वाणी नं. 36-37-38:-
गरीब, गोपीचंद अरु भरथरी, पतिब्रता हैं दोइ। गोरख से सतगुरु मिलें, पत्थर पाहन ढोइ।।36।।
गरीब, बारह बरस बिसंभरी, अलवर किला चिनाई। सतगुरु शब्दों बांधिया, अमर भये हैं ताहिं।।37।।
गरीब, सतगुरु शब्द न उलंघिया, जो धारी सो धार। कंचन के मटके भयै, निसतरि गया कुम्हार।।38।।
सरलार्थ:– गोपीचंद तथा भरथरी दोनों राजा थे। मामा-भानजा थे। भरथरी जी गोपीचंद के मामा जी थे।
गोपीचंद की कथा
गोपीचंद इकलौते पुत्र थे। पिता का देहांत हो चुका था। कई कन्याएँ (पुत्री) थी। माता जी ने एक दिन अपने पुत्र को स्नान करते देखा। माँ ऊपर की मंजिल पर थी। नीचे गोपीचंद की रानियाँ स्नान की तैयारी कर रही थी। माता ने अपने पुत्र को देखा तथा अपने पति की याद आई। इसी आयु में इसके पिता की मृत्यु हो गई थी। वे इतने ही सुंदर व युवा थे। उनको काल खा गया। मेरे बेटे को भी काल खाएगा। क्यों न इसको भगवान की भक्ति पर लगा दूँ ताकि मेरा लाल अमर रहे। आँखों से आँसू निकले और गोपीचंद के शरीर पर गिर गए। गोपीचंद ने देखा कि माँ रो रही है। उसी समय वस्त्रा पहनकर माँ के पास गया। रोने का कारण पूछा। कारण बताया तथा स्वयं गोरखनाथ जी के पास लेकर गई और दीक्षा दिला दी। सन्यास दिला दिया। गोपीचंद डेरे में रहने लगा। श्री गोरखनाथ जी ने परीक्षार्थ गोपीचंद जी को उसी के घर भिक्षा लेने भेजा तथा कहा कि अपनी पत्नी पाटम देई से माता कहकर भिक्षा माँगकर ला। गोपीचंद जी महल के द्वार पर गए। ’माई भिक्षा देना‘, आवाज लगाई। रानी तथा कन्याएँ आवाज पहचानकर दौड़ी-दौड़ी आई। सब रोने लगी। कहा कि आप यहीं रह जाएँ। मत जाओ डेरे में, हमारा क्या होगा? उसी समय वापिस डेरे में आ गया तथा गुरू जी से सब वृत्तांत बताया। फिर गोपीचंद की माता श्री गोरखनाथ जी के पास जाकर गोपीचंद को वापिस माँगने गई। परंतु गोपीचंद जी ने कहा कि माता जी! अब मैं गुरू जी का बेटा हूँ। आपका अधिकार समाप्त हो गया है। अब मैं किसी भी कीमत पर घर नहीं जाऊँगा। जो गुरू जी ने साधना बताई थी, वह भक्ति की।
यहाँ प्रश्न यह है कि भले ही वह भक्ति मोक्षदायक नहीं थी, परंतु परमात्मा प्राप्ति के लिए गुरू जी ने जो भी साधना तथा मर्यादा बताई, सिर-धड़ की बाजी लगाकर निभाई। वह भिन्न बात है कि मुक्त नहीं हुए। परंतु जिस स्तर की साधना की, उसमें प्रथम रहकर उभरे। संसार में नाम हुआ। किसी न किसी जन्म में परमेश्वर कबीर जी ऐसी दृढ़ आत्माओं को अवश्य शरण में लेते हैं। यदि भक्ति की शुरूआत ही नहीं करते तो नरक में जाना था। राज्य तो रहना ही नहीं था।
भरथरी की कथा
भरथरी राजा था। इनके छोटे भाई का नाम विक्रम था। भरथरी की रानी का नाम पींगला था। सुंदरता में परी से कम नहीं थी, परंतु चरित्रहीन थी। राजा भरथरी पींगला से बहुत प्यार करता था तथा अत्यंत विश्वास करता था। एक दिन विक्रम ने अपनी भाभी जी को एक नौकर के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा। नौकर घोड़ों की देख-रेख करने वाले नौकरों का मुखिया था। उसे दरोगा की उपाधि प्राप्त थी। पींगला ने विक्रम को रास्ते से हटाने के लिए षड़यंत्र रचा। खाना-पीना त्याग दिया। राजा ने पूछा तो बताया कि तेरे भाई ने मेरी इज्जत पर हाथ डाला है। राजा को अपने भाई पर पूर्ण विश्वास था कि विक्रम यह गलती नहीं कर सकता, तू गलत कह रही है। परंतु कहावत है कि ‘‘बद त्रीया चरित्र जाने ना कोई। खसम मार कर सती होई।।’’ अंत में राजा ने पत्नी मोह में अपने भाई को दोषी करार दे दिया। पींगला ने कहा कि इसको जंगल में जाकर मारकर डाल आएँ। इसकी आँखें निकालकर लाएँ। मुझे दिखाएँ तो मैं जीवित रहूँगी, नहीं तो मरूँगी।
राजा भरथरी ने अपने नौकरों को यही आदेश दे दिया। जब नौकर लेकर चले, तब विक्रम ने कहा कि भाई साहब! आपको यह स्त्राी मरवाएगी। आपको दुनिया से खो देगी। मैं तो चला। एक कवि ने कहा है:-
आज का बोला याद राखिए विक्रम भाई का। दुनियाँ में से खो देगा, तुझे बहम लुगाई का।।
विक्रम ने बताया कि यह स्त्राी चरित्रवान नहीं है। परंतु भरथरी ने कान बंद कर लिये। विक्रम की एक नहीं सुनी और भाई को मारने का आदेश दे दिया। दयावान वृद्ध मंत्री ने नौकरों से कहा कि विक्रम निर्दोष है। इसको मारना नहीं है। किसी मृग की आँखें निकाल लाना। विक्रम को किसी जिम्मेदार व्यक्ति के पास दूसरे राजा (विक्रम के मामा) के राज्य में छोड़ आओ। ऐसा ही किया गया। पींगला का रास्ते का रोड़ा दूर हो गया। एक दिन राजा भरथरी जंगल में शिकार खेलने गया हुआ था। उसने एक हिरण को तीर से मार दिया। उसी समय श्री गोरखनाथ जी सिद्ध वहाँ से जा रहे थे। उसने राजा से कहा कि निर्दोष को मारने से महापाप लगता है। राज के मद में अँधा न हो प्राणी! संसार छोड़कर भी जाना है। राजा में अहंकार अधिक होता है। वह अपनी क्रिया में बाधा तथा किसी की शिक्षा स्वीकार नहीं करता। यदि श्री गोरखनाथ जी संत वेश में न होते तो इसी बात पर उन्हें भी वहीं तीर से मार देता। फिर भी अपनी दुष्टता व्यक्त करते हुए कहा कि यदि इतना जीवों के प्रति दयावान है तो इस मृग को जीवित कर दे, नहीं तो यह संत वेशभूषा उतारकर रख दे। श्री गोरखनाथ जी ने शर्त रखी कि यदि मैं इसी हिरण को जीवित कर दूँ तो आपको मेरा चेला बनना पड़ेगा। राजा भरथरी ने कहा कि ठीक है। श्री गोरखनाथ जी ने उसी समय कान पकड़कर हिरण को खड़ा कर दिया। राजा से कहा कि उतर घोड़े से नीचे। राजा घोड़े से नीचे उतरा और संत के पैर पकड़कर क्षमा याचना की और कहा कि मुझे कुछ समय और राज्य करने दो। फिर आपका शिष्य अवश्य बन जाऊँगा। अभी मेरी पत्नी रो-रोकर मर जाएगी। वह मेरे बिना नहीं रह सकती। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि:-
बाण आले की बाण ना जावै, चाहे चारों वेद पढ़ा ले। त्रिया अपनी ना होती, चाहे कितने लाड लडाले।।
परंतु भरथरी तो अपनी दुष्ट पत्नी को देवी मानता था। उसने अपनी पत्नी की बहुत वकालत की। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि आपकी इच्छा हो और संसार से मन दुःखी हो जाए, तब आ जाना। कुछ समय उपरांत श्री गोरखनाथ जी वेश बदलकर अन्य संत के रूप में राजा भरथरी जी के पास गए। उनको एक अमर फल देकर कहा कि जो इस फल को खा लेगा, वह लंबी आयु जीयेगा और युवा बना रहेगा। यह कहकर संत जी कुछ दक्षिणा लेकर चले गए। फल की कीमत नहीं ली। राजा ने विचार किया कि यदि मेरे से पहले मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई तो मैं जीवित नहीं रह पाऊँगा। इसलिए यह फल पींगला रानी को देता हूँ। वह फल अपनी रानी को दे दिया तथा उसके गुण बताए। रानी का प्रेम उस दरोगा से था। रानी ने वह फल अपने प्रेमी दरोगा को दे दिया और उसके गुण बताए और कहा कि मैं आपकी लम्बी आयु देखना चाहती हूँ। मैं आपके बिना जीवित नहीं रह पाऊँगी। दरोगा उसी शहर की वैश्या के पास जाता था। उससे अत्यधिक प्रेम करता था। दरोगा ने वह अमर फल अपनी प्रेमिका वैश्या को दे दिया तथा उसके गुण बताए। वैश्या ने विचार किया कि इस नगरी का राजा बहुत दयालु तथा न्यायकारी है। अपने भाई का दोष देखा तो उसे भी क्षमा नहीं किया। ऐसा राजा लम्बी आयु जीवित रहे तो जनता सुखी रहेगी। यदि मैंने खा लिया तो और अधिक समय तक यह पाप करूँगी। उस वैश्या ने वह फल राजा भरथरी को दे दिया तथा उसके गुण बताए। राजा ने पूछा कि आपको यह फल किसने दिया है? वैश्या ने बताया कि आपके घोड़ों के मुखिया (दरोगा) ने दिया है। राजा ने दरोगा को बुलाया। पूछा तो उसने बताया कि रानी ने दिया है। रानी से महल में जाकर पूछा कि क्या आपने वह फल खा लिया था? रानी कुछ नाराज अंदाज से बोली कि हाँ! खा लिया था। आप हमेशा शक क्यों करते हो? राजा ने उसी समय मंत्री-महामंत्री, अन्य दरबारियों (कार्यालय के उच्च अधिकारियों) को तथा वैश्या और दरोगा को बुलाया। दरोगा से पूछा कि यह फल आपको किसने दिया था? दरोगा ने काँपते हुए कहा कि रानी ने दिया था। राजा का अंधेरा दूर हुआ। अपने भाई की मौत तथा अंतिम वचन को याद करके दहाड़ मारकर रोया। कहा कि दुष्टा! तूने मेरा भाई भी मरवा दिया। कुछ दिन में मुझे भी मरवा देती। पींगला रानी ने क्षमा याचना की। अपनी सब गलती भी स्वीकार कर ली। भरथरी उस दिन राज्य त्यागकर गोरखनाथ जी के डेरे में चला गया तथा परम भक्त बना। महामंत्री को पता था कि विक्रम जीवित है। विक्रम को राजा बनाया गया। दरोगा को नौकरी से निकाल दिया। पींगला को भिन्न महल में रहने को कहा। उसकी पूरी देखभाल राजा ने रखी। उसे कभी कष्ट नहीं होने दिया।
अलवर शहर के राजा के किले में पत्थर ढ़ोने की नौकरी करना
एक समय श्री गोरखनाथ जी से गोपीचंद तथा भरथरी जी ने कहा कि गुरूदेव! हमारा मोक्ष इसी जन्म में हो, ऐसी कृपा करें। आप जो भी साधना बताओगे, हम करेंगे। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि राजस्थान प्रान्त में एक अलवर शहर है। वहाँ का राजा अपने किले का निर्माण करवा रहा है। तुम दोनों उस राजा के किले का निर्माण पूरा होने तक उसमें पत्थर ढ़ोने का निःशुल्क कार्य करो। अपने खाने के लिए कोई अन्य मजदूरी सुबह-शाम करो। उसी दिन दोनों भक्त आत्मा गुरू जी का आशीर्वाद लेकर चल पड़े। उस किले का निर्माण बारह वर्ष तक चला। कोई मेहनताना का रूपया-पैसा नहीं लिया। अपने भोजन के लिए उसी नगरी के एक कुम्हार के पास उसकी मिट्टी खोदने तथा उसके मटके बनाने योग्य गारा तैयार करने लगे। उसके बदले में सुबह-शाम केवल रोटी खाते थे। कुम्हार की धर्मपत्नी अच्छे संस्कारों की नहीं थी। कुम्हार ने कहा कि दो व्यक्ति बेघर घूम रहे थे। वे मेरे पास मिट्टी खोदने तथा गारा तैयार करते हैं। केवल रोटी-रोटी की मजदूरी लेंगे। आज तीन व्यक्तियों का भोजन लेकर आना। मटके बनाने तथा पकाने वाला स्थान नगर से कुछ दूरी पर जंगल में था। कुम्हारी दो व्यक्तियों की रोटी लेकर गई और बोली कि इससे अधिक नहीं मिलेगी। भोजन रखकर घर लौट आई। कुम्हार ने कहा कि बेटा! इन्हीं में काम चलाना पड़ेगा। तीनों ने बाँटकर रोटी खाई। कई वर्ष ऐसा चला। अंत के वर्ष में तो केवल एक व्यक्ति का भोजन भेजने लगी। तीनों उसी में संतोष कर लेते थे। किले का कार्य बारह वर्ष चला। कुम्हार ने अपने घड़े पकाने के लिए आवे में रख दिए। अंत के वर्ष की बात है। गोपीचंद तथा भरथरी ने कुम्हार से आज्ञा ली कि पिता जी! हमारी साधना पूरी हुई। अब हम अपने गुरू श्री गोरखनाथ जी के पास वापिस जा रहे हैं। मेरा नाम गोपीचंद है। इनका नाम भरथरी है। उस समय कुम्हार की पत्नी भी उपस्थित थी। मटकों की ओर एक हाथ से
आशीर्वाद देते हुए दोनों ने एक साथ कहा:-
पिता का हेत माता का कुहेत। आधा कंचन आधा रेत।।
यह वचन बोलकर दोनों चले गए। जिस समय मटके निकालने लगे तो कुम्हार तथा कुम्हारी दोनों निकाल रहे थे। देखा तो प्रत्येक मटका आधा सोने (ळवसक) का था, आधा कच्चा था। हाथ लगते ही रेत बनने लगा। कुम्हार ने कहा, भाग्यवान! वे तो कोई देवता थे। तेरी त्रुटि के कारण आधा मटका रेत रह गया। मिट्टी की मिट्टी रह गई। आधा स्वर्ण का हो गया। कुम्हारी को अपनी कृतघ्नता का अहसास हुआ तथा रोने लगी। बोली कि मुझे पता होता तो उनकी बहुत सेवा करती।
कबीर, करता था तब क्यों किया, करके क्यों पछताय। बोवे पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय।।
इस प्रकार गोपीचंद और भरथरी जी अपने गुरू जी के वचन का पालन करके सफल हुए। जो अमरत्व उस साधना से मिलना था, वह भी अटल विश्वास करके साधना करने से हुआ। यदि विवेकहीन तथा विश्वासहीन होते तो विचार करते कि यह कैसी भक्ति? यह कार्य तो सारा संसार कर रहा है। मोक्ष के लिए तो तपस्या करते हैं या अन्य कठिन व्रत करते हैं। परंतु उन्होंने गुरू जी को गुरू मानकर प्रत्येक साधना की। गुरू जी के कार्य या आदेश में दोष नहीं निकाला तो सफल हुए। गोरखनाथ जी ने उनको जो नाम जाप करने का मंत्र दे रखा था, उसका जाप वे दोनों पत्थर उठाकर निर्माण स्थान तक ले जाते तथा लौटकर पत्थरों को तरास (काट-छाँट करके सीधा कर) रहे थे, वहाँ तक आते समय करते रहते थे।दोनों युवा थे। कार्य के परिश्रम तथा पूरा पेट न भरने के कारण मन में स्त्राी के प्रति विकार नहीं आया और सफलता पाई। गुरू एक वैद्य (डाॅक्टर) होता है। उसे पता होता है कि किस रोगी को क्या परहेज देना है? क्या खाने को बताना है? यानि पथ्य-अपथ्य डाॅक्टर ही जानता है। रोगी यदि उसका पालन करता है तथा औषधि सेवन (भक्त नाम जाप) करता है तो स्वस्थ हो जाता है यानि मोक्ष प्राप्त करता है। इसी प्रकार गोपीचंद तथा भरथरी जी ने अपने गुरू जी के आदेश का पालन करके जीवन सफल किया। इसी प्रकार सत्यलोक प्राप्ति के लिए हमने अपनी साधना करनी है।