या साज।।735।।
जड़ियां तौंक जंजीर गल, शाह सिकंदर आप। गरीबदास पद लीन है, तारी अजपा जाप।।736।।
हाथौं जड़ी हथकड़ी, पग बेड़ी पहिराय। गरीबदास बीच गंग में, तहां दीन्हा छिटकाय।।737।।
झड़ि गये तौंक जंजीर सब, लगै किनारै आय। गरीबदास देखै खलक, स्यौं काजी बादशाह।।738।।
नीचै नीचै गंगाजल, ऊपर आसन थीर। गरीबदास बूडै़ नहीं, बैठे अधर कबीर।।739।।
योह अचरज कैसा भया, देखैं दोनौं दीन। गरीबदास काजी कहंै, बांधि दिया जल सीन।।740।।
गल में फांसी डारि करि, बांधौ शिला सुधारि। गरीबदास यौह जुलहदी, जब बूडै़ गंगधार।।741।।
शिला धरी जब नाव में, बांधी गलै कबीर। गरीबदास फंद टूटि कै, ना डूबै जलनीर।।742।।
शिला चली शाह और कौं, देखत काशी ख्याल। गरीबदास कबीर का आसन अधर हमाल।।743।।
तीर बाण गोली चलैं, तोप रहकल्यौं शोर। गरीबदास उस जुलहदीकै, गई एक नहीं ओर।।744।।
अधर धार गोले बहैं, जलकै बीच गभाक। गरीबदास उस जुलहदी पर, शस्त्रा छूटैं लाख।।745।।
तोप रहकले सब चलैं, तीर बाण कमान। गरीबदास वह जुलहदी, जल पर रहै अमान।।746।।
अधरि धार अपार गति, जल परि लगी समाधि। गरीबदास निज ब्रह्मपद, खेलैं आदि अनादि।।747।।
जुलम हुआ बूडै़ नहीं, शस्त्रा लगै न बाण। गरीबदास इब कौंन गति, कैसैं लीजै प्राण।।748।।
लगी समाधी अगाध में, बिचरै काशी गंग। गरीबदास किलोल सर, छूहैं चरण तरंग।।749।।
च्यारि पहर गोले बगे, धमी मुलक मैदान। गरीबदास पोखर सुखैं, रहे कबीर अमान।।750।।
अपनी करनी सब करी, थाके दोनौं दीन। गरीबदास अब जुलहदी, पैठि गये जलमीन।।751।।
डूब्या डूब्या सब कहैं, हो गये गारत गोर। गरीबदास कबले धनी, तुम आगै क्या जोर।।752।।
आनंद मंगल होत है, बटैं बधाई बेग। गरीबदास उस जुलहदी पर फिर गई रेती रेघ।।753।।
हस्ती घोडे़ चढत हैं, पान मिठाई चीर। गरीबदास काशी खुसी, बूडे़ गंग कबीर।।754।।
जावो घरि रैदासकै, हिलकारे हजूर। गरीबदास खुसिया कहौ, कहियो नहीं कसूर।।755।।
झालरि ढोलक बजत हैं, गावैं शब्द कबीर। गरीबदास रैदास संगि, दोनौं एकही तीर।।756।।
काजी पंडित सब गये, शाह सिकंदर उठ। गरीबदास रैदासकै, भेष गये जटजूट।।757।।
कोठी कुठले सब झके, बासन टींडर गोलि। गरीबदास रहदास सुनौं, कहां गये वह बोल।।758।।
वे प्रगट पूरण पुरूष हैं, अबिनाशी अलख अल्लाह। गरीबदास रैहदास कहैं, सुनौं सिकंदर शाह।।759।।
सूरजमुखी सुभांन सर, खिले फूल गुलजार। गरीबदास काजी पंडित करता शाह पुकार।।760।।
शाह सिकंदर फिर गये, उस गंगा कै तीर। दास गरीब कबीर हरी, बैठे ऊपर नीर।।761।।
बैठि मलाह जिहाज में, गये धार कै बीच। गरीबदास हरि हरि करैं, प्रेम फुहारे सीच।।762।।
करी अरज मलाह तहां, दीन दुनी बादशाह। गरीबदास आसन उधर, लगी समाधि जुलाह।।763।।
भंवर फिरत हैं गंग जल, फूल उगानें कोटि। गरीबदास तहां बंदगी, हरिजन हरि की ओट।।764।।
संकल सीढी लाय करि, उतरे तहां मलाह। गरीबदास हम बंदगी, याद किये बादशाह।।765।।
बैठ कबीर जहाज में, आये गंगा घाट। गरीबदास काशी थकी, हांडे बौह बिधि बाट।।766।।
खूनी हाथी मस्त है, पग बंधे जंजीर। गरीबदास जहां डारिया, मसक बांधि कबीर।।767।।
सिंह रूप साहिब धर्या, भागे उलटे फील। गरीबदास नहीं समझती, याह दुनिया खलील।।768।।
बने केहरी सिंह जित, चैंर शिखर असमांन। गरीबदास हस्ती लख्या, दीखै नहीं जिहांन।।769।।
कूटै शीश महावतं, अंकुश शीर गरगाप। गरीबदास उलटा भगै, तारी दीजैं थाप।।770।।
भाले कोखौं मारिये, चरखी छूटैं पाख। गरीबदास नहीं निकट जाय, किलकी देवैं लाख।।771।।
जैसी भक्ति कबीर की, ऐसी करै न कोय। गरीबदास कुंजर थके, उलटे भागे रोय।।772।।
दुंम गोवैं मंूडी धुनैं, सैंन न समझै एक। गरीबदास दीखै नहीं, आगै खड़ा अलेख।।773।।
पीलवान देख्या तबै, खड़ा केहरी सिंघ। गरीबदास आये तहां, धरि मौला बहु रंग।।774।।
उतरे मौला अरस तैं, भाव भक्ति कै हेत। गरीबदास तब शाह लखे, कबीर पुरूष सहेत।।775।।
लीला की कबीर ने, दो रूप में रहे दीस। दासगरीब कबीर कै, पास खडे़ जगदीश।।776।।
जंभाई अंगडाईयां, लंबे भये दयाल। गरीबदास उस शाह कूं, मानौं दश्र्या काल।।777।।
कोटि चन्द्र शशि भान मुख, गिरद कुंड दुम लील। गरीबदास तहां ना टिके, भागि गये रनफील।।778।।
नयन लाल भौंह पीत हैं, डूंगर नक पहार। गरीबदास उस शाह कूं, सिंह रूप दीदार।।779।।
मस्तक शिखर स्वर्ग लग, दीरघ देह बिलंद। गरीबदास हरि ऊतरे, काटन जम के फंद।।780।
गिरद नाभि निरभै कला, दुदकारै नहीं कोय। गरीबदास त्रिलोकि में, गाज तास की होय।।781।।
ज्यूं नरसिंह प्रहलादकै, यूं वह नरसिंह एक। गरीबदास हरि आईया, राखन जनकी टेक।।782।।
बार-बार सताय कर, मस्तक लीना भार। गरीबदास शाह यौं कहै, बकसौ इबकी बार।।783।।
तहां सिंह ल्यौलीन हुआ, परचा इबकी बार। गरीबदास शाह यौं कहै, अल्लह दिया दीदार।।784।।
सुन काशी के पण्डितौ, काजी मुल्लां पीर। गरीबदास इसके चरण ल्यौह, अलह अलेख कबीर।।785।।
यौह कबीर अल्लाह है, उतरे काशी धाम। गरीबदास शाह यौं कहैं, झगर मूंये बे काम।।786।।
काजी पंडित रूठिया, हम त्याग्या योह देश। गरीबदास षटदल कहैं, जादू सिहर हमेश।।787।।
इन जादू जंतर किया, हस्ती दिया भगाय। गरीबदास इत ना रहैं, काशी बिडरी जाय।।788।।
काशी बिडरी चहौं दिशा, थांभन हारा एक। गरीबदास कैसे थंभै, बिडरे बौहत अनेक।।789।।
क्यूं बिडरी गडरी दुनीं, कथा कबीर समूल। गरीबदास उस वृक्षकै, अनंत कोटि रंग फूल।।790।।
बिडरे भेष बिवेक तजि, छाड़ि चले सब सौंज। गरीबदास दिली आगरै, कोई दगरै सीरौंज।।791।।
कोई अजुध्याकूं चले, कोई वृन्दावन सेव। गरीबदास सुरति तकी, कोई रामेश्वर देव।।792।।
पारख के अंग की वाणी नं. 726-792 का सरलार्थ:-
कबीर जी द्वारा शिष्यों की परीक्षा लेना
बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी द्वारा अनेकों अनहोनी लीलाएँ करने से प्रभावित होकर चैंसठ लाख शिष्य बने थे। परमेश्वर तो भूत-भविष्य तथा वर्तमान की जानते हैं। उनको पता था कि ये सब चमत्कार देखकर तथा इनको मेरे आशीर्वाद से हुए भौतिक लाभों के कारण मेरी जय-जयकार कर रहे हैं। इनको मुझ पर विश्वास नहीं है कि मैं परमात्मा हूँ। परंतु देखा-देखी कहते अवश्य हैं कि कबीर जी हमारे सद्गुरू जी तो स्वयं परमात्मा आए हैं। अपने लाभ भी बताते थे। एक दिन परमेश्वर कबीर जी ने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही कि देखूं तो कितने ज्ञान को समझे हैं। यदि इनको विश्वास ही नहीं है तो ये मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। ये तो मेरे सिर पर व्यर्थ का भार हैं। यह विचार करके एक योजना बनाई। अपने परम शिष्य रविदास से कहा कि एक हाथी किराए पर लाओ।
काशी नगर में एक सुंदर वैश्या थी। उसके मकान से थोड़ी दूरी पर किसी कबीर जी के भक्त का मकान था। कबीर जी उसके आँगन में रात्रि के समय सत्संग कर रहे थे। उस दिन उस वैश्या के पास भी ग्राहक नहीं थे। सत्संग के वचन सुनने के लिए वह अपने मकान की छत पर कुर्सी लेकर बैठ गई। पूर्ण रात्रि सत्संग सुना और उठकर सत्संग स्थल पर गई तथा परमात्मा कबीर जी को अपना परिचय दिया तथा कहा कि गुरू जी! क्या मेरे जैसी पापिनी का भी उद्धार हो सकता है। मैंने अपने जीवन में प्रथम बार आत्म कल्याण की बातें सुनी हैं। अब मेरे पास दो ही विकल्प हैं कि या तो मेरा कल्याण हो, या मैं आत्महत्या करके पापों का प्रायश्चित करूँ। परमात्मा कबीर जी ने कहा, बेटी! आत्महत्या करना महापाप है। भक्ति करने से सर्व पाप परमात्मा नष्ट कर देता है। आप मेरे से उपदेश लेकर साधना करो और भविष्य में पापों से बचकर रहना। उस बहन ने प्रतिज्ञा की और परमात्मा कबीर जी से दीक्षा लेकर भक्ति करने लगी तथा जहाँ भी प्रभु कबीर जी सत्संग करते, वहीं सत्संग सुनने जाने लगी। जिस कारण से कबीर जी के भक्तों को उसका सत्संग में आना अच्छा नहीं लगता था। वे उस लड़की को कहते थे कि तेरे कारण गुरू जी की बदनामी होती है। तू सत्संग में मत आया कर। तू सबसे आगे गुरू जी के पास बैठती है, वहाँ ना बैठा कर। लड़की ने ये बातें गुरू कबीर जी को बताई और फूट-फूटकर रोने लगी। परमेश्वर जी ने कहा कि बेटी! आप सत्संग में आया करो। कबीर जी ने सत्संग वचनों द्वारा स्पष्ट किया कि मैला कपड़ा साबुन और पानी से दूर रहकर निर्मल कैसे हो सकता है? इसी प्रकार पापी व्यक्ति सत्संग से तथा गुरू से दूर रहकर आत्म कल्याण कैसे करा सकता है? भक्त वैश्या तथा रोगी से नफरत नहीं करते, सम्मान करते हैं। उसको ज्ञान चर्चा द्वारा मोक्ष प्राप्ति की प्रेरणा करते हैं। परमात्मा कबीर जी के बार-बार समझाने पर भी भक्तजन उस लड़की को सत्संग से मना करते रहे तथा बहाना करते थे कि तेरे कारण गुरू जी काशी में बदनाम हो गए हैं। काशी के व्यक्ति हमें बार-बार कहते हैं कि तुम्हारे गुरू जी के पास वैश्या भी जाती है। वह काहे का गुरू है।
एक दिन कबीर परमेश्वर जी ने उस लड़की से कहा कि बेटी! आप मेरे साथ हाथी पर बैठकर चलोगी। लड़की ने कहा, जो आज्ञा गुरूदेव! अगले दिन सुबह लगभग 10:00 बजे हाथी के ऊपर तीनों सवार होकर काशी नगर के मुख्य बाजार में से गुजरने लगे। संत रविदास जी हाथी को चला रहे थे। लड़की रविदास जी के पीछे कबीर जी के आगे यानि दोनों के बीच में बैठी थी। कबीर जी ने एक बोतल में गंगा का पानी भर लिया। उस बोतल को मुख से लगाकर घूंट-घूंटकर पी रहे थे। लोगों को लगा कि कबीर जी शराब पी रहे हैं। शराब के नशे में वैश्या को सरेआम बाजार में लिये घूम रहे हैं। काशी के व्यक्ति एक-दूसरे को बता रहे हैं कि देखो! बड़े-बड़े उपदेश दिया करता कबीर जुलाहा, आज इसकी पोल-पट्टी खुल गई है। ये लोग सत्संग के बहाने ऐसे कर्म करते हैं। काशी के व्यक्ति कबीर जी के शिष्यों को पकड़-पकड़ लाकर दिखा रहे थे कि देख तुम्हारे परमात्मा की करतूत। शराब पी रहे हैं, वैश्या को लिए सरेआम घूम रहा है। यह लीला देखकर वे चैंसठ लाख नकली शिष्य कबीर जी को त्यागकर चले गए। पहले वाली साधना करने लगे। लोक-लाज में फँसकर गुरू विमुख हो गए।
परमात्मा कबीर जी विशेषकर ऐसी लीला उस समय किया करते जिस समय दिल्ली का सम्राट सिकंदर लोधी काशी नगरी में आया हो। उस समय सिकंदर लोधी राजा काशी में उपस्थित था। काजी-पंडितों ने राजा को शिकायत कर दी कि कबीर जुलाहे ने जुल्म कर दिया। शर्म-लाज समाप्त करके सरेआम वैश्या के साथ हाथी के ऊपर गलत कार्य कर रहा था। शराब पी रहा है। राजा ने तुरंत पकड़कर गंगा में डुबोकर मारने का आदेश दिया। अपने हाथों से राजा सिकंदर ने कबीर परमेश्वर जी के हाथों में हथकड़ी तथा पैरों में बेड़ी तथा गले में तोक लगाई। नौका में बैठाकर गंगा दरिया के मध्य में ले जाकर दरिया में सिपाहियों ने पटक दिया। हथकड़ी, बेड़ी तथा तोक अपने आप टूटकर जल में गिर गई। परमात्मा जल पर पद्म आसन लगाकर बैठ गए। नीचे से गंगा जल चक्कर काटता हुआ बह रहा था। परमात्मा जल के ऊपर आराम से बैठे थे। कुछ समय उपरांत परमात्मा कबीर जी गंगा के किनारे आ गए। सिपाहियों ने शेखतकी के आदेश से कबीर जी को पकड़कर नौका में बैठाकर कबीर परमात्मा के पैरों तथा कमर पर भारी पत्थर बाँधकर हाथ पीछे को रस्सी से बाँधकर गंगा दरिया के मध्य में फैंक दिया। रस्से टूट गए। पत्थर जल में डूब गए। परमेश्वर कबीर जी जल के ऊपर बैठे रह गए। जब देखा कि कबीर गंगा दरिया में डूबा नहीं तो क्रोधित होकर शेखतकी के कहने से राजा ने तोब के गोले मारने का आदेश दे दिया। पहले कबीर जी को पत्थर मारे, गोली मारी, तीर मारे। अंत में तोब के गोले चार पहर यानि बारह घण्टे तक कबीर जी के ऊपर मारे। कोई तो वहीं किनारे पर गिर जाता, कोई दूसरे किनारे पर जाकर गिरता, कोई दूर तालाब में जाकर गिरता। एक भी गोला, पत्थर, बंदूक की गोली या तीर परमेश्वर कबीर जी के आसपास भी नहीं गया। इतना कुछ देखकर भी काशी के व्यक्ति परमेश्वर को नहीं पहचान पाए। तब परमेश्वर कबीर जी ने देखा कि ये तो अक्ल के अँधे हैं। उसी समय गंगा के जल में समा गए और अपने भक्त रविदास जी के घर प्रकट हो गए। दर्शकों को विश्वास हो गया कि कबीर जुलाहा गंगा जल में डूबकर मर गया है। उसके ऊपर रेत व रेग (गारा) जम गई होगी। सब खुशी मनाते हुए नाचते-कूदते हुए नगर को चल पड़े। शेखतकी अपनी मण्डली के साथ संत रविदास जी के घर यह बताने के लिए गया कि जिस कबीर जी को तुम परमात्मा कहते थे, वह डूब गया है, मर गया है। संत रविदास जी के घर पर जाकर देखा तो कबीर जी इकतारा (वाद्य यंत्र) बजा-बजाकर शब्द गा रहे थे। शेखतकी की तो माँ सी मर गई। राजा सिकंदर के पास जाकर बताया कि वह आँखें बचाकर भाग गया है। रविदास के घर बैठा है। यह सुनकर बादशाह सिंकदर लोधी संत रविदास जी की कुटी पर गया। परमात्मा कबीर जी वहाँ से अंतध्र्यान होकर गंगा दरिया के मध्य में जल के ऊपर समाधि लगाकर जैसे जमीन पर बैठते हैं, ऐसे बैठ गए। रविदास से पूछा कि कबीर जी कहाँ पर हैं? संत रविदास जी ने कहा कि हे बादशाह जी! वे पूर्ण परमात्मा हैं, वे ही अलख अल्लाह हैं। आप इन्हें पहचानो। वे तो मर्जी के मालिक हैं। जहाँ चाहें चले जाएँ। मुझे कुछ नहीं पता, कहाँ चले गए? वे तो सबके साथ रहते हैं। उसी समय किसी ने बताया कि कबीर जी तो गंगा के बीच में बैठे भक्ति कर रहे हैं। सब व्यक्ति तथा राजा व सिपाही गंगा दरिया के किनारे फिर से गए। राजा ने नौका भेजकर मल्लाहों के द्वारा संदेश भेजा कि बाहर आएँ। मल्लाहों ने नौका कबीर जी के पास ले जाकर राजा का आदेश सुनाया कि आपको सिकंदर बादशाह याद कर रहे हैं। आप चलिए। परमेश्वर कबीर जी उस जहाज (बड़ी नौका) में बैठकर किनारे आए।
राजा सिकंदर ने फिर गिरफ्तार करवाकर हाथ-पैर बाँधकर खूनी हाथी से मरवाने की आज्ञा कर दी। चारों और जनता खड़ी थी। सिकंदर ऊँचे स्थान पर बैठे थे। परमात्मा को बाँध-जूड़कर पृथ्वी पर डाल रखा था। महावत (हाथी के ड्राइवर) ने हाथी को शराब पिलाई और कबीर जी को कुचलकर मरवाने के लिए कबीर जी की ओर बढ़ाया। कबीर जी ने अपने पास एक बब्बर सिंह खड़ा दिखा दिया। वह केवल हाथी को दिखा। हाथी चिंघाड़कर डर के मारे वापिस भाग गया। महावत को नौकरी का भय सताने लगा। हाथी को भाले मार-मारकर कबीर जी की ओर ले जाने लगा, परंतु हाथी उल्टा भागे। तब पीलवान (महावत) को भी शेर खड़ा दिखाई दिया तो डर के मारे उसके हाथ से अंकुश गिर गया। हाथी भाग गया। परमेश्वर कबीर जी के बंधन टूट गए। कबीर जी खड़े हुए तथा अंगड़ाई ली तो लंबे बढ़ गए। सिर आसमान को छूआ दिखाई देने लगा। प्रकाशमान शरीर दिखाई देने लगा। सिकंदर राजा भय से काँपता हुआ परमेश्वर कबीर जी के चरणों में गिर गया। क्षमा याचना की तथा कहा कि आप परमेश्वर हैं। मेरी जान बख्शो। मेरे से भारी भूल हुई है। मैं अब आपको पहचान गया हूँ। आप स्वयं अल्लाह पृथ्वी पर आए हो।
परमात्मा कबीर जी सीधे उसी गणिका के घर गए। आंगन में चारपाई पर बैठ गए। लड़की परमात्मा के चरण दबाने लगी। सतगुरू का पैर अपनी सांथल (टांग) पर रखा था। उसी समय अर्जुन तथा सर्जुन नाम के दो शिष्य कबीर जी के आए। उनको अन्य मूर्ख शिष्यों ने बताया कि सतगुरू कबीर जी ने तो बेशर्म काम कर दिया। शराब पीने लगे हैं। वैश्या को लेकर सरेआम हाथी पर बैठाकर नगर में उत्पात मचाया है। हम तो मुँह दिखाने योग्य नहीं छोड़े हैं।
अर्जुन तथा सर्जुन के गले उनकी यह बकवाद नहीं उतर रही थी। परंतु अनेकों गुरू भाई-बहनों द्वारा सुनकर उनके मन में भी दोष आ गया। संत गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ के ‘‘सरबंगी साक्षी’’ के अंग में अर्जुन-सर्जुन के विषय में वाणी लिखी हैं जो इस प्रकार हैं:-
सरबंगी साक्षी के अंग की वाणी नं. 112-115:-
गरीब, सुरजन कूं सतगुरू मले, मक्के मदीने मांहि। चैसठ लाख का मेल था, दो बिन सबही जाहिं।।112।।
गरीब, चिंडालीके चैक में, सतगुरू बैठे जाय। चैंसठ लाख गारत गये, दो रहे सतगुरू पाय।।113।।
गरीब, सुरजन अरजन ठाहरे, सतगुरू की प्रतीत। सतगुरू इहां न बैठिये, यौह द्वारा है नीच।।114।।
गरीब, ऊंच नीच में हम रहैं, हाड चाम की देह। सुरजन अरजन समझियो, रखियो शब्द सनेह।।115।।
सरलार्थ:– अर्जुन तथा सर्जुन दो मुसलमान धर्म के मानने वाले थे। अपने धर्म की परंपरा का निर्वाह करने मक्का-मदीना की मस्जिद में गए हुए थे। वहाँ परमात्मा कबीर जी उनको जिंदा बाबा के वेश में मिले थे। ज्ञान चर्चा करके सत्य मार्ग बताया था। वे कबीर परमात्मा के शिष्य बन गए थे। सतगुरू के आदेशानुसार वे फिर भी मक्का-मदीना या अन्य मुसलमान धर्म के धार्मिक कार्यक्रमों में जाकर भूलों को राह बताकर कबीर परमेश्वर से दीक्षा दिलाया करते थे। उस दिन वे बाहर से आए थे। जब सतगुरू कबीर जी को बदनाम वैश्या के घर देखा तथा लड़की की साथलों पर पैर रखे आँखों देखा तथा गलती कर गए। बोले कि हे सतगुरू! आप यहाँ न बैठो, यह तो नीच बदनाम औरत का घर है। कबीर परमात्मा ने कहा कि हे अर्जुन तथा सर्जुन! मैं ऊँच-नीच में सब स्थानों पर रहता हूँ। यह तो हाड-चाम का शरीर इस लड़की का है। मेरे लिए तो मिट्टी है। हे अर्जुन तथा सर्जुन! समझो। आपको जो दीक्षा नाम जाप की दे रखी है, उसका जाप करो। पहले तो तुम परमात्मा कहते थे। आज मुझे शिक्षा दे रहे हो। तुम तो मेरे गुरू बन गए। मोक्ष तो शिष्य बने रहने से होता है। अब आपके मन में कबीर के प्रति दोष आ गया है। कल्याण असंभव है। दोनों परमात्मा के लिए घर त्यागकर बचपन से लगे थे। उनको अहसास हुआ कि बड़ी गलती बन गई। तुरंत चरणों में गिर गए। इस जन्म में मोक्ष की याचना की। परमात्मा ने कहा कि अब आपका कल्याण मेरे इस रूप से नहीं होगा। आपके मन में दोष आया है। उन्होंने चरण नहीं छोड़े। रो-रोकर याचना करते रहे। तब आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा सतगुरू दिल्ली से 30 मील पश्चिम में एक छोटे-से गाँव में मेरा भक्त जन्मेगा। तब तक तुम इसी शरीर में जीवित रहोगे। मैं तुम्हें स्वपन में सब मार्गदर्शन करता रहूँगा। उस मेरे भक्त को मैं मिलूँगा। उसे दीक्षा अधिकार दूँगा। तुम उससे दीक्षा लेकर भक्ति करना। संत गरीबदास जी जब दस वर्ष के हुए, तब कबीर जी उनको मिले थे। सतलोक दिखाया, वापिस छोड़ा। तब स्वपन में अर्जुन-सर्जुन को बताया। गाँव व नाम, पिता का नाम सब बताया। उस समय अर्जुन-सर्जुन हरियाणा प्रान्त के गाँव-हमायुंपुर में एक किसान के घर रहते थे। आयु लगभग 225 वर्ष की थी। दोनों को एक जैसा स्वपन आया। सुबह एक-दूसरे को बताया। किसान सेवक से पूछा कि यहाँ कोई छुड़ानी गाँव है। किसान ने बताया कि है। उन्होंने कहा कि आपने इतनी सेवा की है, आपका अहसान कभी नहीं भूल पाएँगे। कृपया करके हमें छुड़ानी गाँव तक पहुँचा दो। किसान ने रेहड़ू (छोटी बैलगाड़ी) में बैठाए तथा छुड़ानी ले गया। संत गरीबदास दास जी ने कहा कि आओ अर्जुन-सर्जुन! मेरे को परमात्मा कबीर जी ने सब बता दिया है। दीक्षा लो। यहीं रहो। भक्ति करो। उन दोनों ने दीक्षा ली और भक्ति की। वहाँ शरीर छोड़ दिया। दोनों के शरीर जमीन में दबाकर मंढ़ी बनाई गई जो सन् 1940 में भूरी वाले संत ने फुड़वा दी। कहा कि यहाँ पर केवल एक यादगार सतगुरू गरीबदास की ही रहेगी। यदि ये दोनों भी रहेंगी तो भक्त इनकी भी पूजा प्रारम्भ कर देंगे जो गलत हो जाएगा। शिष्य की पूजा नहीं
की जाती।