Parakh Ka Ang

पारख का अंग (1-41)

वाणी नं. 1-12:-

गरीब, न्यौलि नाद सुभांन गति, लरै भवंग हमेश। जड़ी जानि जगदीश हैं, बिष नहीं व्यापै शेष।।1।।

भावार्थ:– परम आदरणीय संत गरीबदास जी साधकों को बता रहे हैं कि जिसको सारनाम मिल गया है और मर्यादा में रहकर साधना कर रहा है। उस भक्त को नेवला (न्यौल) बताया है और काल ब्रह्म को शेषनाग जो भयंकर विषयुक्त प्राणी है। जैसे नेवला जंगल में उत्पन्न एक नाग दमन जड़ी को नाकों द्वारा सूँघता है यानि उसकी गंध को श्वांसों में भर लेता है। तब अपने से कई गुणा शक्तिशाली सर्प से लड़ाई करता है। सर्प के मुख के निकट जाकर उस जड़ी की गंध (smell) को श्वासों द्वारा छोड़ देता है। उस जड़ी के प्रभाव से सर्प को चक्कर आने लगते हैं। नेवला पुनः शीघ्रता से उस जड़ी को सूंघकर आता है। उस समय तक सर्प भागने की कोशिश करता है। सर्प का दिल घबराने लगता है। नेवला सर्प के ऊपर मुंडी पर बैठकर उसकी नाक के पास जड़ी की गंध छोड़ता है। सर्प विवश होकर शांत हो जाता है। तब नेवला सर्प की मुंडी (फन) को काटकर मार देता है। यहाँ पर बताया है कि जीव (भक्त) तो नेवला है जो सारनाम का स्मरण श्वासों से करता है तथा काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) को शेषनाग जैसा खुंखार सर्प कहा है। सारनाम प्राप्त भक्त रूपी नेवला काल ब्रह्म रूपी अजगर को सारनाम के स्मरण रूपी गंध छोड़कर पराजित करके सतलोक चला जाता है। कबीर परमेश्वर जी ने भी यही कहा है कि:-

कबीर, जैसे फन पति (सर्प) मंत्र सुन, राखै फन सकोड़। ऐसे बीरा मेरे नाम से, काल चलै मुंह मोड़।।

सरलार्थ:– कबीर जी ने कहा है कि जैसे सर्प ने फन उठा रखा होता है तो गारड़ू (सर्प को वश में करने वाला) एक मंत्र बोलता है। उस मंत्र के प्रभाव से सर्प अपने फन (डोहरे) को सकोड़ (इकट्ठा) करके भागने का विचार करता है। पहले डसने के उद्देश्य से फन फैला रखा था। इसी प्रकार सारनाम से काल ब्रह्म भक्त को हानि न करके अपनी जान बचाने की चिंता करके चल पड़ता है। रास्ता छोड़ देता है।

वाणी नं. 2-5:-

गरीब, हंस गवन करते नहीं, मानसरोवर छाड़ि। कउवा उड़ि उड़ि जात हैं, खाते मांसा हाड।।2।।
गरीब, मानसरोवर मुक्ति फल, मुक्ता हल के ढेर। कउवा आसन नां बंधै, जै भूमि दीन सुमेर।।3।।
गरीब, कउवा रूपी भेष है, ना परतीत यकीन। अठसठि का फल मेटि करि, भये दीन बे दीन।।4।।
गरीब, हंस दशा तौ साध हैं, सरोवर है सतसंग। मुक्ताहल बानी चुगैं, चढत नबेला रंग।।5।।

भावार्थ:– उपरोक्त वाणियों में संत गरीबदास जी ने समझाया है कि जिस सरोवर में मोती होते हैं। उस सरोवर पर हंस पक्षी ही रहते हैं यानि हंस ही स्थाई निवास करते हैं क्योंकि उनका आहार मोती ही होता है। हंस मछली या अन्य जीव-जंतुओं का माँस नहीं खाता। कौआ पक्षी उस सरोवर पर नहीं टिकता। वह कुछ देर आता है। वहाँ माँस नहीं मिलता। फिर माँस खाने के लिए कहीं ओर उड़ जाता है। सत्संग सरोवर कहा है और साध संगत हंस कहे हैं तथा विकारी व्यक्ति कौए रूपी बताए हैं। भक्त तो सत्संग प्रवचन रूपी मोती खाते हैं जो उनका आहार है तथा शराबी-कवाबी कौए रूपी हैं जो सत्संग में अधिक देर नहीं टिकते, परंतु भक्त सत्संग छोड़कर अन्य स्थान पर नहीं जाते जैसे सिनेमा देखना, नाचना, शराब का ठेका आदि स्थानों पर भक्त नहीं जाते तथा अन्य उपासना जो शास्त्रविरूद्ध है, वह करने किसी देवी-धाम, तीर्थ आदि पर नहीं जाते। जो शास्त्रविरूद्ध साधना करने वाले भेष (पंथ) हैं, उनके अनुयाई हमारे ज्ञान पर विश्वास न करके अड़सठ तीर्थों पर भटकते हैं। उनको यह ज्ञान नहीं है कि जिन महापुरूषों ने जिस स्थान पर साधना की है, उनके नाम से वे स्थान प्रसिद्ध हैं। आप भी वैसी साधना करो। उन तीर्थ स्थानों पर जाकर उन अड़सठ तीर्थों का गुण यानि लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। उनका लाभ तो उसी प्रकार डटकर साधना करने से मिलेगा जिसको तीर्थ भ्रमण करने वाले मिटा रहे हैं यानि खो रहे हैं।

वाणी नं. 7, 9, 12:-

गरीब, दरस परस नहीं अंतरा, रूमी बस्त्र बीच। पारस लोहा एक ढिग, पलटै नहीं अभीच।।7।।
गरीब, च्यार मुक्ति बैकुंठ बट, सप्तपुरी सैलान। आगै धाम कबीरका, हंस न पावैं जान।।9।।
गरीब, पल सेती पल ना मिलै, भौंहि लगै नहीं भौंहि। बिच तकिया महबूब का, परमेश्वर की सौंहि।।12।।

भावार्थ:– पुराने समय में रोम देश का बना बहुत पतला वस्त्र आता था जिसे सेठ लोग पहनते थे। बताया है कि पारस पत्थर को लोहे से छू दिया जाए तो वह स्वर्ण बन जाता है। यदि पारस पत्थर और लोहा साथ-साथ रखे हैं और उनके बीच में रूमी वस्त्र की मोटाई जितना भी फांसला (distance) रह जाए तो चाहे लाख वर्ष रखे रहो, स्वर्ण नहीं बनेगा। इसी प्रकार संत के पास कपट रखने वाला व्यक्ति भक्त बना दिखाई देता है, परंतु उस पर संत के पारस रूपी सत्संग वचनों का प्रभाव नहीं पड़ता। सात नगरियाँ जो श्री ब्रह्मा, विष्णु, शिव जी तथा दुर्गा, धु्रव, प्रहलाद आदि के लोक हैं, इनमें तो चार मुक्ति वाले निवास करते हैं। फिर जन्म-मरण में आते हैं। इनसे कबीर जी का स्थान दोनों सैलियों के मध्य में यानि त्रिकुटी में है। वहाँ से आगे सतलोक जाते हैं। सत्य साधना न होने के कारण कोई भी साधक सतलोक नहीं जा पाता। काल जाल में ही रह जाता है। त्रिकुटी स्थान पर कबीर जी का तकिया यानि सिंहासन है। गरीबदास जी ने परमात्मा की सौगंध खाकर बताया है कि मैं सत्य कह रहा हूँ।

{नोट:– कुछ अज्ञानी व्यक्ति स्वयंभू बनकर बैठे हैं। वे वाणी नं. 12 का अर्थ गलत करते हैं। कहते हैं कि इस वाणी में कहा है कि आँखों की पलकों को इतना बंद करो कि वे आपस में मिलें नहीं यानि आँखों को थोड़ा खोलकर सामने एकटक देखो, कुछ दिखाई देगा। वह परमात्मा है। कुछेक को अपनी आँखों के सामने वाली काली-2 टिक्की या स्प्रिंग-सा दिखाई देता है। उसी को परमात्मा का स्वरूप बताया जाता है। कुछेक को कुछ नहीं दिखता। वे शर्म के मारे कह देते हैं, हाँ! कुछ दिखा। परंतु बाद में स्पष्ट बताते हैं कि कुछ नहीं दिखा। गुरू जी ने बार-बार कहा तो हाँ भर ली थी। ऐसे दोनों प्रकार के भ्रमित व्यक्ति हमारा ज्ञान समझकर मेरे (संत रामपाल के) पास आए और दीक्षा ली, तब बताया। उनको मैंने समझाया कि भक्ति की प्रेरणा पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों के कारण होती है। उनमें पूर्व जन्म में की भक्ति की शक्ति यानि भक्ति की कमाई शेष रहती है। विशेष ध्यान देने से आँखों के सामने काली टिकारी (बिन्दु) रूप में या बाल जैसे स्प्रिंग के छल्ले रूप में दिखते हैं। यदि फिर से शास्त्र विधि अनुसार सत्य साधना करने को नहीं मिलती तो इसी जन्म में कुछ समय उपरांत दिखाई देनी बंद हो जाती हैं क्योंकि वह खर्च हो जाती हैं। मेरे को (रामपाल दास को) बचपन से ही ऐसी वस्तुएँ आँखों के सामने दिखाई देती थी। सोचता था कि मेरी दृष्टि कमजोर है। जिस कारण से ये काली-2 टिकारियाँ दिखाई दे रही हैं। सन् 1988 में गुरू जी से दीक्षा लेने के पश्चात् वे और अधिक हो गई तो चिंता बढ़ गई कि शायद आँखों की दृष्टि और कम हो गई है। चैक करवाया तो आँखें ठीक मिली। एक दिन गुरू जी को बताया तो उन्होंने कहा कि यह तेरी भक्ति का धन है जो बढ़ने लगा है। पहले यह पूर्व जन्म की बची भक्ति दिखाई देती थी। यह धीरे-धीरे समाप्त हो जाती। उसके पश्चात् शांति हुई तथा अब अत्यधिक बढ़ गई है, ढ़ेर लगा है।}

वाणी नं. 6:-

गरीब, नर नाड़ि कूं पकड़ि हैं, कर सें गहै सुचेत। निशां नफस में होत है, तब हंसा दरशै श्वेत।।6।।

सरलार्थ:– जैसे नाड़िया वैद्य हाथ की नाड़ी को हाथ से सावधानी से पकड़ता है। उसकी गति से रोग को जान लेता है। इसी प्रकार सत्य साधना सावधानी से सुरति-निरति (ध्यान) लगाकर की जाती है। तब साधक सफेद रंग का दिखाई देता है यानि सतलोक में जीवात्मा सफेद नूरी शरीर धारण करती है। (निशां) चिन्ह (नफस) साधना करने से मोक्ष के लक्षण दिखाई देते हैं। (6)

वाणी नं. 10-11:-

गरीब, कलि बिष कोयला कर्म हैं, चिनघी अगनि पतंग। अजामेल सदना तिरे, जरि बरि गये कुसंग।।10।।
गरीब, मौनि रहैं मघ नां लहैं, मारग बंकी बाट। शून्य शिखर गढ सुरंग है, करि सतगुरु सें सांट।।11।।

सरलार्थ:-(कल बिस) पाप कर्म तो कोयले के समान हैं। सत्यनाम की अग्नि की (चिनघी) चिंगारी का (पतंगा) जलता हुआ लकड़ी या कोयले का टुकड़ा यदि उड़कर किसी सूखे घास या कोयले के ढे़र में गिर जाता है। उसे जलाकर राख कर देता है। ऐसे सत्य साधना का पतंगा पापों को जलाकर राख कर देता है। इसी तरह पापी अजामेल तथा सदना कसाई तर गए थे। भवसागर से पार हो गए थे। उनके पाप जल गए। उनका कुसंग यानि बुरी संगत छूट गई थी। (10-11)

वाणी नं. 13-33:-

गरीब, भौंहौ ऊपरि भंवर है, भौंरौं ऊपरि हंस। एकै जाति जिहानकी, वही कन्हैया कंस।।13।।
गरीब, तूंबा जल में बहि चल्या, बाहर भीतर नीर। पानी सें पाला भया, एक सिन्ध है नीर।।14।।
गरीब, तन तूंबा शुन्य सिन्ध है, बाहर भीतर शून्य। ज्ञान ध्यान की गमि करै, लगै धुनि में धुनि।।15।।
गरीब, श्रवन चिशमैं नाक मुख, तालू परि त्रिबैनि। सुरति सहंस मुख गंग है, मध्य महोदधि ऐंन।।16।।
गरीब, श्रवन चिशमैं नाक मुख, तालू नहीं तलाव। मन महोदधि है नहीं, अलख अलह दरियाव।।17।।
गरीब, जैसैं तार तंबूर का, घोर करै घर मांहि। ऐसैं घट में नाद है, बोलत पावै नाहिं।।18।।
गरीब, पिंड परे पक्षी उड्या, मन सूवा सति भाय। तन त्रिगुण तीनौं तजे, कहौ कहां रहे समाय।।19।।
गरीब, कुंडलनी में कुलफ है, तहां वहां मन का बास। पिंड परैं पावै नहीं, ज्यौ। फूलन में बास।।20।।
गरीब, नाभी नाद गुंजार है, हिरदे कंवल में बास। कंठ कंवल बाणी कहै, त्रिकुटी कंवल प्रकास।।21।।
गरीब, रिंचक नांव निनांव है, सुरति निरति कै मध्य। हद्दी भूले हद्दि में, बेहद्दी बेहद्दि।।22।।
गरीब, सुरति सुई नाका निरख, तिल में तालिब तीर। चैंसट सिंध बहै जहां, पट्टण घाट हमीर।।23।।
गरीब, नयनौं में जल कित बसै, आतम ताल समोय। बिन बादल बरषै सदा, दिल दरिया कूं धोय।।24।।
गरीब, हिरदै हरि दरियाव है, नयन घटा बरषंत। कारे धौरे बदरा, कोई साधु निरषंत।।25।।
गरीब, लोर लहर ऊठैं सदा, कारी घटा सुपेद। ब्रह्मा अक्षर क्या लिखै, भीगे च्यारौं वेद।।26।।
गरीब, कर कलम कागज नहीं, नहीं स्याही नहीं दवात। बांझ पालणा भूलि बुधि, पंडित खाली हाथ।।27।।
गरीब, काया काशी मन मघर, दुहूं कै मध्य कबीर। काशी तजि मगहर गया, पाया नहीं शरीर।।28।।
गरीब, काया काशी मन मघर, अर्स-कुर्स बीच मुकाम। जहां जुलहदी घर किया, आदि अंत विश्राम।।29।।
गरीब, श्वेत बरण शुभ रंग है, नगरी अकल अमान। तन मन की तो गमि नहीं, निज मन का अस्थान।।30।।
गरीब, निज मन ऊपरि परम पद, राग रूप रघुबीर। दूजे की तो गमि नहीं, तहां वहां महल कबीर।।31।।

गरीब, निज मन सेती मन हुवा, मन सेती तन देह। देही में कुछ ना हुवा, नाहक लाई खेह।।32।।
गरीब, शुभ रंग सें सब रंग हैं, जेते रंग जिहांन। काया माया कलप सब, सिरजी च्यारौं खानि।।33।।

सरलार्थ:– शरीर में आँखों के ऊपर (भौंह) सेली के ऊपर (भवंर) एक बहते जल के चक्र समान मार्ग है। उससे आगे (हंस) जीवात्मा पहुँचकर एक समान हो जाती है। सत्य साधक ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के समान शक्तिमान हो जाते हैं। इसलिए कहा है कि परमात्मा की भक्ति से एक जाति यानि भक्त हो जाते हैं। जो पाप करते हैं, वे कंस की श्रेणी में होते हैं। जो अच्छे कर्म करते हैं, वे श्री कृष्ण जी की तरह आदरणीय हो जाते हैं। (13)

सब जीव परमात्मा की शक्ति के अंदर ऐसे ओत-प्रोत हैं जैसे सूखे तुम्बे को सुराख करके जल में डाल दिया जाता है तो उसके अंदर भी जल तथा बाहर भी जल तथा उसको गति जल से मिलती है। इसी प्रकार जीव परमात्मा की शक्ति से भ्रमण करता है। अच्छे-बुरे जन्मों को कर्मों के अनुसार प्राप्त करता है।

श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है कि:-

ईश्वरः, सर्वभूतानाम, हृद्देशे, अर्जुन, तिष्ठति, भ्रामयन् सर्वभूतानि, यन्त्ररूढानि, मायया।।61।।
अर्थात् (अर्जुन) हे अर्जुन! (यन्त्ररूढानि) शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए (सर्वभूतानि)

सम्पूर्ण प्राणियों को (ईश्वरः) अन्तर्यामी परमेश्वर (मायया) अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार (भ्रामयन्) भ्रमण करता हुआ (सर्वभूतानाम्) सब प्राणियों के (हृद्देशे) हृदय में (तिष्ठति) स्थित है यानि विराजमान है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि:-

तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत, तत्प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।62।।

अर्थात् गीता ज्ञान देने वाला प्रभु कह रहा है कि (भारत) हे भारत! तू (सर्व भावेन) सब प्रकार से (तम्) उस परमेश्वर की (एव) ही (शरणम्) शरण में (गच्छ) जा। (तत् प्रसादात्) उस परमात्मा की कृपा प्रसाद से ही तू (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्ति को तथा (शाश्वतम्) सनातन यानि अमर (स्थानम्) धाम यानि सत्यलोक को (प्राप्स्यसि) प्राप्त होगा।

वाणी नं. 14 में फिर कहा है कि अन्य उदाहरण यह समझें जैसे जल से (पाला) सर्दी के मौसम में ओस जम जाती है। धूप लगने से फिर जल बन जाता है। दोनों में जल ही है। इसी प्रकार परमात्मा की शक्ति अच्छे-बुरे प्राणियों तथा पदार्थों में विद्यमान है। (14)

(तन) शरीर को तुम्बा जानो। शून्य यानि खाली स्थान में परमात्मा की निराकार शक्ति जानो। वह शक्ति जीव के अंदर भी है, बाहर भी है। उसी से जीव गतिमान रहता है। सत्य साधना तथा तत्त्वज्ञान का मनन करें तो परमात्मा के प्रति गहरी लगन लगेगी। (15)

शरीर के अंदर की जानकारी बताई। बाहर का भी ज्ञान करवाया। नाक, मुख, (श्रवण) कान आदि तो स्पष्ट दिखाई देते हैं। जो मुख के अंदर तालुवा यानि तालु लटकता है, इसके ठीक ऊपर त्रिवेणी है। (सुरति) ध्यान संहस मुख गंग यानि हजारों धारा वाली गंगा के समान पवित्र व लाभदायक है। सुरति से परमात्मा का मार्ग देखा जाता है। तत्त्वज्ञान से निरति निरीक्षण करती है। उसे (महोदधि) समुद्र जानो। नाम को नौका, उसमें बैठकर जीव पार होता है। (16-17)

जैसे (तंबूर) इकतारे का तार (ॅपतम) आवाज करता (ध्वनि करता) है, ऐसे परमात्मा की अनहद ध्वनि शरीर में दसवें द्वार पर सुनाई देती है जो बोलते रहने से सुनी नहीं जा सकती। ध्यान लगाने से साधना करने से सुनी जाती है। (18)

शरीर का समय समाप्त होने पर जीवात्मा पक्षी की तरह उड़ जाता है। मन रूपी (सूवा) तोता शरीर से निकलकर चला जाता है। फिर कहाँ जाता है? भक्त सतलोक चला जाता है। पामर प्राणी नरक चला जाता है। फिर कर्मों के अनुसार भ्रमता-भटकता है। (19)

कुंडलनी में (कुलफ) ताला लगा है। उसमें मन निवास करता है। (पिंड) शरीर नष्ट होने पर यह दिखाई नहीं देता। जैसे फूलों में गंध दिखाई नहीं देती। (20)

नाभि कमल में (नाद) शब्द की गुंजार होती है। जीव का हृदय कमल में निवास है। कंठ कमल से वाणी बोली जाती है। त्रिकुटी कमल में परमात्मा सतगुरू रूप में विद्यमान रहता है। वहाँ का विशेष प्रकाश है। (21)

सत्य (नांव) नाम वास्तव शक्ति देने वाला (निनांव) विशेष नाम है जिसका रिंचक स्मरण ही अत्यधिक लाभ देता है। परंतु नाम का जाप सुरति-निरति यानि पूर्ण ध्यान के साथ करना चाहिए। (हद्दी) काल लोक की सीमा में रहने वाले हद में भूले हैं। (बेहदी) जो अपने को काल की हद से परे मानते हैं, वे भी भूल में हैं। वे ब्रह्मलोक तक जा सकते हैं। (22)

सुरति से ब्रह्मरंद्र रूपी सूई का नाका जानकर उसके अंदर से धागा रूपी मन डालकर ध्यान लगाए (तिल) ब्रह्मरंद्र में परमात्मा दिखाई देगा। उसी ब्रह्मरंद्र के पास चैंसठ (सिंधु) समुद्र बह रहे हैं। (23)

(नयनों) आँखों में जल दिखाई नहीं देता। आत्मा में आँसू जल का (ताल) सरोवर समाया है। सत्य साधना करने से परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है। आँखों में आँसुओं की धारा बह चलती है। इसे बिन बादल की बारिश कहते हैं। सत्य साधना पाप नाश करती है। दिल रूपी दरिया स्वच्छ होती है यानि साधक नेक दिल का व्यक्ति हो जाता है। हृदय में परमात्मा का प्रेम रूपी दरिया है। उस दरिया का जल (नयन) आँखों द्वारा बरसता है। उस बारिश के उद्गम स्थल त्रिकुटी को जिसके कमल की दो सफेद (धौले=धौरे) तथा काले (कारे) बादल यानि पंखुड़ी है, उस कमल तक कोई-कोई साधु पहुँचता है जो उस स्थान को (निरषंत=निरखंत) देखता है।

परमात्मा के प्रति प्रेम होने पर साधक की आत्मा में परमात्मा के प्रति सदा प्रेम की (लोर) उमंग काली-सफेद यानि घनघोर घटा की तरह उठती है। प्रेम की भाषा चारों वेद में नहीं है। चारों वेदों का सार परमात्मा में प्रेम उत्पन्न होना ही है। कबीर परमात्मा ने कहा है कि:-

कबीर पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया ना कोय। ढ़ाई अखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय।।

अर्थात् ब्रह्मा जी को चारों वेदों का ज्ञाता माना जाता है। वे सदा वेदों को पढ़ते हैं तथा अन्य को समझाते हैं। उन चारों वेदों के पढ़ने से विद्वान नहीं बनता क्योंकि वेद या अन्य शास्त्र पढ़ने का उद्देश्य परमात्मा प्राप्ति है। परमात्मा उसी को मिलता है जिसमें परमात्मा के प्रति प्रेम उमड़े। आँखों से आँसू चलने लगें। शास्त्रों को पढ़ने का उद्देश्य है कि पंडित यानि विद्वान बने। धार्मिक विद्वान का उद्देश्य है परमात्मा प्राप्ति, परंतु परमात्मा मिलेगा सूक्ष्मवेद में बताई सत्य साधना से जो सतगुरू से दीक्षा लेकर करनी होती है। वह साधना चारों वेदों या अन्य शास्त्रों में नहीं है। इसलिए जिस भक्तात्मा में परमात्मा का प्रेम जागा है, वह पंडित है। वह सत्य साधना कर रहा है। (24-26)

पंडित जन जो चारों वेदों को पढ़ते हैं, कागज पर लिखते हैं या ताड़ वृक्ष के पत्तों पर लिखते हैं। ताड़ के पत्तों पर स्याही-कलम की आवश्यकता नहीं होती है। उसमें परमात्मा प्राप्ति का मार्ग नहीं है। उन पंडितों की तो ऐसी दशा है जैसी बांझ स्त्री बच्चे का पालना (छोटा झूला) लिए हो। उसे भूल लगी है। उसके पालने में उसकी पुत्र-पुत्री नहीं लेट पाएँगी। फिर उस पालने का औचित्य क्या रह जाता है? जैसे बांझ स्त्री संतान बिना खाली हाथ है। ऐसे वेदों वाले विद्वान खाली हाथ हैं। उन्हंे परमात्मा नहीं मिल सकता। (27)

परमेश्वर कबीर जी भारत देश के काशी (बनारस) शहर में 120 वर्ष (एक सौ बीस) वर्ष लीला करके मगहर नगर में पैदल चलकर मरने गए थे। काशी नगर के पंडितों ने भ्रम फैला रखा था कि जो काशी शहर की सीमा में मरता है, वह सीधा स्वर्ग में जाता है। जो मगहर नगर में मरता है, वह गधे का जीवन पाता है तथा नरक में जाता है। परमेश्वर कबीर जी कहा करते थे कि सत्य साधना शास्त्रोक्त करने से तथा पाप त्यागकर धर्म-कर्म करने से परमात्मा मिलता है। शास्त्रविधि अनुसार साधना करने वाला चाहे काशी मरो, चाहे मगहर, वह अपनी साधना अनुसार ऊपर के लोकों में स्वर्ग सुख प्राप्त करेगा तथा इसके विपरित साधना करने वाला व पाप करने वाला सीधा नरक जाएगा या गधा बनेगा, चाहे मगहर मरे, चाहे काशी। अपने वचनों को सत्य प्रमाणित करने के लिए कबीर परमात्मा जी ने पंडितों तथा काजियों-मुल्लाओं से कहा कि मैं मगहर स्थान पर मरूँगा और स्वर्ग, महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) से भी उत्तम स्वर्ग सत्यलोक में जाऊँगा। आप (पंडितजन) अपना-अपना पतरा-पोथी ज्योतिष वाले साथ ले चलना तथा देखना कि कबीर कहाँ गया है? (28)

कबीर परमेश्वर जी काशी को त्यागकर मगहर गए। वहाँ एक चद्दर नीचे बिछाई। उसके ऊपर श्रद्धा से श्रद्धालुओं ने कुछ फूल बिछाए। उन चद्दर पर बिछे फूलों के ऊपर परमात्मा कबीर जी लेट गए। ऊपर एक चद्दर ओढ़ ली। कुछ समय पश्चात् आकाशवाणी हुई कि पर्दा उठाकर देखो! उसमें मुर्दा नहीं है। देखो! मैं (कबीर) सशरीर सतलोक जा रहा हूँ। पंडितजन पतरा पढ़ रहे थे और ज्योतिष लगा रहे थे। कह रह थे कि इस घड़ी-मुहूर्त में मरने वाला नरक जाता है। उसकी गुदा द्वार से प्राण निकलता है। चद्दर उठाकर देखो ऊपर कबीर नहीं गया है। कोई यमदूत छल कर रहा है। चद्दर उठाकर देखा तो वहाँ परमात्मा कबीर जी का शरीर नहीं था। पंडितों को फिर भी विश्वास नहीं हो रहा था। काशी को काया जानो मगहर जानो मन, परमात्मा कबीर जी का तो सब स्थानों पर अधिकार है। उनका वास्तविक निवास स्थान है। जहाँ पर (जुलहदी) कबीर जुलाहे का आदि तथा अंत यानि सदा का ठिकाना है यानि सृष्टि रचने से पहले भी वही ऊपर के स्थान में थे। उस स्थान का अंत है ही नहीं। (29)

वह सत्यलोक नगरी (श्वेत) सफेद रंग की शुभ नगरी है। वह स्थान (अकल) अविनाशी तथा (अमान) शांत है। तन-मन वहाँ नहीं जा सकते। (निजमन) परमात्मा कबीर जी का स्थान है। निजमन यानि परमात्मा कबीर जी अन्य रूप में (साधु या जुलाहा रूप में) तो निजमन कहे गए हैं तथा अपने वास्तविक सतपुरूष रूप में परम पद में रहते हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में इसी परम पद का उल्लेख है। सतगुरू राग रूप रघुवीर है यानि साधक का इच्छित परमात्मा है। वहाँ अन्य कोई नहीं जा सकता। उस स्थान पर परमात्मा कबीर जी का महल (सिंहासन) है। (30-31)

निजमन यानि सत्य पुरूष से मन यानि काल निरंजन की उत्पत्ति हुई। मन के द्वारा किए कर्मों के परिणामस्वरूप जीव को स्थूल शरीर यानि देह मिली। यदि मानव शरीर से सत्य साधना नहीं हुई तो स्थूल शरीर रूपी (खेह) राख किसलिए लगा रखी है यानि (नाहक) व्यर्थ में लगाई। मानव जन्म नष्ट कर दिया। (32)

शुभ कर्म करने से सर्व भक्ति कर्म भी होते हैं। मोक्ष के लिए मानव शरीर (काया) तथा (माया) धन-संपत्ति, पृथ्वी आदि-आदि तथा चार खानी के प्राणी (जो चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर कर्मों के अनुसार प्राप्त करते हैं।) उत्पन्न किए। (33)

विशेष:– पारख के अंग का सरलार्थ किया जा रहा है। उद्देश्य संत गरीबदास जी द्वारा दिए सत्य अद्वितीय अध्यात्म ज्ञान को सरल करके परमेश्वर की प्रिय आत्माओं को समझाना है। पारख के अंग की वाणी नं. 34-36, 50 में अब्राहिम अधम सुल्तान का आंशिक वर्णन है। कई अंगों में थोड़ा-थोड़ा प्रकरण है। यहाँ पर सब अंगों से वाणी लेकर पूर्ण रूप से समझाया जाएगा।

सम्मन तथा नेकी व उनके पुत्र सेऊ (शिव) की कथा पहले बताना अनिवार्य है। इसका संबंध अब्राहिम अधम सुल्तान से है। सम्मन वाली आत्मा नौशेरवां शहर का राजा नौशेरखां हुआ। वही सम्मन वाली आत्मा (अब्राहिम अधम सुल्तान) बलख शहर का राजा हुआ। पहले सम्मन-सेऊ की कथा अचला के अंग से बताते हैं।

पारख के अंग की वाणी नं. 37-41:

गरीब, नौ लख नानक नाद में, दस लख गोरख तीर। लाख दत्त संगी सदा, चरणौं चरचि कबीर।।37।।
गरीब, नौलख नानक नाद में, दस लख गोरख पास। अनंत संत पद में मिले, कोटि तिरे रैदास।।38।।
गरीब, रामानंदसे लक्षि गुरु, त्यारे शिष्य कै भाय। चेलौं की गिनती नहीं, पद में रहे समाय।।39।।
गरीब, खोजी खालिक सें मिले, ज्ञानी कै उपदेश। सतगुरु पीर कबीर हैं, सब काहू उपदेश।।40।।
गरीब, दुर्बासा और गरुड़ स्यौं, कीन्हा ज्ञान समोध। अरब रमायण मुख कही, बाल्मीक कूं सोध।।41।।

सरलार्थ:– परमात्मा कबीर जी की शरण में आकर (नाद) वचन के शिष्य बनकर श्री नानक देव (सिख धर्म के प्रवर्तक) जैसे भक्त नौ लाख पार हो गए तथा श्री गोरखनाथ जैसे सिद्ध पुरूष दस लाख पार हो गए। श्री दत्तात्रो जैसे ऋषि एक लाख उनकी शरण में सदा उनकी महिमा की चर्चा करते रहते हैं। संत रविदास (रैदास) जैसी करोड़ों भक्त आत्मा पार हो गई कबीर जी के ज्ञान व साधना का आश्रय लेकर। (37-38)

स्वामी रामानन्द काशी वाले जैसी लाखांे आत्माएँ पार की। रामानन्द जी को गुरू बनाकर पार किया और जो शिष्य बनाकर भवसागर से पार किए, उनकी तो गिनती ही नहीं की जा सकती। (39)

परमात्मा कबीर जी ज्ञानी के नाम से प्रकट थे। तब एक खोजी यानि ज्योतिष करने वाला तथा गुम हुए पशु तथा अन्य चोरी हुए सामान को बताता था कि ऐसे गुम हुआ है। वहाँ रखा है। ऐसे व्यक्ति पूर्व जन्म की भक्ति की शक्ति से कुछ सत्य बता देते हैं। परंतु अपनी पूर्व जन्म की भक्ति नष्ट करके नरक में गिरते हैं। खोजी को सतगुरू कबीर जी ने पार किया। संत गरीबदास जी ने स्पष्ट किया है कि विश्व में एकमात्रा कबीर जी ही सतगुरू हैं या उनके ज्ञान को ठीक से समझा हुआ ही उनका कृपा पात्रा सतगुरू है। यह सबको बता रहा हूँ। यह सबको उपदेश है। (40)

परमात्मा कबीर जी त्रोतायुग में ऋषि मुनीन्द्र के नाम से प्रकट हुए थे। उस समय ऋषि दुर्वासा तथा श्री विष्णु जी का वाहन गरूड़ उनकी शरण में आए थे। दुर्वासा जी सिद्धियाँ युक्त था। अपने को पूर्ण ऋषि मानता था। परमात्मा कबीर जी के ज्ञान को सुना, परंतु विश्वास नहीं किया। शिष्य भी बना, परंतु अपना अहंकार नहीं त्यागा। गरूड़ ने ज्ञान समझा। शिष्य हुआ, भक्ति भी कर रहा है। किसी जन्म में फिर शरण में आएगा। उस समय बताया था कि रामचन्द्र तो अरबों बार रामलीला कर-करके मर लिए। (41)