parakh-ka-ang-123-141

पारख का अंग (123-141) | शंकर जी की कथा

वाणी नं. 123-125:-

गरीब, अधरि सिंहासन गगनि में, बौहरंगी बरियाम। जाका नाम कबीर है, सारे सब के काम।।123।।
गरीब,पड़ाधनीसे काम है,प्रहलाद भगतिकूंबूझि। नरसिंहउतर्याअर्शसैं,किन्हैंनसमझीगूझि।।124।।
गरीब, नर मगेश आकार होय, कीन्ही संत सहाय। बालक वेदन जगतगुरु, जानत है सब माय।।125।।

सरलार्थ:– परमात्मा कबीर जी का (अधर) ऊपर सतलोक में सिंहासन है। वह सब भक्तों के कार्य सिद्ध करता है।

प्रहलाद भक्त को धणी (परमात्मा) से काम पड़ा तो परमात्मा ने उसका कार्य सिद्ध किया। प्रहलाद भक्त से पता करो कि कैसी अनहोनी परमात्मा ने की थी। परमात्मा समर्थ कबीर (अर्श) आकाश से उतरा था। हिरण्यकशिपु को मारा था।

(नर) मानव (मृगेश) सिंह रूप बनाकर संत प्रहलाद की सहायता की थी। जैसे बच्चा भूखा-प्यासा होता है तो उसकी (बेदन) पीड़ा (कष्ट) को माता जानती है। दूध-जल पिलाती है। ऐसे जगतगुरू अपने शिष्य के कष्ट को जानता है। अपने आप कष्ट निवारण कर देता है।

वाणी नं. 126-133:-

गरीब, इस मौले के मुल्क में, दोनौं दीन हमार। एक बामे एक दाहिनै, बीच बसै करतार।।126।।
गरीब, करता आप कबीर है, अबिनाशी बड़ अल्लाह। राम रहीम करीम है, कीजो सुरति निगाह।।127।।
गरीब, नर रूप साहिब धनी, बसै सकल कै मांहि। अनंत कोटि ब्रह्मंड में, देखौ सबहीं ठांहि।।128।।
गरीब, घट मठ महतत्त्व में बसै, अचरा चर ल्यौलीन। च्यारि खानि में खेलता, औह अलह बेदीन।।129।।
गरीब, कौन गडै कौन फूकिये, च्यार्यौं दाग दगंत। औह इन में आया नहीं, पूरण ब्रह्म बसंत।।130।।
गरीब, मात पिता जाकै नहीं, नहीं जन्म प्रमाण। योह तो पूरण ब्रह्म है, करता हंस अमान।।131।।
गरीब, आतम और प्रमात्मा, एकै नूर जहूर। बिच कर झ्यांई कर्म की, तातैं कहिये दूर।।132।।
गरीब, परमात्म पूरण ब्रह्म है, आत्म जीव धर्म। कल्प रूप कलि में पड्या, जासैं लागे कर्म।।133।।

सरलार्थ:– परमात्मा के सब जीव हैं। दोनों धर्म (हिन्दू तथा मुसलमान) हमारे हैं। एक परमात्मा के दायीं ओर जानो, दूसरा बायीं ओर। दोनों के मध्य में परमात्मा निवास करता है। (126)

कबीर जी स्वयं ही सृष्टि के रचयिता हैं। अविनाशी (बड़) बड़ा (अल्लाह) परमात्मा हैं। राम कहो, रहीम कहो। (करीम) दयालु हैं। (किजो सुरति निगाह) ध्यान से देखो यानि विचार करो। (127)

परमात्मा (नर) मानव रूप में हैं। सबका (धनी) मालिक सर्वव्यापक है। (128-129)

कोई तो मुर्दे को पृथ्वी में गाड़ देता है। कब्र बनाता है। कोई अग्नि में जला देता है। यह सब मुझे (कबीर परमेश्वर जी को) अच्छा नहीं लगता। पूर्ण मुक्ति प्राप्त करो। वह तो (परमात्मा) चारों दागों में नहीं आता। एक जमीन में गाड़ते हैं। एक धर्म अग्नि में जला देता है। एक जल प्रवाह कर देता है। एक जंगल में पक्षियों के खाने के लिए डाल देता है। ये चार दाग कहे जाते हैं। परंतु परमात्मा कबीर जी किसी दाग में नहीं आया अर्थात् अजर-अमर है कबीर जी। (130)

परमात्मा के कोई माता-पिता नहीं हैं। उनके जन्म का कहीं पर प्रमाण नहीं है। कबीर परमात्मा पूर्ण ब्रह्म भक्तों को (अमान) शांति प्रदान करता है। (131)

आत्मा तथा परमात्मा की एक जैसी छवि है। बीच में पाप कर्मों का (झांई) मैल है। इसलिए परमात्मा जीव से दूर कहा जाता है। (132)

परमात्मा तो पूर्ण ब्रह्म बताया है। आत्मा जीव धर्म से जन्मती-मरती है। इसलिए जीव धर्म में है। (133)

वाणी नं. 134-141:-

गरीब, कर्म लगे शिब बिष्णु कै, भरमें तीनौं देव। ब्रह्मा जुग छतीस लग, कछू न पाया भेव।।134।।
गरीब, शिब कूं ऐसा बर दिया, अपनेही परि आय। भागि फिरे तिहूं लोक में, भस्मागिर लिये ताय।।135।।
गरीब, बिष्णु रूप धरि छल किया, मारे भसमां भूत। रूप मोहिनी धरि लिया, बेगि सिंहारे दूत।।136।।
गरीब, शिब कूं बिंदु जराईयां, कंदर्प कीया नांस। फेरि बौहरि प्रकाशियां, ऐसी मनकी बांस।।137।।
गरीब, लाख लाख जुग तप किया, शिब कंदर्प कै हेत। काया माया छाड़ि करि, ध्यान कंवल शिब श्वेत।।138।।
गरीब, फूक्या बिंदु बिधान सैं, बौहर न ऊगै बीज। कला बिश्वंभर नाथ की, कहां छिपाऊं रीझ।।139।।
गरीब, पारबती पत्नी पलक परि, त्रिलोकी का रूप। ऐसी पत्नी छाड़ि करि, कहां चले शिब भूप।।140।।
गरीब, रूप मोहनी मोहिया, शिब से सुमरथ देव। नारद मुनि से को गिनै, मरकट रूप धरेव।।141।।

वाणी नं. 134-136 का सरलार्थ:- सूक्ष्म मन की मार सर्व जीवों पर गिरती है। सब एक समान सूक्ष्म मन के सामने विवश हैं। जब तक पूर्ण सतगुरू नहीं मिलता, तब तक सूक्ष्म मन के सामने विवेक कार्य नहीं करता। हिन्दू धर्म के श्रद्धालु श्री शिव जी को तो सक्षम मानते हैं। सब देवों का देव यानि महादेव कहते हैं। सूक्ष्म मन के कारण वे भी मार खा गए।

प्रमाण:– जिस समय भस्मासुर ने तप करके भस्मकण्डा श्री शिव जी से वचनबद्ध करके ले लिया था। तब भस्मासुर ने शिव से कहा कि मैं तेरे को भस्म करूँगा। तेरे को मारकर तेरी पत्नी पार्वती को अपनी पत्नी बनाऊँगा। तब भय के कारण श्री शिव जी भाग लिए। भस्मासुर में भी सिद्धियां थी। वह भी साथ दौड़ा। शिवजी भय के कारण अधिक गति से दौड़ा तथा एक मोड़ पर मुड़ गया। उसी मोड़ पर एक सुंदर स्त्री खड़ी थी। उसने भस्मासुर की ओर अश्लील दृष्टि से देखा और बोली कि शिव तो आसपास रूकेगा नहीं, जाने दे। आजा मेरे साथ मौज-मस्ती कर ले। मैं तेरा ही इंतजार कर रही हूँ। तुम पूर्ण मर्द हो, शक्तिशाली हो। भस्मासुर पर काम वासना का भूत सवार था ही, उसे और क्या चाहिए था? उसी समय रूक गया। युवती ने उसका हाथ पकड़कर नचाया। गंडहथ नृत्य करते समय हाथ सिर पर करना होता है। भस्मासुर का भस्मकण्डे वाला हाथ भस्मासुर के सिर पर करने को युवती ने कहा कि इस नृत्य में दायां हाथ सिर पर करते हैं। यह नृत्य पूरा करके मिलन करेंगे। ज्यों ही भस्मासुर ने भस्मकण्डे वाला हाथ सिर पर किया तो युवती ने बोला भस्म। उसी समय भस्मासुर जलकर नष्ट हो गया। वह युवती भगवान स्वयं ही शिव शंकर की जान की रक्षा के लिए बने थे।, परंतु महिमा विष्णु को दी। विष्णु रूप में प्रकट होकर परमात्मा उस भस्मकण्डे को लेकर श्री शिव के सामने खडे़ हो गए तथा शिव से कहा हे शिव! इतने तेज क्यों दौड़ रहे हो? शिव ने सब बात बताई कि आप भी दौड़ जाओ। भस्मासुर मुझे मारने को मेरे पीछे लगा है। तब विष्णु रूपधारी परमात्मा ने कहा कि देख! आपका भस्मकण्डा मेरे पास है। शिव ने तुरंत पहचान लिया और रूककर पूछा कि यह आपको कैसे मिला? विश्वास नहीं हो रहा था। भगवान ने कहा यह न पूछ। अपना कण्डा लो और घर को जाओ। परंतु शिव को विश्वास नहीं हो रहा था कि उग्र रूप धारण किए भस्मासुर से कैसे ये भस्मकण्डा लिया। जिद कर ली। तब परमात्मा ने कहा कि फिर बताऊँगा। इतना कहकर अंतध्र्यान (अदृश्य) हो गए। शिव कुछ आगे गया तो देखा कि एक अति सुंदर युवती अर्धनग्न शरीर में मस्ती से एक बाग में टहल रही थी। दूर तक कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। शिवजी ने इधर-उधर देखा और लड़की की ओर मिलन के उद्देश्य से चले। लड़की शिव को देखकर मुस्कुराकर आगे को कुछ तेज चाल से चटक-मटककर चल पड़ी। शिव ने बड़ी मसक्कत करने के बाद लड़की का हाथ पकड़ा। तब तक शिव का वीर्यपतन हो चुका था। उसी समय विष्णु रूप में परमात्मा खड़े थे और कहा कि मैंने भस्मासुर को इस प्रकार वश में करके गंडहथ नाच नचाकर भस्म किया है।

संत गरीबदास जी ने सूक्ष्म मन की शक्ति बताई है कि शिवजी की पत्नी पार्वती तीन लोक में अति सुंदर स्त्रिायों में से एक थी। अपनी पत्नी को छोड़कर शिवजी ने चंचल माया यानि बद नारी से मिलन (sex) करने के लिए उसे पकड़ लिया। यह सूक्ष्म मन की उत्पत्ति का उत्पात है।

वाणी नं. 137-141 का सरलार्थ:-

इन्हीं काल प्रेरित आत्माओं (देवियों) ने ब्रह्मादिक (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को भी मोहित कर लिया यानि अपने जाल में फँसा रखा है। शेष यानि अन्य बचे हुए गणेश जी भी स्त्री से संग में रहे। गणेश जी के दो पुत्र थे। एक का नाम शुभम्=शुभ, दूसरे लाभम्=लाभ था। शंकर (शिव जी) की अडिग (विचलित न होने वाली) समाधि (आंतरिक ध्यान) लगी थी जो हमेशा (सदा) ध्यान में रहते हैं। उनको भी मोहिनी अप्सरा (स्वर्ग की देवी) ने मोहित करके डगमग कर दिया था।

कथा:- शंकर जी का मोहिनी स्त्री के रूप पर मोहित होना

जिस समय दक्ष की बेटी यानि उमा (शंकर जी की पत्नी) ने श्री रामचन्द्र जी की बनवास में सीता रूप बनाकर परीक्षा ली थी। श्री शिव जी ऐसा न करने को कहकर घर से बाहर चले गए थे। सीता जी का अपहरण होने के पश्चात् श्रीराम जी अपनी पत्नी के वियोग में विलाप कर रहे थे तो उनको सामान्य मानव जानकर उमा जी ने शंकर भगवान की उस बात पर विश्वास नहीं हुआ कि ये विष्णु जी ही पृथ्वी पर लीला कर रहे हैं। जब उमा जी सीता जी का रूप बनाकर श्री राम जी के पास गई तो वे बोले, हे दक्ष पुत्री माया! भगवान शंकर को कहाँ छोड़ आई। इस बात को श्री राम जी के मुख से सुनकर उमा जी लज्जित हुई और अपने निवास पर आई। शंकर जी की आत्मा में प्रेरणा हुई कि उमा ने परीक्षा ली है। शंकर जी ने विश्वास के साथ कहा कि परीक्षा ले आई। उमा जी ने कुछ संकोच करके भय के साथ कहा कि परीक्षा नहीं ली अविनाशी। शंकर जी ने सती जी को हृदय से त्याग दिया था। पत्नी वाला कर्म भी बंद कर दिया। बोलना भी कम कर दिया तो सती जी अपने घर राजा दक्ष के पास चली गई।

राजा दक्ष ने उसका आदर नहीं किया क्योंकि उसने शिव जी के साथ विवाह पिता की इच्छा के विरूद्ध किया था। राजा दक्ष ने हवन कर रखा था। हवन कुण्ड में छलाँग लगाकर सती जी ने प्राणान्त कर दिया था। शंकर जी को पता चला तो अपनी ससुराल आए। राजा दक्ष का सिर काटा, फिर उस पर बकरे का सिर लगाया। अपनी पत्नी के कंकाल को उठाकर दस हजार वर्ष तक उमा-उमा करते हुए पागलों की तरह फिरते रहे। एक दिन भगवान विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से उस कंकाल को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। बावन (52) टुकड़े हो गए जो कहीं-कहीं पर गिरे। जहाँ पर धड़ गिरा, वहाँ पर वैष्णव देवी मंदिर बना। जहाँ पर आँखें गिरी, वहाँ पर नैना देवी मंदिर बना। जहाँ पर जीभ गिरी, वहाँ पर ज्वाला जी का मंदिर बना तथा पर्वत से अग्नि की लपट निकलने लगी। इस प्रकार बावन स्थानों पर यादगार के लिए मंदिर बनाए गए जो बावन द्वारे कहे जाते हैं। तब शंकर जी सचेत हुए तथा अपनी दुर्गति का कारण कामदेव (ैमग) को माना। कामदेव वश हो जाए तो न स्त्री की आवश्यकता हो और न ऐसी परेशानी हो। यह विचार करके हजारों वर्ष काम (sex) का दमन करने के उद्देश्य से तप किया। एक दिन कामदेव उनके निकट आया और शंकर जी की दृष्टि से भस्म हो गया। शंकर जी को अपनी सफलता पर असीम प्रसन्नता हुई। जो भी देव उनके पास आता था तो उससे कहते थे कि मैंने कामदेव को भस्म कर दिया है यानि काम विषय पर विजय प्राप्त कर ली है। मैं कभी भी किसी सुंदरी से प्रभावित नहीं हो सकता। अन्य जो विवाह किए हुए हैं, वे ऊपर से सुखी नजर आते हैं, अंदर से महादुःखी रहते हैं। उनको सदा अपनी पत्नी की रखवाली, समय पर घर पर न आने से डाँटें खाना आदि-आदि परेशानियां सदा बनी रहती हैं। मैंने यह दुःख निकट से देखा है। अब न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।

काल ब्रह्म को चिंता बनी कि यदि सब इस प्रकार स्त्री से घृणा करेंगे तो संसार का अंत हो जाएगा। मेरे लिए एक लाख मानव का आहार कहाँ से आएगा? इस उद्देश्य से नारद जी को प्रेरित किया। एक दिन नारद मुनि जी आए। उनके सामने भी अपनी कामदेव पर विजय की कथा सुनाई। नारद जी ने भगवान विष्णु को यथावत सुनाई। श्री विष्णु जी को काल ब्रह्म ने प्रेरणा की। भाई की परीक्षा करनी चाहिए कि ये कितने खरे हैं। काल ब्रह्म की प्रेरणा से एक दिन शिव जी विष्णु जी के घर के आँगन में आकर बैठ गए। सामने बहुत बड़ा फलदार वृक्षों का बाग था। भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल खिले थे। बसंत जैसा मौसम था। श्री विष्णु जी, शिव जी के पास बैठ गए। कुशलमंगल जाना। फिर विष्णु जी ने पूछा, सुना है कि आपने काम पर विजय प्राप्ति कर ली है। शिव जी बोले, हाँ, मैंने कामदेव का नाश कर दिया है। कुछ देर बाद शिव जी के मन में पे्ररणा हुई कि भगवान मैंने सुना है कि सागर मंथन के समय आप जी ने मोहिनी रूप बनाकर राक्षसों को आकर्षित किया था। आप उस रूप में कैसे लग रहे थे? मैं देखना चाहता हूँ। पहले तो बहुत बार विष्णु जी ने मना किया, परंतु शिव जी के हठ के सामने स्वीकार किया और कहा कि कभी फिर आना। आज मुझे किसी आवश्यक कार्य से कहीं जाना है। यह कहकर विष्णु जी अपने महल में चले गए। शिव जी ने कहा कि जब तक आप वह रूप नहीं दिखाओगे, मैं भी जाने वाला नहीं हूँ। कुछ ही समय के बाद शिव जी की दृष्टि बाग के एक दूर वाले कोने में एक अपसरा पर पड़ी जो सुन्दरता का सूर्य थी। इधर-उधर देखकर शिव जी उसकी ओर चले पड़े, ज्यों-ज्यों निकट गए तो वह सुंदरी अधिक सुंदर लगने लगी और वह अर्धनग्न वस्त्रा पहने थी। कभी गुप्तांग वस्त्र से ढ़क जाता तो कभी हवा के झोंके से आधा हट जाता। सुंदरी ऐसे भाव दिखा रही थी कि जैसे उसको कोई नहीं देख रहा। जब शिव जी को निकट देखा तो शर्मशार होकर तेज चाल से चल पड़ी। शिव जी ने भी गति बढ़ा दी। बड़े परिश्रम के पश्चात् तथा घने वृक्षों के बीच मोहिनी का हाथ पकड़ पाए। तब तक शिव जी का शुक्रपात हो चुका था। उसी समय सुंदरी वाला स्वरूप श्री विष्णु रूप था। भगवान विष्णु जी शिव जी की दशा देखकर मुस्काए तथा कहा कि ऐसे उन राक्षसों से अमृत छीनकर लाया था। वे राक्षस ऐसे मोहित हुए थे जैसे मेरा छोटा भाई कामजीत अब काम पराजित हो गया। शिव जी ने उसके पश्चात् हिमालय राजा की बेटी पार्वती से अंतिम बार विवाह किया। पार्वती वाली आत्मा वही है जो सती जी थी। पार्वती रूप में अमरनाथ स्थान पर अमर मंत्र शिव जी से प्राप्त करके कुछ समय के लिए अमर हुई है।

इस प्रकार वाणी में कहा है कि शंकर जी की समाधि तो अडिग (न डिगने वाली) थी जैसा पौराणिक मानते हैं। वह भी मोहे गए। माया के वश हो गए।

वाणी नं. 140 में बताया है कि भगवान शिव की पत्नी पार्वती तीनों लोकों में सबसे सुंदर स्त्रिायांे में से एक है। शिव राजा ऐसी सुंदर पत्नी को छोड़ मोहिनी स्त्री के पीछे चल पड़े। पहले अठासी हजार वर्ष तप किया। फिर लाख वर्ष तप किया काम (sex) पर विजय पाने के लिए और भर्म भी था कि मैनें काम जीत लिया। फिर हार गया।