पारख का अंग (399-567)

ऋषि रामानन्द, सेऊ, सम्मन तथा नेकी व कमाली के पूर्व जन्मों का ज्ञान

ऋषि रामानन्द जी का जीव सत्ययुग में विद्याधर ब्राह्मण था जिसे परमेश्वर सत्य सुकृत नाम से मिले थे। त्रोता युग में वह वेदविज्ञ नामक ऋषि था जिसको परमेश्वर मुनिन्द्र नाम से शिशु रूप में प्राप्त हुए थे तथा कमाली वाली आत्मा सत्य युग में विद्याधर की पत्नी दीपिका थी। त्रोता युग में सूर्या नाम की वेदविज्ञ ऋषि की पत्नी थी। उस समय इन्होनें परमेश्वर को पुत्रवत् पाला तथा प्यार किया था। उसी पुण्य के कारण ये आत्माएँ परमात्मा को चाहने वाली थी। कलयुग में भी इनका परमेश्वर के प्रति अटूट विश्वास था। ऋषि रामानन्द व कमाली वाली आत्माएँ ही सत्ययुग में ब्राह्मण विद्याधर तथा ब्राह्मणी दीपीका वाली आत्माएँ थी जिन्हें ससुराल से आते समय कबीर परमेश्वर एक तालाब में कमल के फूल पर शिशु रूप में मिले थे। यही आत्माएँ त्रोता युग में (वेदविज्ञ तथा सूर्या) ऋषि दम्पति थे। जिन्हें परमेश्वर शिशु रूप में प्राप्त हुए थे। सम्मन तथा नेकी वाली आत्माएँ द्वापर युग में कालू वाल्मीकि तथा उसकी पत्नी गोदावरी थी। जिन्होंने द्वापर युग में परमेश्वर कबीर जी का शिशु रूप में लालन-पालन किया था। उसी पुण्य के फल स्वरूप परमेश्वर ने उन्हें अपनी शरण में लिया था। सेऊ (शिव) वाली आत्मा द्वापर में ही एक गंगेश्वर नामक ब्राह्मण का पुत्र गणेश था। जिसने अपने पिता के घोर विरोध के पश्चात् भी मेरे उपदेश को नहीं त्यागा था तथा गंगेश्वर ब्राह्मण वाली आत्मा कलयुग में शेख तकी बना। वह द्वापर युग से ही परमेश्वर का विरोधी था। गंगेश्वर वाली आत्मा शेख तकी को काल ब्रह्म ने फिर से प्रेरित किया। जिस कारण से शेख तकी (गंगेश्वर) परमेश्वर कबीर जी का शत्रु बना। भक्त श्री कालू तथा गोदावरी का गणेश माता-पिता तुल्य सम्मान करता था। रो-2 कर कहता था काश आज मेरा जन्म आप (वाल्मीकि) के घर होता। मेरे (पालक) माता-पिता (कालू तथा गोदावरी) भी गणेश से पुत्रवत् प्यार करते थे। उनका मोह भी उस बालक में अत्यधिक हो गया था। इसी कारण से वे फिर से उसी गणेश वाली आत्मा अर्थात् सेऊ के माता-पिता (नेकी तथा सम्मन) बने। सम्मन की आत्मा ही नौशेरवाँ शहर में नौशेरखाँ राजा बना। फिर बलख बुखारे का बादशाह अब्राहिम अधम सुलतान हुआ तब उसको पुनः भक्ति पर लगाया।

पारख के अंग की वाणी नं. 428-455, 461-464, 473-477:-

महके बदन खुलास कर, सुनि स्वामी प्रबीन। दास गरीब मनी मरै, मैं आजिज आधीन।।428।।
मैं अबिगत गति सें परै, च्यारि बेद सें दूर। दास गरीब दशौं दिशा, सकल सिंध भरपूर।।429।।
सकल सिंध भरपूर हूं, खालिक हमरा नाम। दासगरीब अजाति हूं, तैं जूं कह्या बलि जांव।।430।।
जाति पाति मेरै नहीं, बस्ती है बिन थाम। दासगरीब अनिन गति, तन मेरा बिन चाम।।431।।
नाद बिंद मेरे नहीं, नहीं गुदा नहीं गात। दासगरीब शब्द सजा, नहीं किसी का साथ।।432।।
सब संगी बिछरू नहीं, आदि अंत बहु जांहि। दासगरीब सकल बसूं, बाहर भीतर मांहि।।433।।
ए स्वामी सृष्टा मैं, सृष्टि हमारै तीर। दास गरीब अधर बसूं, अबिगत सत्य कबीर।।434।।
अनंत कोटि सलिता बहैं, अनंत कोटि गिरि ऊंच। दास गरीब सदा रहूं, नहीं हमारै कूंच।।435।।
पौहमी धरणि आकाश में, मैं व्यापक सब ठौर। दास गरीब न दूसरा, हम समतुल नहीं और।।436।।
मैं सतगुरु मैं दास हूँ, मैं हंसा मैं बंस। दास गरीब दयाल मैं, मैं ही करूं पाप बिध्वंस।।437।।
ममता माया हम रची, काल जाल सब जीव। दास गरीब प्राणपद, हम दासातन पीव।।438।।
हम दासन के दास हैं, करता पुरुष करीम। दासगरीब अवधूत हम, हम ब्रह्मचारी सीम।।439।।
सुनि रामानंद राम मैं, मैं बावन नरसिंह। दास गरीब सर्व कला, मैं ही व्यापक सरबंग।।440।।
हमसे लक्ष्मण हनुमंत हैं, हमसे रावण राम। दास गरीब सती कला, सबै हमारे काम।।441।।
हम मौला सब मुलक में, मुलक हमारै मांहि। दास गरीब दयाल हम, हम दूसर कछु नांहि।।442।।
ताना बाना बीनहूं, पूरण पेटै सूत। दास गरीब नली फिरै, दम खोजैं अनभूत।।443।।
दम खोजैं देही तजैं, श्वास उश्वास गुंजार। दास गरीब समोयले, उलटि अपूठा तार।।444।।
हम चरखा हम कातनी, हमहीं कातनहार। दास गरीब तीजंन पर्या, हम ताकू ततसार।।445।।
हमहीं बाड़ी बंनि बंनैं, हमैं बिनौला जाति। दास गरीब चंद सूर हम, हमहीं दिबस अरु रात।।446।।
हम से हीं इंद्र कुबेर हैं, ब्रह्मा बिष्णु महेश। दास गरीब धरम ध्वजा, धरणि रसातल शेष।।447।।
हम से हीं बरन बिनांन हैं, हम से हीं जम कुबेर। दास गरीब हरि होत हम, हम कंचन सुमेर।।448।।
हम मोती मुक्ताहलं, हम दरिया दरबेश। दास गरीब हम नित रहैं, हम उठि जात हमेश।।449।।
हमहीं लाल गुलाल हैं, हम पारस पद सार। दास गरीब अदालतं, हम राजा संसार।।450।।
हम से ही पानी हम पवन हैं, हम से हीं धरणि अकाश। दास गरीब तत्त्व पंच में, हमहीं शब्द निबास।।451।।
हम पारिंग हम सुरति हैं, हम नलकी हम नाद। दास गरीब नगन मगन, हम बिरक्त हम साध।।452।।
सुनि स्वामी सति भाखहूं, झूठ न हमरै रिंच। दास गरीब हम रूप बिन, और सकल प्रपंच।।453।।
हम मुक्ता हम नहीं बंध में, हम ख्याली खुसाल। दास गरीब सब सष्टि में, टोहत हैं हंस लाल।।454।।
हम रोवत हैं सृष्टि कूं, सृष्टि रोवती मोहि। दासगरीब बिजोग कूं, बूझै और न कोय।।455।।
सतगुण रजगुण तमगुणं, रज बीरज हम कीन। गरीबदास सब सकल शिर, हमैं दुनी हम दीन।।461।।
हम भिक्षुक कंगाल कुल, हम दाता अबदाल। गरीब दास मैं मागिहूं, मैं देऊं नघ माल।।462।।
माल ताल सरबर भरे, संख असंखौं गंज।गरीब दास एक रती बिन, लेन न देऊं अंज।।463।।
जेता अंजन आंजिये, चिसम्यौं में चमकंत। गरीब दास हरि भक्ति बिन, माल बाल ज्यूं जंत।।464।।
गगन सुंन गुप्त रहूं, हम प्रगट प्रवाह। गरीबदास घट घट बसूं, बिकट हमारी राह।।473।।
आवत जात न दीखहूं, रहता सकल समीप। गरीबदास जल तरंग हूं, हमही सायर सीप।।474।।
मैं मुरजीवा आदि का, नघ माणिक ल्यावंत। गरीबदास सर समंद में, गोता गैब लगंत।।475।।
गोता लाऊं स्वर्ग सैं, फिरि पैठूं पाताल। गरीबदास ढूंढत फिरूं, हीरे माणिक लाल।।476।।
इस दरिया कंकर बहुत, लाल कहीं कहीं ठाव। गरीबदास माणिक चुगैं, हम मुरजीवा नांव।।477।।

उपरोक्त वाणी का सरलार्थ:-

ऋषि रामानन्द का उद्धार करना

ऋषि रामानन्द स्वामी को गुरु बना कर शरण में लेना

पारख के अंग की वाणी नं. 399-404:-

गरीब, भक्ति द्राविड देश थी, इहां नहीं एक रंच। ऊत भूत की ध्यावना, पाखंड और प्रपंच।।399।।
गरीब, रामानंद आनंद में, काशी नगर मंझार। देश द्राविड छाड़ि करि, आये पुरी बिचार।।400।।
गरीब, जोग जुगति प्राणायाम करि, जीत्या सकल शरीर। त्रिवेणी के घाट में, अटक रहे बलबीर।।401।।
गरीब, तीरथ ब्रत एकादशी, गंगोदक असनान। पूजा बिधि विधानसैं, सर्ब कला सुर ज्ञान।।402।।
गरीब, करैं मानसी सेव नित, आत्म तत्त्व का ध्यान। षटपूजा आरंभ गति, धूप दीप बंधान।।403।।
गरीब, चैदा सै चेले किये, काशी नगर मंझार। च्यारि संप्रदा चलत हैं, और बावन दरबार।।404।।

सरलार्थ:– स्वामी रामानन्द जी अपने समय के सुप्रसिद्ध विद्वान कहे जाते थे। वे द्राविड़ से काशी नगर में वेद व गीता ज्ञान के प्रचार हेतु आए थे। उस समय काशी में अधिकतर ब्राह्मण शास्त्राविरूद्ध भक्तिविधि के आधार से जनता को दिशा भ्रष्ट कर रहे थे। भूत-प्रेतों के झाड़े जन्त्रा करके वे काशी शहर के ब्राह्मण अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे थे। स्वामी रामानन्द जी ने काशी शहर में वेद ज्ञान व गीता जी तथा पुराणों के ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया तथा वह भूत-प्रेत उतारने वाली पूजा का अन्त किया अपने ज्ञान के प्रचार के लिए चैदह सौ ऋषि बना रखे थे। {स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर जी की शरण में आने के पश्चात् चैरासी शिष्य और बनाए थे जिनमें रविदास जी नीरू-नीमा, गीगनौर (राजस्थान) के राजा पीपा ठाकुर आदि थे कुल शिष्यों की संख्या चैदह सौ चैरासी कही जाती है } वे चैदह सौ ऋषि विष्णु पुराण, शिव पुराण तथा देवी पुराण आदि मुख्य-2 पुराणों की कथा करते थे। प्रतिदिन बावन (52) सभाएँ ऋषि जन किया करते थे। काशी के क्षेत्रा विभाजित करके मुख्य वक्ताओं को प्रवचन करने को स्वामी रामानन्द जी ने कह रखा था। स्वयं भी उन सभाओं में प्रवचन करने जाते थे। स्वामी रामानन्द जी का बोल बाला आस-पास के क्षेत्रा में भी था। सर्व जनता कहती थी कि वर्तमान में महर्षि रामानन्द स्वामी तुल्य विद्वान वेदों व गीता जी तथा पुराणों का सार ज्ञाता पृथ्वी पर नहीं है। परमेश्वर कबीर जी ने अपने स्वभाव अनुसार अर्थात् नियमानुसार रामानन्द स्वामी को शरण में लेना था। कबीर जी ने सन्त गरीबदास जी को अपना सिद्धान्त बताया है जो सन्त गरीबदास जी (बारहवें पंथ प्रवर्तक, छुड़ानी धाम, हरियाणा वाले) ने अपनी वाणी में लिखा है:-

गरीब जो हमरी शरण है, उसका हूँ मैं दास। गेल-गेल लाग्या फिरूं जब तक धरती आकाश।।
गोता मारूं स्वर्ग में जा पैठू पाताल। गरीबदास ढूढत फिरूं अपने हीरे माणिक लाल।
हरदम संगी बिछुड़त नाहीं है महबूब सल्लौना वो। एक पलक में साहेब मेरा फिरता चैदह भवना वो।
ज्यों बच्छा गऊ की नजर में यूं साई कूँ सन्त। भक्तों के पीछे फिरै भक्त वच्छल भगवन्त।
कबीर कमाई आपनी कबहूँ न निष्फल जायें। सात समुन्दर आढे पड़ैं मिले अगाऊ आय।।

सतयुग में विद्याधर नामक ब्राह्मण के रूप में तथा त्रोतायुग में वेदविज्ञ ऋषि के रूप में जन्में स्वामी रामानन्द जी वाले जीव ने परमेश्वर कबीर जी को बालक रूप में प्राप्त किया था। भक्तमती कमाली वाला जीव उस समय दीपिका नाम की विद्याधर ब्राह्मण की पत्नी थी। वही दीपिका वाली आत्मा वेदविज्ञ ब्राह्मण की पत्नी सूर्या थी। जो कलयुग में कमाली बनी। यही दोनों आत्माएँ त्रोता युग में ऋषि दम्पति (वेदविज्ञ तथा सूर्या) था। उस समय भी परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी शिशु रूप में इन्हें मिले थे। इस के पश्चात् भी इन दोनों जीवों को अनेकों जन्म व स्वर्ग प्राप्ति भी हुई थी। वही आत्माएँ कलयुग में परमेश्वर कबीर जी के समकालीन हुई थी। पूर्व जन्म के सन्त सेवा के पुण्य अनुसार परमेश्वर कबीर जी ने उन पुण्यात्माओं को शरण में लेने के लिए लीला की।

स्वामी रामानन्द जी की आयु 104 वर्ष थी उस समय कबीर देव जी के लीलामय शरीर की आयु 5 (पाँच) वर्ष थी। स्वामी रामानन्द जी महाराज का आश्रम गंगा दरिया के आधा किलो मीटर दूर स्थित था। स्वामी रामानन्द जी प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व गंगा नदी के तट पर बने पंचगंगा घाट पर स्नान करने जाते थे। पाँच वर्षीय कबीर देव ने अढ़ाई (दो वर्ष छः महीने) वर्ष के बच्चे का रूप धारण किया तथा पंच गंगा घाट की पौड़ियों (सीढ़ियों) में लेट गए। स्वामी रामानन्द जी प्रतिदिन की भांति स्नान करने गंगा दरिया के घाट पर गए। अंधेरा होने के कारण स्वामी रामानन्द जी बालक कबीर देव को नहीं देख सके। स्वामी रामानन्द जी के पैर की खड़ाऊ (लकड़ी का जूता) सीढ़ियों में लेटे बालक कबीर देव के सिर में लगी। बालक कबीर देव लीला करते हुए रोने लगे जैसे बच्चा रोता है। स्वामी रामानन्द जी को ज्ञान हुआ कि उनका पैर किसी बच्चे को लगा है जिस कारण से बच्चा पीड़ा से रोने लगा है। स्वामी जी बालक को उठाने तथा चुप करने के लिए शीघ्रता से झुके तो उनके गले की माला (एक रूद्राक्ष की कण्ठी माला) बालक कबीर देव के गले में डल गई। जिसे स्वामी रामानन्द जी नहीं देख सके। स्वामी रामानन्द जी ने बच्चे को प्यार से कहा बेटा राम-राम बोल राम नाम से सर्व कष्ट दूर हो जाता है। ऐसा कह कर बच्चे के सिर को सहलाया। आशीर्वाद देते हुए सिर पर हाथ रखा। बालक कबीर परमेश्वर अपना उद्देश्य पूरा होने पर चुप होकर पौड़ियों पर बैठ गए तथा एक शब्द गाया और चल पड़े:-

(यह शब्द कबीर सागर में अगम निगम बोध के पृष्ठ 34 पर लिखा है।)

गुरू रामानंद जी समझ पकड़ियो मोरी बाहीं।। जो बालक रून झुनियां खेलत सो बालक हम नाहीं।।
हम तो लेना सत का सौद हम ना पाखण्ड पूजा चाहीं।। बांह पकड़ो तो दृढ़ का पकड़ बहुर छुट न जाई।।
जो माता से जन्मा वह नहीं इष्ट हमारा।। राम मरै कृष्ण मरै विष्णु मरै साथै जामण हारा।।
तीन गुण हैं तीनों देवता, निरंजन चैथा कहिए। अविनाशी प्रभु इस सब से न्यारा, मोकूं वह चाहिए।।
पांच तत्त्व की देह ना मेरी, ना कोई माता जाया। जीव उदारन तुम को तारन, सीधा जग में आया।।
राम-राम और ओम् नाम यह सब काल कमाई। सतनाम दो मोरे सतगुरू तब काल जाल छुटाई।।
सतनाम बिन जन्में-मरें परम शान्ति नाहीं। सनातन धाम मिले न कबहु, भावें कोटि समाधि लाई।।
सार शब्द सरजीवन कहिए, सब मन्त्रान का सरदारा। कह कबीर सुनो गुरू जी या विधि उतरें पारा।।

स्वामी रामानन्द जी ने विचार किया कि वह बच्चा रात्रि में रास्ता भूल जाने के कारण यहाँ आकर सो गया होगा। इसे अपने आश्रम में ले जाऊँगा। वहाँ से इसे इनके घर भिजवा दूँगा। ऐसा विचार करके स्नान करने लगे। परमेश्वर कबीर जी वहाँ से अन्तध्र्यान हुए तथा अपनी झोंपड़ी में सो गए। कबीर परमेश्वर ने इस प्रकार स्वामी रामानन्द जी को गुरु धारण किया।

पारख के अंग की वाणी नं. 405-427:-

पंच बर्ष के जदि भये, काशी मंझ कबीर। दास गरीब अजब कला, ज्ञान ध्यान गुण थीर।।405।।
गुल भया कांशी पुरी, अटपटे बैन विहंग। दास गरीब गुनी थके, सुनि जुल्हा प्रसंग।।406।।
रामानंद अधिकार सुनि, जुलहा अक जगदीश। दास गरीब बिलंब ना, ताहि नवावत शीश।।407।।
रामानंद कूं गुरू कहै, तनसैं नहीं मिलात। दास गरीब दर्शन भये, पैडे लगी जुं लात।।408।।
पंथ चलत ठोकर लगी, रामनाम कहि दीन। दास गरीब कसर नहीं, शिख लई प्रबीन।।409।।
आडा पड़दा लाय करि, रामानंद बूझंत। दास गरीब कुलंग छबि, अधर डाक कूदंत।।410।।
कौन जाति कुल पंथ है, कौन तुम्हारा नाम। दास गरीब अधीन गति, बोलत है बलि जांव।।411।।
जाति हमारी जगतगुरू, परमेश्वर पद पंथ। दास गरीब लिखति परै, नाम निंरजन कंत।।412।।
रे बालक सुन दुर्बद्धि, घट मठ तन आकार। दास गरीब दरद लग्या, हो बोले सिरजनहार।।413।।
तुम मोमन के पालवा, जुलहै के घर बास। दास गरीब अज्ञान गति, एता दृढ़ बिश्बास।।414।।
मान बड़ाई छांड़ि करि, बोलौ बालक बैंन। दास गरीब अधम मुखी, एता तुम घट फैंन।।415।।
कलजुग क्षेत्रापाल हैं, क्या भैरौं कोई भूत। दास गरीब दतब बिना, गया जगत सब ऊत।।416।।
मनी मगज माया तजौ, तजौ मान गुमान। दास गरीब सुबात कहि, नहीं पावौगे जान।।417।।
ऐ बालक बुद्धि तोर गति कूड़ि साखि न भांडी। दासगरीब हदीस करि, नहीं लेवैंगें डांडी।।418।।
शाह सिकंदर सैं कहूँ बाधै, पग ऊपर तर शीश। दास गरीब अज्ञान गति, तोर कह्या जगदीश।।419।।
कान काटि बूचा करौं, नली भरतरे नीच। दास गरीब जिहांन में, तुम शिर जौंरा मीच।।420।।
मरत-मरत बौह जुग गए, लखी न अस्थिर ठौर। दासगरीब जिहांन में, तुम सा नीच न और।।421।।
नाद बिंद की देह में, ऐता गर्ब न कीन। दासगरीब पलक फना, जैसे बुदबुदा लीन।।422।।
तर्क तलूसैं बोलतै, रामानंद सुर ज्ञान। दास गरीब कुजाति है, आखर नीच निदान।।423।।
नीच मीचसैं ना डरै, काल कुहाड़ा शीश। दास गरीब अदत हैं, तैं ज कह्या जगदीश।।424।।
जडे़ंगे हाथ हथौकड़ी, गल में तौंक जंजीर। दास गरीब परख बिना, यह बानी गुन कीर।।425।।
परख निरख नहीं तोरकूं, नीच कुलीन कुजाति। दास गरीब अकल बिना, तैं ज कहीं क्या बात।।426।।
रे बालक नीची कला, तुम ह्नै बोले ऊंच। दास गरीब पलक घरी, खबर नहीं दम कूंच।।427।।

सरलार्थ:-

ऋषि विवेकानन्द जी से ज्ञान चर्चा

स्वामी रामानन्द जी का एक शिष्य ऋषि विवेकानन्द जी बहुत ही अच्छे प्रवचन कत्र्ता रूप में प्रसिद्ध था। ऋषि विवेकानन्द जी को काशी शहर के एक क्षेत्रा का उपदेशक नियुक्त किया हुआ था। उस क्षेत्रा के व्यक्ति ऋषि विवेकानन्द जी के धारा प्रवाह प्रवचनों को सुनकर उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहते थे। उसकी कालोनी में बहुत प्रतिष्ठा बनी थी। प्रतिदिन की तरह ऋषि विवेकानन्द जी विष्णु पुराण से कथा सुना रहे थे। कह रहे थे, भगवान विष्णु सर्वेश्वर हैं, अविनाशी, अजन्मा हैं। सर्व सृष्टि रचनहार तथा पालन हार हैं। इनके कोई जन्मदाता माता-पिता नहीं है। ये स्वयंभू हैं। ये ही त्रोतायुग में अयोध्या के राजा दशरथ जी के घर माता कौशल्या देवी की पवित्रा कोख से उत्पन्न हुए थे तथा श्री रामचन्द्र नाम से प्रसिद्ध हुए। समुद्र पर सेतु बनाया, जल पर पत्थर तैराए। लंकापति रावण का वध किया। श्री विष्णु भगवान ही ने द्वापर युग में श्री कृष्णचन्द्र भगवान का अवतार धार कर वासुदेव जी के रूप में माता देवकी के गर्भ से जन्म लिया तथा कंस, केशि,शिशुपाल, जरासंध आदि दुष्टों का संहार किया। पाँच वर्षीय बालक कबीर देव जी भी उस ऋषि विवेकानन्द जी का प्रवचन सुन रहे थे तथा सैंकड़ों की संख्या में अन्य श्रोता गण भी उपस्थित थे। ऋषि विवेकानन्द जी ने अपने प्रवचनों को विराम दिया तथा उपस्थित श्रोताओं से कहा यदि किसी को कोई प्रश्न करना है तो वह निःसंकोच अपनी शंका का समाधान करा सकता है।

बालक कबीर परमेश्वर खड़े हुए तथा ऋषि विवेकानन्द जी से करबद्ध होकर प्रार्थना कि हे ऋषि जी! आपने भगवान विष्णु जी के विषय में बताया कि ये अजन्मा हैं, अविनाशी है। इनके कोई माता-पिता नहीं हैं। एक दिन एक ब्राह्मण श्री शिव पुराण के रूद्र संहिता अध्याय 6-7 को पढ़ कर श्रोताओं को सुना रहे थे, यह दास भी उस सत्संग में उपस्थित था। शिव पुराण में लिखा है कि निराकार परमात्मा आकार में आया वह सदाशिव, काल रूपी ब्रह्म कहलाया। उसने अपने अन्दर से एक स्त्राी प्रकट की जो प्रकृति देवी, अष्टांगी, त्रिदेव जननी, शिवा आदि नामों से जानी जाती है। काल रूपी ब्रह्म ने एक काशी नामक सुन्दर स्थान बनाया वहाँ दोनों शिव तथा शिवा अर्थात् काल रूपी ब्रह्म तथा दुर्गा पति-पत्नी रूप में निवास करने लगे। कुछ समय पश्चात् दोनों के सम्भोग से एक लड़का उत्पन्न हुआ। उसका नाम विष्णु रखा। इसी प्रकार दोनों के रमण करने से एक पुत्रा उत्पन्न हुआ उसका नाम ब्रह्मा रखा तथा कमल के फूल पर डाल कर अचेत कर दिया। फिर अध्याय 9 के अन्त में लिखा है कि ‘‘ब्रह्मा रजगुण है, विष्णु सतगुण है तथा शंकर तमगुण है परन्तु सदा शिव इनसे भिन्न है वह गुणातीत है। यहाँ पर सदाशिव के अतिरिक्त तीन देव श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिवजी भी है। इससे सिद्ध हुआ कि इन त्रिदेवों की जननी दुर्गा अर्थात् प्रकृति देवी है तथा पिता काल ब्रह्म है। इन तीनों प्रभुओं विष्णु आदि का जन्म हुआ है इनके माता-पिता भी है।

एक दिन मैंने एक ब्राह्मण द्वारा श्री देवी पुराण के तीसरे स्कंद में अध्याय 4-5 में सुना था कि जिसमें भगवान विष्णु ने कहा है ‘‘इन प्रकृति देवी अर्थात् दुर्गा को मैंने पहले भी देखा था मुझे अपने बचपन की याद आई है। मैं एक वट वृक्ष के नीचे पालने में लेटा हुआ था। यह मुझे पालने में झूला रही थी। उस समय में बालक रूप में था। प्रकृति देवी के निकट जाकर तीनों देव (त्रिदेव) श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिवजी करबद्ध होकर खड़े हो गए। भगवान विष्णु ने देवी की स्तूति की ‘‘तुम शुद्ध स्वरूपा हो, यह संसार तुम ही से उद्भाषित हो रहा है। हमारा अविर्भाव अर्थात् जन्म तथा तिरोभाव अर्थात् मृत्यु होती है। हम अविनाशी नहीं है। तुम अविनाशी हो। प्रकृति देवी हो। भगवान शंकर बोले, हे माता! यदि आप ही के गर्भ से भगवान विष्णु तथा भगवान ब्रह्मा का जन्म हुआ है तो क्या मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर आपका पुत्रा नहीं हुआ? अर्थात् मुझे भी जन्म देने वाली तुम ही हो।

हे ऋषि विवेकानन्द जी! आप कह रहे हो कि पुराणों में लिखा है कि भगवान विष्णु के तो कोई माता-पिता नहीं। ये अविनाशी हैं। इन पुराणों का ज्ञान दाता एक श्री ब्रह्मा जी हैं तथा लेखक भी एक ही श्री व्यास जी हैं। जबकि पुराणों में तो भगवान विष्णु नाशवान लिखे हैं। इनके माता-पिता का नाम भी लिखा है। क्यों जनता को भ्रमित कर रहे हो।

कबीर, बेद पढे पर भेद ना जाने, बाचें पुराण अठारा। जड़ को अंधा पान खिलावें, भूले सिर्जन हारा।।

कबीर परमेश्वर जी के मुख कमल से उपरोक्त पुराणों में लिखा उल्लेख सुनकर ऋषि विवेकानन्द अति क्रोधित हो गया तथा उपस्थित श्रोताओं से बोले यह बालक झूठ बोल रहा है। पुराणों में ऐसा नहीं लिखा है। उपस्थित श्रोताओं ने भी सहमति व्यक्त की कि हे ऋषि जी आप सत्य कह रहे हो यह बालक क्या जाने पुराणों के गूढ़ रहस्य को? आप विद्वान पुरूष परम विवेकशील हो। आप इस बच्चे की बातों पर ध्यान न दो। ऋषि विवेकानन्द जी ने पुराणों को उसी समय देखा जिसमें सर्व विवरण विद्यमान था। परन्तु मान हानि के भय से अपने झूठे व्यक्तव्य पर ही दृढ़ रहते हुए कहा हे बालक तेरा क्या नाम है? तू किस जाति में जन्मा है। तूने तिलक लगाया है। क्या तूने कोई गुरु धारण किया है? शीघ्र बताइए।

कबीर परमेश्वर जी ने बोलने से पहले ही श्रोता बोले हे ऋषि जी! इसका नाम कबीर है, यह नीरू जुलाहे का पुत्र है। कबीर जी बोले ऋषि जी मेरा यही परिचय है जो श्रोताओं ने आपको बताया। मैंने गुरु धारण कर रखा है। ऋषि विवेकानन्द जी ने पूछा क्या नाम है तेरे गुरुदेव का? परमेश्वर कबीर जी ने कहा मेरे पूज्य गुरुदेव वही हैं जो आपके गुरुदेव हैं। उनका नाम है पंडित रामानन्द स्वामी। जुलाहे के बालक कबीर परमेश्वर जी के मुख कमल से स्वामी रामानन्द जी को अपना गुरु जी बताने से ऋषि विवेकानन्द जी ने ज्ञान चर्चा का विषय बदल कर परमेश्वर कबीर जी को बहुत बुरा-भला कहा तथा श्रोताओं को भड़काने व वास्तविक विषय भूलाने के उद्देश्य से कहा देखो रे भाईयो! यह कितना झूठा बालक है। यह मेरे पूज्य गुरुदेव श्री 1008 स्वामी रामानन्द जी को अपना गुरु जी कह रहा है। मेरे गुरु जी तो इन अछूतों के दर्शन भी नहीं करते। शुद्रों का अंग भी नहीं छूते। अभी जाता हूँ गुरु जी को बताता हूँ। भाई श्रोताओ! आप सर्व कल स्वामी जी के आश्रम पर आना सुबह-2। इस झूठे की कितनी पिटाई स्वामी रामानन्द जी करेगें? इसने हमारे गुरुदेव का नाम मिट्टी में मिलाया है। सर्व श्रोता बोले यह बालक मूर्ख, झूठा, गंवार है आप विद्वान हो।

कबीर जी ने कहाः-

निरंजन धन तेरा दरबार-निरंजन धन तेरा दरबार। जहां पर तनिक ना न्याय विचार। (टेक)
वैश्या ओढे मल-मल खासा गल मोतियों का हार। पतिव्रता को मिले न खादी सूखा निरस आहार।।
पाखण्डी की पूजा जग में सन्त को कहे लबार। अज्ञानी को परम विवेकी, ज्ञानी को मूढ गंवार।।
कह कबीर सुनो भाई साधो सब उल्टा व्यवहार। सच्चों को तो झूठ बतावें, इन झूठों का एतबार।।

बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी अपने घर चले गए। वह ऋषि विवेकानन्द अपने गुरु रामानन्द स्वामी जी के आश्रम में गया तथा सर्व घटना की जानकारी बताई। हे स्वामी जी! एक छोटी जाति का जुलाहे का लड़का कबीर अपने आप को बड़ा विद्वान् सिद्ध करने के लिए भगवान् विष्णु जी को नाशवान बताता है। हे ऋषि जी! उसने तो हम ब्रह्मणों का घर से निकलना भी दूभर कर दिया है। हमारी नाक काट डाली अर्थात् हमें महा शर्मिन्दा (लज्जित) होना पड़ रहा है। उसने कल भरी सभा में कहा है कि पंड़ित रामानन्द स्वामी मेरे गुरु जी हैं। मैंने उनसे दिक्षा ले रखी है। उस कबीर ने तिलक भी लगा रखा था जैसा हम वैष्णव सन्त लगाते है। अपने शिष्य विवेकानन्द की बात सुनकर स्वामी रामानन्द जी बहुत क्रोधित होकर बोले हे विवेकानन्द कल सुबह उसे मेरे सामने उपस्थित करो। देखना सर्व के समक्ष उसकी झूठ का पर्दाफाश करूँगा।

पारख के अंग की वाणी नं. 478-484:-

मन सोचत रामानन्द, यह बालक नहीं कोई देव। प्रथम नित नेम करूं, फिर पुँछू सब भेव।।478।।
बोलत रामानंदजी, हम घर बड़ा सुकाल। गरीबदास पूजा करैं, मुकुट फही जदि माल।।479।।
सेवा करौं संभाल करि, सुनि स्वामी सुर ज्ञान। गरीबदास शिर मुकुट धरि, माला अटकी जान।।480।।
स्वामी घुंडी खोलि करि, फिरि माला गल डार। गरीबदास इस भजन कूं, जानत है करतार।।481।।
ड्यौढी पड़दा दूरि करि, लीया कंठ लगाय। गरीबदास गुजरी बौहत, बदनैं बदन मिलाय।।482।।
मनकी पूजा तुम लखी, मुकुट माल परबेश। गरीबदास गति को लखै, कौन वरण क्या भेष।।483।।
यह तौ तुम शिक्षा दई, मानि लई मनमोर। गरीबदास कोमल पुरूष, हमरा बदन कठोर।।484।।

सरलार्थ:-

कबीर जी द्वारा स्वामी रामानन्द के मन की बात बताना

दूसरे दिन विवेकानन्द ऋषि अपने साथ नौ व्यक्तियों को लेकर जुलाहा काॅलोनी में नीरू के मकान के विषय में पूछने लगा कि नीरू का मकान कौन सा है? कालोनी के एक व्यक्ति को उनके आव-भाव से लगा कि ये कोई अप्रिय घटना करने के उद्देश्य से आए हैं। उसने शीघ्रता से नीरू को जाकर बताया कि कुछ ब्राह्मण आपके घर आ रहे हैं। उनकी नीयत झगड़ा करने की है। नीमा भी वहीं खड़ी उस व्यक्ति की बातें सुन रही थी उसी समय वे ब्राह्मण गली में नीरू के मकान की ओर आते दिखाई दिए। नीमा समझ गई कि अवश्य कबीर ने इन ब्राह्मणों से ज्ञान चर्चा की है। वे ईष्र्यालु व्यक्ति मेरे बेटे को मार डालेगें। इतना विचार करके सोए हुए बालक कबीर को जगाया तथा अपनी झोंपड़ी के पीछे ले गई वहाँ लेटा कर रजाई डाल दी तथा कहा बेटा बोलना नहीं है। कुछ व्यक्ति झगड़ा करने के उद्देश्य से अपने घर आ रहे हैं। नीमा अपने घर के द्वार पर गली में खड़ी हो गई। तब तक वे ब्राह्मण घर के निकट आ चुके थे। उन्होंने पूछा क्या नीरू का घर यही है ? नीमा ने उत्तर दिया हाँ ऋषि जी! यही है कहो कैसे आना हुआ। ऋषि विवेकानन्द बोला कहाँ है तुम्हारा शरारती बच्चा कबीर? कल उसने भरी सभा में मेरे गुरुदेव का अपमान किया है। आज उस की पिटाई गुरु जी सर्व के समक्ष करेंगे। इसको सबक सिखाएँगे। नीमा बोली मेरा बेटा निर्दोष है वह किसी का अपमान नहीं कर सकता। आप मेरे बेटे से ईष्र्या रखते हो। कभी कोई ब्राह्मण उलहाने (शिकायत) लेकर आता है कभी कोई तो कभी कोई आता है। आप मेरे बेटे की जान के शत्राु क्यों बने हो? लौट जाइए।

सर्व ब्राह्मण बलपूर्वक नीरू की झोंपड़ी में प्रवेश करके कपड़ों को उठा-2 कर बालक को खोजने लगे। चारपाइयों को भी उल्ट कर पटक दिया। जोर-2 से ऊंची आवाज में बोलने लगे। मात-पिता को दुःखी जानकर बालक रूपधारी कबीर परमेश्वर जी रजाई से निकल कर खड़े हो गए तथा कहा ऋषि जी मैं झोपड़ी के पीछे छुपा हूँ। बच्चे की आवाज सुनकर सर्व ब्राह्मण पीछे गए। वहाँ खड़े कबीर जी को पकड़ कर अपने साथ ले जाने लगे। नीमा तथा नीरू ने विरोध किया। नीमा ने बालक कबीर जी को सीने से लगाकर कहा मेरे बच्चे को मत ले जाओ। मत ले जाओ—– ऐसे कह कर रोने लगी। निर्दयों ने नीमा को धक्का मार कर जमीन पर गिरा दिया। नीमा फिर उठ कर पीछे दौड़ी तथा बालक कबीर जी का हाथ उनसे छुटवाने का प्रयत्न किया। एक व्यक्ति ने ऐसा थप्पड़ मारा नीमा के मुख व नाक से रक्त टपकने लगा। नीमा रोती हुई गली में अचेत हो गई। नीरू ने भी बच्चे को छुड़वाने की कोशिश की तो उसे भी पीट-2 कर मृत सम कर दिया। काॅलोनी वाले उठाकर उनके घर ले गए। बहुत समय पश्चात् दोनों सचेत हुए। बच्चे के वियोग में रो-2 कर दोनों का बुरा हाल था। नीरू चोट के कारण चल-फिरने में असमर्थ जमीन पर गिर कर विलाप कर रहा था। कभी चुप होकर भयभीत हुआ गली की ओर देख रहा था। मन में सोच रहा था कि कहीं वे लौट कर ना आ जाएँ तथा मुझे जान से न मार डालें। फिर बच्चे को याद करके विलाप करने लगता। मेरे बेटे को मत मारो-मत मारो इसने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा। ऐसे पागल जैसी स्थिति नीरू की हो गई थी। नीमा होश में आती थी फिर अपने बच्चे के साथ हो रहे अत्याचार की कल्पना कर बेहोश (अचेत) हो जाती थी। मोहल्ले (काॅलोनी) के स्त्राी पुरूष उनकी दशा देखकर अति दुःखी थे।

प्रातःकाल का समय था। स्वामी रामानन्द जी गंगा नदी पर स्नान करके लौटे ही थे। अपनी कुटिया (भ्नज) में बैठे थे। जब उन्हें पता चला कि उस बालक कबीर को पकड़ कर ऋषि विवेकानन्द जी की टीम ला रही है तो स्वामी रामानन्द जी ने अपनी कुटिया के द्वार पर कपड़े का पर्दा लगा लिया। यह दिखाने के लिए कि मैं पवित्रा जाति का ब्राह्मण हूँ तथा शुद्रों को दीक्षा देना तो दूर की बात है, सुबह-2 तो दर्शन भी नहीं करता।

ऋषि विवेकानन्द जी ने बालक कबीर देव जी को कुटिया के समक्ष खड़ा करके कहा हे गुरुदेव। यह रहा वह झूठा बच्चा कबीर जुलाहा। उस समय ऋषि विवेकानन्द जी ने अपने प्रचार क्षेत्रा के व्यक्तियों को विशेष कर बुला रखा था। यह दिखाने के लिए कि यह कबीर झूठ बोलता है। स्वामी रामानन्द जी कहेंगे मैंने इसको कभी दीक्षा नहीं दी। जिससे सर्व उपस्थित व्यक्तियों को यह बात जचेगी कि कबीर पुराणों के विषय में भी झूठ बोल रहा था जिन के बारे में कबीर जी ने लिखा बताया था कि श्री विष्णु जी, श्री शिव जी तथा ब्रह्मा जी नाशवान हैं। इनका जन्म होता है तथा मृत्यु भी होती है तथा इनकी माता का नाम प्रकृति देवी (दुर्गा) है तथा पिता का नाम सदाशिव अर्थात् काल ब्रह्म है। जिन हाथों से कबीर परमेश्वर को पकड़ कर लाए थे। उन सर्व व्यक्तियों ने अपने हाथ मिट्टी से रगड़-रगड़ कर धोए तथा सर्व उपस्थित व्यक्तियों के समक्ष बाल्टी में जल भर कर स्नान किया सर्व वस्त्र जो शरीर पर पहन रखे थे वे भी कूट-2 कर धोए।

स्वामी रामानन्द जी ने अपनी कुटिया के द्वार पर खड़े पाँच वर्षीय बालक कबीर से ऊँची आवाज में प्रश्न किया। हे बालक ! आपका क्या नाम है? कौन जाति में जन्म है? आपका भक्ति पंथ (मार्ग) कौन है? उस समय लगभग हजार की संख्या में दर्शक उपस्थित थे। बालक कबीर जी ने भी आधीनता से ऊँची आवाज में उत्तर दिया:-

जाति मेरी जगत्गुरु, परमेश्वर है पंथ। गरीबदास लिखित पढे, मेरा नाम निरंजन कंत।।
हे स्वामी सृष्टा मैं सृष्टि मेरे तीर। दास गरीब अधर बसूँ अविगत सत् कबीर।
गोता मारूं स्वर्ग में जा पैठंू पाताल। गरीब दास ढूंढत फिरू हीरे माणिक लाल।

भावार्थ:– कबीर जी ने कहा हे स्वामी रामानन्द जी! परमेश्वर के घर कोई जाति नहीं है। आप विद्वान पुरूष होते हुए वर्ण भेद को महत्त्व दे रहे हो। मेरी जाति व नाम तथा भक्ति पंथ जानना चाहते हो तो सुनों। मेरा नाम वही कविर्देव है जो वेदों में लिखा है जिसे आप जी पढ़ते हो। मैं वह निरंजन (माया रहित) कंत (सर्व का पति) अर्थात् सबका स्वामी हूँ। मैं ही सर्व सृष्टि रचनहार (सृष्टा) हूँ। यह सृष्टि मेरे ही आश्रित (तीर यानि किनारे) है। मैं ऊपर सतलोक में निवास करता हूँ। मैं वह अमर अव्यक्त (अविगत सत्) कबीर हूँ। जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक सं.20 से 22 में है। हे स्वामी जी गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में गीता ज्ञान दाता अर्थात् काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) अपने विषय में बताता है कि! यह मूर्ख मनुष्य समुदाय मुझ अव्यक्त को कृष्ण रूप में व्यक्ति मान रहे हैं। मैं सबके समक्ष प्रकट नहीं होता। यह मनुष्य समुदाय मेरे इस अश्रेष्ठ अटल नियम से अपरिचित हैं (24) गीता अ. 7 श्लोक 25 में कहा है कि मैं (गीता ज्ञान दाता) अपनी योगमाया (सिद्धिशक्ति) से छिपा हुआ अपने वास्तविक रूप में सबके समक्ष प्रत्यक्ष नहीं होता। यह अज्ञानी जन समुदाय मुझ कृष्ण व राम आदि की तरह माता से जन्म न लेने वाले प्रभु को तथा अविनाशी (जो अन्य अव्यक्त परमेश्वर है) को नहीं जानते।

हे स्वामी रामानन्द जी गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) ने अपने को अव्यक्त कहा है यह प्रथम अव्यक्त प्रभु हुआ। अब सुनो दूसरे तथा तीसरे अव्यक्त प्रभुओं के विषय में। गीता अध्याय 8 श्लोक 18-19 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य अव्यक्त परमात्मा का वर्णन किया है कहा है:- यह सर्व चराचर प्राणी दिन के समय अव्यक्त परमात्मा से उत्पन्न होते है रात्रि के समय उसी में लीन हो जाते हैं। यह जानकारी काल ब्रह्म ने अपने से अन्य अव्यक्त प्रभु (परब्रह्म) अर्थात् अक्षर ब्रह्म के विषय में दी है। यह दूसरा अव्यक्त (अविगत) प्रभु हुआ तीसरे अव्यक्त (अविगत) परमात्मा अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म के विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में कहा है कि जिस अव्यक्त प्रभु का गीता अध्याय 8 श्लोक 18-19 में वर्णन किया है वह पूर्ण प्रभु नहीं है। वह भी वास्तव में अविनाशी प्रभु नहीं है। परन्तु उस अव्यक्त (जिसका विवरण उपरोक्त श्लोक 18-19 में है) से भी अति परे दूसरा जो सनातन अव्यक्त भाव है वह परम दिव्य परमेश्वर सब भूतों (प्राणियों) के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। वह अक्षर अव्यक्त अविनाशी अविगत अर्थात् वास्तव में अविनाशी अव्यक्त प्रभु इस नाम से कहा गया है। उसी अक्षर अव्यक्त की प्राप्ति को परमगति कहते हैं। जिस दिव्य परम परमात्मा को प्राप्त होकर साधक वापस लौट कर इस संसार में नहीं आते (इसी का विवरण गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा श्लोक 16-17 में भी है) वह धाम अर्थात् जिस लोक (धाम) में वह अविनाशी (अव्यक्त) परमात्मा रहता है वह धाम (स्थान) मेरे वाले लोक (ब्रह्मलोक) से श्रेष्ठ है। हे पार्थ! जिस अविनाशी परमात्मा के अन्तर्गत सर्व प्राणी हैं। जिस सच्चिदानन्द घन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परमेश्वर तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है (गीता अ. 8/मं. 20,21,22) हे स्वामी रामानन्द जी मैं वही तीसरी श्रेणी वाला अविगत (अव्यक्त) सत् (सनातन अविनाशी भाव वाला परमेश्वर) कबीर हूँ। जिसे वेदों में कविर्देव कहा है वही कबीर देव मैं कहलाता हूँ।

हे स्वामी रामानन्द जी! सर्व सृष्टि को रचने वाला (सृष्टा) मैं ही हूँ। मैं ही आत्मा का आधार जगतगुरु जगत् पिता, बन्धु तथा जो सत्य साधना करके सत्यलोक जा चुके हैं उनको सत्यलोक पहुँचाने वाला मैं ही हूँ। काल ब्रह्म की तरह धोखा न देने वाले स्वभाव वाला कबीर देव (कर्विदेव) मैं ही हूँ। जिसका प्रमाण अर्थववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मन्त्र 7 में लिखा है।

काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र 7

योऽथर्वाणं पित्तरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्।
त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्वधावान्।।7।।

यः अथर्वाणम् पित्तरम् देवबन्धुम् बृहस्पतिम् नमसा अव च गच्छात् त्वम् विश्वेषाम् जनिता यथा सः कविर्देवः न दभायत् स्वधावान्

अनुवाद:– (यः) जो (अथर्वाणम्) अचल अर्थात् अविनाशी (पित्तरम्) जगत पिता (देव बन्धुम्) भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात् आत्मा का आधार (बृहस्पतिम्) बड़ा स्वामी अर्थात् परमेश्वर व जगत्गुरु (च) तथा (नमसाव) विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को सुरक्षा के साथ (गच्छात्) सतलोक गए हुओं को यानि जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनको सतलोक ले जाने वाला (विश्वेषाम्) सर्व ब्रह्माण्डों की (जनिता) रचना करने वाला जगदम्बा अर्थात् माता वाले गुणों से भी युक्त (न दभायत्) काल की तरह धोखा न देने वाले (स्वधावान्) स्वभाव अर्थात् गुणों वाला (यथा) ज्यों का त्यों अर्थात् वैसा ही (सः) वह (त्वम्) आप (कविर्देवः/ कविर्देवः) कविर्देव है अर्थात् भाषा भिन्न इसे कबीर परमेश्वर भी कहते हैं।

केवल हिन्दी अनुवाद:– जो अचल अर्थात् अविनाशी जगत पिता भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात् आत्मा का आधार बड़ा स्वामी अर्थात् परमेश्वर व जगत्गुरु तथा विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को सुरक्षा के साथ सतलोक गए हुओं को यानि जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनको सतलोक ले जाने वाला सर्व ब्रह्माण्डों की रचना करने वाला जगदम्बा अर्थात् माता वाले गुणों से भी युक्त काल की तरह धोखा न देने वाले स्वभाव अर्थात् गुणों वाला ज्यों का त्यों अर्थात् वैसा ही वह आप कविर्देव है अर्थात् भाषा भिन्न इसे कबीर परमेश्वर भी कहते हैं।

भावार्थ:– इस मंत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया कि उस परमेश्वर का नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है, जिसने सर्व रचना की है।

जो परमेश्वर अचल अर्थात् वास्तव में अविनाशी (गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में भी प्रमाण है) जगत् गुरु, परमेश्वर आत्माधार, जो पूर्ण मुक्त होकर सत्यलोक गए हैं यानि जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनको सतलोक ले जाने वाला, सर्व ब्रह्माण्डों का रचनहार, काल (ब्रह्म) की तरह धोखा न देने वाला ज्यों का त्यों वह स्वयं कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु है। यही परमेश्वर सर्व ब्रह्माण्डों व प्राणियों को अपनी शब्द शक्ति से उत्पन्न करने के कारण (जनिता) माता भी कहलाता है तथा (पित्तरम्) पिता तथा (बन्धु) भाई भी वास्तव में यही है तथा (देव) परमेश्वर भी यही है। इसलिए इसी कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की स्तूति किया करते हैं। त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या च द्रविणंम त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम् देव देव। इसी परमेश्वर की महिमा का पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं. 1 सूक्त नं. 24 में विस्तृत विवरण है।

पाँच वर्षीय बालक के मुख से वेदो व गीता जी के गूढ़ रहस्य को सुनकर ऋषि रामानन्द जी आश्चर्य चकित रह गए तथा क्रोधित होकर अपशब्द कहने लगे।

वाणीः-

रामानंद अधिकार सुनि, जुलहा अक जगदीश। दास गरीब बिलंब ना, ताहि नवावत शीश।।407।।
रामानंद कूं गुरु कहै, तनसैं नहीं मिलात। दास गरीब दर्शन भये, पैडे लगी जुं लात।।408।।
पंथ चलत ठोकर लगी, रामनाम कहि दीन। दास गरीब कसर नहीं, सीख लई प्रबीन।।409।।
आडा पड़दा लाय करि, रामानंद बूझंत। दास गरीब कुलंग छबि, अधर डांक कूदंत।।410।।
कौन जाति कुल पंथ है, कौन तुम्हारा नाम। दास गरीब अधीन गति, बोलत है बलि जांव।।411।।
जाति हमारी जगतगुरु, परमेश्वर पद पंथ। दास गरीब लिखति परै, नाम निंरजन कंत।।412।।
रे बालक सुन दुर्बद्धि, घट मठ तन आकार। दास गरीब दरद लग्या, हो बोले सिरजनहार।।413।।
तुम मोमन के पालवा, जुलहै के घर बास। दास गरीब अज्ञान गति, एता दृढ़ विश्वास।।414।।
मान बड़ाई छाड़ि करि, बोलौ बालक बैंन। दास गरीब अधम मुखी, एता तुम घट फैंन।।415।।
तर्क तलूसैं बोलतै, रामानंद सुर ज्ञान। दास गरीब कुजाति है, आखर नीच निदान।।423।।

परमेश्वर कबीर जी (कविर्देव) ने प्रेमपूर्वक उत्तर दिया –

महके बदन खुलास कर, सुनि स्वामी प्रबीन। दास गरीब मनी मरै, मैं आजिज आधीन।।428।।
मैं अविगत गति सैं परै, च्यारि बेद सैं दूर। दास गरीब दशौं दिशा, सकल सिंध भरपूर।।429।।
सकल सिंध भरपूर हूँ, खालिक हमरा नाम। दासगरीब अजाति हूँ, तैं जो कह्या बलि जांव।।430।।
जाति पाति मेरे नहीं, नहीं बस्ती नहीं गाम। दासगरीब अनिन गति, नहीं हमारै चाम।।431।।
नाद बिंद मेरे नहीं, नहीं गुदा नहीं गात। दासगरीब शब्द सजा, नहीं किसी का साथ।।432।।
सब संगी बिछरू नहीं, आदि अंत बहु जांहि। दासगरीब सकल वंसु, बाहर भीतर माँहि।।433।।
ए स्वामी सृष्टा मैं, सृष्टि हमारै तीर। दास गरीब अधर बसूं, अविगत सत्य कबीर।।434।।
पौहमी धरणि आकाश में, मैं व्यापक सब ठौर। दास गरीब न दूसरा, हम समतुल नहीं और।।436।।
हम दासन के दास हैं, करता पुरुष करीम। दासगरीब अवधूत हम, हम ब्रह्मचारी सीम।।439।।
सुनि रामानंद राम हम, मैं बावन नरसिंह। दास गरीब कली कली, हमहीं से कृष्ण अभंग।।440।।
हमहीं से इंद्र कुबेर हैं, ब्रह्मा बिष्णु महेश। दास गरीब धर्म ध्वजा, धरणि रसातल शेष।।447।।
सुनि स्वामी सती भाखहूँ, झूठ न हमरै रिंच। दास गरीब हम रूप बिन, और सकल प्रपंच।।453।।
गोता लाऊं स्वर्ग सैं, फिरि पैठूं पाताल। गरीबदास ढूंढत फिरूं, हीरे माणिक लाल।।476।।
इस दरिया कंकर बहुत, लाल कहीं कहीं ठाव। गरीबदास माणिक चुगैं, हम मुरजीवा नांव।।477।।
मुरजीवा माणिक चुगैं, कंकर पत्थर डारि। दास गरीब डोरी अगम, उतरो शब्द अधार।।478।।

स्वामी रामानन्द जी ने कहाः– अरे कुजात! अर्थात् शुद्र! छोटा मुंह बड़ी बात, तू अपने आपको परमात्मा कहता है। तेरा शरीर हाड़-मांस व रक्त निर्मित है। तू अपने आपको अविनाशी परमात्मा कहता है। तेरा जुलाहे के घर जन्म है फिर भी अपने आपको अजन्मा अविनाशी कहता है तू कपटी बालक है। परमेश्वर कबीर जी ने कहाः-

ना मैं जन्मु ना मरूँ, ज्यों मैं आऊँ त्यों जाऊँ। गरीबदास सतगुरु भेद से लखो हमारा ढांव।।
सुन रामानन्द राम मैं, मुझसे ही बावन नृसिंह। दास गरीब युग-2 हम से ही हुए कृष्ण अभंग।।

भावार्थः- कबीर जी ने उत्तर दिया हे रामानन्द जी, मैं न तो जन्म लेता हूँ ? न मृत्यु को प्राप्त होता हूँ। मैं चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों में आने (जन्म लेने) व जाने (मृत्यु होने) के चक्र से भी रहित हूँ। मेरी विशेष जानकारी किसी तत्त्वदर्शी सन्त (सतगुरु) के ज्ञान को सुनकर प्राप्त करो। गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10-13 में वेद ज्ञान दाता स्वयं कह रहा है कि उस पूर्ण परमात्मा के तत्व (वास्तविक) ज्ञान से मैं अपरिचित हूँ। उस तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी सन्तों से सुनों उन्हें दण्डवत् प्रणाम करो, अति विनम्र भाव से परमात्मा के पूर्ण मोक्ष मार्ग के विषय में ज्ञान प्राप्त करो, जैसी भक्ति विधि से तत्त्वदृष्टा सन्त बताएँ वैसे साधना करो। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में लिखा है कि श्लोक 16 में जिन दो पुरूषों (भगवानों) 1. क्षर पुरूष अर्थात् काल ब्रह्म तथा 2. अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म का उल्लेख है, वास्तव में अविनाशी परमेश्वर तथा सर्व का पालन पोषण व धारण करने वाला परमात्मा तो उन उपरोक्त दोनों से अन्य ही है। हे स्वामी रामानन्द जी! वह उत्तम पुरूष अर्थात् सर्व श्रेष्ठ प्रभु मैं ही हूँ। इस बात को सुनकर स्वामी रामानन्द जी बहुत क्षुब्ध हो गए तथा कहा कि रे बालक! तू निम्न जाति का और छोटा मुँह बड़ी बात कर रहा है। तू अपने आप भगवान बन बैठा। बुरी गालियाँ भी दी। कबीर साहेब बोले कि गुरुदेव! आप मेरे गुरुजी हैं। आप मुझे गाली दे रहे हो तो भी मुझे आनन्द आ रहा है। लेकिन मैं जो आपको कह रहा हूँ, मैं ज्यों का त्यों पूर्णब्रह्म ही हूँ, इसमें कोई संशय नहीं है। इस बात को सुनकर रामानन्द जी ने कहा कि ठहर जा तेरी तो लम्बी कहानी बनेगी, तू ऐसे नहीं मानेगा। मैं पहले अपनी पूजा कर लेता हूँ। रामानन्द जी ने कहा कि इसको बैठाओ। मैं पहले अपनी कुछ क्रिया रहती है वह कर लेता हूँ, बाद में इससे निपटूंगा। स्वामी रामानन्द जी क्या क्रिया करते थे?

भगवान विष्णु जी की एक काल्पनिक मूर्ति बनाते थे। सामने मूर्ति दिखाई देने लग जाती थी (जैसे कर्मकाण्ड करते हैं, भगवान की मूर्ति के पहले वाले सारे कपड़े उतार कर, उनको जल से स्नान करवा कर, फिर स्वच्छ कपड़े भगवान ठाकुर को पहना कर गले में माला डालकर, तिलक लगा कर मुकुट रख देते हैं।) रामानन्द जी कल्पना कर रहे थे। कल्पना करके भगवान की काल्पनिक मूर्ति बनाई। श्रद्धा से जैसे नंगे पैरों जाकर आप ही गंगा जल लाए हों, ऐसी अपनी भावना बना कर ठाकुर जी की मूर्ति के कपड़े उतारे, फिर स्नान करवाया तथा नए वस्त्रा पहना दिए। तिलक लगा दिया, मुकुट रख दिया और माला (कण्ठी) डालनी भूल गए। कण्ठी न डाले तो पूजा अधूरी और मुकुट रख दिया तो उस दिन मुकुट उतारा नहीं जा सकता। उस दिन मुकुट उतार दे तो पूजा खण्डित। स्वामी रामानन्द जी अपने आपको कोस रहे हैं कि इतना जीवन हो गया मेरा कभी, भी ऐसी गलती जिन्दगी में नहीं हुई थी। प्रभु आज मुझ पापी से क्या गलती हुई है? यदि मुकुट उतारूँ तो पूजा खण्डित। उसने सोचा कि मुकुट के ऊपर से कण्ठी (माला) डाल कर देखता हूँ (कल्पना से कर रहे हैं कोई सामने मूर्ति नहीं है और पर्दा लगा है कबीर साहेब दूसरी ओर बैठे हैं)। मुकुट में माला फँस गई है आगे नहीं जा रही थी। जैसे स्वपन देख रहे हों। रामानन्द जी ने सोचा अब क्या करूं? हे भगवन्! आज तो मेरा सारा दिन ही व्यर्थ गया। आज की मेरी भक्ति कमाई व्यर्थ गई (क्योंकि जिसको परमात्मा की कसक होती है उसका एक नित्य नियम भी रह जाए तो उसको पश्चाताप बहुत होता है। जैसे इंसान की जेब कट जाए और फिर बहुत पश्चाताप करता है। प्रभु के सच्चे भक्तों को इतनी लगन होती है।) इतने में बालक रूपधारी कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि स्वामी जी माला की घुण्डी खोलो और माला गले में डाल दो। फिर गाँठ लगा दो, मुकुट उतारना नहीं पड़ेगा। रामानन्द जी काहे का मुकुट उतारे था, काहे की गाँठ खोले था। कुटिया के सामने लगा पर्दा भी स्वामी रामानन्द जी ने अपने हाथ से फैंक दिया और ब्राह्मण समाज के सामने उस कबीर परमेश्वर को सीने से लगा लिया। रामानन्द जी ने कहा कि हे भगवन् ! आपका तो इतना कोमल शरीर है जैसे रूई हो। आपके शरीर की तुलना में मेरा तो पत्थर जैसा शरीर है। एक तरफ तो प्रभु खड़े हैं और एक तरफ जाति व धर्म की दीवार है। प्रभु चाहने वाली पुण्यात्माएँ धर्म की बनावटी दीवार को तोड़ना श्रेयस्कर समझते हैं। वैसा ही स्वामी रामानन्द जी ने किया। सामने पूर्ण परमात्मा को पा कर न जाति देखी न धर्म देखा, न छूआ-छात, केवल आत्म कल्याण देखा। इसे ब्राह्मण कहते हैं।

बोलत रामानंदजी, हम घर बड़ा सुकाल। गरीबदास पूजा करैं, मुकुट फही जदि माल।।
सेवा करौं संभाल करि, सुनि स्वामी सुर ज्ञान। गरीबदास शिर मुकुट धरि,माला अटकी जान।।
स्वामी घुंडी खोलि करि, फिरि माला गल डार। गरीबदास इस भजन कूं, जानत है करतार।।
ड्यौढी पड़दा दूरि करि, लीया कंठ लगाय। गरीबदास गुजरी बौहत, बदनैं बदन मिलाय।।
मनकी पूजा तुम लखी, मुकुट माल परबेश। गरीबदास गति को लखै, कौन वरण क्या भेष।।
यह तौ तुम शिक्षा दई, मानि लई मनमोर। गरीबदास कोमल पुरूष, हमरा बदन कठोर।।

कबीर देव द्वारा ऋषि रामानन्द के आश्रम में दो रूप धारण करना

स्वामी रामानन्द जी ने परमेश्वर कबीर जी से कहा कि ‘‘आपने झूठ क्यों बोला?’’ कबीर परमेश्वर जी बोले! कैसा झूठ स्वामी जी? स्वामी रामानन्द जी ने कहा कि आप कह रहे थे कि आपने मेरे से नाम ले रखा है। आपने मेरे से उपदेश कब लिया? बालक रूपधारी कबीर परमेश्वर जी बोले एक समय आप स्नान करने के लिए पँचगंगा घाट पर गए थे। मैं वहाँ लेटा हुआ था। आपके पैरों की खड़ाऊँ मेरे सिर में लगी थी! आपने कहा था कि बेटा राम नाम बोलो। रामानन्द जी बोले-हाँ, अब कुछ याद आया। परन्तु वह तो बहुत छोटा बच्चा था (क्योंकि उस समय पाँच वर्ष की आयु के बच्चे बहुत बड़े हो जाया करते थे तथा पाँच वर्ष के बच्चे के शरीर तथा ढ़ाई वर्ष के बच्चे के शरीर में दुगुना अन्तर हो जाता है)। कबीर परमेश्वर जी ने कहा स्वामी जी देखो, मैं ऐसा था। स्वामी रामानन्द जी के सामने भी खड़े हैं और एक ढाई वर्षीय बच्चे का दूसरा रूप बना कर किसी सेवक की वहाँ पर चारपाई बिछी थी उसके ऊपर विराजमान हो गए। रामानन्द जी ने छः बार तो इधर देखा और छः बार उधर देखा। फिर आँखें मलमल कर देखा कि कहीं तेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। इस प्रकार देख ही रहे थे कि इतने में कबीर परमेश्वर जी का छोटे वाला रूप हवा में उड़ा और कबीर परमेश्वर जी के बड़े पाँच वर्ष वाले स्वरूप में समा गया। पाँच वर्ष वाले स्वरूप में कबीर परमेश्वर जी रह गए।

रामानन्द जी बोले कि मेरा संशय मिट गया कि आप ही पूर्ण ब्रह्म हो। हे परमेश्वर! आपको कैसे पहचान सकते हैं। आप किस जाति में उत्पन्न तथा कैसी वेश भूषा में खड़े हो। हम अज्ञानी प्राणी आप के साथ वाद-विवाद करके दोषी हो गए, क्षमा करना परमेश्वर कविर्देव, मैं आपका अनजान बच्चा हूँ। रामानन्द जी ने फिर अपनी अन्य शंकाओं का निवारण करवाया।

शंका:– हे कविर्देव! मैं राम-राम कोई मन्त्रा शिष्यों को जाप करने को नहीं देता। यदि आपने मुझसे दीक्षा ली है तो वह मन्त्रा बताईए जो मैं शिष्य को जाप करने को देता हूँ। उत्तर कबीर देव का:- हे स्वामी जी! आप ओम् नाम जाप करने को देते हो तथा ओ3म् भगवते वासुदेवाय नमः का जाप तथा विष्णु स्त्रोत की आवर्ती की भी आज्ञा देते हो। शंका:- आपने जो मन्त्रा बताया यह तो सही है। एक शंका और है उसका भी निवारण कीजिए। मैं जिसे शिष्य बनाता हूँ उसे एक चिन्ह देता हूँ। वह आपके पास नहीं है।

उत्तर:– बन्दी छोड़ कबीर देव बोले हे गुरुदेव! आप तुलसी की लकड़ी के एक मणके की कण्ठी (माला) गले में पहनने के लिए देते हो। यह देखो गुरु जी उसी दिन आपने अपनी कण्ठी गले से निकाल कर मेरे गले में पहनाई थी। यह कहते हुए कविर्देव ने अपने कुर्ते के नीचे गले में पहनी वही कण्ठी (माला) सार्वजनिक कर दी तथा कहा कि आप स्वर्ग में जाने की इच्छा का त्याग करो। मेरा ज्ञान सुनो। सनातन परम धाम में जाने की साधना करो।

वाणी नं. 485:-

ए स्वामी तुम स्वर्ग की, छांडौ आशा रीति। गरीबदास तुम कारणैं, उतरे शब्दातीत।।485।।

स्वामी रामानंद जी ने कहा:- (पारख के अंग की वाणी नं. 486-499)

सुनि बच्चा में स्वर्ग की कैसैं छांडौं रीति। गरीबदास गुदरी लगी, जनम जात है बीत।।486।।
च्यारि मुक्ति बैकुंठ में, जिन की मोरै चाह। गरीबदास घर अगम की, कैसैं पाऊं थाह।।487।।
हेम रूप जहाँ धरणि है, रतन जड़े बौह शोभ। गरीबदास बैकुंठ कूं, तन मन हमरा लोभ।।488।।
शंख चक्र गदा पदम हैं, मोहन मदन मुरारि। गरीबदास मुरली बजै, सुरगलोक दरबारि।।489।।
दूधौं की नदियां बगैं, सेत वृक्ष सुभांन। गरीबदास मंदल मुक्ति, सुरगापुर अस्थान।।490।।
रतन जड़ाऊ मनुष्य हैं, गण गंधर्व सब देव। गरीबदास उस धाम की, कैसे छाडूं सेव।।491।।
ऋग युज साम अथर्वणं, गावैं चारौं बेद। गरीबदास घर अगम का, कैसे जानो भेद।।492।।
च्यारि मुक्ति चितवन लगी, कैसैं बंचूं ताहि। गरीबदास गुप्तारगति, हमकूं द्यौ समझाय।।493।।
सुरग लोक बैकुंठ है, यासैं परै न और। गरीबदास षट्शास्त्रा, च्यारि बेदकी दौर।।494।।
च्यारि बेद गावैं तिसैं, सुरनर मुनि मिलाप। गरीबदास धु्रव पोर जिस, मिटि गये तीनूं ताप।।495।।
प्रहलाद गये तिस लोककूं, सुरगा पुरी समूल। गरीबदास हरि भक्ति की, मैं बंचत हूं धूल।।496।।
बिंद्रावन खेले सही, रज केसर समतूल। गरीबदास उस मुक्ति कूं, कैसैं जाऊं भूल।।497।।
नारद ब्रह्मा जिस रटैं, गावैं शेष गणेश। गरीबदास बैकुंठ सैं, और परै को देश।।498।।
सहंस अठासी जिस जपैं, और तेतीसौं सेव। गरीबदास जासैं परै, और कौन है देव।।499।।

वाणी नं. 486-499 का सरलार्थ:– स्वामी रामानंद जी ने कहा कि हे बच्चा! मैं 104 वर्ष का वृद्ध हो चुका हूँ। सारा जीवन स्वर्ग प्राप्ति की साधना करके व्यतीत कर दिया। अब स्वर्ग जाने की आशा कैसे त्यागूँ? बताते हैं कि स्वर्ग में चार मुक्ति प्राप्त होती हैं। मुझे उनकी प्राप्ति की इच्छा है। जो इससे आगे वाले स्थान (अगम घर) सतलोक का (थाह) अंत कैसे प्राप्त करूँ? मेरा तो जीवन अंत होने वाला है। विष्णु जी के लोक की धरती (हेम) हिम यानि बर्फ जैसी सफेद है। रत्न स्थान-स्थान पर लगे हैं जो स्वर्ग की शोभा बढ़ा रहे हैं। श्री कृष्ण मनमोहन यानि श्री विष्णु जी चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पदम लिए हैं। उस स्वर्ग लोक में श्री कृष्ण जी मुरली बजाते हैं। स्वर्ग लोक में दूधों की नदियां बहती हैं। सब वृक्ष (सेत) सफेद हैं, (सुभान) उत्तम हैं। सब मनुष्यों के शरीर में स्थान-स्थान पर तिल के स्थान पर रत्न लगे हैं। गण, गंधर्व तथा सब देवताओं के शरीरों पर भी लाल लगे हैं। उस सुंदर स्वर्ग धाम की (सेव) भक्ति कैसे छोड़ूँ? ऋग, यजु, साम, अथर्वण, ये चारों वेद स्वर्ग तक का ज्ञान देते हैं। उस (अगम घर) सतलोक का भेद मैं कैसे जानूँ? स्वर्ग लोक यानि बैकुण्ठ से परे और कौन-सा देश (लोक) है? मुझे अच्छी तरह समझा। मुझे चार मुक्तियों की (चितवन) लगन लगी है। उसे कैसे छोड़ूँ? चार वेद और (षट्) छः शास्त्रों की दौड़ तो स्वर्ग तक ही है यानि इनमें तो स्वर्ग तक का ज्ञान है। ध्रुव भी स्वर्ग में गया। प्रहलाद भी स्वर्ग में गया। मैं भी उसी भगवान विष्णु की भक्ति करके स्वर्ग जाने की इच्छा कर रहा हूँ। वृंदावन (मथुरा) में श्री कृष्ण रूप में (खेले) रास किया। हमारे लिए उस स्थान की
(रज) धूल तो केसर के समान है। हे कबीर जी! उस स्वर्ग जाने वाली मुक्ति को कैसे भूल जाऊँ? नारद मुनि जी, अठासी हजार ऋषि, ब्रह्मा जी, शेष, गणेश आदि स्वर्ग का गुणगान करते हैं। इससे (परे) अन्य कौन-सा देश हो सकता है? तेतीस करोड़ देवता, अठासी हजार ऋषि भी श्री विष्णु की पूजा करते हैं। इससे (परै) अन्य कौन प्रभु हो सकता है?

बालक रूप परमात्मा कबीर जी ने कहा:- (पारख के अंग की वाणी नं. 500-567)

सुनि स्वामी निज मूल गति, कहि समझाऊं तोहि। गरीबदास भगवान कूं, राख्या जगत समोहि।।500।।
तीनि लोक के जीव सब, विषय वास भरमाय। गरीबदास हमकूं जपैं, तिसकूं धाम दिखाय।।501।।
जो देखैगा धाम कूं, सो जानत है मुझ। गरीबदास तोसैं कहंू, सुनि गायत्राी गुझ।।502।।
कृष्ण बिष्णु भगवान कूं, जहडायंे हैं जीव। गरीबदास त्रिलोक में, काल कर्म शिर शीव।।503।।
सुनि स्वामी तोसैं कहूं, अगम दीप की सैल। गरीबदास पूठे परंे, पुस्तक लादें बैल।।504।।
पौहमी धरणि अकाश थंभ, चलसी चंदर सूर। गरीबदास रज बिरजकी, कहाँ रहैगी धूर।।505।।
तारायण त्रिलोक सब, चलसी इन्द्र कुबेर। गरीबदास सब जात हैं, सुरग पाताल सुमेर।।506।।
च्यारि मुक्ति बैकुंठ बट, फना हुआ कई बार। गरीबदास सतलोक को, नहीं जानैं संसार।।507।।
कहौ स्वामी कित रहौगे, चैदा भुवन बिहंड। गरीबदास बीजक कह्या, चलत प्राण और पिंड।।508।।
सुन स्वामी एक शक्ति है, अरधंगी ¬कार। गरीबदास बीजक तहां, अनेक लोक सिंघार।।509।।
जैसेका तैसा रहै, परलो फना प्रान। गरीबदास उसकी शक्तिकूं, बार बार कुरबांन।।510।।
कोटि इन्द्र ब्रह्मा जहाँ, कोटि कृष्ण कैलास। गरीबदास शिब कोटि हैं, करौ कौंन की आश।।511।।
कोटि बिष्णु जहाँ बसत हैं, उस शक्ति के धाम। गरीबदास गुल बौहत हैं, अलफ बस्त निहकाम।।512।।
शिब शक्ति जासै हुए, अनंत कोटि अवतार। गरीबदास उस अलफकूं, लखै सो होय करतार।।513।।
सतपुरूष हम स्वरूप है, तेज पुंज का कंत। गरीबदास गुलसैं परै, चलना है बिन पंथ।।514।।
बिना पंथ उस कंतकै, धाम चलन है मोर। गरीबदास गति ना किसी, संख सुरग पर डोर।।515।।
संख सुरगपर हम बसैं, सुनि स्वामी यह सैंन। गरीबदास हम सतपुरूष हैं, यौह गुल फोकट फैंन।।516।।
जो तैं कहया सौ मैं लह्या बिन देखैं नहीं धीज। गरीबदास स्वामी कहै, कहाँ अलफ वह बीज।।517।।
अनंत कोटि ब्रह्मांड फणा, अनंत कोटि उदगार। गरीबदास स्वामी कहै, कहां अलफ दीदार।।518।।
हद बेहद कहीं ना कहीं, ना कहीं थरपी ठौर। गरीबदास निज ब्रह्मकी, कौंन धाम वह पौर।।519।।
चल स्वामी सर पर चलैं, गंग तीर सुन ज्ञान। गरीबदास बैकुंठ बट, कोटि कोटि घट ध्यान।।520।।
तहां कोटि वैकुंठ हैं, नक सरबर संगीत। गरीबदास स्वामी सुनों, जात अनन्त जुग बीत।521।।
प्राण पिंड पुरमें धसौ, गये रामानंद कोटि। गरीबदास सर सुरग में, रहौ शब्दकी ओट।।522।।
तहां वहाँ चित चक्रित भया, देखि फजल दरबार। गरीबदास सिजदा किया, हम पाये दीदार।।523।।
तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि, भर्म कर्म किये नाश। गरीबदास निज ब्रह्म तुम, हमरै दृढ़ बिश्बास।।524।।
सुन्न-बेसुन्न सें तुम परै, उरैं स हमरै तीर। गरीबदास सरबंग में, अबिगत पुरूष कबीर।।525।।
कोटि कोटि सिजदे करैं, कोटि कोटि प्रणाम। गरीबदास अनहद अधर, हम परसैं तुम धाम।।526।।
सुनि स्वामी एक गल गुझ, तिल तारी पल जोरि। गरीबदास सर गगन में, सूरज अनंत करोरि।।527।।
सहर अमान अनन्तपुर, रिमझिम रिमझिम होय। गरीबदास उस नगर का, मरम न जानैं कोय।।528।।
सुनि स्वामी कैसैं लखौ, कहि समझाऊं तोहि। गरीबदास बिन पर उड़ैं, तन मन शीश न होय।।529।।
रवनपुरी एक चक्र है, तहाँ धनंजय बाय। गरीबदास जीते जन्म, याकूँ लेत समाय।।530।।
आसन पदम लगायकरि, भिरंग नादकौं खैंचि। गरीबदास अचवन करै, देवदत्त को ऐंचि।।531।।
काली ऊन कुलीन रंग, जाकै दो फुन धार। गरीबदास कुरंभ शिर, तास करे उद्गार।।532।।
चिस्में लाल गुलाल रंग, तीनि गिरह नभ पेच। गरीबदास वह नागनी, हौंन न देवैं रेच।।533।।
कुंभक रेचक सब करें, ऊन करत उदगार। गरीबदास उस नागनी कूँ, जीतै कोई खिलार।।534।।
कुंभ भरै रेचक करै, फिर टूटत हैं पौंन। गरीबदास मण्डल गगन, नहीं होत है रौंन।। 535।।
आगे घाटी बंद है, इंगला-पिंगला दोय। गरीबदास सुषमन खुले, तास मिलावा होय।।536।।
चंदा कै घर सूर रखि, सूरज कै घर चंद। गरीबदास मधि महल है, तहाँ वहाँ अजब आनन्द।।537।।
त्रिवेणी का घाट है, गंग जमन गुपतार। गरीबदास परबी परखि, तहाँ सहंस मुख धार।।538।।
मध्य किवारी ब्रह्मदर, वाह खोलत नहीं कोय। गरीबदास सब जोग की, पैज पीछौड़ी होय।।539।।
आसन संपट सुधि करि, गुफा गिरद गति ढोल। गरीबदास पल पालड़ै, हीरे मानिक तोल।।540।।
पान अपान समान सुध, मंदा चल महकंत। गरीबदास ठाढी बगै, तो दीपक बाति बुंझत।।541।।
ज्यूंका त्यूंही बैठि रहो, तजि आसन सब जोग। गरीबदास पल बीच पद, सर्व सैल सब भोग।।542।।
घंटा टुटै ताल भंग, संख न सुनिए टेर। गरीबदास मुरली मुक्ति, सुनि चढ़ी हंस सुमेर।।543।।
खुल्है खिरकी सहज धुनि, दम नहीं खैंचि अतीत। गरीबदास एक सैंन है, तजि अनभय छंद गीत।।544।।
धीरैं धीरैं दाटी हैं, सुरग चढैंगे सोय। गरीबदास पग पंथ बिन, ले राखौं जहां तोय।।545।।
सुन स्वामी सीढी बिना, चढौं गगन कैलास। गरीबदास प्राणायाम तजि, नाहक तोरत श्वास।।546।।
गली गली गलतान है, सहर सलेमाबाद। गरीबदास पल बीचमैं, पूरण करौं मुराद।।547।।
पनग पलक नीचै करौ, ता मुख सहंस शरीर। गरीबदास सूक्ष्म अधरि, सूरति लाय सर तीर।।548।।
सुनि स्वामी यह गति अगम, मनुष्य देवसैं दूर। गरीबदास ब्रह्मा विष्णु थके, किन्हैं न पाया मूर।।549।।
मूल डार जाकै नहीं, है सो अनिन अरंग। गरीबदास मजीठ चलि, ये सब लोक पतंग।।550।।
सुतह सिधि परकाशिया, कहा अरघ असनान। गरीबदास तप कोटि जुग, पचि हारे सुर ज्ञान।।551।।
कोटि कोटि बैकुंठ हैं, कोटि कोटि शिब शेष। गरीबदास उस धाम में, ब्रह्मा कोटि नरेश।।552।।
अवादान अमानपुर, चलि स्वामी तहां चाल। गरीबदास परलो अनंत, बौहरि न झंपै काल।।553।।
अमर चीर तहां पहरि है, अमर हंस सुख धाम। गरीबदास भोजन अजर, चल स्वामी निजधाम।।554।।
सतलोक को देखकर, जाना परम प्रभु का भेव। गरीबदास यह धाणका है, सब देवन का देव।।555।।
बोलत रामानंदजी, सुन कबीर करतार। गरीबदास सब रूप में, तुमहीं बोलन हार।।556।।
तुम साहिब तुम संत हौ, तुम सतगुरू तुम हंस। गरीबदास तुम रूप बिन और न दूजा अंस।।557।।
मैं भगता मुक्ता भया, किया कर्म कुन्द नाश। गरीबदास अबिगत मिले, मेटी मन की बास।।558।।
दोहूं ठौर है एक तूं, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणैं, उतरे हो मघ जोय।।559।।
बोलै रामानंद जी, सुनौं कबीर सुभांन। गरीबदास मुक्ता भये, उधरे पिंड अरु प्राण।।560।।
मैं नगदी बानी कहूं, जिनसी राखी झांपि। गरीबदास इस महलमें, नाभ नासिका मापि।।561।।
नाकी परि झांखी लगी, झांखी बीच द्वार। गरीबदास उस महल चढि, उतरे पेलैं पार।।562।।
गोष्टी रामानंद सैं, काशी नगर मंझार। गरीबदास जिंद पीरके, हम पाये दीदार।।563।।
सुन स्वामी तोसौं कहूं, पूरब जन्मकी बात। गरीबदास बीतै तुझै, चेला आत्म घात।।564।।
मुसलमान के दीनमें, कुल पठान आवंत। गरीबदास तो परि सजै, तनहि तेग धावंत।।565।।
नबै बरस निदानि है, सिख सैदक शर घालि। गरीबदास या साच है, लगै पदममें भालि।।566।।
भालि लगै मिसरी बगै, सुन स्वामी यह साच। गरीबदास पद में मिलैं, मेटै तन का नांच।।567।।

सरलार्थ:– कबीर परमात्मा ने बताया है कि हे स्वामी जी! आपको (मूल गति) मुख्य स्थिति बताता हूँ। इस श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण ने सब जीवों को (समोहि) सम्मोहित कर रखा है। तीन लोक के सब जीवों को विषय-वासनाओं में भटका रखा है। जो मेरे को (कबीर जी को) जपेगा, उसे सतलोक धाम दिखाऊँगा। जो मेरे सतलोक धाम को देखेगा, वही मुझे परमात्मा मानेगा। मैं आप से यह (गुझ) गुप्त गहरी यानि निज बात बता रहा हूँ। श्री कृष्ण उर्फ विष्णु भगवान ने जीवों को (जहड़ाया) मोह फांस में फंसा रखा है। तीन लोक (स्वर्ग, पाताल तथा पृथ्वी) में कर्मों के भोग भोगने पड़ते हैं। काल ब्रह्म द्वारा कर्म लगाए गए हैं। काल कर्म यानि काल के कर्मों का जीव के सिर पर (शीव) दंड है। हे स्वामी रामानंद जी, सुनो! आपको (अगम दीप) सतलोक को जाने का मार्ग बताता हूँ। जो शास्त्रार्थ करने के उद्देश्य से बैलों के ऊपर शास्त्रा लादकर लिए फिरते हैं, उनको शास्त्रों का ही ठीक से ज्ञान नहीं है। वे भी (पूठे परें) वापिस जन्म-मरण के चक्र में गिरते हैं। धरती, आकाश, चांद, सूर्य, तारे, तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल लोक) चलेंगे यानि नष्ट होंगे। आप स्वर्ग जाना चाहते हो। आपके (रज-बिरज) माता-पिता से बने शरीर की (धूर) धूल (यानि जलकर राख बन जाएगी) कहाँ बचेगी? ये चार मुक्ति जो स्वर्ग में प्राप्त होती हैं, वह स्वर्ग ही कई बार (फना) नष्ट हो चुका है। सतलोक को यह संसार नहीं जानता। हे स्वामी जी! जब चैदह लोक नष्ट होंगे, तब आप कहाँ रहोगे? शरीर भी नष्ट होगा। कहाँ आपका मोहन मुरारी रहेगा?

हे स्वामी जी! सुनो, एक काल ब्रह्म की शक्ति है जो उसकी (अरधंगी) पत्नी प्रकृति देवी है। वह अनेकों लोकों को नष्ट कर देती है।

एक परम शक्ति सतपुरूष है। उसकी शरण में जो सतलोक में है, वह प्रलय में कभी नष्ट नहीं होता। उस शक्ति पर बार-बार कुर्बान। सतलोक में करोड़ों कृष्ण यानि विष्णु, करोड़ों शंकर, करोड़ों ब्रह्मा, करोड़ों इन्द्र हैं याानि इन देवताओं जैसी शक्ति वाले सब हंस हैं। शिव, विष्णु तथा ब्रह्मा की आत्मा उसी सतपुरूष ने उत्पन्न की है। सतपुरूष मेरे स्वरूप जैसा है। उसका शरीर तेजपुंज का है। हे स्वामी जी! मैं ही सतपुरूष हूँ, बाकी झूठा शोर है। मैं शंख स्वर्गों से उत्तम धाम सतलोक में निवास करता हूँ।

स्वामी रामानंद जी ने कहा कि हे कबीर जी! उस स्थान (परम धाम) को यदि एक बार दिखा दे तो मन शान्त हो जाएगा। मैं वर्षों से ध्यान योग अर्थात् हठयोग करता हूँ। मैं समाधिस्थ होकर आकाश में बहुत ऊपर तक सैर कर आता हूँ। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है स्वामी जी! आप समाधिस्थ होइए।

वाणी नं. 529-541 में कमलों को हठयोग से खोलने की विधि बताई है। कहीं रामानंद को भ्रम न रह जाए कि कबीर जी को योगियों वाली क्रियाओं का ज्ञान नहीं है। सारा कुछ बताकर वाणी नं. 542 में कह दिया कि इस हठयोग से सतलोक नहीं जाया जा सकता। ज्यों का त्यों ही बैठे रहो। सामान्य तरीके से बैठे रहो। सब योग आसन त्याग दो। सच्चे नामों का जाप करो। सर्व सुख तथा मोक्ष मिलेगा।

स्वामी रामानन्द जी का हठयोग ध्यान (मैडिटेशन) करना नित्य का अभ्यास था तुरन्त ही समाधिस्थ हो गए। समाधि दशा में स्वामी जी की सूरति (ध्यान) त्रिवेणी तक जाती थी। त्रिवेणी पर तीन रास्ते हो जाते हैं। बायां रास्ता धर्मराज के लोक तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी के लोकों तथा स्वर्ग लोक आदि को जाता है। दायाँ रास्ता अठासी हजार खेड़ों (नगरियों) की ओर जाता है। सामने वाला रास्ता ब्रह्म लोक को जाता है। वह ब्रह्मरंद्र भी कहा जाता है। स्वामी रामानन्द जी कई जन्मों से साधना करते हुए आ रहे थे। इस कारण से इनका ध्यान तुरन्त लग जाता था। बालक रूपधारी परमेश्वर कबीर जी स्वामी रामानन्द जी को ध्यान में आगे मिले तथा वहाँ का सर्व भेद रामानन्द जी को बताया। हे स्वामी जी! आप की भक्ति साधना कई जन्मों की संचित है। जिस समय आप शरीर त्याग कर जाओगे इस बाएँ रास्ते से जाओगे इस रास्ते में स्वचालित द्वार (एटोमैटिक खुलने वाले गेट) लगे है। जिस साधक की जिस भी लोक की साधना होती है। वह धर्मराय के पास जाकर अपना लेखा (।बबवनदज) करवाकर इसी रास्ते से आगे चलता है। उसी लोक का द्वार अपने आप खुल जाता है। वह द्वार तुरन्त बन्द हो जाता है। वह प्राणी पुनः उस रास्ते से लौट नहीं सकता। उस लोक में समय पूरा होने के पश्चात् पुनः उसी मार्ग से धर्मराज के पास आकर कर्मों के अनुसार अन्य जीवन प्राप्त करता है।

धर्मराय का लोक भी उसी बाई और जाने वाले रास्ते में सर्व प्रथम है। उस धर्मराज के लोक में प्रत्येक की भक्ति अनुसार स्थान तय होता है। आप (स्वामी रामानन्द) जी की भक्ति का आधार विष्णु जी का लोक है। आप अपने पुण्यों को इस लोक में समाप्त करके पुनः पृथ्वी लोक पर शरीर धारण करोगे। यह हरहट के कूएं जैसा चक्र आपकी साधना से कभी समाप्त नहीं होगा। यह जन्म मृत्यु का चक्र तो केवल मेरे द्वारा बताए तत्त्वज्ञान द्वारा ही समाप्त होना सम्भव है। परमेश्वर कबीर जी ने फिर कहा हे स्वामी जी! जो सामने वाला द्वार है यह ब्रह्मरन्द्र है। यह वेदों में लिखे किसी भी मन्त्रा जाप से नहीं खुलता यह तो मेरे द्वारा बताए सत्यनाम (जो दो मन्त्र का होता है एक ॐ मन्त्र तथा दूसरा तत् यह तत् सांकेतिक है वास्तविक नाम मन्त्रा तो उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) के जाप से खुलता है। ऐसा कह कर परमेश्वर कबीर जी ने सत्यनाम (दो मन्त्रों के नाम) का जाप किया। तुरन्त ही सामने वाला द्वार (ब्रह्मरन्द्र) खुल गया। परमेश्वर कबीर जी अपने साथ स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को लेकर उस ब्रह्मरन्द्र में प्रवेश कर गए। पश्चात् वह द्वार तुरन्त बन्द हो गया। उस द्वार से निकल कर लम्बा रास्ता तय किया ब्रह्मलोक में गए आगे फिर तीन रास्ते हैं। बाई ओर एक रास्ता महास्वर्ग में जाता है। प्राणियों को धोखा देने के लिए उस महास्वर्ग में नकली (क्नचसपबंजम) सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अनामी लोकों की रचना काल ब्रह्म ने अपनी पत्नी दुर्गा (आद्यमाया) से करवा रखी है। उन सर्व नकली लोकों को दिखा कर वापस आए। दाई और सप्तपुरी, ध्रुव लोक आदि हैं। सामने वाला द्वार वहाँ जाता है जहाँ पर गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म अपनी योग माया से छुपा रहता है। वहाँ तीन स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान क्षेत्रा है। जिसमें काल ब्रह्म पाँच मुखी ब्रह्मा रूप बनाकर तथा दुर्गा (प्रकृति) देवी सावित्राी रूप बनाकर पति-पत्नी रूप में साकार रूप में रहते हैं। उस समय जिस पुत्रा का जन्म होता है वह रजोगुण युक्त होता है। उसका नाम ब्रह्मा रख देता है उस बालक को युवा होने तक अचेत रखकर परवरिश करते हैं। युवा होने पर काल ब्रह्म स्वयं विष्णु रूप धारण करके अपनी नाभी से कमल का फूल प्रकट करता है। उस कमल के फूल पर युवा अवस्था प्राप्त होने पर ब्रह्मा जी को रख कर सचेत कर देता है। इसी प्रकार एक सतोगुण प्रधान क्षेत्रा बनाया है। उसमें दोनों (दुर्गा व काल ब्रह्म) महाविष्णु तथा महालक्ष्मी रूप बनाकर पति-पत्नी रूप में रहकर अन्य पुत्रा सतोगुण प्रधान उत्पन्न करते हैं। उसका नाम विष्णु रखते हैं। उसे भी युवा होने तक अचेत रखते हैं। शेष शय्या पर सचेत करते हैं। अन्य शेषनाग ब्रह्म ही अपनी शक्ति से उत्पन्न करता है। इसी प्रकार एक तमोगुण प्रधान क्षेत्रा बनाया है। उस में वे दोनों (दुर्गा तथा काल ब्रह्म) महाशिव तथा महादेवी रूप बनाकर पति-पत्नी व्यवहार से तमोगुण प्रधान पुत्रा उत्पन्न करते हैं। उसका नाम शिव रखते हैं। उसे भी युवा अवस्था प्राप्त होने तक अचेत रखते हैं। युवा होने पर तीनों को सचेत करके इनका विवाह, प्रकृति (दुर्गा) द्वारा उत्पन्न तीनों लड़कियों से करते हैं। इस प्रकार यह काल ब्रह्म अपना सृष्टि चक्र चलाता है।

परमेश्वर कबीर जी ने स्वामी रामानन्द जी को वह रास्ता दिखाया जो ग्यारहवां द्वार है। इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में फिर तीन रास्ते हैं। बाईं ओर फिर नकली सतलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अनामी लोक की रचना की हुई है। दाई ओर बारह भक्तों का निवास स्थान बनाया है, जिनको अपना ज्ञान प्रचारक बनाकर जनता को शास्त्राविरूद्ध ज्ञान पर आधारित करवाता है। सामने वाला द्वार तप्त शिला की ओर जाता है। जहाँ पर यह काल ब्रह्म एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को तपाकर उनसे मैल निकाल कर खाता है। काल ब्रह्म के उस लोक के ऊपर एक द्वार है जो परब्रह्म (अक्षर पुरूष) के सात संख ब्रह्मण्डों में खुलता है जो इक्कीसवें ब्रह्माण्ड की ओर जाता है। परब्रह्म के ब्रह्मण्डों के अन्तिम सिरे पर एक द्वार है जो सत्यपुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) के लोक सत्यलोक की भंवर गुफा में खुलता है जो बारहवां द्वार है। फिर आगे सत्यलोक है जो वास्तविक सत्यलोक है। सत्यलोक में पूर्ण परमात्मा कबीर जी अन्य तेजोमय मानव सदृश शरीर में एक गुबन्द (गुम्मज) में एक ऊँचे सिंहासन पर विराजमान हैं। वहाँ सत्यलोक की सर्व वस्तुएँ तथा सत्यलोक वासी सफेद प्रकाश युक्त हैं। सत्यपुरूष के शरीर का प्रकाश अत्यधिक सफेद है। सत्यपुरूष के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश एक लाख सूर्यों तथा इतने ही चन्द्रमाओं के मिलेजुले प्रकाश से भी अधिक है।

परमेश्वर कबीर जी स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को साथ लेकर सत्यलोक में गए। वहाँ सर्व आत्माओं का भी मानव सदृश शरीर है। उनके शरीर का भी सफेद प्रकाश है। परन्तु सत्यलोक निवासियों के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान है। बालक रूपधारी कविर्देव ने अपने ही अन्य स्वरूप पर चंवर किया। जो स्वरूप अत्यधिक तेजोमय था तथा सिंहासन पर एक सफेद गुबन्द में विराज मान था। स्वामी रामानन्द जी ने सोचा कि पूर्ण परमात्मा तो यह है जो तेजोमय शरीर युक्त है। यह बाल रूपधारी आत्मा कबीर यहाँ का अनुचर अर्थात् सेवक होगा। स्वामी रामानन्द जी ने इतना विचार ही किया था। उसी समय सिंहासन पर विराजमान तेजोमय शरीर युक्त परमात्मा सिंहासन त्यागकर खड़ा हो गया तथा बालक कबीर जी को सिंहासन पर बैठने के लिए प्रार्थना की नीचे से रामानन्द जी के साथ गया बालक कबीर जी उस सिंहासन पर विराजमान हो गए तथा वह तेजोमय शरीर धारी प्रभु बालक के सिर पर श्रद्धा से चंवर करने लगा। रामानन्द जी ने सोचा यह परमात्मा इस बच्चे पर चंवर करने लगा। यह बालक यहां का नौकर (सेवक) नहीं हो सकता। इतने में तेजोमय शरीर वाला परमात्मा उस बालक कबीर जी के शरीर में समा गया। बालक कबीर जी का शरीर उसी प्रकार उतने ही प्रकाश युक्त हो गया जितना पहले सिंहासन पर बैठे पुरूष (परमेश्वर) का था।

वाणी नं. 555-567 का सरलार्थ:– इतनी लीला करके स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को वापस शरीर में भेज दिया। महर्षि रामानन्द जी ने आँखे खोल कर देखा तो बालक रूपधारी परमेश्वर कबीर जी को सामने भी बैठा पाया। महर्षि रामानन्द जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि यह बालक कबीर जी ही परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् वासुदेव (कुल का मालिक) है। दोनों स्थानों (ऊपर सत्यलोक में तथा नीचे पृथ्वी लोक में) पर स्वयं ही लीला कर रहा है। यही परम दिव्य पुरूष अर्थात् आदि पुरूष है। सत्यलोक में जहाँ पर यह परमात्मा मूल रूप में निवास करता है वह सनातन परमधाम है। परमेश्वर कबीर जी ने इसी प्रकार सन्त गरीबदास जी महाराज छुड़ानी (हरयाणा) वाले को सर्व ब्रह्मण्डों को प्रत्यक्ष दिखाया था। उनका ज्ञान योग खोल दिया था तथा परमेश्वर ने गरीबदास जी महाराज को स्वामी रामानन्द जी के विषय में बताया था कि किस प्रकार मैंने स्वामी जी को शरण में लिया था। महाराज गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में उल्लेख किया है।

तहाँ वहाँ चित चक्रित भया, देखि फजल दरबार। गरीबदास सिजदा किया, हम पाये दीदार।।
बोलत रामानन्द जी सुन कबिर करतार। गरीबदास सब रूप में तुमही बोलनहार।।
दोहु ठोर है एक तू, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणें उतरे हो मग जोय।।
तुम साहेब तुम सन्त हो तुम सतगुरु तुम हंस। गरीबदास तुम रूप बिन और न दूजा अंस।।
तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि भर्म कर्म किये नाश। गरीबदास निज ब्रह्म तुम, हमरै दृढ विश्वास।।
सुन बे सुन से तुम परे, ऊरै से हमरे तीर। गरीबदास सरबंग में, अविगत पुरूष कबीर।।
कोटि-2 सिजदा किए, कोटि-2 प्रणाम। गरीबदास अनहद अधर, हम परसे तुम धाम।।
बोले रामानन्द जी, सुनों कबीर सुभान। गरीबदास मुक्ता भये, उधरे पिण्ड अरू प्राण।।

उपरोक्त वाणी का भावार्थ:– सत्यलोक में तथा काशी नगर में पृथ्वी पर दोनों स्थानों पर परमात्मा कबीर जी को देख कर स्वामी रामानन्द जी ने कहा है कबीर परमात्मा आप दोनों स्थानों पर लीला कर रहे हो। आप ही निज ब्रह्म अर्थात् गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरूष अर्थात् वास्तविक परमेश्वर तो क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) तथा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) से अन्य ही है। वही परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है वह परम अक्षर ब्रह्म आप ही हैं। आप ही की शक्ति से सर्व प्राणी गति कर रहे हैं। मैंने आप का वह सनातन परम धाम आँखों देखा है तथा वास्तविक अनहद धुन तो ऊपर सत्यलोक में है। ऐसा कह कर स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर के चरणों में कोटि-2 प्रणाम किया तथा कहा आप परमेश्वर हो, आप ही सतगुरु तथा आप ही तत्त्वदर्शी सन्त हो आप ही हंस अर्थात् नीर-क्षीर को भिन्न-2 करने वाले सच्चे भक्त के गुणों युक्त हो। कबीर भक्त नाम से यहाँ पर प्रसिद्ध हो वास्तव में आप परमात्मा हो। मैं आपका भक्त आप मेरे गुरु जी। परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे स्वामी जी ! गुरु जी तो आप ही रहो। मैं आपका शिष्य हूँ। यह गुरु परम्परा बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है। यदि आप मेरे गुरु जी रूप में नहीं रहोगे तो भविष्य में सन्त व भक्त कहा करेंगे कि गुरु बनाने की कोई अवश्यकता नहीं है। सीधा ही परमात्मा से ही सम्पर्क करो। ‘‘कबीर’’ ने भी गुरु नहीं बनाया था।

हे स्वामी जी! काल प्रेरित व्यक्ति ऐसी-2 बातें बना कर श्रद्धालुओं को भक्ति की दिशा से भ्रष्ट किया करेंगे तथा काल के जाल में फाँसे रखेंगे। इसलिए संसार की दृष्टि में आप मेरे गुरु जी की भूमिका कीजिये तथा वास्तव में जो साधना की विधि मैं बताऊँ आप वैसे भक्ति कीजिए। स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर जी की बात को स्वीकार किया। कबीर परमेश्वर जी एक रूप में स्वामी रामानन्द जी को तत्त्वज्ञान सुना रहे थे तथा अन्य रूप धारण करके कुछ ही समय उपरान्त अपने घर पर आ गए। क्योंकि वहाँ नीरू तथा नीमा अति चिन्तित थे। बच्चे को सकुशल घर लौट आने पर नीरू तथा नीमा ने परमेश्वर का शुक्रिया किया। अपने बच्चे कबीर को सीने से लगा कर नीमा रोने लगी तथा बच्चे को अपने पति नीरू के पास ले गई। नीरू ने भी बच्चे कबीर से प्यार किया। नीरू ने पूछा बेटा! आपको उन ब्राह्मणों ने मारा तो नहीं? कबीर जी बोले नहीं पिता जी! स्वामी रामानन्द जी बहुत अच्छे हैं। मैंने उनको गुरु बना लिया है। उन्होंने मुझको सर्व ब्राह्मण समाज के समक्ष सीने से लगा कर कहा यह मेरा शिष्य है। आज से मैं सर्व हिन्दू समाज के सर्व जातियों के व्यक्तियों को शिष्य बनाया करूँगा। माता-पिता (नीरू तथा नीमा) अति प्रसन्न हुए तथा घर के कार्य में व्यस्त हो गए।

स्वामी रामानन्द जी ने कहा हे कबीर जी! हम सर्व की बुद्धि पर पत्थर पड़े थे आपने ही अज्ञान रूपी पत्थरों को हटाया है। बड़े पुण्यकर्मों से आपका दर्शन सुलभ हुआ है। (यह शब्द कबीर सागर में अध्याय अगम निगम बोध के पृष्ठ 38 पर लिखा है।)

मेरा नाम कबीरा हूँ जगत गुरू जाहिरा। (टेक)
तीन लोक में यश है मेरा, त्रिकुटी है अस्थाना। पाँच-तीन हम ही ने किन्हें, जातें रचा जिहाना।।
गगन मण्डल में बासा मेरा, नौवें कमल प्रमाना। ब्रह्म बीज हम ही से आया, बनी जो मूर्ति नाना।।
संखो लहर मेहर की उपजैं, बाजै अनहद बाजा। गुप्त भेद वाही को देंगे, शरण हमरी आजा।।
भव बंधन से लेऊँ छुड़ाई, निर्मल करूं शरीरा। सुर नर मुनि कोई भेद न पावै, पावै संत गंभीरा।।
बेद-कतेब में भेद ना पूरा, काल जाल जंजाला। कह कबीर सुनो गुरू रामानन्द, अमर ज्ञान उजाला।।